________________
श्रीभुवनजानु केवलीनो रास.
१
"
समुदश्व, योनिपोषणमेवच, प्रसादो नूनुजां चैव सद्योघ्नंति दरितां ॥ १ ॥ पोत पूरी तव तेह ॥ पयोधिमांहि तृ ० ॥ १२ ॥
बेह ॥ ॥ दोहा ॥
॥ जलधिमां जातां थकां घटा करी घन घोर ॥ अंबर मंगल उन्हयो, चमक वीज चिहुं र ॥ १ ॥ कल्पांतकाल तणी परें, पवन वाया प्रति कूल ॥ दधि तव तिहां कबल्यो, जलधर प्रगट्या स्थूल ॥ २ ॥ जल मो जाना जोरथी, नाव थयां शतखंग ॥ वैश्रमण तव पामि, फलक तणो एक खं ॥ ३ ॥ चपल कलोलें जलचरें, याकुल यतो अपार ॥ तरंग त सुपसायथी, पाम्यो जलधी पार ॥ 8 ॥ सर्व गाथा ॥ ४२६ ॥ ॥ ढाल पचीशमी ॥
उदय वदे चोवीशमी ढालमां रे, प्रेरियो रे, चाल्यो धरि चूंप
॥ मालीकेरे बागमें दोय नारंग पकेरे लो यहो ॥ दो० ॥ ए देशी ॥ नाम पण निज देशनुं, न जलाए जे देशें लो, अहो न जाए जे देशें लो ॥ रा जेसर सुण रसरागीरे लो, स्वजननी न जड़े वारता ॥ पड्यो तेह प्रदेशें लो ॥ ० ॥ १ ॥ दुःखनरें तिहां रेहेतां थकां, रोगें तक साधी लो ॥ अ० ॥ दग्ध उपर फोटकपरें, वेदना बहु वाधी लो ॥ ० ॥ २ ॥ ज्वर शिर रोगशूलादिकें, महारोगें पीड्यो लो ॥ श्र० ॥ सूने देवकुलें सुए, ना ਕਰੇਂ
"
बहु नीड्यो जो ॥ ० ॥ ० ॥ ३ ॥ बेठकें हिंमे बेसतो, पडे प्रपाय लो ॥ ० ॥ मठ मढ़ियें लोटतो फिरे, आक्रंदे सराय जो ॥ ० ॥ रा० ॥ ४ ॥ नमतो रहे घर घरें, बोले दीन वाली लो ॥ ० ॥ पथ्य औषध याचे वली, पाये कोइ न पाली लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ५ ॥ इम दुःखें दिन गालतां केते एक कालें तो ॥ ०॥ रोग रहित तव ते थयो, तृमाएं ते ता जें जो ॥ ० ॥ ० ॥ ६ ॥ उदेस्यो तव उद्यमें, लोनें करी लागे जो ॥ ० ॥ संपद काई न संनवी, तोय पाटो न जागे लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ७॥ किहां एक नृप जूंटी लिये, धूते धूरत किहां रे लो ॥ ० ॥ चोर क्यारे चोरे वली, दहे अनि कोठारे लो ॥ ० ॥ रा० ॥ ८ ॥ इम ते टन करी बहु, नानाविधदेशें लो ॥ ० ॥ विषमथलें विचरे वली, वेठे विपद विशेषें जो ॥ ० ॥ ० ॥ ए ॥ वृश्चिक व्याल व्यंतरतणा, परानव सहे तो लो ॥ ० ॥ धर खणतो धन लालचें, हींमे गह गहितो तो ॥ श्र०