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जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो.
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पतिने नावे जाय ॥ सुपन पाठक तेडी तदा, परमारथ तस पूढे राय ॥ स० ॥ ७ ॥ तनुज होसे तुम ते कहे प्रभु, ए उत्तम सुपन पसाय ॥ कु लदीवो कुल केसरी, खखं भूमंमल जोगी राय ॥ स० ॥ ८ ॥ तव तूगे ये नृप तेहने पारितोषिक दान प्रचूर | विदाय करुया संतोषने, ग्रम हीपी आनंद कर ॥ स० ॥ ए ॥ सुखें गर्न ते निर्वहे, देवपूजा दानादि नेक || मोहोला जे जे कपजे, पूरे नृप ते एके एक ॥ स० ॥ १० ॥ प्रस वेसा पूरे दिनें, पुत्र रतन पुंज समान ॥ यावासने उद्योततो, तरणि परें तपे तेजवान ॥ ० ॥ ११ ॥ हरखें हीए दुलरावती, महोटो मुक्ताफलनो हार ॥ उल्लसते नरें दोडीने, चंडू धारा दासीयें ते वार ॥ स० ॥ १२ ॥ वसुधापतिने वधामणी, तनु जन्म्यानी दीधी तिरों जाय ॥ पहोचे सात पेढी लगें, दान तेहवं तस दीधुं राय ॥ ० ॥ १३ ॥ नगरमांहि ते नव नवा, मादलना थाए धोंकार ॥ श्राणंद रंग वधामणां, उत्सव तिहां थाए अपार ॥ स० ॥ १४ ॥ कनकादिक बहु दान घे, बंदीवानना बोडे बंध ॥ महापू जा जिन मंदिरें, नेहसुं रचावे नरिंद || स० ॥ १५ ॥ खान पानने दानसुं, गीत गान प्रति तान मान ॥ राजाने पुरजन सर्वे, मुदित कस्यो देई बहु मान ॥ स० ॥ १६ ॥ मानने माप वधारियां, राज कर मेव्या महाराज ॥ उदयरतन कहि ढाल ए, व्यासीमी बोली गुन साज ॥ स० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ सिद्धार्थ नामें सुनग, गणक तेडी निज गेह ॥ जनम समय निज जानो, नृप पूढे धरि नेह ॥ १ ॥ केहेवी वेला बे कहो, तव तिहां बोल्यो तेह ॥ महा राजा मन देईने, सांजलो घरी सनेह ॥ २ ॥ संवत्सर सानं द ए, शरद रितु सुखकार ॥ कार्तिक मास कल्याण कर, तिथि बे बीज न दार ॥ ३ ॥ सुरगुरुवार सोहामणो, कुछ ऋतीका वृष रास ॥ धृतियोग कौलव करण, गुन ग्रह निरीक्षत खास ॥ ४ ॥ लगन बे लख लान कर, ग्रह सर्व उच्चस्थान ॥ श्राव्या वे दोरा लहो, नई मुखी राजान ॥ ५॥ पाप ग्रह इग्यार में, जावि बे सुणो नृप । एहवी वेलाए जनमिर्च, कुमर होसे कुल रूप ॥ ६ ॥ शूर वीरने धीर व्यति, तेजस्वी जसवंत ॥ धर्मी प्रता पी महाधनी, राजें होसे तंत ॥ ७ ॥ वृष रासि ए जनमित्र, फल हवे सांजल तास ॥ जोसी कहे जोई जुगतिसुं, अवनिपति सुण उल्लास ॥ ८ ॥
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