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- जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. निराम ॥३॥ अंगज में अवतारित, सिंहरथ नामें सोय ॥ जेह सहायें तु मतणो, जीव ते अवसर जोय ॥४॥ हवे करो हर्ष वधामणां, एणे न वें ए जीव ॥ पद तुमारो पोषशे, आशक थई अतीव ॥ ५॥ पडशे नहि मोह पाशमां, पूरण पुण्य सहाय ॥ आप्यो में एहने, जेणे पातक दय जाय ॥ ६ ॥ चलव्यो केहनो नहिं चले, सदबोध सदागम लीन ॥ मुगतें जातां लगि मोहने, दलें न होसे दीन ॥ ७॥सर्व गाथा॥१४०७॥
॥ ढाल एंशीमी॥ ॥ वागा जांगी ढोल ॥ ए देशी ॥ इम सुणि आणंद पूरे, हे सखि इम सुणियाणंद पूरें॥ठी ते महा यानंद नरें॥समकित आदि सनूर, ॥हे॥ मलिने महोत्सव बहु करे ॥ १ ॥ जिने पुरनो लोक ॥हे॥ वारु करे रं ग वधामणां, शम्यो समूलो शोक ॥ हे ॥ नीरुनां ले जामसां ॥२॥ वांधे तोरण बार ॥ हे०॥ कमलें आबादित करूं। कनक कलश धरि धार ॥हे॥ सोधे सोधे सुंदरूं ॥३॥ शणगारी दट श्रेणि ॥॥ घर घर गुडी उनले ॥ बटकायो हरषेण ॥ हे ॥ राज मारग कुंकम जलें ॥४॥ मृग मदने घनसार ॥ हे० ॥ नेली चंदननें रसें ॥ रायांगण दरबार ॥ हे० ॥ बयल पुरुष गंटे तिसे ॥ ५॥ कनक रत्ननो राशि॥ हे० ॥ मन मोदें ये मांगणां, अजय दान नन्नास ॥ हे०॥ देवरावे राजा घणा ॥ ६ ॥ वागां मंगल तूर ॥ हे.॥ माननें माप वधारियां ॥ शोना वाधीसनूर ॥ हे०॥ जिन मंदिर शणगारिया ॥ ७ ॥ उदयरतन कहे एम ॥ हे० ॥ एंशीमी ए ढालमां ॥ धरमयुं धरजो प्रेम ॥ हे० ॥ मत पडो माया जालमां ॥ ७॥
॥दोहा ॥ ॥ हवे सिंहस्थ ते राज सुत, शिशुपणे पण सोय ॥ देखी नमी गुरु देवने, हिये हरखित होय ॥१॥ जनकसाथें जिन मंदिरें, जई जोतां जि नरूप ॥ स्नात्रादिक संपेखतां, आनंद लहे अनूप ॥ २॥ साधु संगें सुख ऊपजे, श्रवणे सोहाय वयण ॥ दान देतां दिल कन्नसे, निरखी रीफे न यण ॥ ३ ॥ इम पुण्योदय पोषता, लघु वयमां तिणें लाध ॥ स्वल्प दिने सघली कला, बोलतां न लहे बाध ॥४॥ विषयनी न धरे वासना, केव ल करुणाधाम ॥ साधु कन्हे श्रुत सांजले, नावे नव नाव विराम ॥५॥ रूपें रतिपति दारव्यो, यौवन पाम्यो जाम ॥ सुललित सुरपति सारिखो,