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२४३ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. तिम युं लवे नांग ॥ वि० ॥॥ इम उत्तर पडुत्तर आपता जी, वढवाडे थाव्यो त्यां पार ॥ तव बीजासुं राजकथा करे जी, विकथाएं वाही अपा र ॥ वि० ॥ ५ ते पण घरें गई थाकिने जी, तव त्रीजीसुं तेणे सराग ॥ पु रुष स्त्रीनी प्रारंजी कथा जी, ते सासरियाने नये गई नाग ॥ वि० ॥ ६ ॥ चोथीमुं चाहीने तेकरे जी, नक्त कथा तिहां नूर ॥ इम पांचमीसुं देशक थाकरे जी, आवे तव शिर परें सूर ॥ वि० ॥ ७॥ श्म आचरतां विकथा अनुदिने जी, कोई श्रावक कहे एक दिन ॥ कर जोडीने ते कामनी प्रतें जी, नई आवी देव नुवन्न ॥ वि० ॥ ॥ एक मनें त्यजिने आशातना जी, नमवू घटे नाथने पाय ॥ ते वंदनातो रहि वेगली जी, किम करो बो कर्म कथाय ॥ वि० ॥ ए॥ तव उत्तर आपे ते तेहने जी, बंधव बीजे को गम ॥ किहारे को नवि मिले केहने जी, केहने को न जाये धाम ॥ वि. ॥१०॥ प्रिय मेलो थाये ए थानकें जी, तेणे सुख दुःखनी क्षण एक ॥ पासठमी ए ढालें धर्मने कर्मनी जी, वात थाये विसराल ॥ वि०॥११॥
॥दोहा॥ ॥ उपाश्रय पण अजा तणे, सहेजे तजि व्याख्यान ॥ जे ते श्रादि सुं करे, विकथा तेह सदाय ॥ १ ॥ साधु श्रावकने श्राविका, साधवीना सु विशेष ॥ अवर्णवाद मुख कचरे, अनुदिन तेह विशेष ॥ २ ॥ तव सीखा मण ये साधवी, नई लणतर सर्व ॥ जाए ले तुफ वीसरी, जिम गुण जा ए गर्व ॥३॥ एह नवे फुःख दायिनी, केवल कष्ट निवास ॥ एहवी कथा करे गुं होय, अनर्थ दंम आवास ॥४॥ सदन जे संपत्ति तणुं, मुक्ति पुरीनुं मूल ॥ सुधासम स्वाध्याय कर, अहनिशि थई अनुकूल ॥ ५ ॥
॥ ढाल बासठमी ॥ ॥ जोसीयडो जाणे जोस विचार ॥ ए देशी ॥ मुह मरडी तव ते कहे रे, साधवी जी सुणो वात ॥ साधुजने पण सर्वथा रे, विकथा न वरजी जात ॥१॥ गुरुपीजी मलि मलि म करो मांग ॥ अांकणी ॥ न गमे मु ने पांखम ॥ गु० ॥ न तजाए अनर्थ दंग ॥ तो जीन थाए शत खंम् ॥ गु० ॥ ॥ मुहपतिएं मुख बांधिने रे, तुमे बेसो बो जेम ॥ गुण ॥ तिम मुखें मूचो देईने रे, बीजे बेसाए केम ॥ गु० ॥३॥ मुख बांधी मुनिनी प रे रे, पर दोष न वदे प्राहिं ॥ गुण॥ साधु विना संसारमां रे, क्यारे को