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अपमंश काव्य सौरभ
डॉ. कमलचन्द सोगारणी
सणुज्जीवो जीवों जैन विद्यारवानीकार्दरजी
प्रकाशक अपभंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
dain Education international
For Private & PersonalUse Only
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अपभ्रंश काव्य सौरभ (काव्य-संकलन, हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ सहित) .
डॉ. कमलचन्द सोगारणी (सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र)
संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर जनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
সাহা अपभंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन प्रतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
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0 प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी श्रीमहावीरजी-322220 (राजस्थान)
0 प्राप्तिस्थान 1. जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी 2. अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004
0 प्रथमबार, 1992
0 मूल्य
पुस्तकालय संस्करण (सजिल्द) पेपरबैक
125.00 75.00
C मुद्रक
मदरलैण्ड प्रिन्टिग प्रेस 6-7, गीता भवन, प्रादर्श नगर जयपुर-302004
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पाठ संख्या
पाठ-1
पाठ- 2
पाठ-3
पाठ-4
पाठ-5
पाठ-6
पाठ-7
पाठ-8
पाठ-9
पाठ-10
पाठ-11
पाठ-12
पाठ-13
पाठ-14
पाठ-15
पाठ-16
पाठ-17
पाठ-1
पाठ-2
पाठ-3
पाठ-4
पाठ-5
पाठ-6
पाठ-7
पाठ-8
913-9
अनुक्रमणिका
विषय
प्रकाशकीय
प्रस्तावना
काव्य-अनुवाद
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
महापुराण
महापुराण
महापुराण
जंबुसामिचरिउ
सुदंसणचरिउ
सुदंसणचरिउ
करकण्डचरिउ
touकुमारचरि
हेमचन्द्र के दोहे
परमात्मप्रकाश
पाहुदोहा
सावयधम्म दोहा
व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
संकेत सूची
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
पउमचरिउ
महापुराण
महापुराण
महापुराण
जंबूसा मिचरिउ
पृष्ठ संख्या
2-7 8-13
14-19
20-27
28-33
34-39
40-45
46-49
50-55
56-63
64-69
70-73
74-81
82-87
88-93
94-99
100-103
3-4
5-18
19-30
31-41
42-54
55-65
66-77
78-90
91-98
99-111
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पाठ संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या
पाठ-10 पाठ-11 पाठ-12 पाठ-13 पाठ-14 पाठ-15 पाठ-16 पाठ-17 परिशिष्ट-1 परिशिष्ट-2 शुद्धि पत्र सहायक पुस्तकें एवं कोश
सुदंसणचरिउ सुदंसरणचरिउ करकंडचरिउ घण्णकुमारचरिउ हेमचन्द्र के दोहे परमात्मप्रकाश पाहुडदोहा सावयधम्मदोहा कवि-परिचय काव्य-प्रसंग
112-127 128-138 139-146 147-164 165-173 174-182 183-192 193-199
1-20 21-40 41-42 43-44
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प्रकाशकीय
हमारे देश में प्राचीनकाल से ही लोकभाषाओं में साहित्य-रचना होती रही है । 'अपभ्रंश' भी एक ऐसी ही लोकभाषा/जनभाषा थी जिसमें जीवन की सभी विधाओं में पुष्कलमात्रा में साहित्य रचा गया । 8वीं से 13वीं शताब्दी तक यह सारे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा रही । अपभ्रंश साहित्य की विशालता, लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत-व्याकरण' के चतुर्थ पाद में सूत्र संख्या 329 से 446 तक स्वतन्त्ररूप से अपभ्रंश भाषा की व्याकरण-रचना की ।
अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर-भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा का अध्ययन आवश्यक है ।
अनेक कारणों से अपभ्रंश का साहित्य प्रकाशित न होने से इसकी रुचि पाठकों में न पनप सकी और इसके समुचित ज्ञान का प्रभाव बना रहा । धीरे-धीरे यह अपरिचय की प्रोट में छिप गई, इसके अध्ययन-अध्यापन की भी उचित व्यवस्था न हो सकी, परिणामतः अपभ्रंश का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर हो गया।
- अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई । अकादमी का प्रयास है-अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक-निधि के साथ साथ आधुनिक मार्य भाषाओं के स्वभाव और उनकी संभावनाएं भी स्पष्ट हो सकें।
इसके लिए अकादमी में अपभ्रंश भाषा के अध्यापन की समुचित व्यवस्था है । अका. दमी में अपभ्रंश सर्टिफिकेट कोर्स और अपभ्रंश डिप्लोमा कोर्स विधिवत् निःशुल्क चलाये जाते हैं।
अपभ्रंश भाषा सरल रूप में सीखी जा सके, इस क्रम में 'अपभ्रंश रचना सौरम' प्रकाशित की गई। उसी क्रम में 'अपभ्रंश काव्य सौरम' प्रकाशित है । इसमें अपभ्रंश काव्यों से चयनित अंश, उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ दिये गये हैं। मेरा
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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विश्वास है कि विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के लिए यह कृति उपयोगी होगी और विद्यार्थी अपभ्रंश भाषा के काव्यों का रसास्वाद कर सकेंगे।
___ इस पुस्तक के प्रकाशन में अकादमी के विद्वान एवं मुद्रण के लिए मदरलैण्ड प्रिन्टिग प्रेस, जयपुर धन्यवादाह हैं।
6 अक्टूबर, 1992 भट्टारकजी की नसियां, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302 004
डॉ. कमलचन्द सोगारणी
संयोजक जैन विद्या संस्थान समिति
ii ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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प्रस्तावना
अपभ्रंश भारतीय आर्य-परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है । इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है । स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, रइधू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं । कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊंचा रख सकती है। विद्वानों का मत है 'अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर-भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है। यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। इस तरह से राष्ट्र भाषा का मूल स्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है । यह कहना युक्तिसंगत है-"अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा और सुदृढ़ है, वे एक दूसरे की पूरक हैं । हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है ।"2 डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार-"हिन्दी साहित्य में (अपभ्रंश की) प्रायः पूरी परम्पराएं ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।" अत: राष्ट्रभाषा हिन्दीसहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपभ्रंश भाषा को सीखना-समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रखकर 'अपभ्रंश रचना सौरभ' प्रकाशित की गई थी। उसी क्रम में 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' तैयार की गई है । इसमें अपभ्रंश के विभिन्न ग्रन्थों से काव्यांशों का चयन किया गया है । उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। परिशिष्ट-1 में कवि-परिचय लिखा गया है तथा परिशिष्ट-2 में काव्यांशों के प्रसंग दे दिये गए हैं। इस तरह से अपभ्रंश भाषा सीखने के साथ-साथ काव्यों का रसास्वादन किया जा सकेगा।
1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृ. 287 । 2, अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, 1979, पृ. 9 ।
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प्राभार
काव्यांशों एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से सम्बन्धित पुस्तकों का प्रूफ-संशोधन का कार्य अत्यन्त कठिन होता है । किन्तु मुझे हर्ष है कि अपभ्रंश के मेरे विद्यार्थियों-- सुश्री प्रीति जैन, सुश्री सीमा बत्रा एवं सुश्री माया शर्मा ने, जिन्होंने अकादमी की 'अपभ्रंश डिप्लोमा परीक्षा उत्तीर्ण की है और जो अकादमी के प्रकाशन विभाग में कार्यरत हैं, इस कठिन कार्य को सहर्ष और रुचिपूर्वक सम्पन्न किया है । अत: मैं उनका आभारी हूँ। मैं सुश्री प्रीति जैन का विशेषरूप से प्रामारी हूँ जिन्होंने काव्यों के अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण में महत्वपूर्ण सुझाव सुझाए ।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगारणी ने इस पुस्तक को तैयार करने में जो सहयोग दिया है उसके लिए प्राभार व्यक्त करता हूँ।
___ इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए जनविद्या संस्थान समिति एवं समिति के पूर्व संयोजक श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका ने जो व्यवस्था की उसके लिए मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
कमलचन्द सोगाणी
(सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी ।
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iv
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-1
पउमचरिउ
सन्धि-22
कोसलगन्दणेण स-कलतें रिणय-घर पाएं । प्रासाढमिहिं किउ ण्हवणु जिणिन्दहों राएं ॥
22.1
सुर-समर-सहासँहिँ दुम्महेण पट्ठवियइँ जिण-तणु-धोवयाइँ सुप्पहह गवर कञ्चुइ रण पत्तु 'कह काइँ रिणयम्विरिण मणे विसरण पणवेप्पिणु वुच्चइ सुप्पहाएँ जइ हउँ जे पाणवल्लहिय देव तहिँ अवसर कञ्चुइ ढुक्कु पासु गय-दन्तु अयंगमु (?) दण्ड-पाणि
किउ ण्हवणु जिरिणन्दहाँ दसरहेण ॥1 देविहिं दिव्वइँ गन्धोदयाइँ ॥2 पहु पभणइ रहसुच्छलिय-गत्तु ॥3 चिर-चित्तिय भित्ति व थिय विवण्ण'।। 4 'किर काइँ महु तरिणयएँ कहाएँ ॥5 तो गन्ध-सलिलु पावइ रण केम' ।। 6 छण-ससि व रिणरन्तर-धवलियासु ॥7 अणियच्छिय-पहु पक्खलिय-वाणि ॥8
घत्ता-गरहिउ दसरहण
__ जलु जिण-वयणु जिह
'पई कञ्चुइ काइँ चिराविउ । सुप्पहरु दवत्ति ण पाविउ' ॥
22.2
पणवेप्पिणु तेरण वि वृत्तु एम पढमाउसु जर धवलन्ति प्राय गइ तुट्टिय विहडिय सन्धि-वन्ध सिरु कम्पइ मुह पक्खलइ वाय परिगलिउ रुहिरु थिउ णवर चम्मु
'गय दियहा जोव्वणु ल्हसिउ देव ॥1 पुण असइ व सीस-वलग्ग जाय ॥2
ग सुगन्ति कष्ण लोयण रिपरन्ध ।। 3 गय दन्त सरीरहों गट्ठ छाय ॥4 महु एत्थु जै हुउ रणं अवरु जम्मु ॥5
2
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-1 पउमचरिउ
सन्धि-22
अपने घर पहुँचे हुए कोशलनगर (अयोध्या) के (राज-) पुत्र, राजा (राम) के द्वारा पत्नि-सहित अषाढ़ की अष्टमी के दिन जिनेन्द्र का अभिषेक किया गया ।
22.1
[1] देवताओं के साथ हजारों युद्धों में कठिनाई से मारे जानेवाले दशरथ के द्वारा (भी) जिनेन्द्र का अभिषेक किया गया। [2] (अभिषेक के पश्चात्) जिनेश्वर के तन को धोनेवाला दिव्य गन्धोदक (सुगन्धित जल) देवियों (राज-पत्नियों) के लिए (कञ्चुकी के साथ) भेजा गया। [3] कञ्चुकी केवल (रानी) सुप्रभा के (पास) नहीं पहुंचा। हर्ष से पुलकित शरीरवाला स्वामी (राजा) कहता है-[4] "हे (सुडोल) स्त्री ! कहो (तुम) मन में दुःखी क्यों (हो) ? (और) पुरानी चित्रित भीत की तरह स्थिर (और) निस्तेज (क्यों हो)?[5] (राजा को) प्रणाम करके सुप्रभा के द्वारा कहा जाता है-हे प्रभु ! मेरे सम्बन्ध में चर्चा से क्या (लाभ)? [6] हे देव ! यदि मैं (सुप्रभा) भी इस प्रकार (आपके लिए) प्राणों से प्यारी (होती), तो (सुप्रभा) गन्धोदक क्यों नहीं पाती ? [7] उसी समय पर कञ्चुकी (जिसका) मुख शरद (ऋतु) की पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह (वृद्धावस्था के द्वारा) निरन्तर सफेद किया गया (था)। [8] (जिसका) दन्त (-समुह) टूट गया (था), (जो) जड़ (था), (जिसके) हाथ में लकड़ी (थी), (जिसके द्वारा) पथ नहीं देखा गया, (जिसकी) वाणी लड़खड़ाती हुई (थी) (सुप्रभा के) पास पहुँचा।
पत्ता-दशरथ के द्वारा (कञ्चुकी) निन्दा किया गया (और कहा गया कि) हे कञ्चुकी ! तुम्हारे द्वारा देर क्यों की गई ? (जिससे) सुप्रभा के द्वारा जिन-वचन के सदृश गन्धोदक शीघ्र नहीं पाया गया ।
22.2
[1] (राजा को) प्रणाम करके, उसके द्वारा भी इस प्रकार कहा गया-हे देव ! (मेरे) दिन चले गये, यौवन खिसक गया, [2] बुढ़ापा प्रारम्भिक आयु (युवावस्था) को सफेद करता हुआ पा गया, और कुलटा (स्त्री) की तरह सिर पर चढ़ा हुया विद्यमान है । [3] गति टूट गई (है), हड्डियों के जोड़ों के बन्धन खुल गये (हैं), कान सुनते नहीं हैं), प्रांखें बिल्कुल अन्धी (हैं)। [4] सिर हिलता है, मुख में वाणी लड़खड़ाती है । दाँत घट गये (हैं), शरीर की कान्ति नष्ट हो चुकी (है) । [5] खून क्षीण हो चुका (है); केवल
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
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गिरि-इ-पवाह ग वहन्ति पाय वयरणेण तेण किउ पहु-वियप्पु 'सच्चर चलु जीविउ कवणु सोक्खु
घत्ता - सुहु महु-विन्दु-समु वरितं कम्मु किउ
कं दिवसु वि होसइ श्रारिसाहुँ को हउँ का महि कहाँ तरगउ दव्वु जोव्वणु सरीरु जीविउ धिगत्थु विसु विसय वन्धु दिढ - वन्धणाइँ सुय सत्तु विदत्त श्रवहरन्ति जीवाउ वाउ हय हय वराय तणु तणु जे खरगद्धे यहाँ जाइ दुहिया वि दुहिय माया विमाय
}
धत्ता - प्रायइँ अवरइ मि पुणु तर करमि'
धत्ता- दसरहु अण्ण- दि hara ra M
22.3
22.7
गन्धोवउ पावउ केम राय' 116 म-विसायहीँ राम - वप्पु ॥ 7
गउ परम
तं किज्जइ सिज्झइ जेण मोक्खु ॥ 8
दुहु मेरु- सरिसु पवियम्भइ । जं पउ अजरामरु लब्भइ ॥
कञ्चुइ प्रवत्थ अम्हारिसाहुँ ।। 1 सिंहासणु छत्तइँ थिरु सव्व ॥ 2 संसार प्रसार प्रणत्थु प्रत्थु ॥ 3 घर दार परिहव - काररणाइँ ॥ 4 जर मरणहँ किङ्कर कि करन्ति ॥15 सन्दण सन्दण गय गय जे गाय | 6 धणु धणु जि गुरणेण वि वकु थाइ || 7 सम-भाउ लेन्ति किर तेरा भाय ॥18
सव राहवहीँ समवि । fra दसरहु एम aियप्पेंवि ॥
किर रामहों रज्जु समप्पइ । उन्हालऍ धररिण व तप्पइ ॥
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चमड़ी रह गई (है), मानो मेरा यहाँ दूसरा ही जन्म हुआ (है)। [6] (इसलिए) पैर पर्वतीय नदी के (समान) प्रवाह को धारण नहीं करते हैं, (तो) हे राजा (वह रानी) (उस) गन्धोदक को किस प्रकार पावे । [7] (कञ्चुकी के) उस कथन से राजा (दशरथ) के द्वारा (मन में) विचार किया गया (और वे) राम के पिता (दशरथ) अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए । [8] (उन्होंने सोचा) (यह) सत्य (है) (कि) जीवन चंचल (है), (तो फिर) वह कौनसा सुख (है), (जो) अनुभव किया जाता है, जिससे मोक्ष (शाश्वत पद) सिद्ध होता है ।
घत्ता-(इन्द्रिय-) सुख मधु की बिन्दु के समान (होता है), दुःख मेरु-पर्वत के समान लगता (दिखता) है । किया हुअा वह (ही) कर्म अच्छा (होता है), जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जाता है।
22.3
[1] किसी दिन हम जैसों की (अवस्था) ऐसे (लोगों) के (समान) ही होगी, (जैसी) कञ्चुकी की अवस्था (है)। [2] (इस पर राजा के द्वारा विचार किया गया कि) मैं कौन (हूँ)? किसकी पृथ्वी (है)? किसका धन (है) ? सिंहासन (और) छत्र सभी अस्थिर (हैं)। [3] यौवन, शरीर, धन (और) (चल रहे) जीवन को धिक्कार (है)। संसार असार (है), धन हानिकारक (होता है)। [4] (इन्द्रिय-) विषय विष (हैं), बन्धु कठोर बन्धन (हैं), घर और पत्नी दुःख देने के कारण (बन जाते हैं)। [5] सुत (पुत्र) शत्रु (हो जाते हैं), (वे) उपाजित (धन) को छीन लेते हैं । बुढ़ापे और मरण के अवसर पर नौकर-चाकर क्या करते हैं ? [6] जीव की प्रायु हवा (की तरह) (चंचल) (होती है), (देखो) बेचारे घोड़े (युद्ध में) मारे गये (हैं)। रथ टूटनेवाले (होते हैं), मरे हुए (व्यक्ति) (सदा के लिए) ही गये, (वे) (कभी) नहीं लौटे। [7] शरीर तृण (के समान) ही (होता है), (वह) प्राधे क्षण में क्षय को प्राप्त होता है । धन धनुष (के समान) (होता है), (जो) प्रत्यञ्चा (रूपी दुर्गुण) से बांका रहता है। [8] पुत्री दुःखी करनेवाली (होती) है, माता मोह-जाल (होती है), चूंकि (भाई) (सम्पत्ति में) समान हिस्मा लेते हैं, इसलिए (ही) (वे) भाई (हैं)।
घत्ता - इनको (और) दूसरे सब को भी राम को देकर (मैं) स्वयं तप करूंगा । इस प्रकार विचार करके दशरथ स्थिर हुए ।
22.7
पत्ता-दशरथ दूसरे दिन (जब) राम को राज्य दे देते हैं, तब केकय देश के राजा की कन्या (कैकयी) मन में, (तपती है, दुःखी होती है), जैसे ग्रीष्म-काल में धरती तपती है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
5
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22.8
णरिन्दस्स सोऊरण पव्वज्ज-यज्जं ससा दोणरायस्स भग्गाणुराया गया केक्कया जत्थ प्रत्थाण-मग्गो वरो मग्गियो ‘णाह सो एस कालो 'पिए होउ एवं' तो सावलेवो
स-रामाहिरामस्स रामस्स रज्जं ॥1 तुलाकोडि-कन्ती-लयालिद्ध-पाया ॥2 णरिन्दो सुरिन्दो व पीढं वलग्गो ॥6 महं णन्दरणो ठाउ रज्जाणुपालो' ॥7 समायारियो लक्खरणो रामएवो ॥8
पत्ता- 'जइ तुहुँ पुत्तु महु
छत्तइँ वइसरणउ
तो एत्तिउ पेसणु किज्जइ ।
वसुमइ भरहहाँ अप्पिज्जई' । 23.3
चिन्तावण्णु णराहिउ जाहिँ दुम्मणु एन्तु णिहालिउ मायएँ 'दिवे दिवे चडहि तुरङ्गम-रणाऍहिँ दिवे दिव वन्दिरण-विन्दै हिँ थुम्वहि दिवे दिवे धुव्वहि चमर-सहास हिँ दिवे दिवे लोयहिँ वुच्चहि राणउ तं रिणसुणेवि वलेण पजम्पिउ जामि माएँ दिढ हियवऍ होज्जहि
वलु रिणय-रिणलउ पराइउ तावै हिँ ॥1 पुणु विहसेवि वुत्तु पिय-वायएँ ॥2 अज्जु काइँ अणुवाहणु पाऍहिँ ॥3 अज्जु काइँ थुव्वन्तु रण सुव्वहि ॥4 अज्जु काइँ तउ को वि रण पासहि॥5 अज्जु काई दीसहि विद्दारणउ' ॥6 'भरहहाँ सयलु वि रज्जु समप्पिउ ॥7 जं दुम्मिय तं सव्वु खमेज्जहि ॥8
घत्ता-जें पाउच्छिय माय
अपराइय महएवि
'हा हा पुत्त' भणन्ती । महियले पडिय रुयन्ती ॥
61
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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[1] राजा दशरथ के संन्यास -विधान को और पत्नीसहित श्राकर्षक (लगनेबाले) राम के लिए राज्य ( देने) को सुनकर, [2] द्रोण राजा की बहिन ( कैकयी), (जिसका ) ( राम के प्रति ) स्नेह टूट गया ( था ), ( जिसके ) पैर लता- रूपी नूपुरों से लिपटे हुए और कान्तिसहित ( थे), [6] ( वह ) ( उस प्रोर) गई, जहां (राज) सभास्थान का पथ ( था ) (और) (सभास्थान में ) इन्द्र की तरह राजा (दशरथ) प्रासन पर स्थित ( थे ) । [7] ( वहाँ पहुँचने पर उसने कहा-) हे नाथ ! यह वह समय ( है ) ( जब) मांगा हुआ वर ( पूरा किया जाना चाहिए ) ( उसने कहा ) मेरा पुत्र (भरत) राज्य का पालन कर्त्ता रहे । इसी प्रकार होवे । तब गर्वसहित राम और लक्ष्मण बुलाए गए ।
[8] हे प्रिये !
22.8.
घत्ता - यदि तुम मेरे पुत्र (हो), तो इतनी आज्ञा पालन की जाए ( कि) छत्र, आसन ( सिंहासन) और पृथ्वी भरत के लिए दे दी जाए ।
[1] जब नराधिप (दशरथ) चिन्ता में डूबे हुए ( थे ), तब ( ही ) बलदेव (राम) मनवाला (राम) देखा गया । [3] प्रतिदिन (तुम) घोड़े और [4] प्रतिदिन (तुम) स्तुति
निज भवन को गए। [2] माता के द्वारा प्राता हुआ उदास फिर भी ( माता के द्वारा ) हँसकर प्रियवाणी से कहा गया - हाथी पर चढ़ते थे, आज बिना जूतों के ( नंगे) पैरों से कैसे ? गायकों के समूहों द्वारा स्तुति किए जाते थे, श्राज स्तुति किए जाते हुए कैसे नहीं सुने जाते हो ? [5] प्रतिदिन (तुम) हजारों चँवरों से पंखा किए जाते थे, आज तुम्हारे आस-पास में कोई भी क्यों नहीं है ? [6] प्रतिदिन तुम लोगों के द्वारा राणा (छोटे राजा) कहे जाते थे, प्राज (तुम) निस्तेज क्यों दिखाई देते हो ? [7] उसको सुनकर बलदेव ( राम ) के द्वारा कहा गया- भरत को सम्पूर्ण राज्य ही दे दिया गया है । [8 हे मां ! (मैं) जाता हूँ, (तुम) मन की अवस्था में दृढ़ रहना, जो ( मेरे द्वारा ) कष्ट पहुँचाया गया ( है ), उस सबको (तुम)
क्षमा करना ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ |
23.3
धत्ता - जिस तरह से माता पूछी गई ( उसके परिणामस्वरूप ) हाय पुत्र ! कहती हुई (वह) महादेवी अपराजिता धरती पर रोती हुई गिर पड़ी ।
47
Page #17
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पाठ--2
पउभचरिउ
गएँ वरण-वासहाँ राम थिय रणीसास मुअन्ति
सन्धि-24
उज्झ रण चित्तहाँ भावइ । महि उण्हालएँ रणावइ ।
24.1
सयलु वि जणु उम्माहिज्जन्तउ उज्वेल्लिज्जइ गिज्जइ लक्खणु सुइ-सिद्धन्त-पुराणेहि लक्खणु अण्णु वि जं जं कि पि स-लक्खणु का वि रणारि सारङ्गि व वुण्रणी का वि रणारि जं लेइ पसाहणु का वि णारि जं परिहइ कङ्कणु का वि पारि जं जोयइ दप्पणु तो एत्थन्तर पारिणय-हारिउ 'सो पल्लङ्कु तं जै उवहारणउ
धत्ता-तं घरु रयण ताई
___ रणवर ण दीसइ माएँ
खणु वि रण थक्कइ णामु लयन्तउ ॥1 मुरव-वज्ज वाइज्जइ लक्खणु ॥2 प्रोङ्कारेण पढिज्जइ लक्खणु ॥3 लक्खण-गामें वुच्चइ लक्खणु ॥4 वड्डी धाह मुएवि परुणरणी ॥5 तं उल्हावइ जाण इ लक्खणु ॥6
धरइ सु-गाढउ जारगइ लक्खणु ॥7 __अण्णु रण पेक्खइ मेल्लेवि लक्खणु ॥8
पुरै वोल्लन्ति परोप्परु णारिउ ॥9 सेज्ज वि स ज्जै तं जै पच्छाणउ ॥ 10
तं चित्तयम्मु स-लक्खणु ।
रामु ससीय-सलक्खणु' ॥ 24.3
जं पीसरिउ राउ प्राररान्दे 'हउ मि देव पइँ सहुँ पठवज्जमि रज्जु असारु वारु संसारहो रज्जु भयङ्करु इह-पर-लोयहाँ रज्जे होउ होउ महु सरियउ रज्जु अकज्जु कहिउ मुरिण-छेयहिँ
वुत्तु एवेप्पिणु भरह-गरिन्दे ॥1 दुग्गइ-गामिउ रज्जु रण भुजमि ॥2 रज्जु खरणेरग रगेइ तम्बारहों ॥3 रज्जें गम्मइ रिगच्च-रिणगोयहो ॥4 सुन्दरु तो किं पइँ परिहरियउ ॥5 दुट्ठ-कलत्तु व भुत्तु अणेयहिँ ॥6
8
]
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पाठ-2
पउमचरिउ
सन्धि-24
राम के वनवास (चले) जाने पर अयोध्या चित्त को अच्छी नहीं लगती है जैसे ग्रीष्मकाल में स्थित पृथ्वी (गर्म) श्वांस छोड़ती हुई (चित्त को अच्छी नहीं लगती है)।
24.1
___[1] समस्त जन (-समूह) वियोग में न्याकुल किया जाता हुआ भी नाम लेता हुया (एक) क्षण भी नहीं थकता है। [2] लक्ष्मण (का नाम) उछाला जाता है, गाया जाता है, लक्ष्मण मृदंगवाद्य में बजाया जाता है । [3] श्रुति सिद्धान्त और पुराणोंऽद्वारा लक्षण (समझा जाता है), ओंकार से लक्षण (व्याकरण शास्त्र) पढ़ा जाता है । [4] अन्य जो-जो कुछ भी लक्षण-सहित है, (वह) लक्ष्मण नाम से लक्षण कहा जाता है। [5] कोई नारी हरिणी के समान दुःखी हुई (और) बड़ी चिल्लाहट निकालकर रोई। [6] कोई नारी जिस आभूषण को पहनती है, (वह) उसको लक्ष्मण समझती है (जो) (उसे) शान्ति देता है। [7] कोई नारी जिस (भी) कंगन को पहनती है, (वह) (उसको) खूब गाढ़ा धारण करती है, (वह) (उसको) लक्ष्मण समझती है। [8] कोई नारी जिस (भी) दर्पण को देखती है, उसमें लक्ष्मण को छोड़कर अन्य को नहीं देखती है । [9] तब इसी बीच में पनिहारिने नगर में नारियों को प्रापस में कहती हैं-[10] वह ही पलंग, वह ही तकिया, शय्या भी वह ही (और) वह ही ढकनेवाली (चादर) है।
घत्ता - वह (ही) घर, वे (ही) रत्न, लक्ष्मण-सहित वह (ही) चित्र (छवि) (किन्तु) हे मां ! केवल सीतासहित और लक्ष्मणसहित राम नहीं देखे जाते हैं ।
[1] जब राजा हर्ष से निकला (तो) भरत राजा के द्वारा प्रणाम करके कहा गया[2] हे देव ! मैं भी तुम्हारे साथ संन्यास लूंगा। दुर्गति देनेवाले राज्य को नहीं भोगूंगा। [3] राज्य असार (है), संसार का द्वार (है), राज्य क्षण भर में विनाश को पहुँचा देता है। [4] राज्य इस (लोक में) और परलोक में दुःख-जनक (होता है) । (मनुष्य के द्वारा) राज्य से नित्य-निगोद के लिए जाया जाता है। [5] राज्य के द्वारा मधु के समान रुचिकर हुआ गया (है) तो (यह ऐसा) होवे । (किन्तु) (फिर) तुम्हारे द्वारा (राज्य) क्यों छोड़ दिया गया ? [6] निर्मल मुनियों द्वारा राज्य नहीं करने योग्य कहा गया (है) (वह) अनेक के
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
9
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दीसवन्तु मयलञ्छरण-विम्वु व तो वि जीउ पुणु रज्जहाँ कङ्खइ
बहु-दुक्खाउरु दुग्ग-कुडुम्वु व ॥ 7 अणुदिणु प्राउ गलन्तु ण लक्खइ ॥8
घत्ता - जिह महुविन्दुहँ कज्ज करहु ण पेक्खइ कक्करु ।
तिह जिउ विसयासत्तु रज्जे गउ सय-सक्करु ॥१
24.4 भरहु चवन्तु णिवारिउ राएं ____ 'अज्ज वि तुझु काइँ तव-वाएं ॥1 अज्ज वि रज्जु करहि सुहु भुजहि अज्ज वि विसय-सुक्खु अणुहुञ्जहि ॥2 अज्ज वि तुहुँ तम्बोलु समारणहि अज्ज वि वर-उज्जाणइ मारणहि ॥3 अज्जु वि अंगु स-इच्छऍ मण्डहि अज्ज वि वर-विलयउ अवरुण्डहि ॥4 अज्ज वि जोग्गउ सव्वाहरणहाँ ___ अज्ज वि कवणु कालु तव-चरणहाँ ॥5 जिण-पव्वज्ज होइ अइ-दुसहिय के वावीस परीसह विसहिय ॥6 के जिय चउ-कसाय-रिउ दुज्जय के प्रायामिय पञ्च महव्वय ॥7 के किउ पञ्चहुँ विसयहुँ रिणग्गहु के परिसे सिउ सयलु परिग्गहु ॥8 को दुम-मूले वसिउ वरिसाल' को एक्कंगें थिउ सीयालऍ ॥9 के उण्हालएँ किउ अतावणु ऍउ तव-चरणु होइ भीसावण ॥ 10
घत्ता - भरह म वड्ढि उ वोल्लि तुहं सो अज्ज वि वालु । . भुजहि विसय-सुहाई को पव्वज्जहँ कालु' ॥11
24.5
तं णिसुरणेवि भरहु प्रारुट्ठउ 'विरुयउ ताव वयणु पइँ वृत्तउ किं वालत्तणु सुह हिं रण मुच्चइ किं वालहों पव्वज्ज म होमो
मत्त-गइन्दु व चित्तें दुट्ठउ ॥1 किं वालहों तव-चरणु रण जुत्तउ ॥2 कि वालहों दय-धम्मु ण रुच्चइ ॥3 किं बालहों दूसिउ पर-लोनो ॥4
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द्वारा अनुभव किया गया (है) जैसे दुष्ट स्त्री (अनेक) (पुरुषों द्वारा)। [7] (वह राज्य) दोषवाला (होता है) जैसे चन्द्रमा का बिम्ब, (वह) बहुत दुःखों से पीड़ित (होता है) जैसे दरिद्र कुटुम्ब । [8] (आश्चर्य है कि) तो भी जीव राज्य की/के लिए इच्छा करता है। प्रतिदिन गलती हुई आयु को नहीं देखता है।
घत्ता-जिस प्रकार जल की बूंद के प्रयोजन से ऊँट कंकर को नहीं देखता है, उसी प्रकार विषय में आसक्त जीव ने राज्य से अत्यधिक प्रादर-सत्कार पाया है (इसलिए) (वह) (उससे प्राप्त दुःखों को नहीं देखता है)।
24.4
[1] राजा के द्वारा बोलता हुआ भरत रोका गया। (राजा ने कहा) आज ही तेरे लिए तप की बात से क्या (लाम) ? [2] आज ही राज्य कर (और उसके) सुख का अनुभव कर। आज ही विषय-सुख को भोग । [3] प्राज ही तू पान का उपभोग कर। आज ही (तू) श्रेष्ठ उद्यानों को मान । [4] आज ही (तू) शरीर को स्व-इच्छा से सजा (और) आज ही श्रेष्ठ स्त्रियों का आलिंगन कर। [5] आज भी (तू) सभी अलंकार के योग्य (है)। आज ही तप के आचरण का कौनसा समय (है)? [6] जिन-प्रव्रज्या बहुत असह्य होती है । किसके द्वारा बाईस परीषह सहन किए गए (हैं) ? [7] किसके द्वारा दुर्जेय चारों कषायोंरूपी शत्रु जीते गये (हैं), किसके द्वारा पंच महाव्रत ग्रहण किए गए (हैं) ? [8] किसके द्वारा पांचों विषयों का निग्रह किया गया (है) ? किसके द्वारा सकल परिग्रह समाप्त किया गया (है) ? [9] कौन वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बसा (है)? कौन शीतकाल में केवलमात्र शरीर से रहा (है) ? [10] किसके द्वारा ग्रीष्मकाल में शरीर का तपन किया गया (है) ? यह तप का आचरण भीषण होता है ।
घत्ता हे भरत ! तू बढ़कर मत बोल । (तू) आज भी वह (ही) बालक (है)। विषय-सुखों को भोग । (यह) प्रव्रज्या का कौनसा काल (है) ?
'245
[1] उसको सुनकर भरत क्रुद्ध (रुष्ट) हुमा । मस्त हाथी की तरह चित्त में दुःखी हुआ । [2] (भरत ने कहा कि हे पिता) तब आपके द्वारा प्रतिकूल (विरोधी) वचन कहे गए। क्या बालक के लिए तप का आचरण उचित (युक्त) नहीं है ? [3] क्या बालपन सुखों के द्वारा नहीं ठगा जाता है ? क्या बालक के लिए दया एवं धर्म रुचिकर नहीं होता है ? [4] क्या बालक के लिए प्रव्रज्या नहीं हुई ? क्या बालक का परलोक दूषित (नहीं)
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
1
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कि वालहों सम्मत्तु म होश्रो कि वालहों जर-मरणु ण दुक्कइ तं णिसुखेवि भरहु रिम्भच्छिउ एवहिँ सयलु वि रज्जु करेवउ
12 ]
fक वालों उ इट्ठ- विप्रोप्रो ॥5 कि वालहों जमु दिवसु वि चुक्कइ' ।। 6 'तो कि पहिलउ पट्टु पडिच्छिउ ॥ 7 पच्छलें पुणु तव चरणु चरेवउ' ॥ 8
घत्ता - एम भरणेप्पिणु राउ सच्चु समप्पेंवि मज्जहँ । भरहों वन्धेवि पट्टु दसरहु गउ पव्वज्जहे ॥ 9
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(होता)? [5] क्या बालक के लिए सम्यक्त्व नहीं हुआ ? क्या बालक के लिए इष्टवियोग नहीं (हुआ) ? [6] क्या बालक के लिए जरा-मरण नहीं आता है ? क्या बालक के लिए यमराज दिन भूल जाता है ? [7] उसको सुनकर (राजा के द्वारा) भरत झिड़का गया (कि) तब (तुम्हारे द्वारा) पहले राजपट्ट (सिंहासन) क्यों स्वीकार किया गया ? [8] इस समय (तो) (तुम्हारे द्वारा) सम्पूर्ण राज ही किया जाना चाहिए (और) (जीवन के) पिछले भाग में फिर तप का आचरण किया जाना चाहिए।
घत्ता-इस प्रकार कहकर पत्नी के वचन को पूरा करके (और) भरत को पट्ट बाँधकर (राजा) दशरथ प्रव्रज्या के लिए चले गए ।
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घत्ता - वरि पहरिउ वरि किउ तवचरणु वरि विसु हालाहलु वरि मरणु । aft foछ गम्पणु गुहिल - वर णवि रिगविसु विणिवसिउ प्रवहणे ॥ 9
तो तिणि वि
दिर- पच्छिम - पह वित्यिष्णु
गुरु वेसु
वुक्करण - किसलय
रण्णु
करे वि
वरण- कुक्कुड पियमाहवियउ
सो
तरुवरु
14 ]
पाठ 3
पउमचरिउ
सन्धि-27
27.14
पइसन्ति
एम चवन्ताइँ
विणिग्गयाइँ
जाव
सुन्दर-सराइँ
रवन्ति
श्रायरन्ति
लवन्ति
गुरु- गरगहू- समाणु
क- क्का
कुक्कू को - क्कउ
27.15
उम्माहउ जगहों जरगन्ताई ॥ 1 कुञ्जर इव विउल-वरणहो गयाइँ || 2 गग्गोहु महादुमु दिट्ठ ताव 113 गं विहय पढाव क्राइँ || 4 वाउलि- विहङ्ग कि क्की भणन्ति ॥ 5 to वि कलावि के वकइ चवन्ति ॥ 6 कंका वप्पीह फल-पत्त-वन्तु
धत्ता-पइसन्तहिं प्रसुर- विमरणेहिं सिरु सामेंवि राम-जगह हिं । परिश्रविदुमु दसरह - सुऍहिँ श्रहिणन्दिउ मुरिण व सई भु ऍहिं ॥ 9
समुल्लवन्ति
117 प्रक्खर - रिहाणु ॥ 8
सन्धि - 28
सीय स-लक्खणु दासरहि तरुवर-मूले परिट्ठिय जावेंहिँ । पसरइ सु-कहें कव्वु जिह मेह-जालु गयणङ्ग
तावेंहिँ ॥
[
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पाठ-3
पउमचरिउ
सन्धि-27 27.14
घत्ता-(व्यक्तियों के द्वारा) (यदि) प्रहार किया गया (है), (तो) अधिक अच्छा (है), (यदि) तप का प्राचरण किया गया (है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), (यदि) हालाहल विष (पिया गया है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), मरना (मी) अधिक अच्छा (है),गहन वन में जाकर टिके हुए (होना)(भी) अधिक अच्छा(है), किन्तु पल भर (भी) मूर्ख-जन में ठहरे हुए (रहना) (अच्छा ) नहीं (है)।
27.15
[1] तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता) (उस) जन (-समूह) में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस (उपर्युक्त) प्रकार से कहते हुए [2] दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल गए (और) हाथी की तरह (वे) घने वन को चले गये। [3] ज्यों ही विशाल वन में प्रवेश करते हुए (वे) (आगे बढ़े), त्यों ही (उनके द्वारा) बरगद-महावृक्ष देखा गया । [4] (वह वृक्ष ऐसा था) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके पक्षियों को सुन्दर स्वर व अक्षर पढ़ाता हो । [5] कौए नए कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर (बैठे हुए) क-क्का, क-क्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि-क्की, कि-क्की कहते थे। [6] जलमुर्गे कु-क्कू, क-क्कू कहते थे, और भी मोर के-क्कई, के-कई बोलते थे। [7] कोयले को-क्कऊ, को-कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहे कंका, कंका बोलते थे । [8] (इस तरह से) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल-पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार (था)।
घत्ता-असुरों का नाश करनेवाले दशरथ के पुत्र, राम-लक्ष्मण द्वारा (वन में) प्रवेश करते ही सिर को नमाकर (बरगद का) वृक्ष मुनि की तरह (नमन किया गया) और (उसकी) परिक्रमा करके (उनके द्वारा) अपनी भुजाओं से (भी) अभिनन्दन किया गया।
सन्धि-28
ज्यों ही (दशरथ -पुत्र) राम सीता (और) लक्ष्मण के साथ (उस) श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में बैठे, त्योंही सुकवि के काव्य की भाँति बादलों के सघन-समूह आकाश के यौगन में (चारों ओर) फैल गए ।
अपभ्रंश कान्य सौरभ ]
[ 15
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28.1
पसरइ मेह-विन्दु गयणङ्गणे पसरइ जेम तिमिरु अण्णाणहों पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहों पसरइ जेम जोण्ह मयवाहहो. पसरइ जेम चिन्त धण-हीरगहों पसरइ जेम सदद सर-तूरहों पसरइ जेम दवग्गि वणन्तरे तडि तडयडइ पडइ घणु गज्जइ
पसरइ जेम सेण्णु समरङ्गणे ॥1 पसरइ जेम धुद्धि वहु-जाणहाँ ॥2 पसरइ जेम धम्मु धम्मिट्ठहों ॥3 पसरइ जेम कित्ति जगणाहहाँ ॥4 पसरइ जेम कित्ति सुकुलीणहाँ ॥5 पसरइ जेम रासि-रगहै सूरहों ॥6 पसरइ मेह-जालु तिह अम्वर ।। 7 जारगइ रामहाँ सरणु पवज्जइ ॥8
घत्ता-अमर-महाधणु गहिय-करु मेह गइन्दै चहुँ वि जस-लुद्धउ ।
उप्परि गिम्भ-रणराहिवहाँ पाउस-राउ पाइँ सरणद्धउ ॥9
28.2
जं पाउस-परिन्दु गलगज्जिउ धूली-रउ गिम्भेरण विसज्जिउ ॥1 गम्पिणु मेह-विन्दै अालग्गउ तडि-करवाल-पहारे हिँ भग्गउ ॥2 जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ उट्ठिउ ‘हणु' भणन्तु उण्हालउ ॥3 धगधगधगधगन्तु
उद्धाइउ । हसहसहसहसन्तु संपाइउ ॥4 जलजलजलजलजल पचलन्तउ जालावलि फुलिङ्ग मेल्लन्तउ ॥5 धूमावलि-धयदण्डुब्भप्पिण
वर-वाउल्लि-खग्गु कप्पिणु ॥6 ਮਫਲਸਫੇ ਵਰੁ पहरन्तउ तरुवर-रिउ-भड-थड भज्जन्तउ ॥7 मेह-महागय-घड विहडन्तउ जं उण्हालउ दिठ्ठ भिडन्तउ ॥8
161
| अपभ्रंश काव्य सौरभ
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28.1
[1] जिस प्रकार युद्ध के क्षेत्र में सेना फैलती है (और) आकाश के क्षेत्र में जलकरणों का समूह फैलता है । [2] जिस प्रकार प्रज्ञान (-रूपी अंधेरी रात) का अन्धकार फैलता है, जिस प्रकार बहुत प्रकार का ज्ञान रखनेवाले की बुद्धि फैलती है (मजबूत होती है)। [3] जिस प्रकार अत्यन्त पापी का पाप फैलता है, जिस प्रकार अत्यन्त धार्मिक का धर्म फैलता है । [4जिस प्रकार मृग को धारण करनेवाले (चन्द्रमा) का प्रकाश फैलता है, जिस प्रकार जिनदेव की महिमा फैलती है। [5] जिस प्रकार धन से रहित (व्यक्ति) की चिन्ता उभरती है, जिस प्रकार अत्यधिक शालीन का यश फैलता है। [6] जिस प्रकार देवों की तुरही का शब्द फैलता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें आकाश में फैलती हैं। [7] जिस प्रकार दावाग्नि (जंगल की आग) जंगल के अन्दर फैलती है, उसी प्रकार बादलों का समूह आकाश में फैला है। [8] बादल (समूह) गरजा (और) बिजली ने तड-तड किया (और) (पृथ्वी पर) पड़ी, (मानो) (वह) जानकी (और) राम की शरण में गई हो ।
घत्ता-(सारा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था) मानो पावस (वर्षा ऋतु का) राजा (जो) यश का इच्छुक (है), (जिसका) हाथ इन्द्रधनुष को पकड़े हुए (है), (वह) मेघरूपी हाथी पर चढ़कर ग्रीष्म-राजा के ऊपर आक्रमण के लिए तैयार (हो) ।
28.2
[1] जब पावस (वर्षा ऋतु का) राजा गरजा, (तो) ग्रीष्म द्वारा धूल-वेग (प्रांधी) भेजा गया । [2] (वह) (धूल) मेघ-समूह से जाकर चिपक गई, (फिर) बिजलीरूपी तलवार के प्रहारों से (वह) (धूल) छिन्न-भिन्न कर दी गई । [3] (इसके परिणामस्वरूप) जब (धूल) विमुख चली (तो) भयंकर ग्रीष्म ऋतु (पावस राजा को) 'मारो' कहती हुई उठी । [4] (और) खूब जलती हुई ऊंची दौड़ी (तथा) उत्तेजित होती हुई (पावस राजा की मोर) प्रवृत्त हुई । [5] और (उस ओर) कूच करती हुई तेजी से जली, (तब) (ऊष्ण) लपट की शृंखला से चिनगारियों को छोड़ते हुए (आगे चली)। [6] (और) जब ऊष्ण ऋतु धूम की शृंखला के ध्वजदण्डों को ऊंचा करके, तूफानरूपी श्रेष्ठ तलवार को खींचकर, [7] झपट मारते हुए (और) प्रहार करते हुए, श्रेष्ठ वृक्षोंरूपी शत्रु के योद्धा-समूह को नष्ट करते हुए, [8] मेघरूपी महा-हाथियों की टोली को खण्डित करते हुए (पावस राजा से) भिड़ती हुई दिखाई दी।
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घत्ता-धणु अप्फालिउ पाउसैण तडि-टङ्कार-फार दरिसन्ते।
चोऍवि जलहर-हत्थि-हड गीर-सरासरण मुक्क तुरन्ते ॥9
28.3
जल-वाणासरिण-घायहिँ घाइउ ददुर रवि लग्ग णं सज्जण णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्द रणं परहुय विमुक्क उग्घोसें रणं सरवर बहु-अंसु-जलोल्लिय णं उण्हविन दवग्गि विनोएं णं अत्थमिउ दिवायरु दुक्खें रत्त-पत्त तरु पवरणाकम्पिय
गिम्भ-णराहिउ रणे विरिणवाइउ ॥1 णं णच्चन्ति मोर खल दुज्जरण ॥2 णं कइ किलिकिलन्ति प्राणन्दें ॥3 णं वरहिण लवन्ति परिप्रोसें ॥4 णं गिरिवर हरिसें गजोल्लिय ॥5 णं णच्चिय महि विविह-विणोएं ॥6 णं पइसरइ रयरिण सइँ सुक्खें ॥7 'केण वि बहिउ गिम्भु' णं जम्पिय ॥8
घत्ता-तेहएँ काल भयाउरएँ वेण्णि मि वासुएव-वलएव ।
तरुवर-मूल स-सीय थिय जोगु लएविणु मुरिणवर जेम ॥9
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घत्ता-बिजली की टंकार और चमक दिखाते हुए पावस के द्वारा धनुष ताना गया (और) बादलरूपी हाथीघटा को प्रेरित करके (उसके द्वारा) जलरूपी तीर तुरन्त छोड़े गए।
28.3
[1] जलरूपी तीरों के प्रहारों से चोट पहुँचाया हुआ ग्रीष्म राजा युद्ध में (मारकर) (नीचे) गिरा दिया गया। [2] इसलिए मेंढक सज्जनों की तरह रोने लगे (और) शरारती मोर दुष्टों की तरह नाचे । [३] (ऐसा प्रतीत हो रहा था) मानो रोने के कारण नदियों ने (अपने को) (आँसूरूपी जल से) भरा हो (और) मानो (वर्षा से प्राप्त) आनन्द से कवि प्रसन्न हुए हों। [4] मानो कोयलें ऊँची आवाज में (बोलने के लिए) स्वतन्त्र की गई (हों) और मानो मोर संतोष से बोले हों। [5] मानो बड़े तालाब विपुल आँसूरूपी जल से भरे हुए (हों और) मानो बड़े पर्वत हर्ष से पुलकित (हों)। [6] मानो तप्त दावाग्नि के वियोग से धरती विविध विनोद के कारण नाची (हो)। [7] मानो दुःख के कारण सूर्य अस्त हुआ हो (और) मानो सुख के कारण रात स्वयं व्याप्त हो गई हो। [8] वृक्ष के पत्ते सुहावने हुए (और) पवन से हिले-डुले, मानो (उनके द्वारा) (यह) बोला गया (है) (कि) ग्रीष्म किसके द्वारा मारा गया ।
घत्ता-उस जैसे भयातुर समय में दोनों ही राम और लक्ष्मण सीता- सहित (उस) (बड़े) वृक्ष के नीचे के भाग में योग-ग्रहण करके महामुनि की भाँति बैठ गये ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
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ous fartaणु सोयक्कमियउ
तुहुँ ग जिनोऽसि सयलु जिउ तिहुश्रणु तुहुँ पडिप्रोऽसि ण पडिउ पुरन्दरु दिट्ठि ण गट्ठ रगट्ठ लङ्काउरि हारु र तुट्टु तुट्टु तारायणु चक्कु रंग ढुक्कु ढुक्कु एक्कन्तरु जीउ ण गउ गउ प्रासा - पोट्टलु सीय रण प्राणिय प्राणिय जमउरि
दिट्ठ पुरणो वि जाहु पिय-गारिहिँ
वाहिणिहिँ व सुक्कल रयरणायरु कुमुइणिहि व्व जरढ-मयलञ्छणु
20
1
पाठ 4
पउमचरिउ
सन्धि - 76
76.3
घत्ता - सुरवर सण्ढ वराइणा सयल-काल जे मिग सम्भूया । रावण पइँ सोहेण विणु ते वि अज्जु सच्छन्दोहूया' ॥ 9
'तुहुँ रगत्थमिउ वंसु श्रत्थमिय ॥ 1 तुहुँ रण मुझेोऽसि मुनउ वन्दिय जणु ॥ 2 मउडुरंग भग्गु भग्गु गिरि - मन्दरु || 3 वाय रग रगट्ठ गट्ठ मन्दोयरि ॥ 4 हियउ ग भिष्णु भिण्णु गयणङ्गणु ॥ 5 प्राउ रंग खुट्टु खुट्टु रयणायरु ।। 6 तुहुँ ण सुत्तु सुत्तउ महि-मण्डलु ॥ 7 हरि-वल कुद्ध रग कुद्धा केसरि ॥ 8
76.7
सुत्तु मत्त-हत्थि व गणियारिहिं ॥ 1 कमलिणिहिँ व प्रत्थवण - दिवायरु || 2 विज्जुहि व्व छुड छुड वरिसिय घणु ॥ 3
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ 4
पउमचरिउ
सन्धि-76
76.3
[1] शोक से युक्त विभीषण रोया (और) (बोला)-(हे भाई) तुम (ही) समाप्त नहीं हुए (हो), (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) वंश (ही) समाप्त हो गया (है)। [2] तुम (ही) नहीं जीते गए हो, (किन्तु) (मानो) सकल त्रिभुवन (ही) जीत लिया गया (हो)। तुम (ही) नहीं मरे हो, (किन्तु) (मानो) सम्मानित जन-समुदाय (ही) मर गया (हो)। [3] तुम (ही पाहत होकर जमीन पर) नहीं पड़े हो, (किन्तु) (मानो) (वहाँ) इन्द्र (ही) पड़ा (है)। (तुम्हारा) मुकुट (ही) टुकड़े-टुकड़े नहीं किया गया है, (किन्तु) (मानो) सुमेरु पर्वत (ही) टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया (हो)। [4] (तुम्हारी) विचार-पद्धति (ही) समाप्त नहीं हुई, (क्रिन्तु) (मानो) लंकापुरी (ही) समाप्त हो गई। (तुम्हारी) वाणी (ही) नष्ट नहीं हुई, (किन्तु मानो) मन्दोदरी (ही) नष्ट हो गई । [5] (तुम्हारा) हार (ही) नहीं टूटा, (किन्तु) (मानो) तारागरण (ही) टूट गए (हों), (तुम्हारा) (व्यापक) हृदय (ही) भंग नहीं किया गया (है) (किन्तु) (मानो) (व्यापक) आकाश-प्रदेश (ही) भंग कर दिया गया (है)। [6] (लक्ष्मण के पास तुम्हारा) चक्र (अस्त्रविशेष ही) नहीं पाया (पहुँचा) (किन्त) । तुम्हारे लिए) एक परिवर्तित दशा (मृत्यु) प्रा पहुंची। (तुम्हारी) (लंबी) आयु (ही) क्षीण नहीं हुई, (किन्तु) (विस्तृत) सागर (ही) क्षीण हो गया । [7] (तुम्हारा) जीवन (ही) विदा नहीं हुआ (किन्तु) (हमारी) प्राशाओं की पोटली (ही) विदा हो गई । तम (ही) नहीं सोए, (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) पृथ्वी-मण्डल (जगत) सो गया । [8] (तुम्हारे द्वारा) सीता (ही) नहीं लाई गई, (किन्तु) (मानो) (तुम्हारे द्वारा) यमपुरी (ही) लाई गई (हो)। राम की सेना (ही) कुपित नहीं हुई, (किन्तु) (मानो) सिंह (ही) कुपित हुआ (हो)।
घत्ता--हे रावण ! बेचारे देवताओं के समुह द्वारा, जो सभी काल में (तुम्हारे समक्ष) हरिण (के समान) रहे, तेरे (जैसे) सिंह के बिना वे ही आज स्वच्छन्दी हए ।
76.7
[I] फिर प्रिय पत्नियों द्वारा पति देखा गया, जैसे हथिनियों के द्वारा सोया हा मतवाला हाथी (देखा गया) (हो)। [2] जेसे नदियों द्वारा सूखा हुमा समुद्र (देखा गया) (हो), जैसे कमलिनियों के द्वारा डूबने से (समाप्त हुआ) सूर्य (देखा गया हो)। [3] जैसे कुमुदिनियों
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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अमर-वहूहिँ व चवण-पुरन्दर भमरावलिहि म्व सूडिय-तरुवरु कलयण्ठीहि म्व माहव-णिग्गमु बहुल-पनोसु व तारा-पन्तिहिं दस-सिरु दस-सेहरु दस-मउडउ
गिम्भ-दिसाहिँ व अजण-महिहरु ॥4 कलहंसीहि म्व अ-जलु महा-सरु ॥5 णाइणिहिँ व हय-गरुड-भुयङ्गम् ॥6 तेम दसास-पासु ढुक्कन्तिहिँ ॥ 7 गिरि व स-कन्दरु स-तरु स-कूडउ ॥8
घत्ता-रिणऍवि अवत्थ दसाणणहाँ हा हा सामि' भणन्तु स-वेयणु ।
अन्ते उरु मुच्छा-विहलु गिवडिउ महिहिं झत्ति णिच्चेयणु ॥9
सन्धि-77 भाइ - विनोएं जिह जिह करइ विहीसणु सोउ । तिह तिह दुक्खैण रुवइ स-हरि-वल-वाणर-लोउ ।
77.1 दुम्मणु दुम्मरण-वयणउ
अंसु-जलोल्लिय-णयणउ । ढुक्कु कइद्धय सत्थउ
जहिं रावणु पल्हत्थउ ॥1 तेण समाणु विरिणग्गय-णामहिं दिठ्ठ दसाणणु लक्खरण-रामहि ॥2 दिइँ स-मउड-सिरई पलोट्टई गाइँ स-केसराई कन्दोट्टई॥3 दिट्ठइँ भालयलइँ पायडियइँ अद्धयन्द-विम्वाइँ व पडियइँ॥4 दिइँ मरिण-कुण्डलइँ स तेयइँ णं खय-रवि-मण्डलइ प्ररणेयई॥5 दिउ भउहउ भिउडि-करालउ रणं पलयग्गि-सिहउ धूमालउ ॥6 दिट्टई दीह-विसालइँ णेत्तइँ मिहुणा इव अामरणासत्तइँ॥7 मुह-कुहरइँ दट्ठोट्टई दिट्ठई जमकरणाई व जमहाँ अणिट्ठई। 8 दि महब्भुव भड-सन्दोहें । णं पारोह मुक्क णग्गोहें ।।9
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के द्वारा क्षीण चन्द्रमा (देखा गया हो), जैसे बिजलियों द्वारा पुनः पुनः बरसा हुआ बादल (देखा गया हो)। [4] जैसे देवताओं की स्त्रियों द्वारा मरण को प्राप्त इन्द्र (देखा गया हो), जैसे ग्रीष्म में दिशाओं द्वारा (सूखे) वृक्षों से युक्त पर्वत (देखा गया हो)। [5] जैसे भंवरों की पंक्तियों द्वारा नाश को प्राप्त श्रेष्ठ वृक्ष (देखे गए) (हों), जैसे राज-हंस नियों द्वारा जलरहित बड़ा तालाब (देखा गया हो)। [6] जैसे कोकिलों द्वारा बसन्त ऋतु का (चला) जाना (देखा गया हो), जैसे नागिनियों द्वारा गरुड़ से मारा हुआ सर्प (देखा गया हो)। [7] जैसे तारों की पंक्तियों द्वारा दोषों से युक्त कृष्ण पक्ष (देखा गया हो), उसी प्रकार दसमुखवाले (रावण) के पास जाती हुई (रानियों) के द्वारा (दोषयुक्त) (पति) (देखा गया)। [8] (उसके) दस सिर, दस शिखा तथा दस मुकुट (थे) (मानो) पर्वत (ही) गुफा-सहित, वृक्ष-सहित (तथा) शिखरसहित (हो)।
घत्ता -- रावण की (ऐसी) अवस्था को देखकर पीड़ासहित हाय-हाय स्वामी कहते हुए अन्तःपुर (रानियों का समुदाय) मूर्छा से व्याकुल (हुआ) (और) शीघ्र (ही) पृथ्वी पर चेतना-रहित (होकर) गिरा।
सन्धि-77
भाई के वियोग से विभीषण जैसे-जैसे शोक करता, वैसे-वैसे राम-लक्ष्मण-सहित वानर जाति के लोग दुःख के कारण रोते ।
77.1
[1] दुःखी मन और उदास मुखवाला (तथा) आँसू के जल से गीली हुई आँखोंवाला कपि (-चिह्न युक्त) ध्वज (लिये हुए) जन-समूह (वहाँ) पहुंचा जहाँ रावण मार गिराया गया (था)। (2) उस (समूह) के माथ (बाहर) फैले हुए नामवाले (विख्यात) राम और लक्ष्मण द्वारा (भी) (पड़ा हुआ) रावण देखा गया। [3] जमीन पर गिरे हुए (उसके) मुकुट-सहित सिर देखे गए, मानो पराग-सहित कमल (हों)। [4] (वहाँ) खुले हुए ललाट देखे गए, मानो पडे हए अर्द्धचन्द्र के प्रतिबिंब (हों)। [5] मरिणयों से (बने हुए) कान्तियुक्त-कुण्डल देखे गए, मानो गिरे हुए अनेक रवि-चक्र (हों)। [6] भौं के विकार से भयंकर (हुई) भौंहें देखी गई, मानो (वे) धुएं के पाश्रयवाली प्रलय की प्राग की ज्वालाएं (हों)। [7] (उसके) लंबे और चौड़े नेत्र देखे गए, मानो (वे) मृत्यु तक (प्राजीवन) आसक्त स्त्री-पुरुष के जोड़े (हों)। [8] (उसके) मुख-विवर (और) दाँतों से काटे गए होठ देखे गए, मानो (वे) यम के अप्रीतिकर मृत्यु के साधन (हों)। [9] योद्धानों के समूह द्वारा (रावण की) महा-भुजाएँ देखी गईं,
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
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दिट्ठ उर-स्थल फाडिउ चक्के श्रवणियलु व विञ्ण विहञ्जिउ
सो मुउ जो मय-मत्तउ वय-चारित - विहूरणउ सरणाइय- वन्दिग्गहें गोग्गहँ
रिय-परिहवें पर बिरें रग जुज्जइ प्रणु इक्किय-कम्म-जणेरउ
सव्वंसह वि सहेवि र सक्कइ des वाहिरिण कि मइँ सोसहि छिज्जमारण वरणसइ उग्धोसइ पवणु र भिडइ भाणु कर खञ्चइ विन्धइ कण्टेहिँ व दुव्वय रोहिं
24 1
धत्ता - पेक्खवि रामेण समरङ्गणें रामण ( हों) मुहाइँ । प्रालिङ्ग प्पिणु धीरिउ 'रुवहि विहीसण काई || 12
77.2
दिर - मज्भु अ ( ? ) मज्झत्यें क् ॥ 10 णं विहिँ भाऍहिँ तिमिरु व पुञ्जिउ ||11
धत्ता - धम्म
1
जीव- दया परिचत्तउ । दारण - रणङ्गणें दी उ सामि श्रवसरें मित्त-परिग्गहें ॥ 2 तेहउ पुरिसु विहीसण रुज्जइ ॥ 3 गरुग्रउ पाव भारु जसु केरउ ॥ 4
गाउ मरणन्ति र थक्कइ ॥ 5 धाहावइ खज्जन्तो श्रसहि ॥ 6 कइयहुँ भरणु गिरासहों होसइ ॥ 7 धणु राउल चोरग्गिहुँ सञ्चइ || 8 विस-रुक्खु व मण्खिज्जइ सय रोहिं ॥ 9
म - बिहूरणउ पाव- पिण्डु प्रणिहालिय- यामु | सो रोवेवर जासु महिस- विस मेसहिँ सामु ॥ 10
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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मानो बड़ के पेड़ के द्वारा निकाली हुई ( छोड़ी हुई) शाखाएँ ( हों ) । [ 10 ] चक्र के द्वारा फाड़ी हुई ( दमकती ) छाती देखी गई, मानो ( आकाश के ) मध्य में स्थित सूर्य के द्वारा दिन का बीच (दो बराबर के भाग) (हुए) / हों ) । [11] मानो विध्य (पर्वत) के द्वारा पृथ्वी - तल विभक्त कर दिया गया ( हो ), मानो ( पृथ्वी के) विविध भागों द्वारा अंधकार इकट्ठा किया गया (हो) ।
घत्ता - युद्धस्थल में रावण के ( पड़े हुए) मुखों को देखकर राम के द्वारा (विभीषण को) छाती से लगाकर धीरज बँधाया गया । (और) ( कहा गया ) ( कि) हे विभीषण ! (तुम) क्यों रोते हो ?
(तथा) (जिसके
[1] वह (ही) मरा हुआ (है), जो अहंकार के नशे में चूर ( है ) द्वारा ) जीव दया छोड़ दी गई ( है ) | ( जो ) व्रत और चारित्र से हीन है, ( जो ) दान और युद्ध - स्थल में मीरु ( है ) । [2] ( जो ) शरण में आए हुए के लिए, कैदी रूप में पकड़ने में, (गाय की चोरी होने पर ) गाय के समय में, मित्र की सहायता में, निज का अपमान होने पर,
( दोषियों को) संरक्षरण में, स्वामी के ( कठिन )
(और उसको
( ऐसा व्यक्ति
( तथा ) ( जिसके द्वारा ) दूसरे के दुःख में ( काम में ) नहीं लगा जाता है, हे विभीषण ! वैसा पुरुष रोया जाता है। [47] अन्य भी ( जो ) पाप कर्म का उत्पादक ( है ) ( वह) (तथा) जिसके (जीवन में ) पाप का बहुत भारी बोझ (है) (वह) ( रोया जाता है ) ( जिसको) पृथ्वी भी सहने के लिए समर्थ नहीं है ( वह भी ) ( जिस ) अन्याय को कहती हुई नहीं थकती है, ( जिसके कारण ) नदी कांपती है, कहती है ) ( कि ) (तुम) (मेरा ) ( प्रयोग करके) मुझको क्यों सुखाते हो ? रोया जाता है ) ( जिसके कारण ) खाई जाती हुई प्रौषधि हाहाकार मचाती है, अर्थात् दुःखी होती है), (जिसके कारण ) काटी जाती हुई वनस्पति घोषणा करती है (ऊँची आवाज में कहती है ) ( कि) (ऐसे) दुष्ट चित्तवाले (व्यक्ति) का मरण कब होगा । [8] उस (पापी) के (साथ) (शीतल) पवन भी ( बार-बार) भिड़ता है परास्त कर देती हैं । ( वह) राजकुल के चोरों की (सभी को ) दुर्वचनरूपी काँटों से बींध देता है । जाता है (ऐसा व्यक्ति रोया जाता है) ।
(
(और) सूर्य की (तप्त) किरणें (भी) (उसे) स्तुति से धन इकट्ठा करता है । [9] (वह) ( वह) स्वजनों द्वारा विष-वृक्ष की तरह माना
77.2
घत्ता- - (जो) धर्मरहित (है), (जो ) पाप का पिण्ड ( है ), ( जिसका ) यहां निवास किया हुआ (अन्य ) (कोई ) स्थान नहीं है (जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है) जिसका नाम महिष, वृष और मेष (राशि) के द्वारा ( कहा जाता है) वह रोया जाना चाहिए ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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तं रिसुणेवि पहारणउ 'एत्तिउ रुमि दसासहों एग सरीरें विराय - थाणें
सुरचावेरण व प्रथिर - सहावें
रम्भा - गब्भेण व गोसारें तर रग चिण्णु मरण - तुरउ रण खञ्चि वउ र धरिउ महु रग किउ रिणवारिउ
26
]
77.4
भणइ विहीसरण - रारणउ ।
भरिउ भुवणु जं प्रयस हों ॥ 1 दिट्ठ- णट्ठ - जल- विन्दु- समाणें ॥ 2 तडि-फुरण व तक्खरण - भावें ॥3 पक्व फलेग व उरगाहारें ॥4 मोक्खु रग साहिउ राहु ण अञ्चिउ || 11 अप्पर किउ तिरण - समउ गिरारिउ' ।। 12
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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77.4
[1] उसको सुनकर प्रधान राजा विभीषण ने कहा (कि) (चूंकि) दसमुखवाले (रावण) के द्वारा (यह। जगत अपयश से भर दिया गया है (इसलिए) (मैं) इतना रोता हूँ । [2] (प्रायः) देखा गया (है) (कि) जल-बिन्दु के समान (अस्थिर) तथा दोष के घर इस शरीर के द्वारा नाश को प्राप्त हुया गया (है) (इतना तो मैं समझता हूँ)। [3] (और यह भी समझता हूँ) (क) (शरीर) अस्थिर-स्वभाववाले इन्द्र-धनुष के समान है (और) शीघ्र (परिवर्तनशील) अवस्था होने से बिजली की चमक के समान है। [4] (तथा) (वह) केले के पेड़ के साररहित भीतर (के) (माग) के समान है (तथा) पक्षियों के (प्रिय) भोजन पके फल के समान है। [11] (खेद है कि रावण के द्वारा) (इस शरीर से) तप नहीं किया गया, मनरूपी घोड़ा वश में नहीं किया गया, मोक्ष नहीं साधा गया (तथा) परमेश्वर नहीं पूजा गया। [12] (और मी) (मोक्ष प्राप्ति के लिए) व्रत धारण नहीं किया गया (तथा) (सबके द्वारा) रोका हुआ यह विनाश किया गया । (उसके द्वारा) निश्चय ही अपना (जीवन ) तिनके के समान (तुच्छ) बनाया गया ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 27
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पाठ-5
पउमचरिउ सन्धि-83
83.2 पत्ता-'एत्तडउ दोसु पर रहुवइहै जं परमेसरि पाहिँ घरै।
मपमायहि लोयहुँ छन्दरण प्राणेंवि का वि परिक्ख करें॥9
-
833
तं रिणसुणेवि चवइ रहुणन्दणु 'जाणमि सीयह तणउ सइत्तणु ॥1 जाणमि जिह हरि-वंसुप्पणी जाणमि जिह वय-गुण-संपण्णी ॥2 जाणमि जिह जिरण-सासणे भत्ती जाणमि जिह महु सोक्खुप्पत्ती ॥3 जा अणु-गुण-सिक्खा-वय-धारी जा सम्मत्त-रयण-मरिण-सारी ॥4 जाणमि जिह सायर-गम्भीरी जारणमि जिह सुर-महिहर-धीरी ॥ 5 जारणमि अंकुस-लवरण-जणेरी जाणमि जिह सुय जरणयहाँ केरी।।6 जागमि सस भामण्डल-रायहाँ जागमि सामिरिण रज्जहाँ प्रायहाँ ॥7 जाणमि जिह अन्तेउर-सारी जाणमि जिह महु पेसण-गारी ॥8
धत्ता-मेल्लेप्पिणु णायर-लोऍण महु घरै उब्भा करेंवि कर ।
जो दुज्जसु उप्पर घित्तउ एउग जाणहाँ एक्कु पर' ॥9
83.4
तहि अवसर रयणासव-जाएं
कोक्किय तियड विहीसण-राएं ॥1
28 ]
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-5 पउमचरिउ
सन्धि-83
83.2
घत्ता-किन्तु हे रघुपति ! इतना (ही) दोष है कि परमेश्वरी (सब ऐश्वर्य से सम्पन्न) (सीता) घर में नहीं है । आप लोगों के छल से न भटके (गलत निर्णय न करें)। (पाप) समझकर (जानकर) कोई भी परीक्षा करें।
83.3
[1] उसको सुनकर रघुनन्दन ने कहा-(मैं) सीता के सतीत्व को जानता है। [2] जिस प्रकार (वह) हरिवंश में उत्पन्न हुई (है) (उसको) (मैं) जानता हूँ। जिस प्रकार व्रत और गुण से युक्त है (मैं) जानता हूँ। [3] जिस प्रकार (उसकी) जिन-शासन में भक्ति है (उसको) (मैं) जानता हूँ । जिस प्रकार (वह) मेरे लिए सुख की उत्पत्ति को (करती है, उसको) (मैं) जानता हूँ। [4] जो अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षावतों को धारण करनेवाली है, जो सम्यक्त्त्वरूपी रत्नों और मरिणयों का सार है (उसको मैं जानता हूँ)। [5] जिस प्रकार (वह) सागर के समान गंभीर है, जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरुपर्वत के समान धैर्यवाली है (उसको) (मैं) जानता हूँ। [6] (मैं) लवण और अंकुश की माता को जानता हूँ । जानता हूँ, जिस प्रकार (वह) जनक की पुत्री है । [7] राजा भामण्डल की बहिन को जानता हूँ, (मैं) इस राज्य की स्वामिनी को जानता हूँ। [8] जिस प्रकार (वह) अन्तःपुर में श्रेष्ठ है, मैं जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरे लिए प्राज्ञा (पालन) करनेवाली है (मैं) जानता हूँ।
धत्ता - किन्तु नगर के लोगों द्वारा मिलकर मेरे लिए घर में हाथों को ऊँचे करके जो अपयश (मेरे) ऊपर डाला गया है, एक यह (ही) समझने (जानने) के लिए (मैं) (समर्थ) नहीं (हूँ)।
83.4
[1] उस अवसर पर रत्नाश्रव (से उत्पन्न) के पुत्र विभीषण राजा के द्वारा त्रिनटा
अपभ्रंश कान्य सौरभ ]
[
29
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वोल्लाविय एत्तहे वि तुरन्तें विणि वि विण्णवन्ति पणमन्तिउ । 'देव देव जइ हुवहु डज्झइ जइ पायाले णहङ्गणु लोट्टइ जइ उप्पज्जइ मरणु कियन्तहाँ जइ प्रवरें उग्गमइ दिवायरु एउ असेसु वि सम्भाविज्जइ
लङ्कासुन्दरि तो हणुवन्ते ॥2 सीय-सइत्तरण-गव्वु वहन्तिउ ॥3 जइ मारुउ पड-पोट्टले वज्झइ ।। 4 कालन्तरण कालु जइ तिट्ठइ ॥5 जइ णासइ सासणु अरहन्तहाँ ॥6 मेरु-सिहर जइ रिणवसइ सायरु ॥7 सोयह सोलु ण पुणु मइलिज्जइ ॥8
घत्ता-जइ एव वि गउ पत्तिज्जहि तो परमेसर एउ करें ।
तुल-चाउल-विस-जल-जलपहँ पञ्चहँ एक्कु जि दिव्य धरै'॥9
83.5
तं रिणसुरण वि रहुवइ परिप्रोसिउ
एव होउ' हक्कारउ पेसिउ ॥1
घत्ता-'चडु पुप्फ-विमारणे मडारिएँ मिलु पुत्तहँ पइ-देवरहें।
सहुँ अच्छहिँ मझ परिठिय पिहिमि जेम चउ-सायरहें' ॥9
83.6
तं णिसुवि लवणंकुस-मायएँ णिठ्ठर-हिययहाँ अ-लइय-णामहाँ घल्लिय जेरण रुवन्ति वणन्तर जहिँ माणुसु जीवन्तु वि लुच्चइ तहिँ वणे घल्लाविय अण्णाणे
वुत्तु विहीसणु गग्गिर-वायएँ ॥1 जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहाँ ॥2 डाइरिण-रक्खस-भूय-भयङ्कर ॥3 विहि कलि-कालु वि पाणहुँ मुच्चइ ।। 6 एवहिं किं तहाँ तणेण विमाणे ॥7
30
]
अपभ्रंश काव्य सौरम
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बुलाई गई। [2] तब यहाँ पर हनुमान के द्वारा तुरन्त ही लङ्कासुन्दरी बुलवाई गई। [3] दोनों ही सीता के सतीत्व के गर्व को धारण करती हुई (और उसको) प्रणाम करती हुई कहती हैं । [4] हे देव ! हे देव ! यदि अग्नि जलाई जाती है, यदि कपड़े की पोटली में हवा बांधी जाती है । [5] यदि पाताल में प्राकाश लोटता है, यदि समय बीतने से काल नष्ट होता है। [6] यदि यमराज का मरण उत्पन्न होता है, यदि अरहन्त का शासन नष्ट होता है। [7] यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उगता है, यदि पर्वत के शिखर पर सागर रहता है। [8] (तो) यह सब भी सोचा जा सकता है, (सम्भावना कराई जा सकती है) किन्तु सीता का शील (आचरण) मलिन नहीं किया जा सकता ।
घत्ता-यदि इस प्रकार भी (तुमको) विश्वास नहीं होता तो हे परमेश्वर ! (आप) यह करें (कि) तिल-चावल-विष-जल-अग्नि इन पांचों (परीक्षा) में से आरोप की शुद्धि के लिए की जानेवाली परीक्षा (के लिए) एक ही (वस्तु) को धारण करलें'।
83.5
[1] उस (बात) को सुनकर रघुपति सन्तुष्ट हुए । 'इसी प्रकार हो' (यह कहकर सीता को बुलाने के लिए) हरकारा भेजा गया ।
घत्ता-'हे पूजनीया ! (पाप) पुष्पक विमान पर (में) चढ़ें। (अपने) पुत्रों, पति और देवरों को मिलें। (आप) (उनके) साथ (इस प्रकार) रहें जिस प्रकार चारों सागरों के मध्य में पृथ्वी स्थित है।
83.6
[1] उसको सुनकर लवण (और) अंकुश की माता के द्वारा भरी हुई वाणी से विभीषण (को) कहा गया । [2] 'निष्ठुरहृदय राम के नाम को मत लो, (उनको) (मैं) जानती हैं, (उनके द्वारा) (मेरी) कोई तृप्ति नहीं की गई। [3] जिनके द्वारा डाकिनियों, राक्षसों और भूतोंवाले डरावने वन में (मैं) रोती हुई डाल दी गई। [6] जहाँ पर जीता हया (जीवित) मनुष्य भी काट दिया जाता है, जहाँ विधाता और काल-रूपी शत्र (मृत्यू) भी प्राणों से छुटकारा पा जाता है । [7] उस वन में (मैं) अज्ञान से (अज्ञान में) डलवा दी गई । अब उसके लिए विमान से क्या (लाभ है)? ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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घत्ता - जो तेण डाहु उप्पाइयउ पिसुणालाव - भरोसिऍग । सो दुक्क उल्हाविज्जइ मेह-सएण वि वरिसिऍग ॥ 8
रण भीय सइत्तरण - गव्वें बलैवि पवोल्लिय मच्छर- गव्वें ॥ 7 'पुरिस खिही होन्ति गुणवन्त वि तियहँ रग पत्तिज्जन्ति मरन्त वि ॥ 8
32 1
83.8
घत्ता — खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहँ पउराखियहँ कुलुग्गयहँ । रयणाय खारइँ देन्तउ तो वि रग थक्कड सम्मयहँ ॥ 9
साणु र केरा वि जरग गरिगज्जइ ससि स-कलंकु तहिँ जि पह रिणम्मल उवलु पुज्जु रग केरण वि छिप्प धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ दीवउ होइ सहावें कालउ गर-गारिहिं एवड्डुउ प्रन्तरु ऍह पइँ कवरण वोल्ल पारम्भिय तु पेक्खन्तु प्रच्छु वीसत्थउ
83.9
गङ्गा - गइहिं तं जि व्हाइज्जइ ॥ 1 कालउ मेहु तहिँ जें तडि उज्जल ।। 2 तहिँ जि पडिम चन्दण विलिप्पs || 3 कमल - माल पुणु जिण हों वलग्गइ || 4 वट्टि - सिहऍ मण्डिज्जइ श्रालउ || 5 मरणें वि वेल्लि ण मेल्लइ तरुवरु ।। 6 सइ-वडाय मइँ श्रज्जु समुब्भिय || 7 डहउ जलणु जइ डहेंवि समत्थउ ॥ 8
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पत्ता-ईया से बोझिल (भरे हुए) चुगलखोरों के कथन (पालाप) से उसके द्वारा (राम के द्वारा) (मेरे मन में) जो संताप उत्पन्न किया गया है, वह सैकडों (बार) मेहों के बरसने से भी कठिनाई से शान्त किया जायगा ।
83.8
[7] सतीत्व के गर्व के कारण सीता नहीं डरी, (सीता द्वारा) मुड़कर ईर्ष्या और गर्व से कहा गया (माक्रमण किया गया)। [8] 'पुरुष चाहे गुणवान हों अथवा तुच्छ किन्तु स्त्री के द्वारा चाहे (वह) मरती हुई (हो, तो भी) वे विश्वास किये जाते हैं।
घत्ता घास फूस (व) लकड़ी को बहाती हुई (ले जाती हुई) प्राचीन और पवित्र नर्मदा (नदी) का जल (समुद्र में गिरता है) तो भी समुद्र खार को देता हुआ नहीं थकता है ।
83.9
[1] किसी (भी) जन के द्वारा कुत्ता आदर नहीं दिया जाता, (यदि) वह गंगा नदी में भी नहलाया जाय । [2] चन्द्रमा कलंकसहित (होता है) (किन्तु) उससे (उत्पन्न) प्रभा निर्मल (होती है) । मेघ काला (होता है) (पर) उससे (उत्पन्न) बिजली उज्ज्वल (होती है)। [3] पत्थर अपूज्य (होता है) (इसलिए) किसी के द्वारा भी छुपा नहीं जाता (तो भी) उससे ही (बनी हुई) प्रतिमा चन्दन से लीपी जाती है । [4] यदि कीचड़ लगता है, (तो) पांव धोया जाता है, किन्तु (कीचड़ में उत्पन्न) कमल की माला जिनेन्द्र के (चरणों में) चढ़ती है । [5] दीपक स्वभाव से काला होता है, (तो भी) बत्ती की शिखा से घर सुशोभित किया जाता है । [6] नर और नारी में इतना (ही) अन्तर है कि मरने पर भी (नारी-रूपी) बेल (नर-रूपी) वृक्ष को नहीं छोड़ती है । [7] तुम्हारे द्वारा यह बोल किसलिए प्रारम्भ किया गया (है) । मेरे द्वारा आज भी सतीत्व की पताका भली प्रकार से ऊँची की गई है । [8] तुम देखते हुए (हो) (कि) मैं (आज भी) अत्यन्त विश्वास-युक्त (हूँ), यदि अग्नि जलाने के लिए समर्थ है (तो) जलावे।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 33
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34
पाठ
1
16.3
धत्ता - थिउ चक्कु रंग पुरवरि पइसरइ रंगावइ केरण वि धरियउ ॥ ससिबिबु व हि तारायर्णाहं सुरवरोह परियरियउ ॥ 13
6
महापुराण
सन्धि-16
तं सुष्पिणु भइ पुरोहिउ
क्खमि तं रिसुसहि परमेसर भुयजुयबलपडिबलविद्दवणहं तेश्रोहा मिय चंद दिसहं कित्तिसत्तिजरण मेत्तिसहायहं सेब करंति रग हाईवइं देति सग करमर केस रिकंधर श्रज्ज वि ते सिज्यंति ण जेरण जि
ता भरिणयं गिराइमा रूढराइणा
खंडवाडवेयं ।
कि थियमिह रहंगयं णिच्चलंगयं तरुणतरणितेयं ॥ 1
16.4
जेहु गइफ्सर गिरोहिउ ॥ 2 देवदेव दुज्जय मरहेसर 13 पयभर थिरमहियल कंपवरणहं ॥ 4 जगणदिण्ण महिलच्छिविलासहं ॥5 को पडिमल्लु एत्यु तुह मायहं ॥ 6 उ भवंति तुह पयराईव || 7 पर मुहियइ मुंजंति वसुंधर ॥ 8 पइसइ पट्टणि चक्कु ण तेथ जि ॥ 9
16.7
ता विगया बहुयरा जरणमगोहरा रिशवकुमारवासं । दुमदलल लियतोरणं रसियवारणं छिण्णभूमिवेसं
# 1
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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913-6
महापुराण
सन्धि - 16
16.3
घत्ता - चक्र ठहर गया । श्रेष्ठ नगर में (उसने ) प्रवेश नहीं किया, मानो (वह) किसी के द्वारा पकड़ लिया गया (हो) । श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया ( वह ) ( ऐसा लगता था मानो आकाश में चन्द्रमण्डल तारागरणों द्वारा (घेर लिया गया) (हो) ।
16.4
[12] तब निर्भय और प्रसिद्ध राजा (भरत) के द्वारा (यह ) कहा गया ( कि ) प्रचण्ड वायु के वेगवाला, युवा सूर्य के तेजवाला (यह ) दृढ़ अंगवाला चक्र यहाँ क्यों ठहरा (स्थिर हुआ ) ? [34] उसको सुनकर (राज) पुरोहित ने कहा (कि ) जिस कारण से इस (चक्र) की गति का प्रवाह रोका गया ( है ) उसको (मैं) बताता हूँ- हे परमेश्वर ! हे देवों के देव ! हे दुर्जेय भरतेश्वर ! (ग्राप ) उसको सुनें । [5-6-7] (तुम्हारे भाइयों का ) (जो ) दोनों भुजात्रों के बल से शत्रु की सेना का ( विविध प्रकार से ) दमन करनेवाले (हैं), (जो ) स्थिर पृथ्वीतल को पैरों के भार से कँपानेवाले ( हैं ), ( जिनके द्वारा ) सूर्य और चन्द्रमा का तेज तिरस्कार किया गया (तिरस्कृत) ( है ), (जिनको) पृथ्वीरूपीलक्ष्मी पिता के द्वारा मनोविनोद के लिए दी गई ( है ), (तथा) कीर्ति, शक्ति प्रोर जनता से ( उनकी ) मित्रता ( है ) ( और वे ) ( उनकी) सहायता के लिए ( तत्पर हैं ) । तुम्हारे (उन ) भाइयों का यहाँ कौन जोड़वाला ( प्रतिद्वन्द्वी ) ( है ) । [8] ( इसलिए ) ( वे) ( तुम्हारी) सेवा नहीं करते हैं । तुम्हारे अत्यधिक कान्ति से ( युक्त) नखवाले चरणरूपी कमलों को (वे) प्ररणाम नहीं करते हैं। [9] (और भी) सिंह के समान गर्दनवाले ( तुम्हारे ) (भाई) कर की राशि भी नहीं देते हैं, किन्तु (वे ) ( इस प्रकार ) बिना मूल्य के ही पृथ्वी को भोगते हैं। [10] जिस (उपर्युक्त) कारण (समूह) से ही वे आज भी ( सिद्ध नहीं हैं) जीते नहीं जाते हैं, उस कारण (- समूह ) से ही चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता है ।
16.7
[12] मनुष्यों के मन को हरनेवाला दूत (उन) राजपुत्रों के घर गया । ( वह घर) वृक्ष - समूह से ( निर्मित) सुन्दर तोरणवाला ( था), घोड़े और हाथीवाला ( था) और
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 35
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तेहि भणिय ते विरण उ करेप्पिणु सामिसालतणुरुह पवेप्पिणु ॥2 सुरणरविसहरभयई जणेरी करहु केर गरणाहहु केरी ।। 3 परणवहु कि बहुएण पलावें पुहइ ण लब्भइ मिच्छागावें ॥4 तं णिसुणेवि कुमारगणु घोसइ ' तो पणवहुं जइ वाहि ण दोसइ ॥5 तो पणवहुं जइ सुसुइ कलेवरु तो पणवहुं जइ जीविउ सुंदर ॥ 6 तो पणवहुं जइ जरइ रण झिज्जइ तो परणवहुं जइ पुट्ठि ण भज्जइ ।।7 तो पणवहुं जइ बलु पोहट्टइ तो पणवहुं जइ सुइ ण विहट्टइ ॥8 तो पणवहुं जइ मयणु ण तुट्टइ तो पणवहुं जइ कालु र खुट्टइ ॥9 कंठि कयंतवासु ण चुहुट्टइ तो पणवहुं जइ रिद्धि ण तुट्टइ ॥10
पत्ता -- जइ जम्मजरामरणई हरइ चउगइदुक्खु णिवारइ ।
तो पणवहुं तासु परेसहो जइ संसारहु तारइ ॥1॥
16.8
पुणरवि तेहिं गहिरयं सवरणमहुरयं एरिसं पउत्तं ।
प्राणापसरधारणे धरणिकारणे पणविउं जुत्तं ॥1 पिडिखंडु महिखंडु महेप्पिणु किह पणविज्जइ माणु मुएप्पिणु ॥2 वक्कलणिवसणु कंदरमंदिर वणहलभोयणु वर तं सुंदर ॥3 वर दालिदु सरीरहु दंडणु णउ पुरिसहु अहिमागविहंडणु ॥4 परपयरयधूसर किंकरसरि असुहाविरिण णं पाउससिरिहरि ॥5 णिवपडिहारदंडसंघट्टणु को विसहइ करेण उरलोट्टणु ॥6 को जोयइ मुहं भूभंगालउ कि हरिसिउ कि रोसें कालउ ॥7
36
]
अपभ्रंश काव्य सौरम
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बाँटी हुई जमीन के भागवाला ( भाग में स्थित ) ( था)। [3] श्रेष्ठ स्वामी के पुत्रों को प्रणाम करके (और) (उनके प्रति ) विनय करके उनके द्वारा (दूत के द्वारा) वे कहे गये ।
[4] ( दूत ने कहा ) तुम (सब) नरनाथ ( राजा भरत) की ( ऐसी ) सेवा निश्चय ही करो (जो) देवताओं, मनुष्यों और धार्मिक ( - जन ) ( में) भय को उत्पन्न करनेवाली (हो), [5] (तुम) ( सब ) ( उनको ) प्रणाम करो। बहुत प्रलाप ( बकवास ) से क्या लाभ ( है ) ? मिथ्या गर्व से पृथ्वी प्राप्त नहीं की जाती है। [6] उसको सुनकर कुमारगण ने कहा - यदि ( किसी के) व्याधि नहीं देखी जाती है तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । [7] यदि ( किसी का) शरीर अत्यन्त पवित्र ( है ) तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । यदि (किसी का)
[9]
[8] जो न जीर्ण होता है (न) यदि (किसी का) बल कम नहीं (किसी की ) पवित्रता नष्ट नहीं यदि (किसी का) प्रेम खण्डित नहीं
यदि
[10]
जीवन सुन्दर ( है ) तो (हम) (उसको) प्रणाम करते हैं । क्षीण होता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं । होता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं । होती है तो ( हम ) ( उसको ) प्रणाम करते हैं। होता है तो (हम) ( उसको ) प्रणाम करते हैं । यदि ( किसी की ) उम्र क्षीण नहीं होती है तो ( हम ) ( उसको) प्रणाम करते हैं। [11] यदि (किसी के) गले में यम का फन्दा नहीं चिपका है तो ( हम ) ( उसको ) ( प्रणाम करते हैं), यदि किसी का वैभव नहीं घटता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं ।
घत्ता
-यदि (कोई) जन्म-जरा और मरण का हरण करता है, (यदि ) (कोई) चार गति के दुःख को दूर (नष्ट) करता है, यदि (कोई ) संसार से पार लगाता है, तो (हम) उस राजा को प्रणाम करते हैं ।
-
[12] फिर उनके द्वारा महत्वपूर्ण (गौर) सुनने में मधुर (शब्द) इस प्रकार कहे गये – प्रज्ञा-प्रसार (प्रसारित आज्ञा ) के पालन करने के प्रयोजन से (और) पृथ्वी के निमित्त से प्रणाम करना (करने के लिए) उपयुक्त नहीं है। [3] ( इस ) शरीर को (और) भू-खण्ड / पृथ्वी को मह व देकर (किन्तु ) आत्म-सम्मान को छोड़कर (किसी को) क्यों प्रणाम किया जाए ? [4] वृक्ष की छाल का वस्त्र, गुफा में घर, जंगल के फलों का भोजन श्रेष्ठ (तथा) अच्छा है । [5] निर्धनता (और) शरीर के लिए दंड देना श्रेष्ठ ( है ) ( किन्तु ) व्यक्ति के स्वाभिमान का खंडन (श्रेष्ठ) नहीं ( है ) । [6] सेवकरूपी नदी दूसरों के पैरों की धूल से पीले रंगवाली (हो जाती है) (इसलिए) असुन्दर (होती है) मानो ( श्रात्म-सम्मानरूपी) वर्षा [7] राजा के द्वारपालों के डंडों का संघर्षण (प्रोर) [8] ( उस ) ( मुख को) कौन देखे (जो ) बार-बार क्या ( वह ) प्रसन्न हुग्रा ( है ) या क्या क्रोध से काला
ऋतु की शोभा को हरनेवाली (हो) । हाथ से छाती पर प्रहार कौन सहेगा ? हों की सिकुड़न का स्थान ( है )
अपभ्रंश काव्य सौरभ |
16.8
1
37
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पहु प्रासण्णु लहइ चिट्ठत्तणु मोणे जड़ भडु खंतिइ कायर अमुरिणयहिययचारुगस्यत्ते महुरपयंपिरु चाडुयगारउ
पविरलदसणु पिण्रणेहत्तणु ॥8 प्रज्जवु पसु पंडियउ पलाविरु ॥9 कलहसीलु भण्णइ सुहडतें ॥10 केम वि गुरिण ण होइ सेवारउ ॥1
16.9
अहवा तेहिं कि हयं जं समागयं दुल्लहं परतं ।
तं जो विसयविसरसे घिवइ परवसे तस्स कि बुहत्तं ॥1 कंचणकं. जंबुउ विधा मोत्तियदामें मंकडु बंधइ ॥2 खोलयकाररिण देउलु मोडइ सुत्तणिमित्तु दित्तु मरिण फोडइ ॥3 कप्पूरायररुक्खु रिणसुंभइ कोद्दवछत्तहु वइ पारंभइ ॥4 तिलखलु पयइ डहिवि चंदणतरु । विसु गेण्हइ सप्पहु ढोयवि करु ॥5 पीयई कसणइं लोहियसुक्कइं। तकें विक्कइ सो माणिक्कइं ॥6 जो मणुयत्तण भोएं णासह तेण समाणु होणु को सीसइ ॥7 चित्तु समत्तणि रणेय रिणयत्तइ । पुत्तु कलत्तु वित्तु संचितइ ॥8 मरइ रसरणफंसणरसदड्ढउ मे मे मे करंतु जिह मेंढउ ॥9 खज्जइ पलयकालसन्दूलें डज्झइ दुक्खहुयासणजालें ॥10 मंजरु कुंजरू महिसउ मंडलु होइ जीव मक्कडु माहुंडलु ॥1 पत्ता-केलासहु जाइवि तवयरण ताएं भासिउ किज्जइ ।
जेणेह सुदूसहतावयरि संसारिणि तिस छिज्जइ ॥12
38 )
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(हुआ) ( है ) ? [9] (जो) राजा के समीप ( स्थित ) ( रहता है), (वह) ढीठता / निर्लज्जता को पाता है, (जो ) ( राजा का) बहुत थोड़ा दर्शन करनेवाला (होता है ) ( वह) स्नेहरहितता को ( प्राप्त होता है / पाता है) । [ 10 ] मौन के कारण वीर आलसी (कहा जाता है), क्षमा के कारण (वीर) कायर (कहा जाता है), सरलता पशु का ( चिह्न मानी जाती है), बकवास करनेवाला पण्डित ( कहा जाता है) । [11] सुन्दर व महान् ( किन्तु ) हृदय में न समझे हुए (नासमझ) के द्वारा योद्धापन के कारण (व्यक्ति) कलहकारी कहा जाता है। [12] ( राजा से) मधुर बोलनेवाला खुशामदी ( कहा जाता | सेवा (चाकरी) में लीन (व्यक्ति) किसी प्रकार भी गुणी नहीं होता है ।
निमित्त ( माला में को नष्ट करता है वृक्ष को जलाकर
(
उससे ) तिलों की खल को
[1] अथवा (जिसके द्वारा) प्राप्त दुर्लभ मनुष्यत्व नष्ट किया गया (है), उससे क्या ( लाभ है) ? तो जो विषयरूपी विष के रस में (अपने को) डालता है, (वह) दूसरे के वश में (होता है), उसकी क्या विद्वता (है) ? [2] (वह ऐसा व्यक्ति है) (जो) सोने के तीर से सियार को आहत करता है, (जो) मोती की रस्सी से बंदर को बाँधता है। [3] ( जो ) खम्भे के प्रयोजन से देव मन्दिर को तोड़ता है, (जो) सूत के पिरोये हुए) दीप्त मरिण को फोड़ता है । [4] (जो) कपूर के श्रेष्ठ वृक्ष (और) (उससे) कोदों के खेत की बाड़ बनाता है । [5] ( जो ) चन्दन के पकाता है (और) (जो ) हाथ में सर्प को ढोकर विष ग्रहरण करता है । [6] वह पीले, काले, लाल और सफेद माणिक्यों को छाछ के प्रयोजन से बेचता है । [7] जो मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से नष्ट करता है, उसके समान हीन कौन कहा जाता है ? [8] (जो) समत्व में चित्त को नहीं लगाता है (गौर) पुत्र, पत्नी और धन की अत्यन्त चिन्ता करता है । [9] (जो ) जिह्वा और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ मरता है, जिस प्रकार मेढा मे मे (शब्द) करता हुआ (मरता) है। [10] (जो) प्रलयकालरूपी बाघ (सिंह) के द्वारा खाया जाता है (तथा) दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला के द्वारा जलाया जाता है। [11] ( ऐसा ) जीव बिलाव, हाथी, भैंसा, कुत्ता, बन्दर और सर्प होता है ।
16.9
घत्ता - जिसके द्वारा कैलाश पर्वत पर जाकर पिता के द्वारा बताया हुआ तप का आचरण (यदि) किया जाता है (तो) (उस) संसारी जीव के द्वारा यहाँ अत्यन्त दुसह्य - दुःखकारी प्यास छेदी जाती
1
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
t 39
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118-7
महापुराण
सन्धि - 16
ता पत्तो चरो पुरं रिवइणो घरं भरणइ सुरग सुराया । इसरो तुह सहोयरा सीलसायरा अज्जु देव जाया ॥ 1 एक्कु जि पर बाहुबलि सुदुम्मइ रंगउ त करइ रण तुम्हहं परणवइ || 2
40 ]
16.11
16.19
केसरिकेसरु वरसइथ लयलु
जो हत्थे छिवइ सो केहउ हउं सो परणवमि को सो भाइ कि जम्मरिण देवहि ग्रहिसिचिउ कि तह प्रग्गइ सुरवइ गच्चि चक्कु दंडु तं तासु जि सारउ करिसूयर रहवरडिभयरहं भरहु हरइ कि मज्भु भुयाभरु
जं दिण्णं महेसिरा दुरियणासिरगा रगयरदेस मेत्तं ।
तं मह लिहिसासणं कुलविहसणं हरइ को पहुत्तं ॥ 1
पोयणणयरु प्राइजिणिदें
घत्ता
-तहु मेइणि मह दिण्णउं । भिड पड प्रसि सिहिसिहहिं जइ ण सरइ पडिपवण्णउं || 10
सुहडहु सरण मज्भु धरणीयलु ॥ 2 कि कयंतु कालारणलु जेहउ 113 महिखंडेण कवरण परमुण्गइ ॥ 4 कि मंदरगिरिसिहरि समच्चिउ ॥ 5 सिरिसइरिणिय किं रोमंचिउ || 6 महु पुणु णं कुंभारहु केरउ 11 7 पर णिहणमि रणि जे वि महारह ॥ 8 तइ चुक्कइ जइ सुमरइ जिरणवरु ॥ 9
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-7
अपभ्रंश काव्य सौरभ
महापुराण
[1] तो दूत पहले राजा के घर पहुँचा (और) बोला- हे श्रेष्ठ राजन ! ( ग्राप) सुनो। हे देव ! शील के सागर तुम्हारे भाई श्राज ( ही ) मुनि हो गये हैं। [2] किन्तु एक बाहुबलि ही प्रत्यन्त दुर्मति (है) (जो) न तप करता है (और) न तुमको प्रणाम करता है ।
सन्धि - 16
]
16 11
[1] जो पाप के नाशक महर्षि ( ऋषभ ) के द्वारा (मेरे लिए) केवल (कुछ) नगर और देश दिए गए हैं, वह मेरे लिए लिखित आदेश (है); (तथा) (वह) (मेरे) कुल की शोभा (है) । (उस) प्रभुता को कौन छीनता (छीन सकता है 1 [23] जो (व्यक्ति) सिंह के बाल को, श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को, सुभट की शरण को तथा मेरी जमीन को हाथ से छूता है, क्या ( तुम समझते हो) वह कैसा (होता है ) ? ( वह ऐसा ही होता है) जैसा यम और कालरूपी अग्नि (होती है ) । [4] वह कौन ( है ) ( जो ) मैं उसको प्रणाम करूँ ? पृथ्वी खंड के कारण किसकी परम उन्नति कही जाती है ? [5] क्या ( वह) जन्म पर देवताओं के द्वारा अभिषेक किया गया ? क्या (वह) सुमेरु पर्वत के शिखर पर पूजा गया ? (है)? अरे ! (वह) स्वेच्छाचारिणी लक्ष्मी के द्वारा क्यों और दण्ड उसके लिए ही महत्वपूर्ण ( मूल्यवान ) है, किन्तु (च) ( है ) । [8] हाथीरूपी सूअरों योद्धा मनुष्य ( हैं ) ( उनको) मैं रण बल को क्या हरेगा ? यदि (वह) जिनवर का स्मरण करता है, तभी ( वह) बच निकलेगा ।
[6] क्या उसके आगे इन्द्र नाचा पुलकित ( है ) ? [7] वह चक्र मेरे लिए (तो) वह कुम्हार का श्रेष्ठ रथों पर तथा छोटे रथ (समूह) पर जो भी मारूंगा ( नष्ट करूँगा ) । [ 9 ] भरत मेरे भुजा
पर,
घत्ता-- - तुम्हारी पृथ्वी और मेरा पोदनपुर नगर आदिजिनेन्द्र के द्वारा दिए हुए ( हैं ) | यदि ( वह ) स्वीकार किये हुए (विभाजन) को नहीं मानता है, (तो) (मेरी) तलवार को मिले (और) अग्नि की ज्वाला में पड़े ।
16.19
[ 41
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16.20
ता दूएण जंपियं किं सुविप्पियं भगसि भो कुमारा।
वारणा भरहपेसिया पिछभूसिया होंति दुण्णिवारा ॥1 पत्थरेण कि मेरु दलिज्जइ
किं खरेण मायंगु खलिज्जइ ॥2 खज्जोएं रवि गित्तेइज्जइ
किं घुट्टेण जलहि सोसिज्जइ ॥3 गोप्पएण किं गहु माणिज्जइ अण्णाणे किं जिणु जाणिज्जइ ॥4 वायसेरण किं गरुडु णिरुज्झइ णवकमलेण कुलिसु कि विज्झइ ॥5 करिणा किं मयारि मारिज्जइ कि वसहेण वग्घु दारिज्जइ ॥6 कि हंसें ससंकु धवलिज्जइ
किं मणुएण कालु कवलिज्जइ ॥7 डेंडुहेण कि सप्पु डसिज्जइ किं कम्मेण सिद्ध वसि किज्जइ ॥8 किं णीसासें लोउ रिणहिप्पइ कि पई भरहणराहिउ जिप्पइ ॥9
घत्ता-हो होउ पहुप्पई जंपिएण राउ तुहुप्परि वग्गइ।
करवालहिं सूहि सव्वाहं परइ रणंगणि लग्गइ ॥ 10
16.21
ता भणियं सहेउणा मयरकेउरणा एत्थ कहि मि जाया।
जे परदविणहारिणो कलहकारिणो ते जयम्मि राया ॥1 वड्ढउ जंबुउ सिव सद्दिज्जइ एण गाई महु हासउ दिज्जइ ॥2 जो बलवंतु चोरु सो राणउ
रिणब्बलु पुणु किज्जइ णिप्राणउ ॥3 हिप्पइ मृगहु मृगेण जि आमिसु हिप्पइ मणुयहु मणुएण जि वसु ॥4 रक्खाकंखइ जूहु रएप्पिणु
एक्कहु केरि प्रारण लएप्पिणु ॥5 ते रिणवसंति तिलोइगविठ्ठउ सोहहु केरउ वंदु रण दिउ ।।6 मारणभंगि वर मरणु रण जीविउ एहउ दूय सुठ्ठ मई माविउं ॥7 आवउ माउ घाउ तहु दंसमि संझाराउ व खरिण विद्धसमि ॥8 सिहिसिहाहं देविदु वि ण सहइ महु मणसियह विसिह को विसहइ ॥9 एक्कु जि पर उव्वारुणरिंदहु जब पड़सरइ सरण जिणयंदहु ॥ 10
42 }
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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16.20
[1] तब दूत के द्वारा (यह ) कहा गया - - हे कुमार ! (आप) क्या अप्रिय (वचन) कहते हो । भरत के द्वारा भेजे हुए पंख से विभूषित बाण कठिनाईपूर्वक हटाये जानेवाले होते हैं । [2] क्या पत्थर से मेरु (पर्वत) टुकड़े-टुकड़े किया जाता है ? क्या गधे के द्वारा हाथी गिराया जाता है ? [3] जुगनू द्वारा क्या सूर्य तेजरहित किया जाता है ? घूंट के द्वारा क्या समुद्र सुखाया जाता है ? [4] गौ के पैर के द्वारा क्या आकाश मापा जाता है ? अज्ञान के द्वारा क्या जिनेन्द्र समझा जाता है ? [5] कौए के द्वारा क्या गरुड़ रोका जाता है ? नूतन कमल के द्वारा क्या वज्र बेधा जाता है ? [6] हाथी के द्वारा क्या सिंह मारा जाता है ? बैल के द्वारा क्या शेर चीरा जाता [7] क्या धोबी के द्वारा चन्द्रमा सफेद किया जाता है ? क्या मनुष्य के द्वारा काल निगला जाता है ? [8] क्या मेंढक के द्वारा सांप काटा जाता है ? क्या कर्म के द्वारा सिद्ध वश में किया जाता है ? [9] क्या श्वास से लोक स्थापित किया जाता है ? क्या तुम्हारे द्वारा भरत नराधिप जीता जाता है ?
घत्ता - आश्चर्य ! (कोई ) प्रलाप किया हुआ होने के कारण समर्थ होता है (तो) होवे । राजा (भरत) तलवारों के साथ, त्रिशूलों के साथ, बर्गों के साथ निकटवर्ती रण के आँगन में भ्रमण करेगा और तुम्हारे ऊपर चौकड़ी भरेगा ।
16.21
[1] तब कामदेव के द्वारा युक्तिसहित (यह ) कहा गया- -जो परद्रव्य को हरनेवाला (है), कलहकारी (है), वे जगत में यहाँ या कहीं भी राजा हुए ( हैं ) ? [2] (वह) (भरत) बूढ़ा सियार ( है ) ( जिसके द्वारा) (अब भी) समृद्धि बुलाई जाती है। इससे मानो मेरे लिए हँसी दी जाती है। [3] जो बलवान चोर ( है ) वह राजा (होता है ), फिर निर्बल (व्यक्ति) निष्प्राण किया जाता है। [4] पशु के द्वारा पशु का माँस ही छीना जाता है । मनुष्य के द्वारा मनुष्य का प्रभुत्व ही छीना जाता 1 [5-6] रक्षा की इच्छा से व्यूह रचकर, एक की आज्ञा लेकर वे (राजा) निवास करते हैं । त्रिलोक में खोज किया हुआ ( है ) ( कि) सिंह का समूह नहीं देखा गया ( है ) । [7] मान के भंग होने पर मरण श्रेष्ठ (है), जीवन नहीं । हे दूत ! ऐसा मेरे द्वारा सममुच विचारा गया ( है I [8] भाई आवे, को दिखलाऊँगा । सन्ध्याराग की तरह एक क्षरण में नष्ट कर ज्वालाओं को देवेन्द्र भी नहीं सह सकता है, (तो) मुझ कामदेव के [10] राजा की परम भलाई एक ( इसमें ) ही है यदि (राजा) जिनदेव की शरण को चला जाये ।
(मैं) उसके घात [9] अग्नि की
दूंगा । बारणों को कौन सहेगा ?
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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घत्ता - संघट्टमि लुट्टमि गयघडहु दलमि सुहड रणमग्गइ |
पहु प्रावर दावउ बाहुबलु महु बाहुबलहि श्रग्गइ ॥ 11
11 2
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ता दूउ विणिग्गश्रो नियपुरं गम्रो तम्मि विरिणवासं । सो विण्णवs सायरं सारसायरं पणविउं महीसं ॥ 1 विसमु देव बाहुबलि गरेसरु नेहु ण संधइ संघइ गुरिण सरु संधि रग इच्छइ इच्छइ संगरु आण रंग पालइ पालइ रियछलु || 4 ara र चितs चितइ पोरिसु ॥15 पुहइ ण देइ देइ वाणावलि ॥ 6 अंगु ण कड्ढइ कढइ खंडउ पर जाणमि देसइ रणभोयणु ॥ 8 ढोएसइ ध्र ुवु रउररयण ॥ 9
#17
कज्जु रग बंधइ बंधइ परियरु
पद्मं णउ पेच्छइ पेच्छइ भुयबलु माणु ण छंडइ छंडइ भयरसु संति रण मण्णइ मण्णइ कुलकलि तुज्भु ण रगवइ णवइ मुणितंडउ देव ण देइ भाइ तुह पोयणु ढोus रयणई उ करिरयणइं
44
16.22
धत्ता - संताणु कुलक्कमु गुरुकहिउ खत्तधम्मु उ वुज्झइ । मज्जायविवज्जिउ सामरिसु प्रवसें दाइउ जुज्झइ ॥ 10
1
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता - ( मैं ) गजसमूह को लूटूंगा, मारूँगा (प्रौर) योद्धाम्रों को रण-पथ में चूर-चूर करूँगा । राजा श्रावे, (अपने ) बाहुबल को मुझ बाहुबलि के आगे दिखाए ।
[1] तब दूत निज-नगर को गया और उस (नगर) में राजा के घर गया । ( उसके द्वारा ) बलरूपी सागर, पृथ्वी का ईश आदर सहित प्रणाम किया गया । उसने ( राजा को ) कहा - [2] हे देव ! हे नरेश्वर ! बाहुबलि खतरनाक ( है ) ( वह) स्नेह नहीं रखता है, ( किन्तु ) धनुष की डोरी पर बाण रखता है। [3] (वह) कार्य नहीं करता ( पर) कमर कसता है । ( वह ) संधि नहीं चाहता है, ( पर ) युद्ध चाहता है । [4] (वह) तुमको नहीं देखता है, (अपनी ) भुजाओं के बल को देखता हैं । ( वह ) ( तुम्हारी ) आज्ञा को नहीं पालता है, किन्तु अपनी दलील को पालता है । [5] (वह ) स्वाभिमान नहीं छोड़ता है, भय का भाव छोड़ता | ( वह ) प्रारब्ध को नहीं विचारता है, ( किन्तु ) पुरुषार्थ को विचारता है । [6] (वह ) शान्ति नहीं विचारता है, कुटुम्ब का झगड़ा विचारता है । ( वह ) पृथिवी नहीं देता है, (किन्तु) बाणों की पंक्ति देता है । [7] (वह) तुमको प्रणाम नहीं करता है, मुनिसमूह को प्रणाम करता है । (वह) अंग को नहीं खींचता है ( किन्तु ) तलवारों को खींचता है । [8] हे देव ! भाई तुम्हें पोदनपुर नहीं देगा । किन्तु ( मैं ) जानता हूँ (वह) ( तुम्हे ) रणरूपी भोजन देगा । [9] (वह) रत्नों और हाथीरूपी रत्नों को (तुमको) भेंट नहीं करेगा । ( वह) निश्चितरूप से मनुष्य के छातीरूपी रत्नों को भेंट करेगा ।
16.22
धत्ता - ( वह) वंश, कुलाचार, गुरु के द्वारा कथित क्षत्रियधर्म को नहीं समझता है । ( वह ) मर्यादारहित, इर्ष्यालु, समानगोत्रीय (भाई) अवश्य ही युद्ध करेगा ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 45
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पाठ-8
महापुराण सन्धि-17
17.7
पत्ता-छुडु छुडु कारणि वसुमइहि सेण्णइं जाम हरणंति परोप्पर ।
अंतरि ताम पइट्ठ तहिं मंति चवंति समुग्भिवि णियकरु॥
17.8
बिहिं बलहं मज्झि जो मुयइ बाण तं रिणसुरिणवि सेण्णइं सारियाई तंरिणसुरिणवि रहसाऊरियाई तं णिसुरिणवि धारापहसियाई तं रिणसुरिणवि रिणद्धंगई घणाई तं णिसरिणवि मय-मायंग रुद्ध तं रिणसुरिणवि मच्छरभावभरिय रह खंचिय कड्ढिय परगहोह
तहु होसइ रिसहहु तणिय प्राण ॥1 चडियइं चावई उत्तारियाई ॥2 वज्जतइं तरइं वारियाइं ॥3 करवालई कोसि णिवेसियाइं ॥4 रिणम्मुक्कई कवयरिणबंधरणाइं ॥5 पडिगयवरगंधालुद्ध कुद्ध ॥6 हरि फुरुहुरंत धावंत धरिय ॥7 वारिय विधत प्ररणेय जोह ॥8
17.9
पणमियसिरेहि मउलियकरहिं उग्गमियरोसपसमंतएहिं तुम्हई विणि वि जरण चरमदेह तुम्हइं विणि वि अखलियपयाव तुम्हई विणि वि जगधरणथाम तुम्हई विणि वि सुरहं मि पयंड तुम्हई विणि वि रिणवणायकुसल
बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहिं ॥1 विणि वि विविय महंतएहि ॥2 तुम्हइं विणि वि जयलच्छिगेह ॥3 तुम्हई विरिण वि गंभीरराव ।।4 तुम्हई विरिण वि रामाहिराम ॥5 महिमहिलहि केरा बाहुदंड ॥6 रिणयतायपायपंकरुहमसल ॥7
46 ]
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-8
महापुराण
सन्धि-17
17.7
घत्ता-अति शीघ्र ही धरती के प्रयोजन से ज्यों ही सेनाएं एक दूसरे पर प्रहार करती हैं, त्यों ही वहाँ बीच में मन्त्री प्रविष्ट हुए और (उन्होंने अपना हाथ ऊँचा करके कहा।
17.8
[1] दोनों सेनाओं के बीच में जो बाण छोड़ेगा, उस लिए ऋषभदेव की सौगन्ध होगी। [2] उस (बात) को सुनकर सेनाएँ हटाई मई, चढ़े हुए धनुष उतारे गए। [3] उस (बात) को सुनकर बेग से भरी हुई (तथा) बजती हुई तुरहियाँ रोकी गई । [4] उस (बात) को सुनकर धारों का उपहास की हुई तलबारें म्यान्न में रखदी गईं। [5] उस (बात) को सुनकर घने (और) कान्ति-युक्त घटकवाले कवचों के बन्धन खोल दिए गए । [6] उस (बात) को सुनकर प्रतिपक्षी (हाथियों की) श्रेष्ठ गन्ध के इच्छुक क्रुद्ध, मदवाले हाथी रोक लिए गए। [7] उस (बात) को सुनकर ईष्याभाव से भरे हुए, थरथराते हुए और दौड़ते हुए घोड़े पकड़ लिए गए। [8] रथ खींच लिए गए, लगामें (भी) खींच ली गईं, बेधते हुए अनेक योद्धा रोक दिए गए।
17.9
[1-2] संकुचित किए हुए हाथों से (और) सिरों से प्रणाम करके, मधुर शब्दों से, उत्पन्न हुए क्रोध को शान्त करते हुए मन्त्रियों द्वारा भरत और बाहुबलि दोनों ही कहे गये-- [3] आप दोनों ही मनुष्य अन्तिम देहवाले (हैं), ग्राप दोनों ही विजयरूपी लक्ष्मी के घर (हैं)। [4] आप दोनों ही अबाधित प्रतापवाले (हैं), भाप दोनों ही गम्भीर वाणीवाले (हैं)। [5] आप दोनों ही जगत को धारण करने की शक्तिवाले हो, आप दोनों ही स्त्रियों के लिए अाकर्षक हो । [6] आप दोनों ही देवताओं के लिए भी प्रचण्ड (भयंकर) (हो), (तथा) पृथ्वीरूपी महिला की लम्बी भुजाएं (हो)। [7] अाप दोनों ही राजनीति में कुशल (हो) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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तुम्हइं विणि वि जरग जरगहु चक्खु खरपहरणधारादारिएग किर काई वराएं दंडिएरण दोहं मि केरा मज्झत्थ होवि
पहिलउ अवरोप्परु दिट्ठि धरह बीउ हंसावलिमारिए जुज्झह बिगि विरिणवमल्ल ताम वरोरु जिरिवि परक्कमेरेग
घत्ता - श्रवलोयंतु धराहिवइ एत्तिउ किज्जउ सुत्तु सुजुत्तउ | तुम्हहं दोहं मि होउ रणु तिविहु धम्मगाएर खिउत्तर || 12
तणुसोहाहसियपुरंदरेहि कि दूहवियहि रगवजोव्वणेग
इच्छहु अम्हारउ धम्मपक्खु कि किंकररियरें मारिएल सीमंतिरसत्यें डिएग
48 ]
11 8 119 11 10
उहु मेल्लिवि खमभाउ लेवि ॥ 11
17.10
धत्ता - जे रंग करंति सुहासियई मंतिहिं भासियाइं गयवयरपई । ताहं परिदहं रिद्धि को कहिं सीहासणछत्तई रयणई ॥ 10
मा पत्तलपत्तरण चलणु करह # 1 अवरोप्परु सिंचहु पारिणा ॥ 2एक्केरण तुलिज्जइ एक्कु जाम ॥ 4 गेहहु कुलहर सिरि विक्कमेण ॥5 ता चितिउ दोहिं मि सुंदरेहिं ॥16 कि फलिएरण वि कडुएं वणेण ॥ 7
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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आप दोनों ही निज पिता के चरणरूपी कमलों के भौंरे ( हैं ) । [8] आप दोनों ही जन-जन के चक्षु ( हैं ), ( प्राप) हमारे धर्म-पक्ष को चाहें । [9] प्रखर आयुधों की धार से विदारित (और) मारे गए अनुचर - समूह से क्या (लाभ) ( है ) ? [10] सजा दिए हुए (उन) बेचारों से ( आपका ) क्या (लाभ) ? विधवा किए हुए नारी समूह से (आपको ) ( क्या) (लाभ) ? [11] (आप) दोनों (सेनात्रों) के ही मध्य स्थित होकर ग्रायुध छोड़कर क्षमा-भाव को धारण करके (रहें) ।
घत्ता - उपयुक्त और भली प्रकार कहे हुए को समझते हुए हे राजन् ! इतना किया जाए - तुम दोनों में ही धर्म और न्याय से निर्धारित तीन प्रकार का युद्ध हो ।
[1] पहले (आप) एक-दूसरे पर दृष्टि डालो (और उसमें ) पलकों के बालरूपी बारणों के अग्रभाग का हलन चलन मत करो। [2] दूसरा, हंस की कतारों से सम्मानित पानी द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध छिड़काव करो ।[4] ( उसी प्रकार ) ( माप) दोनों ही राजारूपी पहलवान तब तक युद्ध करें जब तक एक के द्वारा एक उठा (नहीं) लिया जाता है । [5] (ग्रपनी) शूरवीरता से एक-दूसरे को जीतकर (ग्रपने) सामर्थ्य से पितृ-गृह के वैभव को ग्रहण करें । [6] (जिनके द्वारा) शरीर की शोभा के कारण इन्द्र का उपहास किया गया (है), (उन) दोनों सुन्दर ( राजाओं) द्वारा भी उस समय विचारा गया । [7] दुःखी करनेवाले नव-यौवन से क्या (लाभ) ? फले हुए कड़वे वन से भी क्या (लाभ) ?
17.10
घत्ता जो मन्त्रियों द्वारा कहे हुए सुन्दर वचनों को (तथा) नीति वचनों को व्यवहार में नहीं करते हैं, उन राजाओंों की रिद्धि कहां से (रहेगी) (तथा) (उनके लिए) सिंहासन, छत्र और रत्न कहाँ ( होंगे) ?
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[49
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पाठ-9
जंबूसामिचरिउ सन्धि -9
9.8 विरणयसिरोएँ कहाणउ सीसइ संखिणिनिहि वरइत्तहों दोसइ ॥1 कम्मि पुरम्मि दरिद्दे ताडिउ संखिरिण नाम को वि कव्वाडिउ ॥2 दिणि दिणि वणे कव्वाडहाँ धावइ । भोयरणमत्तु किलेसे पावइ ॥3 भुत्तसेसु दिवसेसु पवनउ रूवउ एक्कु रोक्कु संपन्नउ ॥4 महिलसहाएँ रहसें चड्डिउ कलसे छुहवि धरायले गड्डिउ ॥5 अह रविगहणे कयावि विहारणइँ चलियइँ तित्थे चयवि नियथारणइँ ॥6 पूरिएहिँ मणिरयणसुवण्णहिँ अवलोडउ संखिरिणनिहि अण्णहिँ ॥7 मंतिज्जएँ पाएरण असारे खडहडंतरूवयसंचारें
॥8 जाणाविउ लोयारण समग्गा अम्हइँ गिहाविज्जहु लग्गा ॥9 चितवि तम्मि छुद्ध निउ भल्लउ एक्केक्कउ मरिणरयणु गरिल्लउ ।। 10 सो संपुण्णु करेवि पवत्तइँ ण्हाऍवि तित्थें निययघरु पत्तइँ ॥11 अह छरणदिरिण महिलाएँ कहिज्जइ रूवउ अज्जु नाह विलसिज्जइ ॥ 12 संखिरिण खणइ कलसु जहिँ धरियउ दिउ ताम करणयमरिणभरियउ ॥13 सरहसु रहसँ कहिउ पिएँ पेक्खहि मई सम पुण्णवंतु को लक्खहि ॥ 14 अज्जवि सिद्धिनएण निहाणे रयमि उवाउ अवरु मइनाणें ॥15 कि पि न लेमि करेमि न खोयणु होसइ कव्वाडेण वि भोयणु ॥16 अह कलसेसु छुहें वि एक्केक्कउ बहु दविरणासऍ गड्डेवि मुक्कउ ॥17 अण्णहिँ पन्च पुणु वि पहँ दिइ पूरहु केम हियएँ न पइट्ठइ ॥ 18 निहिहिँ रयणु एक्केक्कउ लइयउ सुण्णउ कवि सम्वु परिचइयउ ॥ 19
50 ]
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-9
जंबू सामिचरिउ
सन्धि- 9
9.8
[1] विनयश्री के द्वारा (एक) कथानक कहा गया (और) निधि की ( बात ) दूल्हे (जंबूस्वामी) के लिए बतलाई गई । [2] (स्थिति) के द्वारा ताड़ा हुया संखिरणी नामक कोई कबाड़ी ( था ) । वन में कबाड़ीपन ( जंगल की विभिन्न वस्तुयों) के लिए भागता
था
[4] कुछ दिनों में भोजन
)
(
उसके द्वारा ) एक रुपया सहयोग से एकान्त में चढ़ा
( उससे प्राप्त कीमत से ) दुःखपूर्वक भोजनमात्र ( ही ) पाता था । में से बचा हुआ ( पैसा / भोजन ) प्राप्त किया गया ( इस प्रकार रोकड़ी हासिल किया गया । [5] ( उसके द्वारा ) पत्नी के गया ( जाया गया ) ( औौर) ( वहाँ ) (एक) कलश में ( रुपये को ) रखकर, ( वह कलश ) धरती में गाड़ दिया गया। [6] बाद में सूर्य ग्रहण के अवसर पर प्रभात में किसी भी समय निज निवासों को छोड़कर ( कुछ लोग उस ) तीर्थ-स्थान को चले । और सोने से सम्पन्न अन्य ( व्यक्तियों) के द्वारा संखिणी की निधि [8-9 ] ( उधर ) त्राए हुए (लोगों) द्वारा खड़खड़ करते हुए रुपये की प्रसार गति के कारण सोचा गया ( कि ) स्व-मार्ग में लगे हुए लोगों के लिए ( रुपये के द्वारा ) ( कुछ ) बतलाया गया है (और उससे ) हम (कुछ) ग्रहरण कराये जाते हैं। [10] उस (विषय) में निज भले को सोचकर ( उनके द्वारा ) एक-एक श्रेष्ठ मणिरत्न ( कलश में ) डाल दिया गया ।
( उसमें ) संखिरणी की किसी नगर में दरिद्र [3] (वह) प्रतिदिन (और) ( फिर भी )
[11] वह (कलश) पूर्ण कर दिया गया (ऐसा करके, (वे) (यात्रा पर ) प्रवृत्त हुए । तीर्थ में स्नान करके (वे सब ) अपने घर को पहुँचे । [12] तब ( किसी ) उत्सव के दिन पर पत्नी के द्वारा कहा गया (कि) हे नाथ ! श्राज ( पहले रखा हुआ ) रुपया भोग किया जाए । [13] संखिणी ( वहाँ ) खोदता है जहाँ पर कलश रखा गया था, तब ( वह) (कलश) स्वर्ण तथा मणियों से भरा हुआ देखा गया। [14] उत्साहसहित एकान्त में कहा गया - हे प्रिय ! देख, मेरे समान कौन पुण्यवान ( है ) ? (तुम) समझो। [15] श्राज ही (मैं) बुद्धि-ज्ञान से, योग-शक्ति की युक्ति से खजाने में (वृद्धि के लिए) दूसरा उपाय रचता हूँ । [16] ( इसमें से ) मैं कुछ भी नहीं लूंगा । (और) ( मैं ) ( इसका ) खनन ( भी ) नहीं करूंगा । (पूर्ववत्) कबाड़ीपन से ही भोजन हो जायेगा । [17] तब ( उसके द्वारा ) कलशों में एक-एक ( रत्न) को रखकर बहुत द्रव्य की प्राशा से (प्रत्येक कलश) गाड़कर छोड़ दिया गया। [18] फिर (किसी दूसरे पर्व पर पथ में (उन यात्रियों द्वारा पुनः ) (कलश) देखे गये (और विचारा गया कि ) किस प्रकार (इन्हें) (हम) भरें । (ये बातें) हृदय में नहीं बैठीं । [19] ( तब ) निधि में से एक-एक
अपभ्रंग काव्य सौरभ ]
[ 51
[7] मरिण, रत्न देख ली गई ।
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श्रवरहि समऍ जाम उग्घाडइ श्रच्छउ रयरणसमूहु सरूवउ
तं निसुणेवि कुमारें वुच्चइ
यहि नयरें सियालु पइट्ठउ भक्खतेण दंत-वरणें कारिणउँ हुऍ पहाएँ बस - श्रामिसमुज्झिउ भयकंपिरु नीसरिवि न सक्कउ अप्पर मुयउ करिवि वरिसावमि दीes दिवस मिलिय पुरलोएं प्रसहत्थु लुउ पुच्छ - सकरणउ जीवेस मि श्रपुच्छु विणु कण्ण हिँ वोल्लइ अवरु एक्कु कामुयजण पाहणु लेवि दंत किर चूरइ खंडिय पुच्छ - कण्ण मण्यि तिणु चितवि मुक्कु धाउ जव-पारों मारिउ ताम जारण कयनाएं इय विसयंधु मृदु जो अच्छ
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घत्ता-
- साहीर लच्छि नउ भुंजइ महइ समग्गल सग्गदिहि | संखिरिहि जेम वरइत्तहीँ करें लग्गेसइ सुखनिहि ॥ 22
रित्तउ नियवि करहिं सिरु ताडइ || 20 सो वि विठु मूलि जो रूवउ ॥ 21
9.11
विसु साहीणु किं न लहु मुच्चइ || 1 मुउ बलद्दु रच्छामुहें दिट्ठउ 12 रयणिविरामपमाणु न जाणिउँ
॥3
11 4
11 5
जर संचारवमालें बुज्झिउ चितियमंतु पडेविणु थक्कउ किर ऋणु पुणु वि निसागमि पावमि ॥ एक्क नरेंग पवड्ढियरोएं 117 चितs जंबुउ श्रज्ज वि धण्णउ 118 एकबार जइ छुट्टमि पुण्ण हिं ॥19 गेहमिदन्तु करमि वसि पियमणु ॥ 10 जाणिव जंबुउ हियइ बिसूरइ ॥ 11 दुक्करु जीवियास दंतहिं विणु लइउ कंठें हरिसरिसें सा खद्धउ मिलिवि सुरगहसमवाएं कवरभंति सो पलयहों गच्छा
|| 12
# 13
# 14
Ir 15
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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रत्न ले लिया गया (और) सब (कलशों को) खाली करके (वहाँ) (ही) छोड़ दिया गया। [20] किसी दूसरे समय जब (वह) (कलशों को) उघाड़ता है (तो) खाली (कलशों) को (ही) देखकर हाथों से (अपना) सिर पीटता है। [21] (और कहता है)-सौन्दर्य-युक्त रत्न-समूह को (तो) जाने दो, (किन्तु दुःख है कि) जो रुपया मूल में था वह भी नष्ट हो गया।
पत्ता -- (जो) स्वाधीन लक्ष्मी को (तो) नहीं भोगता है (किन्तु) पूर्ण मोक्ष-सुख की इच्छा करता है, (उस) दूल्हे (जंबूस्वामी) के हाथों में शून्य निधि (ही) लगेगी, जिस प्रकार संखिणी के (हाथ में शून्य निधि ही लगी)।
9.11
[1] उसको सुनकर कुमार (जंबूस्वामी) के द्वारा कहा गया--अपने पास (यदि) विष (है) (तो) क्या (वह) शीघ्र नहीं छोड़ दिया जाता है ? [2] रात्रि में नगर में (एक) गीदड़ प्रविष्ट हुआ (उसके द्वारा) मरा हुआ बैल मोहल्ले के मुख पर (ही) देखा गया। [3] दाँतों के समूह से (बैल को) खाते रहने के कारण (उसका दाँत-समूह) ढीला हो गया। (और) (खाने में लीन होने के कारण) रात्रि की समाप्ति की सीमा (उसके द्वारा) नहीं जानी गई । [4] प्रभात होने पर बैल के मांस में मोहित (गीदड़) मनुष्यों के आवागमन के कोलाहल से होश में आया । [5] (मनुष्यों को देखकर) (वह) भय से कंपनशील (हुआ) (पर) (नगर से) निकलकर (भागने के लिए) समर्थ नहीं हुआ । (तो) (मन में) योजना विचारी गई (जिसके अनुसार) (वह) (जमीन पर) पड़कर निश्चेष्ट हुा । [6] (यह ठीक है कि) (मैं) अपने को मरा हुआ बनकर दिखलाता हूँ। फिर रात्रि आने पर अवश्य ही वन को जाऊँगा। [7-8] दिन (होने) पर नगर के लोगों द्वारा मिलकर (वह) देखा गया । बढ़े हुए रोग के कारण एक मनुष्य के द्वारा औषधि के लिए (निमित्त) (उसकी) कान-सहित पूंछ काट ली गई । गीदड़ ने सोचा (कि) आज भी (अभी भी) भाग्यशाली (हूँ)। [9] पूंछरहित और बिना कानों से (मैं) जी लूंगा। यदि केवल एक बार पुण्यों से छूट जाऊँ । [10] (तभी) एक अन्य ( दूसरा) कामुक मनुष्य बोला- (मैं) दाँत लेता हूँ, (इससे) प्रिया के मन को वश में करूंगा। [11] (वह) पत्थर लेकर दाँत तोड़ता है। गीदड़ ने (यह) जानकर मन में खेद किया। [12] (उसने सोचा) (कि जब) पूंछ और कान काटे गए (तो) ( मेरे द्वारा) (वह घटना) तुच्छ मानी गई । (किन्तु) दाँतों के बिना (तो) जीने की उम्मीद कठिन (है) । [13] (ऐसा) सोचकर (वह) म्लान (गीदड़) प्राणोंसहित वेग से भागा, (तो) सिंह के समान (खूखार) कुत्ते के द्वारा (वह) मुंह ( कंठ) में पकड़ लिया गया [14] और मार दिया गया । मार डालने के कारण उस समय (वह) कुत्तों के समूह के द्वारा मिल कर खा लिया गया, (इस बात को) (तुम सब) समझो । [15] इस प्रकार जो मूढ़ (व्यक्ति (इन्द्रिय-) विषयों में अन्धा रहता है, वह नाश को पाता है । (इसमें) क्या सन्देह ( रह जाता है ?
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
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10.11
जंबूसामि कहाणउ साहइ गउ परतीरे पुहइधरणतुल्लउ चडिवि पोइ लंघइ सायरजलु जा वेलाउलु पावमि तहिं पुणु, हरि-करि किरणवि भंडु नारणाविहु अह हत्थाउ गलिउ दरनिदहाँ धाहावइ तरियहु दीहरगिर निवडिउ एत्थु रयणु अवलोयहों सायरै न? वहंतहों पोयहाँ
वारिणउ को वि परोहणु वाहइ ।। एक्कु जि रयणु किरिगउ बहुमोल्लउ ॥ 2 प्रावंतउ चितइ मणे मंगलु ॥3 विक्कमि ऍउ मारिणक्कु महागुणु ॥ 4 घर जाएसमि निवसंपयनिहु ॥ 5 पडिउ रयणु तं मन्झ समुहहाँ ॥ 6 हा हा जाणवत्तु किज्जउ थिरु ॥ 7 तं प्राणेवि पुणु वि महु ढोयहाँ ॥ 8 कहिँ लब्भइ मारिणक्कु पलोयहाँ ॥ १
पत्ता-इय मणुयजम्मु माणिक्कसमु रइसुहनिद्दावसजायभमु।
संसारसमुद्दि हरावियउ जोयंतु केम पुणु लहमि हउँ ॥ 10
54 1
अपभ्रंश काव्य सौरम
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10.11
[1] जंबूस्वामी कथानक कहते हैं--कोई वणिक जहाज ले गया। [2] (वह) दूसरे किनारे पर गया। (उसके द्वारा) पृथ्वी के धन के तुल्य एक ही बहुमूल्य रत्न खरीदा गया। [3] (जब) (वह) जहाज पर चढ़ कर सागर के जल को पार करता है (तो) (किनारे पर) पहुँचते हुए मन में इष्ट (बातें) सोचने लगा। [4-5] जब (मैं) बन्दरगाह (समुद्र तट) को पहुँचूंगा फिर (मैं) वहाँ इस अत्यधिक कीमतवाले माणिकरत्न को बेचूंगा (और) (फिर) राजा की सम्पदा के समान नाना प्रकार के बर्तन (भांडे, सामान) घोड़े व हाथी खरीदकर (मैं) घर जाऊँगा। [6] तब अल्पनिद्रा में रत्न हाथ से निकल गया (और) वह समुद्र के भीतर जा पड़ा। [7] (तब) (उसने) हाहाकार मचाया। (पानी में) तेरे हुए (तैरते हुए) (लोगों) के लिए ऊँची आवाज (निकाली)-अरे-अरे ! जहाज स्थिर किया जाए। [8] हे उपस्थित (लोगों) ! यहाँ (पानी में) रत्न गिरा (है)। अवलोकन के लिए (ग्राप) (जहाज) (के) फिर उसको लाकर मेरे लिए (दो)। [9] हे देखनेवाले (मनुष्यो)! चलते हुए जहाज में सागर में लुप्त हुआ रत्न कहाँ प्राप्त किया जायेगा ?
घत्ता- यह मनुष्य-जन्म रत्न के समान है। (किन्तु) (मनुष्य) रति-सुखरूपी निद्रा के वश में हुआ भ्रमण (करता है) (इस तरह) (तुम्हारे द्वारा) हराया गया मैं संसार-समुद्र में किस प्रकार खोजता हुआ फिर (मनुष्य जन्म) पाऊँगा ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
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श्राणि पुत्त
सप्पाइ दुक्खु विसय वि रंग मंति
चिरु रुद्दवत्तु वढु आयरेग
सो च्छोहत्तु जूयं रमंतु
मंसासरणेरण
हिलसइ मज्जु पसरइ प्रकित्ति
जंगल प्रसंतु
मइरापमत्तु
रच्छ पडे
होता सगव्व साइरिण व वेस
तहों जो वसेइ
वेसापमत्त
कदीवेसु
जे सूर होंति वरणे तिरण चरंति
वर्णमयउलाई
पारद्धिरत्तु
]
पाठ-10
सुदंसरणचरिउ
सन्धि - 2
2.10
जह श्रागमें सत्त विवसर वृत्त ॥ 1 इह दिति एक्क भवें दुण्णिरिक्खु ॥ 2 जम्मंतरको डिहिँ दुहु जरगंति 113 विडिउ णरयण्णवे विसयजुत्तु ॥14 जो रमइ जूउ वहुडफ्फरेरण ॥ 5 श्राहरणइ जरगणि सस घरिरिण पुत्तु ॥ 6 गलु तह य जुहिट्ठिल्लु विहरु पत्तु ॥ 7 वड्ढे दप्पु दप्पेरण तेरा 18 जूउ वि रमेइ बहुदोससज्जु ॥19 ते कज्जे कीरइ तहाँ रिवित्ति ॥ 10 वणु रक्खसु मारिउ गरए पत्तु ॥ 11 कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु ॥ 12 उभियकरु विहलंघलु रगडेइ ॥ 13 गय जायव मज्जे खयहो सव्व | 14 रत्ताघरसरण दरिसइ सुवेस 1115 सो कायरु उच्छिउ असेइ ॥ 16 गिद्धणु हुउ इह वरिण चारुदत्तु ॥ 17 रणासंतु परम्मुहु छुट्टकेसु 11 18 सवरा हु वि सो ते रउ हरति ।। 19 रिसुणेवि खडक्कउ गिरु डरंति ॥ 20 किह हणइ मूढ किउ तेहिँ काइ ॥ 21 चक्कवs गरए उभयत्तु ॥ 22
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पाठ-10
सुदंसणचरिउ
- सन्धि -2
2.10
[1] जिस प्रकार आगम में सभी सातों व्यसन समझाए गये (हैं) हे पुत्र ! (तुम) (उनको) सुनो । [2] सर्पादि (प्राणी) यहाँ एक जन्म में (ही) कठिनाई से विचार किए जानेवाले (घोर) दुःख को देते हैं। [3] किन्तु (इन्द्रिय-) विषय करोड़ों जन्मों के अवसर पर दुःख उत्पन्न करते (रहते) हैं । (इसमें)(कोई) सन्देह नहीं है । [4] (इन्द्रिय-) विषयों में लीन रुद्रदत्त दीर्घकाल के लिए नरकरूपी समुद्र में पड़ा। [5-6] जो मूर्ख उत्साहपूर्वक जुम्रा खेलता है, वह (जुना में लीन होने के कारण) रोष से युक्त हुआ माता, बहिन, पत्नी
और पुत्र को कष्ट देता है । [8] जुवा खेलते हुए नल ने और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने (भी) कष्ट पाया । [8-9] मांस खाने के कारण अहंकार बढ़ता है उस अहंकार के कारण (वह) मद्य की इच्छा करता है, जुना भी खेलता है (तथा) बहुत सी बुराइयों में गमन (करने लगता है)। [10] (उसका) अपयश फैलता है। उस कारण से उससे निवृत्ति की जानी चाहिए। [11] मांस खाते हुए वरण राक्षस मारा गया (और) (उसने) नरक पाया । [12] मदिरा के कारण नशे में चूर हुपा (मनुष्य) झगड़ा करके प्रिय मित्र को (भी) कष्ट पहुंचाता है। [13] (कभी) (वह) राजमार्ग पर गिर जाता है (तथा) (कभी) (वह) उन्मत्त शरीरवाला (होकर) हाथ को ऊंचा करके नाचता है। [14] मदिरा (पीने) के कारण घमण्डी होते हुए सभी यादव विनाश को प्राप्त हुए। [15] वेश्या सुन्दर वेश दिखाती है (और) पिशाचिनी की तरह खून (के कणों) का घर्षण (करती) (है)। [16] उसके (घर में) (कामक्रीड़ा के लिए) जो रहता है, वह अस्तव्यस्त (व्यक्ति) (मानो) जूठन खाता है। [17] यहाँ (यह उल्लेखनीय है कि) वेश्या में मस्त हुप्रा व्यापारी चारुदत्त धन-रहित हो गया । [18] (धन-रहित होने के कारण) (चारुदत्त को) (अपने यहां से) दूर हटाती हुई (वेश्या) उससे) विमुख (हुई) (और) (उसके द्वारा) (उसके) बाल काट दिए गए (और (उसका) वेश दयनीय बना दिया गया। [19-20] जो वीर होते हैं, चाहे वह शबरों का (समूह) ही हो, वे वन में रहनेवाले मृगों के समूह को, (जो) वन में घास चरते हैं (और केवल) खड़खड़
आवाज सुनकर निश्चित डर जाते हैं, (उनको) नहीं मारते हैं। [21] (उनको) मूर्ख (व्यक्ति) क्यों मारता है ? उनके द्वारा क्या किया गया है ? [22] शिकार का प्रेमी चक्रवर्ती
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चलु चोरु धि?
गुरुमायबप्पु मारणइ ण इठ्ठ ॥ 23 रिणयभुयबलेण
वंचइ ते अवर वि सो छलेण ॥ 24 भयकूवि छूढ
गउ रिणद्दभुक्खु पावेइ मूढ ॥ 25 पद्धडिय एह
सुपसिद्धी पामें विज्जलेह ॥ 26 घत्ता-पावेज्जइ बंधै वि रिणज्जइ वित्यारैवि रहें चच्चरें।
वंडिज्जइ तह खंडिज्जइ मारिज्जइ पुरवाहिर ॥27
परवसुरयहो अंगारयहो इय णिऍवि जणो तो विमूढमणो जो परजुवइ इह अहिलसइ सहिऊरण जए रिणवडइ गरए परयाररया चिरु खयहाँ गया
2.11 सूलिहिँ भरणं जायं मरणं ॥1 चोरी करइ एउ परिहरइ ॥2 सो णीससइ गायइ हसइ ॥3 होऊ अबुहा रामण पमुहा ॥4 सत्त वि वसणा एए कसणा ॥5
8.7
इयरह दिव्वाहरणहँ पासिउ हरिवि गीय जा किर दहवयरणे तह अरणंतमइ सीलगुरुक्किय रोहिरिण खरजलेण संभाविय हरि-हलि-चक्कवट्टि-जिरणमायउ एयउ सीलकमलसरहंसिउ जरपरिणऍ छारपुंजु वरि जायउ सीलवंतु बुहयणे सलहिज्जा
सीलु वि जुवइहँ मंडणु मासिउ ॥1 सीले सीय दड्ढ गउ जलणे ॥2 खगकिरायउवसग्गहें चुक्किय ॥3 सीलगुणेण गइऍ रण वहाइय ॥4 प्रज्ज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ ॥5 फणिणरखयरामरहिं पसंसिउ ॥6 एउ कुसोलु मयरणेणुम्मायउ ॥7 सोलविज्जिएण किं किज्जइ ॥8
58 )
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ब्रह्मदत्त नरक में गया । [23] चंचल और निर्लज्ज चोर गुरु, माँ और बाप को ( भी ) श्रादरनहीं मानता है। [24] वह उनको (तथा) दूसरों को भी निज भुजाओं के बल से (तथा) जालसाजी से ठगता है। [25] (वह) उपेक्षित मूढ़ (व्यक्ति) संकटरूपी कुए में ( गिरता है) (और) (वह) निद्रा और भूख को नहीं पाता है। [26] यह (वह) पद्धडिया छंद (है), (जिसको) विद्युल्लेखा नाम से ख्याति ( है ) ।
धत्ता - (चोर) पकड़ा जाता है, बांधकर ले जाया जाता है, चौराहे और मुख्य मार्ग पर (उसके) (चोरी के कार्य को फैलाकर (वह) दंडित किया जाता है तथा शहर के बाहरी भाग में काटा जाता है (और) मारा जाता है ।
2.11
[1] परद्रव्य में अनुरक्त होने के कारण अंगारक (चोर) के द्वारा मूलियों पर धारण करनेवाला मरण प्राप्त किया गया। [2] इसको जानकर भी मनुष्य उस समय ( चोरी करने के समय) मूर्ख ( बन जाता है) (और) चोरी करता है । (दुःख है कि वह ) ( चोरी करने को नहीं छोड़ता है। [3] लोक में जो अन्य की स्त्री को चाहता है, वह ( उससे मिलता-जुलता है, ( उसकी प्रशंसा करता है (और) ( उसके लिए) लालायित रहता है । [4] जगत् में (अपमान) सहकर (वह) नरक में गिरता है । आदरणीय रावण (भी) श्रज्ञानी हुना (और) पर स्त्री में अनुरक्त हुआ । [13] आखिरकार विनाश को ( पहुँच गया । ( इस तरह से ये सातों व्यसन श्रनिष्टकर (होते हैं) ।
8.7
[1] अन्य सुन्दर आभूषणों
( समान) शील भी युवती का आभूषण समझा गया (है) (और) कहा गया ( है ) । [2] जो सीता रावण के द्वारा हरण करके ले जाई गई (बह), जैसा कि बतलाया जाता है, शील के कारण अग्नि के द्वारा नहीं जलाई गई। [3] उसी प्रकार कठोर शीलधारण की हुई अनन्तमती विद्याधरों और किरात (जंगल में रहनेवाली एक जाति के मनुष्यों) के उपद्रव से रहित हुई । [4] (नदी के) तेज धारवाले जल में डुबाई गई रोहिणी, शील गुरण के कारण नदी के द्वारा नहीं बहाई गई । [5] नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकरों की माताएं आज भी (शील के कारण ) तीनलोक में प्रसिद्ध ( हैं ) । [6] ये शीलरूपी कमल-सरोवर की हंसिनी ( थीं) (अतः ) ( वे) नागों, मनुष्यों, आकाश में चलनेवाले (विद्याधरों) और देवों द्वारा प्रशंसित ( थीं) । [7] हे माता ! (यदि ) (कोई) (जलकर) राख का ढ़ेर हो जाए (तो) (यह) अधिक अच्छा ( है ), ( किन्तु ) काम-वासना के कारण पागलपन पैदा करनेवाला कुशील ( अच्छा ( है ) । [8] विद्वान व्यक्ति के द्वारा शीलवान (मनुष्य) प्रशंसा किया जाता है । (कोई बताए ) शीलरहित होने से क्या ( प्रयोजन) सिद्ध किया जाता है ?
)
नहीं
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.
पत्ता-इय जाणेविणु सीलु परिपालिज्जएँ माएँ महासइ।
णं तो लाहु णियंतिहें हले मूलछेउ तुह होसइ ॥9
8.9
ण फिट्टइ पेयवणे इह गिद्ध ___ण फिट्टइ पंकएँ भिंगु पइट्ठ ॥1 ण फिट्टइ तुंबरणारयगेउ ण फिट्टइ पंडियलोयविवेउ ॥2 ए फिट्टइ दुज्जणे दुट्ठसहाउ ण फिट्टइ णिद्धणचित्तै विसाउ ॥3 ण फिट्टइ लोहु महाधणवंत ण फिट्टइ मारणचित्तु कयंत ॥4 ण फिट्टइ जोव्वणइत्तै मरटु ण फिट्टइ वल्लहँ चित्तु चहुटु ॥5 ण फिट्टइ विझि महाकरिजहु ण फिट्टइ सासऍ सिद्धसमूहु ॥6 ण फिट्टइ पाविहे पावकलंकु ण फिट्टए कामुयचित्तै झसंकु ॥7 ण फिट्टइ प्रायह जो प्रसगाह सुछंदु वि मोत्तियदामउ एह ॥8 पत्ता-अहवा जं जिह जेण किर जिह अवसमेव होएवउ ।
तं तिह तेण जि देहिऍण तिह एक्कंगेण सहेवउ ॥9
8.32
सुलहउ पायालए गायणाहु सुलहउ णवजलहरै जलपवाहु सुलहउ करसोरऍ घुसिपिंडु सुलहउ दीवंत विविहभंडु सुलहउ मलयायले सुरहिवाउ सुलहउ पहुपेसरणे कऍ पसाउ सुलहउ रविकंतमरिणहिँ हुयासु सुलहउ प्रागमै धम्मोवएस
सुलहउ कामाउरै विरहडाहु ॥। सुलहउ वइरायरे वज्जलाहु ॥2 सुलहठ माणसस₹ कमलसंड ॥3 सुलहउ पाहाणे हिरण्णखंडु ॥4 सुलहउ गयणंगणे उडुणिहाउ ॥5 सलहउ ईसासे जणे कसाउ ॥6 सुलहउ वरलक्खणे पयसमासु ॥7 सुलहउ सुकईयण मइविसेसु ॥8.
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घत्ता-इसको समझकर हे माता ! हे महासती ! (यदि) शील पालन किया जाता है तो लाभ है। (वरना) हे सखो ! (उदाहरणों को) देखते हुए (मेरे द्वारा) (यह) (समझा गया है) (कि) आपके आधार का (ही) नाश हो जायेगा ।
8.9
.-.
[1] इस लोक में श्मशान से गिद्ध दूर नहीं होता है। कमल में घुसा हुआ भौंरा (उससे) दूर नहीं होता है। [2] नारद के तम्बूरे का गीत नहीं छूटता है। ज्ञानी समुदाय (मनुष्यों) का विवेक नष्ट नहीं होता है। [3] दुष्ट स्वभाव दुर्जन से ओझल नहीं होता है। निर्धन के चित्त से चिन्ता समाप्त नहीं होती है। [4] महाधनवान से लोभ नहीं जाता है । यमराज से मारने का भाव दूर नहीं होता है। [5] यौवनवान् से अहंकार नहीं हटता है । प्रेमी में लगा हुआ मन विचलित नहीं होता है। [6] महान् हाथियों का समूह विन्ध्य पर्वत से नीचे नहीं पाता है। सिद्धों का समूह शाश्वत (स्थिति) से रहित नहीं होता है । [7] पापी से पाप का कलंक नहीं छूटता है। कामुक चित्त से कामदेव हटता नहीं है । [8] (इसी प्रकार) (रानी का) जो कदाग्रह (अनैतिक निश्चय) (है) (वह) (उसके) मन से नहीं हटेगा (ऐसा लगता है)। यह ही मौक्तिकदाम छन्द (है)।
घत्ता-अथवा (ऐसा कहें कि) जहां, जिस प्रकार जिस (व्यक्ति) के द्वारा जैसी (घटनाएं) उत्पन्न की जायेंगी, वहाँ (वे) अवश्य ही उसी प्रकार, उस ही व्यक्ति के द्वारा अफेले वैसी ह. सही जायेंगी (इसको टाला नहीं जा सकता है)।
8.32
[1] पाताल में सौ का स्वामी सुप्राप्य (है), काम से पीड़ित (व्यवित) में विरह का संताप स्वाभाविक (है)। [2] नये बादल में जल का प्रवाह सरल (है), हीरे की खान में हीरे की प्राप्ति आसान (है)। [3] कश्मीर में केसरपिंड सुलभ (है), मानसरोवर में कमलों का समूह सुलभ (है)। [4] द्वीपों के अन्दर नाना प्रकार की व्यापारिक वस्तुएँ सुप्राप्य (हैं), पत्थर में सोने का अंश सुलभ (है)। [5] मलय पर्वत से सुगन्ध-युक्त वायु का (चलना) स्वाभाविक है, व्यापक आकाश में तारों का समूह स्वाभाविक (है)। [6] स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार प्रासान (है), ईर्ष्या-युक्त व्यक्ति में कषाय स्वाभाविक (है) । [7] सूर्यकान्त मरिणयों द्वारा अग्नि आसानी से प्राप्त (की जा सकती) (है), उत्तम व्याकरण-शास्त्र में पदों में समास सुलभ (है)। [8] पागम में मूल्यों (धर्म) के उपदेश सुलभ (हैं), सुकवि-जन में बुद्धि की श्रेष्ठता सुलभ (है) ।
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सुलहउ मणुयत्तर्णेपिउ कलत्तु जिणसासणे जं ण कया वि पत्तु
घत्ता -एम वियप्पिवि जाम थिउ प्रविधोलचित्तु सुहवंसणु । अभयादेवि विलक्ख हुयता लियमण वित्तइ पुणुपुणु ॥ 11
62 j
पर एक्क जि दुल्लहु प्रपवित्तु ॥ 9 किह रणासमि तं चारितवितु ॥ 10
.
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[9-10] मनुष्य अवस्था में प्रिय पत्नी सुलभ (है), किन्तु जिनशासन में अतिपवित्र एक (चारित्र) ही दुर्लभ (है), जिसको (पहले) (मैंने) कभी प्राप्त नहीं किया उस चारित्ररूपी धन को (मैं) कैसे बर्बाद कर दूं ?
घत्ता-इस प्रकार विचार करके जब (सुदर्शन) (जिसका) दर्शन मनोहर (है) शान्तचित्तवाला हुआ (तो) अभयादेवी लज्जित हुई (और) वह निज मन में बार-बार विचार करने लगी।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 63
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सुतरंगहें गंगहॅ गोउ ता सुहमइ जिगमइ सयणयले सुरचित्तहरो सिहरी पवरो पवरंबुरिंगही पजलंतु सिही पसरम्मि सई वरसुद्धमई णिसि लक्खियउ तसु प्रविखयउ लइ जाहुँ वरं जिरणचेइहरं पयति श्रलं सिविरणस्स हलं भरि रमरणी इय छंदु मुणी
64 ]
पाठ
-11
सुदंसरणचरिउ
सन्धि-3
3.1
कि फलु इय सिविरणयदंसणेण इय पिसुरिवि णवजलहर सरेग उत्तुंगे भरभारियधरेग कुसुमरयसुरहिकय महुरेग सुररमणीकीलाम गहरे जललहरी चुंबिय अंबरेण श्रइरिणविडजडत्तविणासणेण
धत्ता - गय जिरणहरु मुणिवरु परिणवेवि जिरगदासिएँ रिसि दिट्ठउ । गिरिवरु तरु सुरहरु जलहि सिहि इय सिविणंतरु सिट्ठउ ।। 18
किर जाव जम्मि रग गच्छइ ।। 9 सुत्तिय सिविरणय पेच्छइ ॥ 10 वकप्पयरू अमरिंदघरू # 11 सुविराइयो अवलोइयो || 12 गय सिग्घु तहिं थिउ कंतु जहिं ॥ 13 पभरणेइ पई पिय हंसगई ॥14 प्रविलंबणी भयवंतमुरणी ॥15 चलहारमरणी चलिया रमणी ॥ 16
17
3.2
होसइ परमेसर कहि खरणे ॥1 सुरिण सुंदरि परिणउ मुणिवरेण ॥ 2 होसइ सुधीर सुउ गिरिवरेण ॥3 चाइउ लच्छीहरु तरुवरेण ॥14 सुरवंदणीउ वरसुरहरेग 115 गुणगणगहीरु रयपाय रेख 116 कलिमलु णिड्डहइ हुप्रासणेण ॥17
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-11
सुदंसरणचरिउ
सन्धि -3
3.1
[9-10] मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से गोप जब तक पुनर्जन्म में नहीं गया तब शुभमति (से युक्त) जिनमति ने सूत्र से बने हुए बिछौनों पर स्वप्नों को देखा । [11-12] देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला श्रेष्ठ पर्वत, नया कल्पवृक्ष, इन्द्र का घर (स्वर्ग), उत्तम समुद्र, चमकती हुई (तथा) अत्यन्त सुशोभित अग्नि (यह स्वप्न-समूह) देखा गया। [13] प्रभात में उत्तम शुद्धमति सती शीघ्र वहाँ गई जहाँ (उसका) पति बैठा (था)। [14-15-16] उसके द्वारा रात में देखे गए (स्वप्न) (पति को) कहे गए। पति ने कहा-हे हंस की चालवाली प्रिया ! प्रच्छा ठीक, (हम) श्रेष्ठ जिन-चत्यघर जाते हैं (चलते हैं) (वहाँ) पूज्य मुनि (जिनके) शब्द (ध्वनि/उपदेश) बिना विलम्ब के (सहज) (होते) हैं। स्वप्न (समूह) का हल पूर्णरूप से प्रकट कर देंगे, (अतः) (वह) रमणी, (जिसके) हार की मणियाँ लहरानेवाली थीं (पति के साथ) चल पड़ी। [17] मुनि के द्वारा यह रमणी छंद कहा गया।
घत्ता-(दोनों) जिन-मन्दिर गये। (वहाँ) मुरिणवर को प्रणाम करके जिनदासी के द्वारा रात्रि में स्वप्न के भीतर देखा गया श्रेष्ठ पर्वत, कल्पवृक्ष, इन्द्र का निवास, अग्नि और समुद्र कहा गया ।
3.2
[1] (शुद्धमति ने पूछा) इस स्वप्न (-समूह के) दर्शन से क्या फल होगा? हे परमेश्वर ! तुरन्त कहें। [2] इसको सुनकर नये मेघ के समान (गंभीर) स्वरवाले मुनिवर के द्वारा कहा गया- हे उत्तम स्त्री ! सुनो। [3] (स्वप्न में देखे गए) ऊँचे (और) भारी भार धारण करनेवाले गिरिवर (पर्वत) से (तुम्हारा) पुत्र अत्यधिक धैर्यवान होगा । [4] मकरन्द (फूलों की रज) की सुगन्ध से आकर्षित किए गए मॅवर-(समूह) सहित तरुवर (कल्पवृक्ष) (देखने) से (तुम्हारा) (पुत्र) लक्ष्मीवान (तथा) दानी (होगा)। [5] देवताओं की रमणियों की क्रीड़ा से सुन्दर (लगनेवाले) इन्द्र का घर (देखने) से (तुम्हारा) पुत्र देवताओं द्वारा वन्दनीय (होगा)। [6] (जिसकी) जल-तरंगें आकाश से छू ली गई हैं (ऐसा) समुद्र (देखने) से (तुम्हारा पुत्र) गुणों का समूह (तथा) गम्भीर (होगा)। [7] अति घने जड़त्व
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[
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सुंदरु मरणहरु गुणमणिरिणकेउ रिणयकुलमाणससररायहंसु उवसग्गु सहेवि हवेवि साहु जिण मुणि पवेवि हरिसियमणाइँ गोवउ वि णियाणे तहिँ मरेवि
जुवईयरणवल्लहु मयरकेउ ॥8 णिम्मच्छरु वहयणलद्धसंसु ॥9 पावेसइ झाणे मोक्खलाहु ॥ 10 रिणयगेह गयइँ विपि वि जरणाइँ॥ 11 थिउ वणिपियउयरऍ अवयरेवि ॥ 12
घत्ता-तहिँ गम्भएँ अब्भऍ गाई रवि कमलिणिरल णावइ जलु ।
सिप्पिउडएँ रिणविडएँ ठिउ सहइ णं णितुल्लु मुत्ताहलु ॥ 13
3.5
तेण पुत्तेण जणु तु?
खे महंतेहिं मेहेहिं जलु बुट्ठ ॥1 दुट्ठपाविठ्ठपोरत्थगणु त? णंदि पारणंदि देवेहिं आहे घुट्ठ ॥2 दुंदुहीघोसु कयतोसु हुउ दिब्यु फुल्ल पप्फुल्ल मेल्लेइ वणु सव्वु ॥3 मंदु पारणंदयारी हुप्रो वाउ वावि कुवेसु अब्भहिउ जलु जाउ ॥4 गोसमूहेहिँ विक्खित्तु थणदुद्ध एंतजंतेहिं पहिएहिं पहु रुद्ध ॥5 तो दिणे छठ्ठि उक्किट्ठकमसेरण दाविया छठ्ठिया ज्झत्ति वइसेण ।।6 अट्ठ दो दिवह बोलीण छुडु जाय ताम जा रणाम जिणयासि सणुराय ॥7 वालु सोमालु देविदसमदेहु लेवि भत्तीऍ जाएवि जिणगेहु ॥8 तोएँ पेच्छियउ पुच्छियउ मुणिचंदु मत्तमायंगु रगामेण इय छंदु ॥१
घत्ता-मंदरु जिह थिरु तिह बुहयरणहिँ कुंभरासि पभरिणज्जइ । महुतरणउ तरणउ एरिसु मुणिवि मुरिणवर णामु रइज्जइ ।। 10
3.6 तं सुरिणऊरण परगट्ठरईसो मेहरिणघोसु भणेइ जईसो ॥1 दिठ्ठ तए सिविणंतर सारो पुत्तिएँ तुंगु सुदंसरणमेरो ॥2
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का विनाश कर देनेवाली अग्नि (देखने) से (वह) पापरूपी मल को जला देगा। [8] (और भी) (तुम्हारा पुत्र) सुन्दर, मनोहर, गुणरूपी मणियों का घर, युवती-वर्ग का प्रिय और प्रेम का देवता (होगा)। [9] (तुम्हारा पुत्र) ईर्ष्यारहित (तथा) अपने कुलरूपी मानसरोवर का राजहंस (होगा) (और ऐसा होगा) (जिसके द्वारा) ज्ञानी वर्ग की प्रशंसा प्राप्त कर ली गई है। [10] (जो) साधु होकर उपसर्ग सहन करके ध्यान के द्वारा मोक्ष के लाभ को प्राप्त करेगा। [11] जिनेन्द्र (और) मुनिवर को प्रणाम करके हर्षित मनवाले दोनों ही मनुष्य (पति-पत्नी) निज घर को चले गए। [12] गोप भी वहां निदान सहित मरकर वणिक की पत्नी के उदर में आकर रहा ।
घत्ता-वहाँ (वह) गर्भ में आकाश में स्थित सूर्य की तरह, कमलिनी के पत्ते पर जल की तरह, सघन सिप्पिदल में (खोखली जगह में) असाधारण मोती की तरह शोभायमान हुमा ।
3.5
[1] (जन्मे हुए) उस पुत्र से मनुष्य वर्ग सन्तुष्ट हुा । अाकाश में घने बादलों द्वारा जल बरसाया गया। [2] नगर का दुष्ट और अत्यन्त पापी (एवं) ईर्ष्यालु/द्वेषी वर्ग डर गया (दुःखी हुग्रा) । देवताओं द्वारा प्राकाश में हर्ष (और) आनन्द घोषित किया गया। [3] (जिसके द्वारा) सन्तोष दिया गया (ऐसा) दिव्य दुंदुभि-घोष (उत्पन्न) हुअा। समस्त वन खिले हुए फलों को छोड़ने लगा (बरसाने लगा)। [4] आनन्दकारी मन्द पवन चला। बावड़ियों और कुत्रों में अत्यधिक जल भरा। [5] गौ-समूहों द्वारा थरणों से दूध बिखेरा गया । आते-जाते हुए पथिकों के कारण मार्ग रुक गया। [6] तब (जन्म के) छठे दिन पर वणिक के द्वारा उत्कृष्ट रूप से झटपट उत्सव दिखलाया गया (मनाया गया)। [7-8]जब शीघ्र पाठ और दो दिन (=दस दिन) व्यतीत हुए, तब जिनदासी नामक (माता ने) अनुराग-सहित (उस) सुकुमार (और) इन्द्र के समान देहवाले बालक को लेकर (और) भक्तिपूर्वक जिन-मन्दिर जाकर (जिनेन्द्र को प्रणाम किया)। [9] (वहाँ) उसके द्वारा मुरिणचन्द देखे गए (प्रौर) (वे) पूछे गए । यह छन्द नाम से मत्तमात्तंग (है)। .
- घत्ता-जिस प्रकार मेरु-पर्वत स्थित है उसी प्रकार ज्ञानियों द्वारा कुम्भ राशि कही जाती है । हे मुनिवर ! ऐसा जानकर मेरे पुत्र का नाम रचा जाए ।
3.6
[1] उसको (माता के वचन को) सुनकर (वे) विशिष्ट मुनि (जिनके द्वारा) काम नष्ट कर दिया गया (है), (जिनका) स्वर मेघ के समान (है) बोले-[2] हे पुत्री ! तुम्हारे द्वारा स्वप्न के अन्दर श्रेष्ठ, ऊँचा (और) सुन्दर पर्वत देखा गया। [3] अतः (इसका) नाम
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
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किज्जउ तेरण सुदंसणु लामो
विवि जईसं
तो जिणयासे सोहणमासे दिर छुडु दित्तं देवमहीहरि रणं सुरवच्छो वड्ढइ णं वयपालणें धम्मो वड्ढइ रणं गवपाउसि कंदो
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113
सज्जणका मिणिसोत्तहिरामो चित्तें पट्टि गया सरिणवासं ॥4 बद्ध पालरणयं सुविचित्तं
वड्ढइ तत्थ परिट्ठिउ वच्छो वड्ढr रणं पियलोयणें पेम्मो एस पयासिउ दोहयछंदो
घत्ता -- जगतमहरु ससहरु मयरहरु जिह वडूढंतउ भावइ । मरणवल्लहु दुल्लहु सज्जरग हँ पुरएवहाँ सुउ णावइ ॥ 9
115
॥ 6
॥7
118
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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सुदर्शन रखा जाए (जो ) सज्जन और कामिनियों के कानों के लिए मनोहर है। [4] तब
जिनदासी मन में आनन्दित हुई और विशिष्ट मुनि को प्रणाम करके स्वनिवास को गई । [5] शीघ्र (शुभ) दिन (और) शुभमास में दिव्य (और) प्रत्यन्त सुन्दर पालना बाँधा गया । [6-7-8] वहाँ रहा हुआ बालक बढ़ने लगा, जैसे देव-बालक देव- पर्वत (सुमेरु) पर ( बढ़ता है), जैसे व्रतपालन से धर्म बढ़ता है, जैसे स्नेही के दर्शन से प्रेम बढ़ता है, जैसे नई वर्षा ऋतु में कंद (बादल) बढ़ता है, इस प्रकार दोधक छंद व्यक्त किया गया ( है ) ।
घत्ता - जिस प्रकार समुद्र और जग के अन्धकार को दूर करनेवाला चन्द्रमा बढ़ता हुआ अच्छा लगता है, ( उसी प्रकार ) सज्जनों के मन को अच्छा लगनेवाला (जिनदासी का ) दुर्लभ (पुत्र) पुरुदेव (ऋषभदेव) के सुत (मरत) के समान (अच्छा लगता है) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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पाठ-12
करकण्डचरिउ
सन्धि -2
पुणु उच्चकहारणी रिगसुरिग पुत्त परिकलिवि संगु रगोचहाँ हिएण वाणारसिणयरि मणोहिरामु संतोसु वहंतउ रिणयमणम्मि जलरहियहिँ अडविहिँ सो पडिउ प्रमिएण विरिणम्मिय सुहयराइ संतुट्ठउ तहाँ वरिणवरहों राउ उवयारु महंतउ जारगएण
2.16 संपज्जइ संपइ जे विचित्त ॥1 उच्चेण समउ किउ संगु तेरण ॥2 प्ररविंदु रणराहिउ अस्थि रणामु ॥3 पारद्धिहे गउ एक्कहिं दिणम्मि ॥4 तहिँ तण्हएँ भुक्खएँ विण्रण डिउ ॥5 तहाँ दिण्णइँ वरिणरणा फलइँ ताई ॥6 घरि जाइवि तहाँ दिण्णउ पसाउ ॥7 वरिण रिणहियउ मंतिपयम्मि तेरण ॥8
घत्ता-अणुराएँ विणि वि तहिँ वसहिं दिणयरतेयकलायर ।
गुणगणरयरणहँ सीलणिहि गहिरिमाई रणं सायर ॥9
2.17
ता एक्कहिँ विरिण मंतीवरेण आहरणइँ लेविण दिहिकरासु गयमोल्लइँ जणणयपहँ पियाइँ सरयागमससहरमाणणीहैं मई मारिउ णंदणु रणरवईहिँ तं सुरिणवि ताइँ पभरिणउ सणेहु एत्तहिँ अलहंते सुउ रिणवेण जो रायहाँ णंदणु कहइ को वि
तहाँ रायहाँ णंदणु हरिवि तेरण ॥1 गउ तुरिउ विलासिरिणमंदिरासु ॥2 तहिं वरिगणा ताह समप्पियाइँ ॥3 पुणु कहियउ तेण विलासिणीहैं ॥4 इउ कहियउ सयलु वि थिररईहि ॥5 मा कासु वि पयडु करेहि एहु ॥6 देवाविउ डिडिमु णयर तेण ॥7 सहुँ दविणइँ मेइणि लहइ सो वि ॥8
70 1
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-12
करकण्डचरिउ
सन्धि -2
2 16
[1] इसके विपरीत हे पुत्र ! उच्च (संगति) की कहानी सुन । जिससे नाना प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त की जाती है। [2] हृदय से नीच की संगति को समझकर उस (वणिक) के द्वारा उच्च (व्यक्ति) के साथ संग किया गया । [3] वाराणसी नगर में मन को प्रसन्न करनेवाला अरविंद नामक राजा था। [4] अपने मन में प्रसन्नता को धारण करता हुआ (वह) एक दिन शिकार के लिए गया । [5] वह जलरहित जंगल में फंस गया, वहाँ पर भूख (और) प्यास के द्वारा व्याकुल किया गया । [6] (तब) वणिक के द्वारा अमृत से बने हुए वे सुखकारी फल उस (राजा) को दिए मए । [7] राजा उस श्रेष्ठ वणिक पर प्रसन्न हुआ, (और) घर जाकर उसको पुरस्कार दिया गया। [8] (अपने ऊपर) महान उपकार समझनेवाला होने के कारण, उस (राजा) के द्वारा वणिक मन्त्री-पद पर रखा गया ।
घत्ता-(वे) दोनों (जो) तेज में सूर्य और चन्द्रमा (के समान) थे, (जो) गुणसमूहरूपी रत्नों के (व) शील के निधान (थे),(जो) गंभीरता में सागर के समान (थे), स्नेहपूर्वक वहाँ पर रहने लगे।
2.17
1] तब एक दिन उस राजा के पुत्र का हरण करके उस मन्त्रीवर के द्वारा (भागा गया) । [2] (वह) (उसके) ग्राभूषणों को लेकर शीघ्रता से (स्नेहशील) विलासिनी (महिला) के सुखकारी घर को गया। [3] (बे) (प्राभूषण) (जिनका) मूल्य चला गया (है), (जो) मनुष्यों के नयनों के लिए प्रिय (हैं), उस विलासिनी (महिला) के लिए वणिक के द्वारा वहाँ प्रदान किए गए। [4] शरद ऋतु में प्राने वाले चन्द्रमा की तरह मुखवाली (उस) बिलासिनी को उस (वणिक) के द्वारा फिर कहा गया। [5] मेरे द्वारा राजा का पुत्र मारा गया (है) । यह सारी (बात) ही (उसके द्वारा) स्थिर स्नेहवाली (विलासनी) को कही गई । [6] उस (बात) को सुनकर उस (विलासिनी) के द्वारा (वरिपक के लिए) सस्नेह कहा गया (कि) यह (बात) किसी के लिए भी (तुम) प्रकट मत करना। [7] यहाँ पर राजा के द्वारा पुत्र को न पाते हुए होने के कारण, उसके द्वारा नगर में ढोल-(बजाकर) आज्ञा करवायी गयी (है)। [8] (और राजा के द्वारा कहलवाया गया कि) जो कोई भी राजा के पुत्र को बताता है (बतायेगा) वह ही सम्पत्ति के साथ भूमि को पायेगा ।
अपभ्रंस काव्य सौरभ ]
[
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घत्ता-ता केण वि घिठे तुरियऍण णरणाहहाँ अग्गई मणिउ ।
उवलक्खिउ तुह सुउ देव मइँ सो गवलई मंतिएँ हरिणउ ॥9
तं वयणु सुरणेविणु सरलबाहु तिहिं फलहिं मझै एक्कहाँ फलासु प्रवराह दोणि अज्ज वि खमीसु परियारिणवि मंतिइ रायणेहु प्राइ होहि गरेसर परममित्तु वणिवयणु सुरणेविण गरवरेण गुरुवारण संगु जो जणु वहेइ एह उच्चकहाणी कहिय तुझ
2.18
संतुट्ठउ मंतिहँ धरणिणाहु ॥1 रिणरहरियउ रिणु मई मइवरासु ॥2 खरिण हुयउ पसण्णउ धरणिईसु ॥3 रिणवणंदणु अप्पिउ दिव्ववेहु ॥4 मइँ देव तुहारउ कलिउ चित्तु ॥5 अइपउरु पसाउ पइण्णु तेण ॥6 हियइच्छिय संपइ सो लहेइ ॥7 गुणसारणि पुत्तय हियई बुझ ॥8
घत्ता-करकंडु जरणाविउ खेयरई हियबुद्धिएँ सयलउ कलउ ।
इय णित्तिएँ जो गरु ववहरइ सो भुंजइ णिच्छउ भूवलउ ॥9
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता -- तब किसी ढीठ (व्यक्ति) के द्वारा शीघ्रता से राजा के आगे कहा गया ( कि ) हे देव ! तुम्हारा सुत (पुत्र) मेरे द्वारा देखा गया ( है ), वह ( तुम्हारे ) नए मन्त्री द्वारा मार दिया गया ( है ) |
।
[1] उस बात को सुनकर पृथ्वी का नाथ (राजा) सरलबाहु, मन्त्री से प्रसन्न हुआ । [2] ( राजा ने कहा कि जंगल में दिए गए ) तीन फलों में से मन्त्रीवर के एक फल का ऋण मेरे द्वारा चुका दिया गया ( है ) [3] ( मन्त्री ने कहा कि ) हे नाथ ! अन्य दो ( फलों के ऋण) को आज ही क्षमा कीजिए । पृथ्वी का मुखिया (राजा) क्षरण भर में प्रसन्न हुआ । [4] राजा के स्नेह को जानकर मन्त्री के द्वारा सुन्दर देहवाला राजा का पुत्र सौंप दिया गया । [5] हे नरेश्वर ! ( श्राप ) ( मेरे ) परम मित्र हो ! हे देव ! मेरे द्वारा तुम्हारा चित्त पहिचान लिया गया ( है ) । [6] ( इस तरह से ) वणिक के वचन को सुनकर उस राजा के द्वारा (वणिक के लिए) खूब पुरस्कार सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया । [7] ( इस प्रकार ) जो मनुष्य अच्छों की संगति को धारण करता है, वह मन से चाही गई सम्पत्ति को प्राप्त करता है । [8] हे पुत्र ! यह उच्च (पुरुष) की कहानी (जो ) गुणों की परम्परावाली है, तेरे लिए कही गई है (इसको ) (तू) हृदय में समझ ।
2.18
धत्ता - खेचर ( विद्याधर ) के द्वारा हितकारी बुद्धि से करकंड समस्त कलाएँ सिखाया गया । इसकी नीति से जो मनुष्य व्यवहार करता है वह अवश्य ही भूमण्डल को उपभोग करता है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 73
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उडि-खग्ग सव्वहिं करि धारिय दूरह हुंति तेरण नियच्छिय एहु मारत्थि इह प्रावहिं इय मरिण मंतिवि पुणु भयतट्ठउ ते बोल्लावहिं भो गिहि श्रावहि वच्छउलइँ रिणयगेहि पराणिय तुज्भु जर रिण तु दुक्ख सल्लिय तह वि र सो रिणयत्तु भयभीयउ जाय रयणि ते सीह-भयाउर तासु जरगरि महदुक्ख तत्ती हा हा किह सुव दंसणु होसइ भाय-भाय हा किम जीवेसमि हा हा किं बंधव णिचितउ हउँ तुव सरणि विएसे पत्ती महु मणु प्रच्छइ बहुदुक्खायरु प्रच्छहि कणु म कंदहि बहिणी
74 ]
:
पाठ- 13
tomकुमारचरि
सन्धि-3
3.16
11 1
11:5
11 6
|| 7
11 8
भोगवइ चल्लिय विरिणवारिय हक्क दित प्रावंत वि पेच्छिय ॥ 2 वच्छउलइँ गउ कत्थ विपावहिं ॥। 3 पच्छउ वलिवि रिएवि वरिण णट्ठउ ।। 4 एहि एहि मा भयवसु धावहि तुहु इ थक्कु रण मइए जारिणय मा वरिण जाहि मुइवि एकल्लिय मुराइ पर्वच सयलु इणु कीयउ पल्लट्टिवि गय ते पुणु गियघर हुय पिरास खरिण पगलियणेत्ती दुट्ठ विहिहिं पुणु - पुणु सा कोसइ सुबाहु सुवत्तु किम पेच्छेसमि महु सुउ विसमावत्यहिँ पत्तउ करहि गंपि महु पुत्तहु तत्ती इय कंदंति रिणवारइ भायरु पुर-सयासि सो विसइ रयरणी ।। 16
11 9
|| 10
॥ 11
11 12
1113
11 14
# 15
[
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ-13
धग्णकुमारचरिउ
सन्धि -3
3.16
[1] सभी के द्वारा लकड़ियाँ और तलवारें हाथ में रखी गई। भोगवती (साथ में जाने से) रोकी गई (फिर भी) (वह) (उनके साथ) (जंगल में) चल दी। [2] उसके (अकृतपुण्य के) द्वारा दूर से (ही) (सब) देख लिए गए (कि) (वे) हैं। हाँक देते हुए (और) प्राते हुए भी (वे) देख लिए गए। [3] (उसने सोचा कि) (जब) बछड़ों के समूहों को (उन्होंने) कहीं भी नहीं पाया होगा (तो) इन (हथियारों) से (मुझे) मारने के इच्छुक यहाँ (जंगल में) आये हैं। [4] मन में यह विचारकर (वह) भय से काँपा। फिर पीछे की ओर मुड़कर, देखकर (वह) जंगल में छिप गया। [5] वे बुलाते (थे) (कि) हे (बालक) ! (तुम) घर में प्रायो। प्रायो, प्रायो। भय के अधीन (होकर) मत भागो । [6] (तुम सुनो कि) बछड़ों के समूह निज घर में पहुंच गए (हैं)। तू (जंगल) (में) हो ठहरा है, (हमारे द्वारा) बुद्धि से (यह) नहीं समझा गया (था)। [7] तुम्हारी माता तुम्हारे दुःख द्वारा दुःखी की गई (है), (उसको) यहाँ अकेली छोड़कर वन में मत जा। [8] तो भी वह भयभीत (अकृतपुण्य) (वापिस) नहीं लौटा । (वह) इस सबको ( उनके द्वारा) किया हुआ छल समझता है । [9] रात्रि हुई ! फिर सिंह के भय से पीड़ित वे पलटकर अपने घर को गए । [10] उसको माता महादुःख के कारण दुःखी (और) निराश हुई । (वह) (एक) क्षण में बहतेहुए नेत्रवाली (हुई) [11] हाय-हाय ! (अब) सुत का दर्शन (मिलन) कैसे होगा ? वह (अपनी) दुष्ट किस्मत को बार-बार कोसने लगी। [12] हे भाई ! हे भाई ! हाय ! (मैं) (अब) कैसे जीतूंगी ? सुन्दर भुजावाले (और) सुन्दर मुखवाले (पुत्र) को कसे देखूगी ? [13] हाय-हाय ! हे भाई ! (तुम) निश्चिन्त क्यों हो ? मेरा पुत्र कठिन (विषम) अवस्था में पड़ा हुआ (है)। [14] मैं विदेश में तुम्हारी शरण में पड़ी हुई (हूँ)। (कहीं) जाकर मेरे लिए (तुम) (कुछ) करो, (जिससे) (मुझको) पुत्र से सन्तोष (मिले) । [15] मेरा मन बहुत दुःखों की खान (हो गया) है । इस प्रकार रोती हुई (उस) को भाई रोकता है। [16] हे बहिन ! ठहरो ! करुणाजनक मत रोप्रो। (आशा है कि) रात्रि में वह नगर के पास (कहीं) रहेगा।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[ 75
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घत्ता - जि रियउरि धरियउ खीरें भरियउ परपेसणेण जि पोसियउ । मह - दुक्ख पालिउ देहे लालिउ तं वीसरइ केम हियउ ॥ 17
हउँ होंत दुख-दालिद्द - जडिउ णिबंधउ छुह - तिस - संभरिउ थक्कइ सोय-माम जि धरि मइ दाणु पदिण्णउँ मुरिणवरहु हउँ वच्छउलहँ रक्खणहँ गउ पवणाय ते रिणय श्राय घरि थक्क तहिं प्राय बहु सुणिउ जा रिगवसमिता सिंघेरण हउ मुणिवयणपसाएँ दुक्खभरु एतह तह मायरि दुहभरिया हुय सुप्पहाए सयल जि मिलिया सव्वत्थ वणम्मि गवेसियउ
मुच्छाविय जणरिण रिएवि ताइ उम्मुच्छिवि मायर मुद्दवि धाह हा हा महु गंदणु हउँ सदुक्खि वारं सव्वहँ गयउ काइ
76 1
3.19
पुव्वकिय दुक्कम्मेर रगडिउ जणणिए सहु देसंतर फिरिउ हउँ प्रत्थि पवट्टिउ तह पवरि सहुं जरगणिए हिणिय भवसरहु तहि सुत्तउ जावहि विगय - भउ हउँ भयभीयउ कंदरि - विवरि संसार - सरूवउ वि चित्ति मुणिउ हउँ सुरवर जायउ चिय faas छिदिवि खरिण जायउ सुक्खघरु महदुक्खे खविय विहावरिया सहँ जरिए तं जोयहुं चलिया मह सोएँ पुरजणु सोसियउ
घत्ता - तहुँ खोज्जु रिणयंतइँ जतइँ संतइँ पत्तइँ गिरि-गुह-वारि पुणु । तहिँ तह कर चलणइँ बहु- दुह-जरगणइँ दिट्ठइँ दहदिसि पडिय तणु ॥ 13
3.20
π 1
11 2
॥
3
॥
4
11 5
1 6
॥ 7
॥ 8
|| 9
10
1 11
11 12
11 2
सयल वि दुक्खाविय तेत्थु ठाइ # 1 रोवरणह लग्ग हा हुय प्रणाह किं मुक्की णिक्कारणि उवेक्खि हा-हा कि णायउ गेह-ठाइ
॥। 3
11 4
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता-(माता ने कहा कि) (वह) निज छाती से लगाया गया, दूध से पोषित दूसरों की सेवा से ही (वह) पाला गया। बड़े कष्टों से (वह) रक्षण किया गया । (अपनी) देह से (वह) स्नेहपूर्वक संभाला गया । उसको हृदय कैसे भूलेगा ?
3.19
[1] मैं दुःख-दरिद्रता से युक्त होता हुआ पूर्व में किए हुए दुष्कर्म द्वारा नचाया गया। [2] (प्रारम्भ में) (मैं) धन्धे-रहित (होकर) भूख-प्यास-सहित (रहा) (और) माता के साथ विदेश में फिरा। [3] उस समय मैं अशोक मामा के श्रेष्ठ घर में प्रवृत्त हुआ (और) रहा । [4] मेरे द्वारा माता के साथ इस संसार-सरोवर के विनाश के लिए (समर्थ) श्रेष्ठ मुनि के लिए (पाहार)-दान दिया गया। [5] मैं बछड़ों के समूह की रक्षा के लिए (वन में) गया (और) जैसे ही (मेरा) भय नष्ट हुआ (मैं) वहाँ सो गया। [6-7] (तेज) वायु से प्राघात प्राप्त (पाहत) बे (बछड़े) अपने घर में आ गए (और) भय से कांपा हुआ (भयभीत) मैं गुफा के द्वार पर बैठा । वहाँ आगम बहुत सुना गया और संसार का स्वरूप चित्त में समझा गया। [8] जब (मैं) (वहाँ) बैठा था तब मैं सिंह के द्वारा मारा गया । (वहां से मरकर) (मेरे द्वारा) श्रेष्ठ देव का विशिष्ट पद पाया गया। [9] (इस तरह से) मुनि के वचन के प्रसाद से दु:ख के बोझ को काटकर (एक) क्षण में (मैं) सुख के घर (स्थान) को गया। [10] इधर उसकी माता दुःख से भरी हुई थी (और) अत्यन्त कष्ट से (उसके द्वारा) रात्रि बिताई गई। [11] (तब) सब ही सुप्रभात में (उपस्थित) होकर मिले । माता के साथ (उसको) खोजने के लिए (सभी) चले । [12] (उनके द्वारा) सारे वन में (वह) खोजा गया। महान शोक के कारण नगर के जन कृश हो गये (थे)।
घत्ता-फिर उसके मार्ग-चिह्न देखते हुए, जाते हुए, थके हुए (वे सब) पर्वत की गुफा के दरवाजे पर पहुंचे। वहाँ उसके शरीर के हाथ और पैर दसों दिशाओं में पड़े हुए देखे गए • जो) बहुत दु:ख के जनक (थे)।
3.20
[1] उन (हाथ-पैरों) को देखकर (शोक के द्वारा) माता मूच्छित कर दी गई ।(और) सब भी उस स्थान पर दुःखी (हुए) । [2] अमूच्छित होकर (मूरिहित होकर, होश में आकर) माँ ने चिल्लाहट (की) (कि) छोड़कर (चला गया) (फिर) रोने का चिह्न (प्रकट हुमा) । हाय ! (मैं) अनाथ हो गई (हूँ)। [3] हाय-हाय ! हे मेरे पुत्र ! मैं अत्यन्त दुःख में (हूँ)। मैं (तेरे द्वारा) निष्कारण उपेक्षा करके क्यों छोड़ दी गई ? [4] सबके रोकते हुए होने पर (भी) (तुम) (वन में) क्यों गए ? (और) (फिर) हाय-हाय !
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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कि कुमइ जाय तुव एह पुत्त
विएसि
महु छंडि गयउ तुहु किं इय भरिणवि चलण कर मेलवे वि ता सुरवरु चितइ सग्गवासि जाइवि संबोहमि ताहि श्रज्जु अणु वि णियगुरु चरणारविंद इय चितिवि प्रायउ तहिँ सुरेसु रियडउ प्राविवि जंपिवि सुवाय हउ जीवमाणु महु रिणयहि वत्तु मोहाउर गिरिवि वयरण सिग्घु
घत्ता - मेल्लिवि कर-चरणइँ बहुदुहकर रणइँ धाइवि श्रालिंगेहि तहु । ता सुरवरु सारउ वसु-गुण-धारउ पर सरेवि थिउ सो वि लहु ॥ 15
जंपइ भो बुज्झहि जणणि सारु को कासु राहु को कासु भिच्चु मोहे बद्धउ मे मे करेइ अनारु रग किज्जइ मोहु अंबि जें लब्भहिँ इच्छिय सयलसुक्ख खरण भंगुरु सयलु म करहि सोउ सहहि जिखायमु सरिवि श्रज्जु श्रवहिए जारिवि हउँ एत्थु आउ
78 ]
जं वणि श्रावासिउ कमलवत्त
11 5
हउँ पारण चयमि पुणु इह पएसि ॥ 6 प्रालिंगइ जा रहेण लेवि || 7 किम जणरिण मज्भ हुव सोक्खरासि ॥ 8 जिम सिज्झइ तहि परलोइ कज्जु 11 9 परमवि जाइवि गइमल रिंगद मायइँ करेवि चिर - देह - वेसु किं कंदहि रोवहि मज्भु माय हउँ प्रकयपुण्णु रामेण पुत्तु ॥ 13 रिपच्छइ जागिउ महु सुउ अरणग्धुं ॥ 14
# 10
# 11
|| 12
3.21
11 4
जिणवयणु दयावरु जगह तारु # 1 जार हि संसारु जि मरिण प्रणिच्चु || 2 क्ख कु विकासु रग धरेइ ।। 3 जिधम्मु गहहि मा इह बिलंबि छेइज्जहिँ जें भवदुक्खलक्ख महु पुणु पेच्छहि संजय मोउ हुउ पढम-सग्गि सुर देवपुज्जु तुव बोहरात्थि पयडिय - सुवाउ ॥ 8
11 5
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11 7
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(तुम) निवास स्थान में (घर के आँगन में) क्यों नहीं पहुँचे ? [5] हे कमल के समान मुखवाले पुत्र ! तुम्हारे (मन में) यह कुमति क्यों उत्पन्न हुई कि (तुम्हारे द्वारा) वन में (ही) रहा गया ? [6] मुझको छोड़कर तू परदेश में क्यों चला गया ? (अतः) मैं इस स्थान पर ही प्रारण छोड़ती (हूँ)। [7-8 ] यह कहकर उसके) हाथों और पैरों को मिलाकर (उनको) स्नेह से उठाकर जब (वह) (उनका) आलिंगन करती है, तब सुख की खान स्वर्ग का वासी श्रेष्ठदेव विचारता है (कि) मेरी माँ को क्या हुआ (है)? [9] (मैं) जाकर उसको अाज समझाऊँगा, जिससे परलोक में उसका कार्य सिद्ध हो। [10] दूसरी (बात) भी (विचारी) (कि) (मैं) (वहाँ) जाकर मलरहित व निंदारहित निज गुरु के चरणरूपी कमलों को प्रणाम करके उनके प्रति (कृतज्ञता ज्ञापन करूँगा)। [11] इन (दोनों बातों) को सोचकर माया से पुरानी देह के वेश को बनाकर उत्तम देव वहाँ पाया। [12] निकट पाकर (और) मधुर वचन कहकर (बोला) (कि) हे मेरी माता ! (तुम) क्यों क्रन्दन करती हो ? (तुम) क्यों रोती हो ? [13] मैं जीता हुप्रा (जीवित) हूँ। (तुम) मेरे मुख को देखो । मैं (तुम्हारा) पुत्र (हूँ) (जो) नाम से प्रकृतपुण्य (है)। [14] (उसके) वचन को सुनकर मोह से पीड़ित (माता) ने शीघ्र जानकर और निश्चय करके (कहा) (कि) (अरे ! ) (यह) (तो) मेरा उत्तम पुत्र (है)।
घत्ता-बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले हाथों और पैरों को छोड़कर, दौड़कर वह उस ( मायावी पुत्री को प्रालिंगन करती है। तब वह श्रेष्ठ देव भी, (जो) सर्वोत्तम पाठ गुणों का धारक (था), (माता की) अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुआ।
3.21
[1] (मायावी) (पुत्र) बोला (कि) हे माता ! (तू) मनुष्यों के लिए श्रेष्ठ, दयावान (और) उज्ज्वल जिन-वचन को समझ । [2] कौन किसका नाथ (है) ? कौन किसका नौकर (है। ? (तू) मन में संसार को अनित्य जान । [3] (व्यक्ति) मोह से जकड़ा हुमा मेरा-मेरा करता है, आयु के समाप्त होने पर कोई भी किसी को पकड़ नहीं सकता । [4] हे माता ! अत्यधिक इच्छावाला (बन्धनवाला, मोह नहीं किया जाना चाहिए । यहाँ (अव) देरी मत करो। (तुम) जिनधर्म को ग्रहण करो। [5] जिसके द्वारा इच्छित सभी सुख प्राप्त किए जाते हैं, जिसके द्वारा संसार के लाखों दुःख नष्ट किये जाते हैं । [6] प्रत्येक (सम्बन्ध ) क्षण में नाशवान (होता है)। (अत.) (तू) शोक मत कर । फिर मुझको देख । (ऐसा कहने से) (माता में) हर्ष उत्पन्न हुआ। [7] आज (ही) जिनागम का स्मरण करके (उसमें) श्रद्धा कर । (देख इसके प्रभाव से) (मैं) प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य देव हुमा (हूँ)। [8] अवधि-ज्ञान से जानकर मैं यहाँ प्राया (हूँ) । (मैं) तुम्हारी शिक्षा (बोध) का इच्छुक (हूँ) । (इसलिए) (मेरे द्वारा) (तुम्हारे) पुत्र की आयु (जीवनकाल
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
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इय वयणु सुरिणवि उवसंतमोह देवे पुणु रिणय-मुणिरगाह पासि ति पयाहिरिण देप्पिणु गुरुपयाई
कर-चरण मुइवि जाया सुबोह ॥9 वरु गुह-अभंतरि वि गय तासि ॥ 10 देवे वंदिय ता गरहियाई ॥11
घत्ता-बहु थोत्तु पयासिवि चिरकह मासिवि तुम्ह पसाएँ देव पउ ।
मइँ पाविउ धण्णउ बहु-सुह छण्णउ एम भरिणवि पणवाउ कउ ॥ 12
80
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का रूप ) प्रकट की गई ( है ) । [ 9 ] इस वचन को सुनकर ( माता का मोह शान्त हुआ (मृत) हाथ-पैरों को छोड़कर ( वह) उत्तम ज्ञानवाली हुई । [10] फिर देव के द्वारा अपने मुनिनाथ (गुरु) के पास जाया गया । (वे) भयंकर और श्रेष्ठ गुफा के भीतर ही (निवास करते थे) । [11] गुरु चरणों को तीन प्रदक्षिणा देकर देव के द्वारा वन्दना की गई (और) तब ( उनके समक्ष ) ( अपने दोष) निन्दित किए गए ।
घत्ता- - ( गुरु के समक्ष ) ( उनकी ) बहुत स्तुति ( को ) व्यक्त करके ( श्रौर ) ( उनको अपने सम्बन्ध की ) पुरानी कथा कहकर (देव ने) (कहा) (कि) (हे गुरु) तुम्हारी कृपा से मेरे द्वारा प्रशंसनीय और बहुत सुखों से आच्छादित (यह ) देव का पद प्राप्त किया गया । इस प्रकार कहकर (उसके द्वारा) (फिर) प्रणाम किया गया ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
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1. सायरु उपरि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई । सामि सुभिच्च विपरिहरइ संमारणेइ खलाई ||
2.
3. जो गुण गोवइ प्रपणा पयडा करइ परस्सु तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं सुप्रणस्सु ||
5.
4. दइ घडावइ वणि तरुहुँ सउरिहं पक्क फलाई । सो वरि सुक्खु पइट्ठ रग वि काहिं खल-वयणाई ||
6
पाठ-14
हेमचन्द्र के दोहे
7.
मारेइ ।
वरुड्डाणे पड खलु श्रप्पणु जिह गिरि-सिंगहुं पडि सिल अन्तु वि चूरु करेइ ॥
8.
धवलु विसूरइ सामि ग्रहो गरुप्रा भरु पिक्खेवि । हउं कि न जुत्तउ दुहुं दिसह खंडइं दोणि करेवि ||
कमलई मेल्लवि अलि उलई प्रसुलहमेच्छरण जाहं भलि ते
जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इट्ठ । दोणि वि श्रवसर - निवडिग्रई तिण-सम गणइ विसिट्ठ ॥
करि-गंडाई महन्ति । ग वि दूर गरपन्ति ॥
बलि प्रब्भत्थणि
जइ इच्छहु वहुत्तणउं देहु
महु - महणु लहुई हुआ सोइ । म मग्गहु कोइ
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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हेमचन्द्र के दोहे
[1] ( आश्चर्य है कि ) सागर घास-फूस को ऊपर रखता है (और) रत्नों को पैदे में फेंक देता है । ( इसी प्रकार ) ( आश्चर्य है कि ) राजा गुणवान सेवक को त्याग देता है (और) दुष्ट सेवकों का सम्मान करता है ।
पाठ-14
[2] ( आचरणरूपी ) ऊँचाई से उड़ने के कारण ( हटने / डिगने के कारण ) गिरा हुआ दुष्ट (व्यक्ति) अपने को (और) ( दूसरे ) मनुष्यों को नष्ट करता है, जिस प्रकार पर्वत की शिखा से गिरी हुई शिला ( अपने साथ ) अन्य को भी टुकड़े-टुकड़े कर
देती है ।
[3] जो स्वयं के गुणों को छिपाता है, दूसरे के ( गुणों को) प्रकट करता है, उस दुर्लभ सज्जन की (इस) कलि युग में ( मैं ) पूजा करता हूँ) ।
[4] दैव ने वन में पक्षियों के लिए वृक्षों के पके फल बनाए, वह (पक्षियों के लिए) श्रेष्ठ सुख ( है ), (क्योंकि) (वन में रहने के कारण उनके कानों में दुष्टों के वचन प्रविष्ट (प्रवेश) नहीं हुए ।
[5] स्वामी के बड़े भार को देखकर (गाड़ी में जुता हुआ ) उत्तम बैल खेद करता है ( कि) हे (स्वामी) ! मैं (अपने) दो विभाग करके दोनों दिशाओं में क्यों न जोत दिया गया ?
[6] कमलों को छोड़कर भँवरों के समूह हाथियों के गंडस्थलों की इच्छा करते हैं । (ठीक ही है) जिनका कदाग्रह (हठ) प्रसुलभ लक्ष्य को ( प्राप्त करना है) वे ( उसको ) बिल्कुल दूर ( स्थित ) नहीं मानते ( हैं ) ।
[7] जीवन किसके लिए प्रिय नहीं है ? (नौर) धन (भी) किसके लिए प्रिय नहीं है, (किन्तु) विशेष गुरण - सम्पन्न (व्यक्ति) समय ग्रा पड़ने पर दोनों को ही तिनके (घास) के समान गिनता है ।
[8] बलि राजा से माँगनेवाला होने के कारण वह विष्णु भी छोटा हुआ । यदि (तुम) बड़प्पन को चाहते हो (तो) दो । कुछ भी मत माँगो ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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9. कुञ्जर ! सुमरि म सल्लइउ सरला सास म मल्लि ।
कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि ॥
10. दिग्रहा जन्ति झडप्पडहिं पहिं मरणोरह पच्छि ।
जं अच्छइ तं मारिणम इं होसइ करतु म अच्छि ॥
11. सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहो बलि कीसु ।
तसु दइवेग वि मुण्डियउं जसु खल्लिहडउ सीसु ॥
12. तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु वित्थारु ।
तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुठ्ठाइ प्रसारु ॥
13. किर खाइ न पिअइ न विहवइ धम्मि न वेच्चइ रुपडउ ।
इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणण पहुच्चइ दूअडउ॥
14. कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहि मेहु ।
दूर-ठियाहं वि सज्जरणहं होइ असड्ढलु नेहु ॥
15. सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहि नवि उज्जारण-वणेहिं ।
देस रवण्णा होन्ति वढ ! निवसन्तेहिं सु-अरहिं ॥
16. एक्क कुडुल्ली पहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुम बुद्धी ।
बहिणुए तं घरु कहिं किम्व नन्दउ जेत्थु कुडुम्बउं अप्पण-छंद।।
17. जिबिभन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नइं ।
मूलि विठ्ठइ तुंबिरिणहे अवसे सुक्कइं पण्णइं ॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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[9] हे गजराज ! शल्लकी कर । (ौर) (उसके लिए ) ( गहरे साँसों ( वृक्षरूपी) भोजन विधि के वश से स्वाभिमान को मत छोड़ ।
[10] दिन झटपट से व्यतीत होते हैं, इच्छाएं पीछे रह जाती हैं, जो होना है वह होगा ही (ऐसा ) मानकर सोचता हुआ ही मत बैठ ।
[11] जो विद्यमान करता हूँ । जिसका सिर गंजा है
( नामक ) ( स्वादिष्ट वृक्ष विशेष) को (अब) याद मत को लेकर ) स्वाभाविक साँसों को मत त्याग । जो (तेरे द्वारा) प्राप्त किया गया ( है ) उनको खा, (पर)
भोगों को त्यागता है उसका सिर (तो) देव के
[12] ( यद्यपि ) सागर का वह जल इतना (गहरा ) ( है ) (तथा) वह इतना (बड़ा) विस्तार (लिए हुए) है, (तो भी) (आश्चर्य है कि ) ( उससे ) प्यास का निवारण जरासा भी नहीं (होता है) । किन्तु ( वह) निरर्थक ( गूंज की ) आवाज करता रहता है ।
उस
सुन्दर (व्यक्ति) की ( मैं ) पूजा द्वारा ही मुँडा हुआ है ।
[13] निश्चय ही कंजूस न खाता है, न पीता है, न घूमता है और न रुपये को धर्म में व्यय करता है । जबकि (कृपण) यहाँ (यह ) नहीं समझता है ( कि ) यम का दूत क्षरण भर में पहुँच जायेगा ।
[14] कहाँ चन्द्रमा (है), कहाँ समुद्र, कहाँ मोर ( है ) (और) कहाँ मेघ ? (फिर) भी ( इनमें आपस में ) प्रेम है । ( इसी प्रकार ) दूरी पर स्थित ( भी ) सज्जनों का प्रेम असाधारण
होता है ।
[15] हे मूर्ख ! न नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से, न ही उद्यानों और वनों से देश सुन्दर होते हैं । (वे) (तो) सज्जनों द्वारा बसे हुए होने के कारण ही सुन्दर (होते हैं) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[16] एक कुटिया पाँच (व्यक्तियों) द्वारा रोकी हुई है । उन पाँचों की भी बुद्धि अलग-अलग है । है बहिन ! कहो, वह घर कैसे हर्ष मनानेवाला ( होगा ) जहाँ कुटुम्ब स्वच्छन्दी (हो) ?
[17] अन्य ( इन्द्रियाँ) जिसके अधीन हैं, ( ऐसी ) प्रमुख रसना इन्द्रिय को वश में करो। मूल के समाप्त हो जाने पर तुम्बिनी के पत्ते प्रवश्य ही निराधार ( म्लान) (हो जाते हैं) ।
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18. जेप्पि असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु ।
लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु ॥ 19. देवं दुक्करु निय-धणु करण न तउ पडिहाइ ।
एम्वइ सुहु भुञ्जरणहं मणु पर भुजहिं न जाइ ॥
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[18] सम्पूर्ण कषाय की सेना को जीतकर, जगत को अभय (दान) देकर, महाव्रतों को ग्रहण करके, तत्त्व का ध्यान करके (व्यक्ति) मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
[19] निज धन को देने के लिए (तत्पर होना) दुष्कर (है), तप को करने के लिए (कोई) दिखाई नहीं देता है। इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए (तो) मन (तत्पर रहता है), किन्तु (उसको) भोगने के लिए (कोई) (प्रयास) उत्पन्न नहीं होता है ।
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पाठ-15
परमात्मप्रकाश
1. पुणु पुणु परमविवि पंच-गुरु भावे चित्ति धरेवि ।
भट्टपहायर रिणसुरिण तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि ॥
2. अप्पा ति-विह मुरणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ ।
मुरिण सणाणे गारणमउ जो परमप्प-सहाउ ॥ 3. मूढ वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ ।
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ ॥ 4. देह-विभिण्णउ पारणमउ जो परमप्पु रिगएइ ।
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ।। 5. अप्पा लद्धउ पाणम उ कम्म-विमुक्के जेण ।
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु पर सो पर मुगहि मणेरण ॥
6. पिच्चु रिणरंजणु रणाणमउ परमारणंद-सहाउ ।
जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ।
7. जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो पर-भाउ रण लेइ ।
जाणइ सयलु वि रिगच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ॥
8. जासु रण वण्णु रण गंधु रसु जासु ण सद्दु रण फासु । ___ जासु ण जम्मणु मरणु ण वि गाउ रिणरंजणु तासु ॥
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पाठ-15
परमात्मप्रकाश
[1] पाँच गुरुत्रों को बार-बार प्रणाम करके (और) (उनको) अंतरंग बहुमान से चित्त में धारण करके (मैं) तीन प्रकार की प्रात्मा को कहने के लिए (उद्यत हुअा हूँ) । (अतः) हे भट्ट प्रभाकर ! तू (ध्यानपूर्वक) सुन ।
[2] तीन प्रकार की प्रात्मा को जानकर (तू) शीघ्र मूच्छित आत्मावस्था को छोड़ । (और) जो ज्ञानमय परमात्म-स्वभाव (है) (उसको) स्वबोध के द्वारा जान ।
[3] आत्मा तीन प्रकार की होती है-मूच्छित (आत्मा), जाग्रत (आत्मा) और परम प्रात्मा (शुद्ध प्रात्मा) । जो देह को ही प्रात्मा मानता है वह मनुष्य मूच्छित होता है।
[4] जो देह से भिन्न परम समाधि में ठहरे हुए ज्ञानमय परम आत्मा को समझता है वह ही जाग्रत होता है।
[5] सकल ही पर द्रव्य को छोड़कर जिसके द्वारा ज्ञानमय प्रात्मा प्राप्त किया गया (है) वह कर्मरहित (मानसिक तनावरहित) होने के कारण सर्वोच्च (आत्मा) (है) । (तुम) (इसको) रुचिपूर्वक समझो ।
[6] (आत्मा) नित्य (है), निरंजन (है), ज्ञानमय (है) (और)(उसका) परमानन्द स्वभाव (है) । जिस (मनुष्य) ने ऐसी (अवस्था) (प्राप्त की है) वह (निश्चय ही) संतुष्ट हुप्रा (है) (और) (वह) मंगल-युक्त (भी) (बना) (है)। उसकी (इस) अवस्था को (तू) समझ।
[7] जो (आत्मा) निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है, जो पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है, (जो) नित्य (है), सर्वोच्च (है) और सकल (पदार्थ-समूह) को जानता है वह ही सन्तुष्ट हुआ (है) (और) मंगल-युक्त (भी) बना है।
[8] जिस (अवस्था) का न (कोई) रंग (है), (जिस अवस्था में) न (कोई ) गंध (है), (जिस अवस्था में) न (कोई) (इन्द्रियात्मक) रस (है), जिस (अवस्था) में न (कोई) (कर्णेन्द्रिय सम्बन्धी) शब्द (है), (और) (जिस अवस्था में) न (कोई) (स्पर्शनेन्द्रिय संबंधी) स्पर्श (है), जिस (अवस्था) का न (कोई) जन्म (है) (और न) मरण, (जिस) (अवस्था) (का) न ही (कोई) नाम (है), उस (अवस्था) का (स्वरूप) निष्कलंक (होता है)।
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9. जासु रग कोहु ण मोहु मउ जासु ग माय ण माणु । जासु ण ठाण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥
10. प्रत्थि र पुण्णु ण पाउ जसु प्रत्थि रग हरिसु विसाउ । प्रत्थि रग एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥
11. जासु प धारण धेउ रग वि जासु रग जंतु रण मंतु । जासु प मंडलु मुद्दा वि सो मुरिंग देउँ प्रतु ॥
12. वेयहिँ सत्यहिँ इंदियहिँ जो जिय मुरहु र जाइ । रिम्मल - कारणहँ जो विसउ सो परमप्पु राइ ||
13. जेहउ खिम्मलु ारणमउ सिद्धिर्हि विसइ देउ । तेहउ रिगवसs बंभु परु देहहँ मं करि भेउ ||
14. जें दिट्ठे तुति लहु कम्मइँ पुव्व - कियाइँ । सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु रग काइँ ॥
15. जित्थु रग इंदिय - सुह - दुहइँ जित्थु ण मरण-वावारु । सोप्पा मुरिण जीव तुहुँ अणु परि श्रवहारु !!
भैयाभेय-रगएण
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16. देहादेह हिँ जो वसइ सोप्पा मुरिण जीव तुहुं किं प्रणे" बहुएण ॥
F
17. जीवाजीव म एक्कु करि लक्खरण भेएँ भेउ जो पर सो पर भरणमि मुणि अप्पा प्रप्पु प्रभेउ ॥
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[9] जिस (आत्मा) के न क्रोध (है), न मोह ( है ) (और) (न) मद ( है ), जिस (ग्रात्मा) के न माया ( है ) ( औौर) न मान ( है ), जिस (ग्रात्मा) के लिए ( अनुभूति का ) (कोई) (विशिष्ट) देश नहीं ( है ), ( जिस ) ( आत्मा ) ( के लिए ) ( प्रयत्नरूप ) ध्यान नहीं ( है ), वह ही आत्मा निष्कलंक ( होता है) । ( इस बात को ) (तुम) जानो ।
[10] जिस ( अवस्था ) में न पुण्य है (और) न पाप, जिस ( अवस्था ) में न हर्ष है. (और) (न) शोक, जिस ( अवस्था ) में एक भी दोष नहीं है वह ही अवस्था निष्कलंक ( होती
है) ।
[11] जिसके लिए ' ध्यान के योग्य ) ( कोई ) अवलम्बन नहीं है, ( प्राप्त करने योग्य ) ( कोई ) उद्देश्य भी नहीं ( है ), जिसके लिए न यन्त्र (और) न मन्त्र (उपयोगी ) ( है ), जिसके लिए न ही आसन, ( उपयोगी है ) न है वह अनन्त ( शक्तिवाला ) दिव्यात्मा ( है ) ( ऐसा ) (तुम) जानो ।
[12] जो (निष्कलंक ) चैतन्य ( है ), ( उसका ज्ञान ) आगमों द्वारा, ( आगमों पर प्राधारित) ग्रन्थों द्वारा (तथा) इन्द्रियों द्वारा नहीं होता है । (तुम) निश्चय ही जानो ( कि ) जो अनादि परमात्मा (निष्कलंक चैतन्य ) ( है ) वह निर्मल ध्यान का ( ही ) विषय ( होता है ) ।
[13] जिस तरह का निर्मल (और) ज्ञानमय दिव्यात्मा मोक्ष ( पूर्णता की अवस्था ) रहता है उस तरह का ( ही ) परमात्मा (दिव्यात्मा ) ( विभिन्न ) देहों में रहता है । (तू) भेद मत कर ।
में
[14] जिस (तत्व) के अनुभव किए गए होने के कारण पूर्व में किए गए कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, वह परम ( आत्मा ) ( है ) (तू) समझ | हे योगी ! ( इसके ) देह में बसते हुए ( भी ) ( तू ) ( इसको ) क्यों नहीं ( देखता है) ।
(जिसके लिए ) ( उपयोगी ) ( है ) ( विशिष्ट ) मुद्रा
[15] जहाँ इन्द्रिय सुख-दुख नहीं ( हैं ), जहाँ मन का व्यापार ( भी ) नहीं ( है ), वह (परम ) आत्मा (है) । हे जीव ! तू ( इस बात को समझ और दूसरी ( बात ) को पूरी तरह से छोड़ दे ।
[16] भेद और अभेद दृष्टि से जो ( क्रमशः) देह में रहता है वह (परम ) ग्रात्मा ( है ) । हे जीव ! ( इस बात ( बात ) से क्या ( लाभ है ) ?
लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद ( है ) | हे मनुष्य ! जान । जो ( इससे ) ग्रन्य है, वह अन्य (ही) (है),
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[17] (तू) जीव (ग्रात्मा) और प्रजीव (अनात्मा) को एक मत कर | ( इनमें ) (तू) अभेद रूप ( विकल्प - रहित ) आत्मा को (ऐसा ) मैं कहता हूँ ।
और बिना देह के अपने में को ) तू समझ । दूसरी बहुत
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18. अमणु अरिंगदिउ णारामउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।
अप्पा इंदिय विसउ गवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥
19. भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥
20. देहादेवलि जो वसई देउ प्रणाइ-प्रणंतु ।
केवल-णारण-फुरंत तणु सो परमप्पु रिणभंतु ॥
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[18] आत्मा मनरहित, इन्द्रिय (समूह से) रहित, मूर्ति-रहित (रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-रहित), ज्ञानमय और चैतन्य स्वरूप ( है ), (यह) इन्द्रियों का विषय नहीं ( है ) । (ग्रात्मा का) यह लक्षण बताया गया ( है ) ।
[19] जो मन (व्यक्ति) संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ (परम ) श्रात्मा का ध्यान करता है, उसकी घनी संसाररूपी (मानसिक तनावरूपी) बेल नष्ट हो जाती है ।
[20] जो ग्रनादि ( है ), अनन्त (है), (जो) देहरूपी मन्दिर में बसता है, (जिसके केवलज्ञान से चमकता हुआ शरीर ( है ) वह दिव्य आत्मा (ही) परम आत्मा (है) । (यह ) ( बात ) सन्देहरहित ( है ) |
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पाठ-16
पाहुडदोहा
1. गुरु दिरणयरु गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ ।
अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ॥
2.
अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेरण जि करि संतोसु । परसुहु वढ चितहं हियइ रण फिट्टइ सोम् ॥
3. प्राभुजंता विसयसह जे ए वि हियइ घरंति ।
ते सासयसुहु लहु लहहिं जिरणवर एम भरणंति ॥
4. ण वि भुजंता विसय सुह हियडइ भाउ घरंति ।
सालिसित्थु जिम वप्पुडउ गर गरयहं रिणवडंति ।।
5. प्रायई अडवड वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ ।
मरणसुद्धई णिच्चलठियइं पाविज्जइ परलोउ ॥
6. धंधई पडियउ सयलु जगु कम्मइं करइ प्रयाणु ।
मोक्खहं कारणु एक्कु खणु ण वि चिंतइ अप्पाणु ।। 7. अण्णु म जागहि अप्पणउ घर परियणु तणु इठ्ठ ।
कम्मायत्तउ कारिमउ प्रागमि जोइहिं सिठ्ठ ।
8. जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ जं सुहु तं पि य दुक्खु ।
पइं जिह मोहहिं वसि गयई तेण ॥ पायउ मुक्खु ॥
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पाठ-16
पाहुडदोहा
[1] जो देव (समतावान व्यक्ति) (आत्मा के) स्वभाव और परभाव की परम्परा के भेद को समझाता है, वह महान् (होता है) (जिस प्रकार) (प्रकाश और अन्धकार की परम्परा के भेद को दिखानेवाला) सूर्य महान् (होता है), चन्द्रमा महान् (होता है) (तथा) दीपक (भी) महान् (होता है)।
[2] जो भी सुख स्वयं के अधीन (रहता है), (तू) उससे ही सन्तोष कर । हे मूर्ख ! दूसरों के (अधीन) सुख का विचार करते हुए (व्यक्तियों) के हृदय में कुम्हलान (होती है), (जो) (कभी) नहीं मिटती है !
[3] जो (इन्द्रिय-) विषयों (से उत्पन्न) सुखों को सब ओर से भोगते हुए (भी) (उनको) कभी (भी) हृदय में धारण नहीं करते हैं, वे (व्यक्ति) शीघ्र (ही) अविनाशी सृख को प्राप्त करते हैं, इस प्रकार जिनवर (समतावान व्यक्ति) कहते हैं।
[4] (जो) (व्यक्ति) (इन्द्रिय-) विषयों के सुखों को न भोगते हुए भी (उनके प्रति) प्रासक्ति को हृदय में रखते हैं, (बे) मनुष्य नरकों में गिरते हैं, जैसे बेचारा सालिसित्थ (नरक में) (पड़ा था)।
[5] (जो) (व्यक्ति) अापत्ति में अटपट बड़बड़ाता है (उससे) (तो) लोक (ही) खुश किया जाता है (और कोई लाभ नहीं होता है), किन्तु (आपत्ति में) मन के कषायरहित होने पर (और) अचलायमान और दृढ़ होने पर (यहाँ) पूज्यतम जीवन प्राप्त किया जाता है।
[6] धंधे में पड़ा हुग्रा सकल जगत ज्ञानरहित (होकर) (हिंसा आदि के) कर्मों को करता है, (किन्तु) मोक्ष (शान्ति) के कारण प्रात्मा को एक क्षण भी नहीं विचारता है ।
[7] घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, (चूंकि) (वे) (सब) (प्रात्मा से) अन्य (हैं) । (वे) (सब) कर्मों के अधीन बनावटी (स्थिति) (है) । (ऐसा) योगियों द्वारा प्रायम में बताया गया है ।
[8] हे जीव ! (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता में डूबा है । (इस कारण से) जो दुःख (है) वह (तेरे द्वारा) सुख (ही) माना गया (है) और जो (वास्तविक) सुख (है) वह (तेरे द्वारा) दुःख ही (समझा गया है)। इसलिए तेरे द्वारा परम श न्ति प्राप्त नहीं की गई (है)।
अपभ्रंश काव्य सौर म ]
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9. मोक्खु रण पावहि जीव तुहुं धणु परियणु चितंतु । तो इ विचितहि तउ जि तउ पावहि सुक्खु महंतु ॥
10. मूढा सयलु विकारिमउ मं फुडु तुहुं तुस कंडि । fears म्मिलि करहि रइ घरु परियण लहु छंडि ॥
11. विसयसुहा दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहुं प्रप्पाखंधि कुहाडि ||
12. उव्वलि चोप्पड चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहार । सयल विदेह रिपरत्थ गय जिह दुज्जणउवयार ॥
13. थिरेण थिरा मइलेरा णिम्मला रिगग्गुणेण गुणसारा । कारण जा विढप्पइसा किरिया किरण कायव्वा ||
14. अप्पा बुज्झिउ रिणच्चु जइ केवलरणासहाउ । ता पर किज्जइ काई वढ तणु उपरि प्रणुराउ || 15. जसु मरिण खाणु र विष्फुरइ कम्महं हेउ करंतु । सो मुरिण पावइ सुक्खु ण वि सयलई सत्थ मुणंतु ॥
16. बोहिविवज्जिउ जीव तुहुं विवरिउ तच्चु मुणेहि । कम्मविणिम्मिय भावडा ते श्रप्पारण भणेहि ॥
17. ण वि तुहुं पंडिउ मुक्खु ण वि ण वि ईसरु ण वि णीसु । रवि गुरु कोइ विसीसु रग वि सव्वई कम्मविसेसु ॥
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[9] हे जीव ! तू धन (और) नौकर-चाकर को मन में रखते हुए शान्ति नहीं पायेगा । आश्चर्य ! तो भी (तू) उनको-उनको ही मन में लाता है (और) (उनसे) विपुल सुख (व्यर्थ में) (ही) पकड़ता है ।
[10] हे मूढ़ ! (यह) सब (संसारी वस्तु-समूह) ही बनावटी (है) । (इसलिए) तू (इस) स्पष्ट (वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट (अर्थात् तू इसमें समय मत गवाँ) घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति) में अनुराग कर ।
[11] (इन्द्रिय-) विषय-सुख दो दिन के (हैं), और फिर दुःखों का क्रम (शुरू हो जाता है) । हे (प्रात्म-स्वभाव को) भूले हुए जीव ! तू अपने कंधे पर कुल्हाड़ी मत चला ।
[12] (तू) (चाहे) (शरीर का) उपलेपन कर, (चाहे) घी, तेल आदि लगा, (चाहे), सुमधुर आहार (उसको) खिला, (और) (चाहे) (उसके लिए) (और भी) (नाना प्रकार की) चेष्टाएँ कर, (किन्तु) देह के लिए (किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुअा (है), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार (व्यर्थ होता है)।
[13] अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ (स्व-पर उपकारक) क्रिया उदय होती है, वह क्यों नहीं की जानी चाहिए ?
[14] यदि आत्मा नित्य और केवलज्ञान स्वभाववाली समझी गई (है), तो हे मूर्ख ! (इस आत्मा से) भिन्न शरीर के ऊपर आसक्ति क्यों की जाती है ?
[15] जिस (मुनि) के हृदय में (आध्यात्मिक) ज्ञान नहीं फूटता है, वह मुनि सभी शास्त्रों को जानते हुए भी सुख नहीं पाता है (और) विभिन्न कर्मों (मानसिक तनावों) के कारणों को करता हुआ ही (जीता है)।
[16] आध्यात्मिक ज्ञान (से रहित) के बिना हे जीव ! तू (आत्म-) तत्व को असत्य मानता है । (तथा) कर्मों से रचित उन (शुभ-अशुभ) चित्तवृत्तियों को (तू) स्वयं की (चित्तवृत्ति) समझता है ।
[17] (हे मनुष्य) ! न ही तू पंडित (है), न ही (तू) मूर्ख (है), न ही (तू) धनी (है), न ही (तू) निर्धन (है), न ही (तू) गुरु (है)। कोई शिष्य (भी) नहीं (है) । (ये) सभी (बातें) कर्मों की विशेषता (है)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[ 97
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18. रण वि तुहं कारणु कज्जु ण वि ण वि सामिउरण विभिच्च ।
सूरउ कायरु जीव रण वि रण वि उत्तमु ण वि रिणच्च ॥
"
19. पुण्णु वि पाउ वि कालु रगहु धम्मु अहम्मु रण काउ ।
एक्कु वि जीव ण होहि तुहं मिल्लिवि चेयणभाउ ।
20. रण वि गोरउ ण वि सामलउ रण वि तुहं एक्कु वि वण्णु ।
रण वि तणुअंगउ थूलु ण वि एहउ जाणि सवण्णु ॥
98
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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[18] हे मनुष्य ! न ही तू कारण ( है ), न ही (तू) कार्य ( है ), न ही (तू) स्वामी ( है ), न ही (तू) नौकर ( है ), न ही (तू) शूरवीर ( है ), ( न ही) (तू) कायर (है), न ही (तू) उच्च (है) और न ही (तू) नीच ( है ) ।
[19] हे मनुष्य ! तू पुण्य, पाप और मृत्यु नहीं ( है ) । (तू) धर्म, अधर्म और शरीर नहीं ( है ) | ( वास्तव में) (तू) ज्ञानात्मक स्वरूप को छोड़कर कुछ भी नहीं है ।
[20] (हे मनुष्य ) ! (तू) न गोरा ( है ), न काला ( है ) । इस प्रकार ( तेरा) कोई भी वर्ण नहीं है । (तू) न ही दुर्बल अंगवाला ( है ) और न ही स्थूल ( शरीरबाला ) है । ( अत: ) तू स्ववर्ण ( स्व-रूप ) को समझ ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 99
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पाठ-17
सावयधम्मदोहा
1. दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयणु पयासिउ जेरण ।
अमिउ विसे वासरु तमिरण जिम मरगउ कच्चेण ॥
2. जिह समिलहि सायरगर्याहं दुल्लहु जूयहु रंधु ।
तिह जीवहं भवजलगयहं मणुयत्तरिण संबंधु ॥
3. मरणवयकाहि दय करहि जेम ण ढुक्कइ पाउ ।
उरि सण्णाहे बद्धइण अवसि ण लग्गइ घाउ ॥ 4. पसुधरणधण्णइं खेत्तियइं करि परिमाणपवित्ति ।
बलियई बहुयइं बंधणई दुक्करु तोडहुं जंति ॥ 5. भोगहं करहि पमाणु जिय इंदिय म करि सदप्प ।
हुंति रण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्प ॥ 6 दाणु कुपत्तहं दोसडइ बोल्लिज्जइ रण हु भंति ।
पत्थरु पत्थरगाव कहिं दीसइ उत्तारंति ॥ 7. जइ गिहत्थु दारणेण विणु जगि परिणज्जइ कोइ ।
ता गिहत्थु पंखि वि हवइ जे घरु ताह वि होइ॥ 8. काइं बहुत्तई संपयई जइ किविणहं घरि होइ ।
उवहिणीरु खारें भरिउ पारिणउ पियइ रण कोइ ।। 9. पत्तहं दिण्णउ थोबडउ रे जिय होइ बहुत्तु ।
वडह बीउ धरणिहिं पडिउ वित्थरु लेइ महंतु ॥ 10 काई बहुत्तई जंपियइं जं अप्पहु पडिकूलु ।
काई मि परहु ण तं करहि एहु जि धम्महु मूलु ॥
100
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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पाठ-17
सावयधम्मदोहा
[1] (वह) दुर्जन जग में सुखी होवे जिसके द्वारा सज्जन विख्यात किया गया (है), जिस प्रकार अमृत विष के द्वारा, दिन अन्धकार के द्वारा (और) मरकत मणि (पन्ना) काँच से (विख्यात किया गया है)।
[2] जिस प्रकार सागर में लुप्त समिला (लकड़ी की खील) के लिए जुवे का छिद्र दुर्लभ है, उसी प्रकार संसाररूपी पानी (सागर) में पड़े हुए जीवों के लिए मनुष्यत्व से सम्बन्ध (दुर्लभ) (है)।
[3] मन-वचन-काय से दया करो जिससे पाप प्रवेश न करे, छाती में बंधे हुए कवच के कारण निश्चय ही घाव नहीं लगता है।
[4] पशु, धन, धान्य (और) खेत में परिमाण से प्रवृत्ति कर । (ठीक ही है) बहुत गाढ़े बन्धन तोड़ने के लिए कठिन होते हैं ।
[5] हे मनुष्य ! भोगों का परिमारण कर । इन्द्रियों को दम्भी मत बना। काले सर्प (यदि) दूध से पाले गये (हैं) (तो भी) अच्छे नहीं होते हैं ।
[6] कुपात्रों के लिए दान दूषण (ही) कहा जाता है । (इसमें) निश्चय ही भ्रांति नहीं (है) । प थर की नाव पत्थर को पार पहुंचाती हुई (क्या) कहीं देखी गई है ?
[7] यदि दान के बिना जगत में कोई गृहस्थ कहा जाता है, तो पक्षी भी गृहस्थ हो जावेगा, चूंकि घर उसके भी होता है ।
[8] (उस) बहुत सम्पदा से क्या (लाभ है) जो कृपणों के घर में होती है ? समुद्र का जल खार से भरा हुआ (रहता है) (इसलिए) (उस) पानी को कोई नहीं पीता है ।
[9] हे मनुष्य ! पात्रों के लिए थोड़ा (कुछ) दिया हुअा (भी) बहुत होता है । पृथ्वी पर पड़ा हुआ वट का (छोटा सा) बीज बड़ा विस्तार ले लेता है ।
[10] बहुत कहे गये से क्या (लाभ) ? जो अपने लिए प्रतिकूल (है) उसको कैसे भी (किसी भी तरह) दूसरों के लिए मत करो। यह ही धर्म का मूल है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
101
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102 }
11. धम्मु विसुद्धउ तं जि पर जं किज्जइ काए । हवा तं धणु उज्जलउ जं श्रावइ पाएर ।। 12. अवरु वि जं जहि उवयरइ तं उवयारहि तित्थु । लइ जिय जीवियलाहडउ देहु म लेहु रित्थु ||
13. एक्कहिं इंदियमोक्कलउ पावइ दुक्खसयाइं । जसु पुणु पंच वि मोक्कला तसु पुच्छिज्जइ काई ॥
14. जइ इच्छहि संतोसु करि जिय सोक्खहं विउलाहं । ग्रह वा दुग को करइ रवि मेल्लिवि कमलाहं ॥ 15. मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेरण । इंधर कज्जे कप्पयरु मूलहो खंडिउ तेरा ॥
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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1] वह ही धर्म शुद्ध (है) जो पूरी तरह (स्व) काया से ( अपने श्राप से) किया जाता है। (और वह ( ही ) धन उज्ज्वल ( है ) जो न्याय से आता है ।
[12] और भी जो (मनुष्य) जहाँ (जैसा) उपकार कर सकता है वह वहाँ (वैसा) उपकार करे । हे मनुष्य ! (तू) जीवन के लाभ को ग्रहण करके देह को निरर्थक
मत बना |
[13] अनियन्त्रित इन्द्रिय ( जब ) एक (विषय) में ( ही लीन होती है) तो (व्यक्ति) सैकड़ों दुःखों को प्राप्त करता है । फिर जिसकी पाँचों ( ही इन्द्रियाँ) स्वच्छन्द हैं, उस (व्यक्ति) का क्या पूछा जाए ?
[14] हे मनुष्य ! यदि (तू) विपुल सुखों को चाहता है, (तो) सन्तोष कर । सूर्य को छोड़कर उन कमलों के लिए और कौन हर्ष ( प्रदान ) करता है ?
[15] दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर जिसके द्वारा ( वह ) दिया गया ( है ) उसके द्वारा ईंधन के प्रयोजन से कल्पतरु मूल से काटा गया ( है ) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
भोगों के लिए लगा
[
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व्याकरणिक विश्लेषण
एवं
शब्दार्थ
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संकेत-सूची
प्रक
-अकर्मक क्रिया
अनि
-अनियमित
प्राज्ञा
--प्राज्ञा
कर्म
--कर्मवाच्य
क्रिविन -क्रिया विशेषण अव्यय
-प्रेरणार्थक क्रिया भवि --भविष्यत्काल
प्रे
__ . ) -इस प्रकार के कोष्ठक में मूल
शब्द रखा गया है । •[( )+( )+( )...] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है । यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में मूल शब्द ही रखे गए हैं। •[( )-( ) ( )....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर'-' चिह्न समास का द्योतक है। •[[( )-( )- ( )] वि] जहाँ समस्तपद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है।
भाव
-भाववाच्य
भकृ
वकृ
- भूतकालिक कृदन्त -वर्तमानकाल -वर्तमान कृदन्त -विशेषण – विधि
वि
विधि
विधिकृ
-विधिकृदन्त
स
-- सर्वनाम
संक
-~~~~सम्बन्धक कृदन्त
•जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1....अादि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है । 'जहां कर्मवाच्य, कृदन्त आदि अपभ्रश के नियमानुसार नहीं बने हैं वहां कोष्ठक के बाहर अनि' भी लिखा गया है ।
सक
-सकर्मक क्रिया
सवि
स्त्री
-सर्वनाम विशेषण -स्त्रीलिंग -हेत्वर्थक कृदन्त
1/1 अक या सक -- उत्तम पुरुष एकवचन 1/2 प्रक या सक-उत्तम पुरुष/बहुवचन
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
3
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2/1 अक या सक-मध्यम पुरुष एकवचन 2/2 अक या सक-मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक-अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक-अन्य पुरुष/बहुवचन 1/1-प्रथमा/एकवचन 1/2-प्रथमा/बहुवचन 2/1-द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1-तृतीया/एकवचन 3/2-तृतीया/बहुवचन
4/1-चतुर्थी/एकवचन 4/2-चतुर्थी/बहुवचन 5/1 --पंचमी/एकवचन 5/2-पंचमी/बहुवचन 6/1-षष्ठी/एकवचन 6/2-षष्ठी/बहुवचन 7/1-सप्तमी/एकवचन 7/2-सप्तमी/बहुवचन 8/1-संबोधन/एकवचन 8/2-संबोधन/बहुवचन
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
पाठ-1 पउमचरिउ
सन्धि-22
कोसलणन्दणेण स-कलतें णिय-घर आएं आसाढटुमिहिं
कोशलनगर के (राज-)पुत्र द्वारा पत्नी सहित अपने घर पहुँचे हुए (के द्वारा) अषाढ की अष्टमी के दिन
{(कोसल)-(णन्दण)3/1] [(स) वि-(कलत्त) 3/1] [(णिय) वि-(घर) 1/1] (आअ) भूक 3/1 अनि [(आसाढ)- (अदुमिहिँ)] [(आसाढ)-(अट्ठमी) 7/1] (किअ) भूक 1/1 अनि (ण्हवण) 1/1 (जिणिन्द) 6/1 (राअ) 3/1
किउ
व्हवणु जिणिन्वहो राएं
किया गया अभिषेक जिनेन्द्र का राजा के द्वारा
.
सुर-समर-सहासेहि दुम्महेण किउ
22.1 . [(सुर)-(समर)-(सहास1)3/2] देवताओं के साथ हजारों युद्धों में (दुम्मह) 3/1 वि
कठिनाई से मारे जानेवाले (किअ) भूकृ 1/1 अनि
किया गया (ण्हवण) 1/1
अभिषेक (जिणिन्द) 6/1
जिनेन्द्र का (दसरह) 3/1
दशरथ के द्वारा
जिणिन्दहो दसरहेण
पट्टवियई जिण-तणु-धोवयाई देविहि दिव्व गन्धोदयाई
(पट्टव) भूकृ 1/2
भेजा गया [ (जिण)-(तणु)-(धोवय)1/2 विजिनेश्वर के तन को धोनेवाला (देवी) 4/2
देवियों के लिए (दिव्व) 1/2 वि (गन्धोदय) 1/2
गन्धोदक
दिव्य
सुप्पहहे णवर
(सुप्पहा) 6/1 अव्यय
सुप्रभा के
केवल
1. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण
3-137)। 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
I
5
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पत्तु
(कञ्चु इ) 1/1
कञ्चुकी अव्यय
नहीं (पत्त) भूकृ 1/1 अनि
पहुँचा . (पहु) 1/1
स्वामी (राजा) (पभण) व 3/1 सक
कहता है [(रहस) + (उच्छलिय)+ (गत्तु)] हर्ष से पुलकित शरीरवाले [[(रहस)-(उच्छल→उन्छलिय) भूकृ-(गत्त) 1/1]वि]
पभणइ रहसुच्छलिय-गत्तु
कहो
कहे काई णियम्विणि मणे विसष्ण
(कह) विधि 2/1 सक अव्यय
क्यों (णियम्विणी) 8/1
हे स्त्री (मण) 7/1
मन में (विसण्ण→(स्त्री)विसण्णा) भूकृ दुःखो 1/1 अनि [(चिर)वि-(चित्तिय) भूकृ 1/1 अनि ] पुरानी चित्रित (भित्ति) 1/1
भीत अव्यय
की तरह (थिय→(स्त्री)थिया) भूक 1/1 अनि स्थिर (विवण्ण→(स्त्री)विवण्णा)1/1 बि निस्तेज
चिर-चित्तिय भित्ति
थिय
5. पणवेप्पिण
बुच्चइ
सुप्पहाए किर
(पणव) संकृ (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (सुप्पहा) 3/1 (अव्यय) सम्बोधनार्थक (काई) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (तणिया) 3/1 वि (कहा) 3/1
प्रणाम करके कहा जाता है सुप्रभा के द्वारा हे प्रभु क्या मेरे सम्बन्धार्थक परसर्ग विशेषण चर्चा से
काई
महु
त्तरिणयए कहाए
6.
जइ
यदि
हउँ
अव्यय (अम्ह) 1/1 से अव्यय [(पाण)+ (बल्लहा)+ (इय)] [(पाण)-(वल्लहा) 1/1]
भी प्राणों से प्यारी
पाणवल्लहिय
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
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इस प्रकार
हे देव
तो
इय=अव्यय (देव) 8/1 अव्यय [(गन्ध)--(सलिल) 2/1] (पाव) व 3/1 सक अव्यय अव्यय
गन्ध-सलिलु पावइ ण केम
गन्धोदक पाती है
नहीं क्यों
तहि अवसरे कञ्चुइ दुक्कु पासु छण-ससि
(त) 7/1 सवि
उसी (अवसर) 7/1
समय पर (कञ्चुइ) 1/1
कञ्चुकी (ढुक्क) भूक 1/1 अनि
पहुंचा (पास) 2/1
पास [(छण)-(ससि) 1/1]
शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा अव्यय
की तरह [(णिरन्तर)+ (धवलिय)+ (आसु)]निरन्तर सफेद किया गया मुख [[(णिरन्तर) वि-(धवलिय) भूकृ - (आस) 1/1] वि]
णिरन्तर-धवलियासु
8.
गय-दन्तु
बन्त (-समूह) टूट गया
जड़
अयंगम दंड-पाणि अणियच्छिय-पह
[[ (गय) भूकृ अनि – (दन्त) 1/1] वि] (अयंगम) 1/1 वि [[(दंड)-(पाणि) 1/1] वि] [[(अणियन्छिय) भूकृ - (पह) 1/1] वि] [[(पक्खलिय) भूकृ - (वाणी) 1/1] वि]
हाथ में लकड़ी (वाला) न देखा गया (अदृष्ट)-पथ
पक्खलिय-वाणि
लड़खड़ाती हुई वाणी (वाला)
गरहिड दसरहेण
पई कञ्च
काई चिराविउ
(गरह) भूकृ 1/1 (दसरह) 3/1 (तुम्ह) 3/1 स (कञ्चुइ) 8/1 अव्यय (चिराव) भूकृ 1/1 (जल) 1/1 [(जिण)-(वयण) 1/1] अव्यय
निन्दा किया गया दशरथ के द्वारा तुम्हारे द्वारा हे कञ्चुको क्यों देर की गयो गन्धोदक जिन-वचन के सदृश
जिरण-बयणु जिह
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
7
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सुप्पहहे दवत्ति
सुप्रभा के द्वारा शोध
(सुप्पहा) 6/1 अव्यय अव्यय (पाव) भूक 1/1
नहीं
पाविउ
पाया गया
22.2
1. पणप्पिणु
तेण वि .
प्रणाम करके उसके द्वारा
वुत्तु
(पणव) संकृ (त) 3/1 स अव्यय (वुत्त) भूकृ1/1 अनि अव्यय (गय) भूकृ 1/2 अनि (दियह) 1/2 (जोव्वण) 1/1 (ल्हस) भूकृ 1/1 (देव) 8/1
कहा गया इस प्रकार चले गए
गय दियहा जोव्वणु ल्हसिउ देव .
यौवन खिसक गया
2.
पढमाउसु
बुढ़ापा
धवलन्ति
आय
[(पढम) + (आउसु)]
प्रारम्भिक आयु को [ (पढम) वि-(आउस) 2/1] (जरा) 1/1 (धवल→धवलन्त→(स्त्री) धवलन्ती) सफेद करता हमा वकृ 1/1 (आय) भूकृ 1/1 अनि
आ गया अव्यय
और (असइ) 1/1.
कुलटा अव्यय
की तरह [(सीस)-(वलग्ग) 1/1 वि]
सिर पर चढ़ा हुआ (जाय) भूक 1/1 अनि
विद्यमान
पुण
असइ
सीस-बलग्ग जाय
गई
गति
तुट्टिय विडिय सन्धि-वन्ध
(गइ) 1/1 (तुट्ट-→तुट्टिय→(स्त्री) तुट्टिया) भूकृl/1 टूट गयो (विहड) भूक 1/2
खुल गए [ (सन्धि)-(वन्ध) 1/2]
हड्डियों के जोड़ों के बन्धन अव्यय
नहीं (सुण) व 3/2 सक
सुनते हैं
सुणन्ति
1. कभी-कभी तुतीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग किया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
8
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
कण्ण लोयरण रिपरन्ध
(कण्ण) 1/2 (लोयण) 1/2 (णिरन्ध) 1/2 वि:
कान आंखें बिल्कुल अंधो
सिर
मुहे पक्खलई वाय
(सिर) 1/1
सिर (कम्प) व 3/1 अक
हिलता है (मुह) 7/1
मुख में (पक्खल) व 3/1 अक
लड़खड़ाती है (वाया) 1/1
वारणी (गय) भूक 1/2 अनि
टूट गए (दन्त) 1/2
दाँत (सरीर) 6/1
शरीर को (ण?→(स्त्री)णट्ठा) भूकृ1/1 अनि नष्ट हो चको (छाया) 1/1
कान्ति
गय
दन्त सरीरहो गट्ठ छाय
5. परिगलिउ
रहिरु
क्षीण हो चुका
थिउ
णवर चम्म
(परिगल) भूकृ 1/1 (रुहिर) 1/1 (थिअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (चम्म) 1/1 (अम्ह) 6/1 स अव्यथ
रह गयो केवल चमड़ी
मेरा
एत्थ
यहाँ
अव्यय
(हुअ) भूकृ 1/1 अव्यय (अवर) 1/1 वि (जम्म) 1/1
प्रवरु जम्म
मानो दूसरा जन्म
गिरि-णइ-पवाह
I (गिरि)-(णइ)-(पवाह) 2/1]
पर्वतीय नदो के (समान) प्रवाह को नहीं धारण करते हैं
वहन्ति पाय गन्धोवउ पावउ केम राय
अव्यय (वह) व 3/2 सक (पाय) 1/2 (गन्धोवअ) 2/1 (पाव) विधि 3/1 सक अव्यय (राय) 8/1
गन्धोदक को पावे किस प्रकार
7.
वयणेरण
(वयण) 3/1
कथन से
अप ग्रंश काव्य रचना ]
[
9
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________________
तेण
किर पहु-वियप्पु गर परम-विसायहो। राम-वप्पु
(त) 3/1 सवि (किअ) भूकृ 1/1 अनि [(पहु)-(वियप्प) 1/1] (गअ) भूकृ 1/1 अनि [(परम) वि-(विसाय) 6/1] [(राम)-(वप्प) 1/1]
उस किया गया राजा के द्वारा विचार प्राप्त हुए अत्यन्त दुःख को राम के पिता
सच्चउ
चलु
सत्य चंचल जीवन कौनसा
जीविउ कवणु सोक्खु
(सच्चअ) 1/1 (चल) 1/1 वि (जीविअ) 1/1 (कवण) 1/1 सवि (सोक्ख) 1/1 (त) 1/1 स (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (सिज्झ) व 3/1 अक (ज) 3/1 स (मोक्ख) 1/1
किन्जाइ सिज्झइ नेण मोक्ख
वह अनभव किया जाता है सिद्ध होता है जिससे मोक्ष
9.
सुहु
महु-विन्दु-समु
मेरु-सरिसु पवियम्भह वरि
(सुह) 1/1 [(महु)-(विन्दु)-(सम) 1/1 वि] मधु की बिन्दु के समान (दुह) 1/1 [(मेरु)-(सरिस) 1/1 वि] मेरु पर्वत के समान (पवियम्भ) व 3/1 अक
लगता है अव्यय
अच्छा (त) 1/1 सवि
वह (कम्म) 1/1 (किअ) भूक 1/1 अनि
किया हुआ अव्यय
जिससे (पअ) 1/1 [(अजर) वि-(अमर) 1/1 वि] अजर-अमर (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि प्राप्त किया जाता है
कर्म
कम्म किउ
पउ
पद
अजरामर
लब्मइ
22.3
1.
कं दिवसु
(क) 1/1 सवि (दिवस) 1/1 अव्यय
किसी दिन
1. कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
10
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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होसह आरिसाहुँ कञ्चुइ-अवस्थ अम्हारिसाहुँ
(हो) भवि 3/1 अक (आरिस) 6/2 वि [(कञ्चुइ)-(अवत्था) 1/1] (अम्हारिस) 6/2 वि
ऐसे (लोगों) के कञ्चुको को अवस्था हम जैसों की
को
कौन
ह
महि कहो तरगत दव्यु सिंहासणु छत्तई अथिरु सव्वु
(क) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स (का) 6/1 सवि (मही) 1/1 (क) 6/1 स अव्यय (दव्व) 1/1 (सिंहासण) 1/1 (छत्त) 1/2 (अथिर) 1/1 वि (सव्व) 1/1 सवि
किसकी पृथ्वी किसका सम्बन्धवाचक परसर्व धन सिंहासन छन अस्थिर सभी
3.
जोव्वणु सरोरु जीविउ
धिगत्यु
(जोव्वण) 211
यौवन (सरीर) 2/1
शरीर (जीविअ) 21
जीवन को I(धिग)+ (अत्थु)] धिग-अव्यय धिक्कार, अत्थु (अत्थ) 2/1
धन (संसार) 1/1
संसार (असार) 1/1 वि
असार (अणत्थ) 1/1 वि
हानिकारक (अत्थ) 1/1
धन
संसार प्रसारु अणत्यु
विसु विसय
बन्धु
(विस) 1/1. (विसय) 1/1 (बन्धु) 1/1 [ (दिढ)-(वन्धण) 1/2] [(घर)-(दार) 1/2] {(परिहव)-(कारण) 1/2] |
विष विषय (भोग) बन्धु (परिवारजन) कठोर बन्धन घर और पत्नी दुःख देने के कारण
विढ-वन्धगाई घर-दाराई परिहव-कारगाई
5
सुत (पुत्र)
सुय सत्तु विढत्तउ अवहरन्ति
(सुय) 1/2 (सत्तु) 1/2 (विढत्तअ) 2/1 वि अस्वा . (अवहर) व 3/2 सक
शत्रु
उपाजित (धन) को छीन लेते हैं
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[ 11
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
6. जीवाज
7.
1.
2.
जर मरण हैं।
किङ्कर
किं
करन्ति
3.
4.
མྦྷ མསྶལླལླབྲཱམྦྷཝཝནྟཾ ཎྜཱ
ह
सन्दरण
लण
pe.ttrreteer
तणु
जे
यहो
जाइ
धणु
धणु
जि
गुणेण
वि
वंकु
थाइ
12 ]
[ ( जरा-जर) - (मरण ) 6/112
( किङ्कर) 1/2
( क ) 1 / 1 सवि
(कर) व 3/2 सक
[ (जीव ) + (आउ ) ] [ (जीव ) - (आउ ) 1 / 1]
(वाउ) 1/1
( हय) 1/2
( हय) भूकृ 1 / 2 अनि
( वराय) 1 / 2 वि ( सन्दण ) 1/2
( सन्दण ) 1/2 वि
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
[ (ण) + (आय) ] ण (अव्यय) आय (आय) भूकृ 1/2 अनि
(तणु) 1/1
( तण) 1 / 1
अव्यय
( खणद्ध ) 3 / 1
( वय ) 6/1
(जा) व 3 / 1 सक
( धण ) 1 / 1
( धणु ) 1 / 1
अव्यय
( गुण ) 3 / 1
अव्यय
(व) 1 / 1 वि
( था) व 3 / 1 अक
बुढ़ापे और मरणके अवसर पर नौकर-चाकर
क्या
करते हैं
जीव की आयु
हवा
घोड़े
मारे गए
बेचारे
रथ
टूटनेवाले
मरे हुए
गए
ही
नहीं,
लौटे
शरीर
तृण
हो
प्राधे क्षण में
क्षय को
प्राप्त होता है
धन
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
कभी-कभी षष्ठी का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134),
कभी-कभी सप्तमी के अर्थ में तृतीया प्रयुक्त होती है (हे. प्रा. व्या. 3-137 ) ।
कभी-कभी षष्ठी द्वितीया के अर्थ में प्रयुक्त होती है (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
धनुष
पादपूरक
प्रत्यञ्चा से
पादपूरक
बांका
रहता है
अपभ्रश काव्य सौरभ
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
8
दुहिया
पुत्री
वि
दुहिय
माया वि माय सम-भाउ लेन्ति किर तेरण भाय
(दुहिया) 1/1 अव्यय (दुहिय→(स्त्री) दुहिया) 1/1 वि। (माया) 1/1 अव्यय (माया) 1/1 [(सम) वि-(भाअ)2/1] (ले) व 3/2 सक अव्यय अव्यय (माय) 1/2
पावपूरक दुःखी करनेवाली मोह-जाल पावपूरक माता समान-हिस्सा लेते हैं
इसलिए
9.
आयर्ड
अवर
इनको दूसरे (अन्य) पादपूरक
भी
मि सव्वई राहवहो समप्पेवि अप्पुणु
(आय) 2/2 सवि (अवर) 2/2 वि अव्यय अव्यय (सव्व) 2/2 सवि (राहव) 4/1 (समप्प+एवि) संकृ (अप्पुण) 1/1 स (तअ) 2/1 (कर) व 1/1 सक (थिअ) भूकृ 1/1 अनि (दसरह) 1/ अव्यय (वियप्प+एवि) संकृ
सबको राम के लिए (को) देकर स्वयं तप करता हूं (कहंगा) स्थिर हुए दशरथ इस प्रकार विचार करके
करमि थिउ दसरह
वियप्पेवि
22.7
बसरह प्रण-विणे किर रामहो
(दसरह) 1/1 [(अण्ण) वि-(दिण) 7/1] अव्यय (राम) 4/1 (रज्ज) 2/1 (समप्प) व 3/1 सक (केक्कया) 1/1 अव्यय
दशरथ दूसरे दिन पादपूरक राम के लिए (को) राज्य देता है (देते हैं) केकय देश के राजा की कन्या
समप्पड़ केक्कय ताव
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 13
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणे
मन में प्रीष्म-काल
उण्हालए
(मण) 7/1 [(उण्ह) + (आलए)] [(उण्ह)-(आलअ) 7/1 'अ' स्वा.] (धरणि) 1/1 अव्यय (तप्प) व 3/1 अक
धरणि
धरती . जैसे तपती है
तप्पड़
22.8
णरिन्दस्स सोऊण पव्वज्ज-यज्ज
(णरिन्द) 6/1
राजा (दशरथ) के (सोऊण) संकृ अनि
सुनकर [(पब्वज्जा (स्त्री)→पव्वज्ज)
संन्यास-विधान को (यज्ज)2/1] [(म) + (रामा)+ (अहिरामस्स)] पत्नीसहित, [(स) वि-(रामा)-(अहिराम) 4/I वि] आकर्षक (राम) 4/1
राम के लिए (रज्ज) 2/1
राज्य को
स-रामाहिरामस्स
रामस्स
ससा दोरगरायस्स भग्गाणुराया
(ससा) 1/1
बहिन (दोणराय) 6/1
द्रोणराजा की [(भग्ग) + (अणुराया)]
टूट गया, स्नेह [(भग्ग) भूक अनि-(अणुराया) 1/I वि] [[(तुलाकोडि)-(कन्ति→कन्ती)- नपुरों से, (लया)-(लिद्ध) भूकृ अनि
कान्तिसहित, (पाय) 1/2] वि]
लतारूपी, लिपटे हए, पर
तुलाकोडि-कन्तीलयालिद्ध-पाया
6.
गया केक्कया जत्थ अत्थारण-मग्गो परिन्दो सुरिन्दो
गयी कैकेयी जहाँ सभास्थान का पथ
(गय→(स्त्री) गया) भूकृ 1/1 अनि (केक्कया) 1/1 अव्यय [(अत्थाण)-(मग्ग) 1/1] (णरिन्द) 1/1 (सुरिन्द) 1/1 अव्यय (पीढ) 2/1 (वलग्ग) 1/1 वि (दे)
राजा
की तरह
पीढ़1 वलग्गो
प्रासन पर स्थित
1. कभी-कभी द्वितीया का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर होता है (हे.प्रा.व्या. 3-137)।
14 1
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #128
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________________
7.
8.
9.
वरो
मग्गिओ
णाह
सो
एस
कालो
महं
रगन्दरो
ठाउ
रज्जाणुपालो
पिए
E E E E
होउ
एवं
सावलेवो
समायारिओ
लक्खरगो
रामएवो
जइ
तुहुँ
पुत्तु
मह
तो
एत्तिउ
पेणु
किज्जइ
छत्तई
वइसरगड
वसुमइ
भर हो
अप्पिज्जइ
अपभ्रंश काव्य सौरम
]
(वर) 1 / 1
( मग्ग) भूकृ 1 / 1
(UTTE) 8/1 (त) 1 / 1 सवि
( एत) 1 / 1 सवि (काल) 1/1
( अम्ह ) 6 / 1 स
( णन्दण) 1/1
(ठा) विधि 3 / 1 अक
[ (रज्ज) + (अणुपालो ) ]
[ ( रज्ज) - ( अणुपाल ) 1 / 1 वि ]
(fq37) 8/1
( हो ) विधि 3 / 1 अक
अव्यय
अव्यय
( तुम्ह) 1 / 1 स (पुत्त ) 1 / 1
( अम्ह ) 6 / 1 स
अव्यय
( एत्तिअ ) 1 / 1 वि
(पेसण) 1 / 1
( किज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(छत्त) 1 / 2
वर
माँगा हुआ
नाथ
( वइसणअ) 1/1
( वसुमइ ) 1/1
( भरह ) 4 / 1
( अप्प ) व कर्म 3 / 1 सक
वह
यह
समय
मेरा
पुत्र
रहे
राज्य का पालनकर्ता
अव्यय
तब
( स + अवलेव) 1 / 1
गर्व सहित
( सं + आयार आयारिअ समायारिअ ) बुलाए गए भूकृ 1 / 1
( लक्खण) 1/1
(राम) 1 / 1, एवो-अव्यय
प्र
होवे
इसी प्रकार
लक्ष्मरण
राम, और
ཝཱ ཤྲཱ ཝཱ ཝཱ
पुत्र
मेरे
तो
इतनी
आज्ञा
पालन की जाए ( की जाती है)
छत्र
आसन
पृथ्वी
भरत के लिए
दी जाती है (दे दी जाए)
[ 15
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
23.3
1. चिन्तावण्ण
चिन्ता में डूबे हुए
गराहिउ जावेहि
[(चिन्ता + (आवण्ण)] [(चिन्ता)-(आवण्ण) भूकृ 1/1 अनि] (णराहिअ) 11 अव्यय (बल)1/1 [(णिय) वि-(णिलअ) 2/1] (पराइअ) भूक 1/1 अनि अव्यय
बलु
मराधिप (राजा) जब बलदेव निज भवन को गये
रिणय-णिलउ पराइउ ताहिं
तब
दुम्मणु
णिहालिउ मायए
(दुम्मण) 1/1 वि (ए) वकृ 1/1 (णिहाल→णिहालिअ) भूक 1/1. (माया) 3/1 अव्यय (विहस) संकृ (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि [(पिय) वि-(वाया) 3/1)]
उदास मनवाला प्राता हुआ देखा गया माता के द्वारा फिर भी हंसकर कहा गया प्रिय वाणी से
पुणु
विहसेवि वुत्तु पिय-वायए
प्रतिदिन चढ़ते हो (थे) घोड़े और हाथी पर
3. दिवे दिवे
घडहि तुरङ्गम-णाएहिं मज्ज़ काई अणुवाहणु पाएहिं
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 (चड) व 2/1 सक [(तुरङ्गम)-(णाअ)1 7/2] अव्यय अव्यय (अण+उवाहण)2=अव्यय (पाअ) 3/2
भाज
क्यों, कैसे बिना जूतों के पैरों से
दिवे दिवे वन्दिण-विन्देहि युवहि अज्जु
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 [(वन्दिण)-(विन्द)3/2] (थुव्वहि) व भाव 2/1 अक अनि अव्यय अव्यय (थुन्वन्त) वकृ कर्म 1/1 अनि
प्रतिदिन स्तुति-गायकों के समूहों द्वारा स्तुति किये जाते (ये) प्राज कैसे स्तुति किये जाते हुए
युव्यन्तु
J. णाग→णाअ→णाएहिं (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ-146) ।
2
उवाणह→उवाहण
16
]
[ अपघ्रश काव्य सौरभ
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय (सुब्बहि) व कर्म 2/सक अनि
नहीं सुने जाते हो
सुब्वहि
दिवे दिवे धुव्वहि चमर-सहासेहिं
(दिव) 711 (दिव) 7/1 (धुव्वहि) व कर्म 2/1 सक अनि [(चमर)-(सहास) 3/2 वि] अव्यय अव्यय (त) 6/1स (क) 1/1 स अव्यय (पास) 71
प्रतिदिन पंखा किये जाते (थे) हजारों चवरों से आज क्यों तुम्हारे कोई भी
तेज
को वि
नहीं
पासेहि।
आस-पास में
दिवे-दिवे लोयहिं बुच्चहि राउ अज्जु
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 (लोय) 3/2 (वुच्चहि) व कर्म 2/1 सक अनि (राणअ) 1/1 'अ' स्वाथिक अव्यय अव्यय (दीसहि) व कर्म 2/1 सक अनि (विदाणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
प्रतिदिन लोगों के द्वारा बोले (कहे) जाते थे राणा माज क्यों दिखाई देते हो निस्तेज (म्लान)
बोसहि विद्दारराज
णिसुणेवि बलेष पजम्पिउ भरहहो सयलु वि रज्जु समपिउ
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संक (बल) 3/1 (पजम्प→पजम्पिअ) भूक 111 (भरह) 4/1 (सयल) 1/1वि अव्यय (रज्ज) 11 (समप्प→समप्पिअ) भूक 1/1
उसको सुनकर बलदेव के द्वारा कहा गया भरत के लिए (को) सम्पूर्ण
राज्य दे दिया गया है
8.
जामि
जाता हूँ हे माँ
माए
(जा) व 1/1 सक (माआ) 8/1 (दिढ) 1/1 वि [ (हिय)-(वअ)2 7/1]
विढ हियवए
मन की अवस्था में
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1461 2. वअ→प→पद-स्थान, अवस्था ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 17
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
9.
होज्जहि जं
2.1.
वुम्मिय
तं
सव्यु
खमेज्जहि
जें
आउच्छिय
माय
हा - हा
पुत
भरणन्ती
अपराइय
महएवी
महिले
पडिय
दयन्ती
18 1
( हो ) विधि 2 / 1 अक (ज) 1 / 1 सवि
( दुम्मिय) भूकृ 1 / 1 अनि
(त) 2 / 1 स
( सव्व) 2 / 1 सवि
(खम ) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(आउच्छ आउच्छिया ) भूकृ 1 / 1
(माया) 1 / 1
( अपराइया) 1/1
( महएवी) 1 / 1
रहना
जो
( महियल) 7/1
( पड) भूकृ 1 / 1
कष्ट पहुँचाया गया
उस
सबको
क्षमा करना
अव्यय
( पुत्त ) 8 / 1
हाय पुत्र
( भणभणत (स्त्री) मणन्ती ) वकृ 1 / 1 कहती हुई
अपराजिता
महादेवी
धरती पर
जिस तरह से
पूछी गयी
माता
शोकार्यक
गिर पड़ी
( रुयरुयन्त (स्त्री) रुयन्ती) व 1 / 1 रोती हुई
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ 2
पउमचरिउ
सन्धि-24
गए वण-वासहो। रामे उज्ज्ञ
ण
चित्तहो मावई थिय णीसास मुप्रन्ति महि उण्हालए णावह
(गअ) भूक 7/1 अनि
जाने पर [(वण)-(वास) 6/1]
वनवास को (राम) 7/1.
राम के (उज्झ) 1/1
अयोध्या अव्यय
नहीं (चित्त) 4/1
चित्त के लिए (को) (भाव) व 3/1 सक
अच्छी लगती है (थिया) भूक 1/1 अनि
स्थित (णीसास) 2/1
श्वास (मुअ→मुअन्त→(स्त्री) मुअन्ती) वकृ 1/1 छोड़ती हुई (मही) 1/1
पृथ्वी (उण्हाला-अ) 7/1 'अ' स्वा.
ग्रीष्मकाल में अव्यय
जैसे
241
सयलु
समस्त
भी
जणु उम्माहिज्जन्तज
जन-(समूह) वियोग में व्याकुल किये जाते हुए
खणु
(सयल) 1/1 वि अव्यय (जण) 1/1 (उम्माह-+- इज्ज+न्त+अ) बकृ कर्म 1/1 'अ' स्वा. (खण) 1/1 अव्यय अव्यय (थक्क) व 3/1 अक (णाम) 2/1 (लय→लयन्त-→लयन्तम) वकृ 1/1 'अ' स्वा.
भो नहीं थकता है नाम (को)
णामु लयन्तउ
लेता हुश्रा,
2. उल्लिज्जा
(उव्वेल्ल+इज्ज) व कर्म 3/1 सक
उछाला जाता है
1. कभी-कभी षष्ठी का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)। 2. रुच् (अच्छा लगना) अर्थ की धातुओं के साथ चतुर्थी का प्रयोग किया जाता है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 19
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
गिज्जद
लक्खणु मुरव वज्जे वाइज्जद लक्खणु
(गा+ इज्ज) व कम 3/1 सक (लक्खण) 1/1 [(मुरव)-(वज्ज) 7/1] (वाम) व कर्म 3/1 सक (लक्खण) 1/
गाया जाता है लक्ष्मण मृदंगवाध में बजाया जाता है लक्ष्मण
3. सुइ-सिद्धन्त-पुराणेहि
[(सुइ)-(सिद्धन्त)-(पुराण) 3/2]
लक्खणु प्रोङ्कारेण पढिज्जइ लक्हणु
(लक्खण) 1/1 (ओङ्कार) 3/1 (पढ) व कर्म 3/1 सक (लक्खण) 1/1
श्रुति, सिद्धान्त और पुराणों द्वारा लक्षण ओंकार से पढ़ा जाता है लक्षण
अण्णु
पावपूरक जो-जो
(अण्ण) 1/1 वि अव्यय (ज) 1/1 सवि (क) 1/1 दि (स-लक्ख ण) 1/1 वि [(लक्ख ण)-(णाम) 3/1] (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (लक्खण) 1/1
किपि स-लक्खणु लक्खरण-णामें
कुछ भी
लक्षणसहित लक्ष्मण नाम से कहा जाता है लक्षण
लक्खणु
कावि
पारि
सारङ्गि
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (सारङ्गी) 6/1 अव्यय (वुण्ण→वुण्णी) भूकृ 1/1 अनि (वड्ड-→वड्डी) 2/1 वि (धाह→धाहा) 2/1 (मुअ+एवि) संकृ (परुण्ण→परुण्णी) भूकृ 1/1 अनि
कोई नारी हरिणी के समान दुःखी हुई
बुक्की
धाह
मुएवि
चिल्लाहट छोड़कर (निकालकर)
परुण्णी
6.
का वि णारि
लेड पसाहणु
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज) 2/1 स (ले) व 3/1 सक (पसाहण) 2/1 (त) 2/1 स (उल्हा +आव) व प्रे. 3/1 सक
नारी जिस(को) लेती है (पहनती है) प्राभूषण को उसको शान्ति देता है।
20 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाणइ
(जाण) व 3/1 सक (लक्खण) 2/1
समझती है लक्ष्मण
लक्खणु
कावि णारि
परिहा कणु धरइ सु-गाढउ जारण्इ
(का) 1/1 सवि
कोई (णारी) 1/1
नारी (ज) 2/1 सवि
जिस (को) (परिह) व 3/1 सक
पहनती है (कङ्कण) 2/1
कंगन को (धर) व 3/1 सक
धारण करती है (सु-गाढा) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक खूब गाढ़ा (जाण) व 3/1 सक
समझती है (लक्खण) 2/1
लक्ष्मण
कावि
कोई
नारी
पारि जं
जोया दप्पणु अण्णु
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज)2/1 सवि (जोय) व 3/1 सक (दप्पण) 2/1 (अण्ण) 2/1 वि अव्यय (पेक्ख) व 3/1 सक (मेल्ल+एवि) संकृ (लक्खण) 2/1
जिस (को) देखती है दर्पण को अन्य को नहीं देखती है छोड़कर लक्ष्मण को
पेक्खइ मेल्लेवि लक्खणु
9.
अव्यय
तो एत्यन्तरे पाणिय-हारिउ
पुरे
अव्यय (पाणियहारी) 1/2 (पुर) 7/1 (वोल्ल) व 3/2 सक विविध (णारी) 2/2
तब इसी बीच में पनिहारिने नगर में बोलती हैं (कहती हैं) प्रापस में नारियों को
बोल्लन्ति परोप्पर णारिउ .
वह
10. सो
पलंकु
पलंग
वह
(त) 1/1 सवि (पलङ्क) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (उवहाणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (सेज्ज) 1/1 अव्यय
तकिया
उवहारगउ सेज वि
भी
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 21
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
स
ज्जे
तं
जे
11. तं
पच्छाणउ
22
घरु
रयण
ताई
तं
चित्तयम्मु
स- लक्खणु
णवर
ण
दोसs
माए
रामु
ससीय - सलक्खण
जं
गोसरिउ
राउ
आणन्दे
वुत्तु
वेप्पण भरह गरिन्दें
2. हउ
मि
देव
पई
सहँ
पव्वज्जामि
दुग्गइ-गामिउ
]
(त) 1 / 1सवि
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
( पच्छाअ ) 1 / 1 वि
1 / 1 स (घर) 1/1
( रयण) 1 / 2
(त) 1/2 सवि
(त) 1 / 1 सवि (चित्तयम्म) 1 / 1
( स - लक्खण) 1 / 1 वि
अव्यय
अव्यय
( दीसइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
( माअ ) 8 / 1 अनि
(राम) 1 / 1
[ ( स सीयास सीय) -
( स लक्खण) 1 / 1]
24.3
अव्यय
( णीसरणीसरिअ ) भूकृ 1 / 1
( राअ ) 1 / 1
( आणन्द ) 3 / 1
(वृत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
( णव + एप्पिणु) संकृ
[ ( मरह) - ( णरिद ) 3 / 1]
( अम्ह) 1 / 1 स
अव्यय
(देव) 8 / 1
( तुम्ह ) 3 / 1 स
अव्यय
वह
यह
ढकनेवाली ( चादर )
ཙཱ་ 1ཐཱཀྑཱུ
वह
घर
रत्न
वे
वह
चित्र
लक्ष्मणसहित
केवल
नहीं
देखा जाता है (देखे जाते हैं )
हे माँ
राम
सीतासहित, लक्ष्मणसहित
जब
निकला
राजा
हर्ष से
कहा गया
प्रणाम करके
भरत राजा के द्वारा
मैं
भी
हे देव
तुम्हारे
साथ
संन्यास लेता हूँ (लूँगा )
( पव्वज्ज) व 1 / 1 सक
[ ( दुग्गइ) - ( गामिअ ) 2 / 1 वि] दुर्गति देनेवाले
[
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
(रज्ज) 2/1
अव्यय
राज्य को नहीं भोगता हूँ (भोगूगा)
मुजमि
(भुज) व 1/1 सक
राज्य असार
असारु वार संसारहो
संसार का
(रज्ज) 1/1 (असार) 1/1 वि (वार) 1/1 (संसार) 6/1 (रज्ज) 1/1 क्रिवि (णी) व 3/1 सक (तम्वार)16/1
खणेण
क्षण भर में ले जाता है (पहुँचा देता है) विनाश को
तम्बारहो
भयङ्कर इह-पर-लोयहो
(रज्ज) 1/1 (भयङ्कर) 1/1 वि [(इह) वि -(पर) वि - (लोय) 4/1]
राज्य दुःखजनक इस (लोक में) और परलोक में राज्य से जाया जाता है नित्य-निगोद के लिए
रज्जें गम्मइ णिच्च-रिणगोयहो
(रज्ज) 3/1 (गम्मइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(णिच्च)-(णिगोय) 4/1]
राज्य के द्वारा
रज्जें होउ होउ
होवे
मह
(रज्ज) 3/1 (हो) विधि 3/1 अक (हो) भूकृ1/1 (महु) 6/1 (सरियअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (सुन्दर) 1/1 वि अव्यय अव्यय (तुम्ह) 3/1 स (परिहर→परिहरिय→परिहरियअ) भूक 1/1 'अ' स्वा.
हुआ गया मधु के समान रुचिकर
सरियउ सुन्दरु
कि
क्यों
परिहरियउ
तुम्हारे द्वारा छोड़ दिया गया
अकाजु
(रज्ज) 1/1 (अकज्ज) 1/1 वि (कह→कहिअ) भूकृ 1/1 [(मुणि)-(छेय) 3/2वि
राज्य नहीं करने योग्य कहा गया निर्मल मुनियों द्वारा
कहिउ मुरिण-छेयहि
(दे)]
1. कमी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 23
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुट्ठ-कलत्तु
दुष्ट स्त्री
जैसे
[(दुट्ठ) वि-(कलत्त) 1/1] अव्यय (भुत्त) भूकृ 1/1 अनि (अणेय) 3/2
भुत्तु
अनुभव किया गया अनेक के द्वारा
अणेयहि
दोसवन्तु मयलञ्छर-विम्व
(दोसवन्त) 1/1 वि [(मलयञ्छण)-(विम्व) 1/1] अव्यय [(बहु)+(दुक्ख)+ (आउरु) [(बहु)वि-(दुक्ख)-(आउर) 1/1 वि] [(दुग्ग)वि (दे)-(कुडुम्व) 1/1] अव्यय
दोषवाला चन्द्रमा का बिम्ब जैसे बहुत दुःखों से पीड़ित
बहु-दुक्खाउन
दुग्ग-कुडुम्बु
दरिद्र कुटुम्ब जैसे
तो भी
तो वि. जीउ
जीव
रज्जहो
अव्यय (जीअ) 1/1 अव्यय (रज्ज) 4/1 (कक्ष) व 3/1 सक अव्यय (आउ) 2/1 (गल→गलन्त) वकृ 2/1 अव्यय . (लक्ख) व 3/1 सक
पादपूरक राज्य को/के लिए इच्छा करता है प्रतिदिन प्रायु को गलती हुई
अणुदिणु प्राउ गलन्तु
ण
महीं
लक्खड़
देखता है
9. जिह
महुविन्दुहे
जिस प्रकार अल की बंद के प्रयोजन से
कम्जे
ऊंट
पेक्खड़
अव्यय [(महु)-(विन्दु1) 6/1] (कज्ज)23/1 (करह) 1/1 अव्यय (पेक्ख) व 3/1 सक (कक्कर) 2/1 अव्यय (जिअ) 1/1 [(विसय)+(आसत्तु)] [(विसय)-(आसत्त) भूकृ 1/1 अनि] (रज्ज) 3/1
कक्कर
महीं देखता है कंकर को उसी प्रकार जीव ने विषय में आसक्त
तिह
जिउ विसयासत्तु
राज्य से
1. श्रीवास्तव, अपघ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ-151। 2. कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग किया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3--137) ।
24
]
[ अपभ्रंश काम सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गउ
(गअ) भूक 1/1 अनि [ (सय) वि-(सक्कर) 1/1]
पाया (है) अत्यधिक आदर-सत्कार
सय-सक्कर
24.4
भरह चवन्तु णिवारिज राएं प्रज्ज
(मरह) 1/1 (चव→चवन्त) वकृ 1/1 (णिवार,णिवारिअ) भूकृ 1/1 (राअ) 3/1 अव्यय अव्यय (तुम्ह) 4/1 स (काइँ) 1/1 सवि [(तब)-(वाअ) 3/1]
भरत बोलता हुआ रोका गया राजा के द्वारा आज
वि
हो
तुझु काई तव-वाएं
तेरे लिए क्या तप की बात से
प्राज
करहि
अव्यय अव्यय (रज्ज) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (सुह) 2/1 (भुज) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय [ (विसय)-(सुक्ख) 2/1] (अणुहुञ्ज) विधि 2/1सक
भुजहि प्रज्ज
सुख को (का) अनुभव कर आज
हो
विसय-सुक्खु अणुहुञ्जहि
विषय सुख को भोग
3.
आज
hoto
तम्बोलु समारराहि अज्ज
अव्यय अव्यय (तुम्ह) 1/1 से (तम्बोल) 2/1 (समाण) विधि 2/1 सफ अव्यय अव्यय [(वर) वि-(उज्जाण) 2/2] (माण) विधि 2/1 सक
पान को (का) उपभोग कर (खा) बाज
घर-उज्जारगई भारणहि
श्रेष्ठ उद्यानों को मान
प्रज्जु
वि
अव्यय अव्यय (अङ्ग) 2/1
शरीर को
अपभ्रंश काध्य सौरभ ।
[ 25
Page #139
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________________
स्व-इच्छा
से
सजा
प्रान
स-इच्छए मण्डहि मज्ज बि वर-विलय अवरुण्डहि
[(स) वि-(इच्छा ) 3/1] (मण्ड) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय [(वर) वि-(विलया) 2/2] (अवरुण्ड) विधि 2/1 सक
श्रेष्ठ स्त्रियों को (का) प्रालिंगन कर
प्रज्ज
जोग्गउ सव्वाहरणहो
आज भी योग्य सभी प्रकार के
अव्यय अव्यय (जोग्गअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(सव्व)+ (आहरणहो)] [(सव्व) वि-(आहरण)6/1] अव्यय अव्यय (कवण) 1/1 स (काल) 1/1 [(तव)-(चरण) 6/1]
भज्ज
प्राज
कवणु कालु तव चरणही
कौनसा समय तप के प्राचरण का
6.
जिरण-पव्वज
अइ-दुसहिय
[(जिण)-(पव्वज्जा ) 1/1]
जिन-प्रव्रज्या (हो) व 3/1 अक
होती है [(अइ) वि-(दुसह→दुसहिया)भूक 1/1] बहुत असह्य (क) 3/1 स
किसके द्वारा (वावीस) 1/2 वि
बाईस (परीसह) 1/2
परोषह (वि-सह→वि-सहिय) भूकृ 1/2
सहन किये गये
बावीस परीसह विसहिय
7.
के जिय चउ-कसाय-रिउ दुज्जय
(क) 3/1 स (जिय) भूकृ 1/2 अनि [(चउ) वि-(कसाय)-(रिउ) 1/2] (दुज्जय) 1/2 वि (क) 3/1 स (आयाम→आयामिय) भूकृ 1/2 (पञ्च) 1/2 वि (महब्बय) 1/2
किसके द्वारा जीते गये चारों कषायोंरूपी शत्र दुर्जेय किसके द्वारा प्रहण किये गए पंच महावत
प्रायामिय पञ्च महव्वय
8.
के किउ पञ्चहुँ विसयहुँ
(क) 3/1 स (कि→किअ) भूकृ 1/1 (पञ्च) 6/2 वि (विसय) 6/2
किसके द्वारा किया गया पांचों विषयों का
26
]
[ अपभ्रंश काय सौरभ
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिग्गह
निग्रह
परिसेसिउ सयलु परिग्गहु
(णिग्गह) 11 (क) 3/1 स (परिसेस→परिसेसिअ) भूकृ 1/1 अनि (सयल) 1/1 वि (परिग्गह) 1/1
किसके द्वारा समाप्त किया गया सकल परिग्रह
9.
को
कोन वृक्ष के समीप/नीचे
दुम-मूले
बसा
चसिउ वरिसालए को
(क) 1/1 सवि [(दुम)-(मूल) 7/1] (वस→वसिअ) भूकृ 1/1 (वरिसालअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक (क) 1/1स [(एक्क)+ (अंगें)] [एक्क) वि-- (अङ्ग) 3/1] (थिअ) भूकृ 1/1 अनि (सीयालअ) 7/1
वर्षाकाल में कौन केवलमात्र शरीर से
थिउ सीयालए
शीतकाल में
10. के
उण्हालए
किसके द्वारा ग्रीष्मकाल में किया गया शरीर का तपन
अत्तावणु
(क) 3/1 स (उण्हालअ) 7/1 (कि) भूक 1/1 (अत्त)+ (तावणु)] (अत्त)-(तावण) 1/11 (एअ) 1/1 सवि [(तव)-(चरण) 1/1] (हो) व 3/1 अक (भीसावण) 1/1 वि
एउ तव-चरण होइ भोसावणु
यह तप का आचरण होता है भोषण
11. भरह
हे भरत मत
बढ़कर
वडिउ वोल्लि
बोल
सो अज्ज
आज
(भरह) 8/1 अव्यय (वड्ड+इउ) संकृ (वोल्ल) विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/1 स (त) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (वाल) 1/1 (भुज) विधि 2/1 सक [(विसय)-(सुह) 2/2] (क) 1/1 सवि (पब्वज्जा ) 6/1 (काल) 1/1
वालु
भुजहि विसय-सुहाई
बालक भोग विषय सुखों को कौनसा प्रव्रज्या का काल
को
पवजहे काल
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
27
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
24.5
1.
तं णिसुणेकि
भरत
आरुट्ठउ मत्त-गइन्दु
(त)2/1 स
उसको (णिसुण+एवि) संकृ
सुनकर (मरह) 1/1 (आरुट्ठअ) भूकृ I/1 अनि 'अ' स्वार्थिक क्रुख (कष्ट) हुआ [(मत्त) भूक अनि-(गइन्द) 1/1] मस्त हाथी अव्यय
जैसे (की तरह) (चित्त)17/1
चित्त में (दुट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि
दुःखी हुआ
चित्तें दुउ
प्रतिकूल
विरुयउ ताव बयणु
तब
(विरुयअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक अव्यय (वयण) 1/1 (तुम्ह) 3/1 स (वुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक अव्यय (वाल) 4/1 [(तव)-(चरण)] 1/I अव्यय (जुत्तअ) भूकृ I/1 अनि
कि
वचन आपके द्वारा कहे गये क्या बालक के लिए तप का आचरण नहीं उचित, युक्त
बालहों सव-चरण ग जुत्तउ
3.
कि वालत्तणु सुहेहि
मुच्च
अव्यय (वालत्तण) 1/1 (सुह) 3/2 अव्यय (मच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि अव्यय (वाल) 4/1 [(दया→दय)-(धम्म) 1/1] अव्यय (रुच्च) व 3/1 अक
क्या बालपन सुखों के द्वारा नहीं ठगा जाता है क्या बालक के लिए दया एवं धर्म नहीं रुचिकर होता है
बालहों दय-धम्म
रुच्चइ
बालहो पव्वज्ज
अव्यय (वाल) 4/1 (पव्वज्जा) 1/1 अव्यय
क्या बालक के लिए प्रवज्या नहीं
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 ।
28 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
होओ
कि
वालहों दूसिउ पर-लोमो
(हो→होअ) भूकृ 1/1 अव्यय (वाल) 4/ (दूस→सिअ) भूकृ 1/1 [(पर) वि-(लोअ) 1/1]
क्या बालक के लिए (का) दूषित पर-लोक
5.
कि वालहों सम्मत्तु
क्या बालक के लिए सम्यक्त्व नहीं
म
होरो
अव्यय (वाल) 4/1 (सम्मत्त) 1/1 अव्यय (हो) भूकृ1/1 अध्यय (वाल) 4/1 अव्यय [(इट्ठ) भूकृ अनि-(विओअ) 1/1]
कि
वालहों
क्या बालक के लिए नहीं इष्ट-वियोग
इट्ठ-विओम्रो
6.
कि वालहों जर-मरणु
क्या बालक के लिए जरा-मरण
नहीं
दुक्का
कि
अव्यय (वाल) 4/1 [(जरा)-(मरण) 1/1] अव्यय (ढुक्क) व 3/1 अक अव्यय (वाल) 4/1 (जम) 1/1 (दिवस) 2/1 अव्यय (चुक्क) व 3/1 सक
वालहों
जम् दिवसु
आता है क्या बालक के लिए यमराज दिन (को) पादपूरक भूल जाता है
वि
चुक्कड़
7.
तं रिणसुणेवि भरह रिणमच्छिउ तो कि पहिलउ पट्ट पडिच्छिउ
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संकृ (भरह) 1/1 (णिब्भच्छ) भूकृ 1/1 अव्यय अव्यय (पहिलअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक (पट्ट) 1/1 (पडिच्छ) भूकृ 1/1
उसको सुनकर भरत झिडका गब तब
क्यों
पहले
राज-पट्ट स्वीकार किया गया
8. एवहिं
सयलु
अव्यय (सयल) 1/1 वि
इस समय सम्पूर्ण
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
29
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
ह
करेवउ पच्छले
अव्यय (रज्ज) 1/1 (कर+एवउ) विधिकृ 1/1 (पच्छल)7/1
अव्यय [(तव)-(चरण) 1/1] (चर+एवउ) विधिकृ 1/1
किया जाना चाहिए पिछले भाग में
पुण
तव-चरणु चरेवउ
तप का आचरण किया जाना चाहिए
एम
इस प्रकार
भणेप्पिण
राउ
सच्चु
समप्पेवि भज्जहे भरहहो वन्धेवि पट्टु
अव्यय (भण+एप्पिणु) संकृ (राअ) 1/1 (सच्च) 2/1 (समप्प+एवि) संकृ (भज्जा ) 6/1 (भरह) 6/1 (वन्ध+एवि) संकृ (पट्ट) 2/1 (दसरह) 1/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (पन्वज्जा) 4/1
कहकर राजा वचन को समर्पित करके (पूरा करके पत्नी के भरत के (को) बांधकर
दसरहु
गउ
दशरथ चले गये प्रव्रज्या के लिए
पव्वज्जहे
301
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #144
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________________
पाठ-3
पउमचरिउ
सन्धि-27
27.14
9. वरि
पहरिउ बरि किउ तवचरण
तरि विसु
अधिक अच्छा प्रहार किया गया अधिक अच्छा किया गया तप का आचरण अधिक अच्छा विष हालाहल अधिक अच्छा मरना अधिक अच्छा
अव्यय (पहर→पहरिअ) भूक 1/1 अव्यय (कि→किअ) भृकृ 1/1 [(तव)-(चरण) 1/1] अव्यय (विस) 1/1 (हालाहलु) 1/1 अव्यय (मरण) 1/1 अव्यय (अच्छ→अच्छिअ) भूकृ 1/I [गम-एप्पिणु = गमेप्पिणु→गम्पिणु] संकृ [(गुहिल) वि-(वण) 7/1] अव्यय अव्यय अव्यय (रिणवस→णिवसिअ) भूकृ 1/1 [(अवुह =अबुह) वि-(यण) 7/1]
हालाहलु वरि मरणु वरि अच्छिउ गम्पिणु गुहिल-वणे रणवि रिणविस→रिणमिस वि णिवसिउ
टिके हुए
जाकर गहन वन में नहीं पल भर
किन्तु
ठहरे हुए मुर्खजन में
प्रवृहयणे
27.15
1.
तब तीनों
तो तिणि वि एम चवन्ताई
अव्यय (ति) 1/2 वि अव्यय अव्यय (चव→चवन्त) वकृ 1/2
इस प्रकार से कहते हुए
1. गम में सम्बन्धक-कृदन्त अर्थक प्रत्यय ‘एप्पिणु' और 'एप्पि' को लगाने पर आदिस्वर 'एकार' का विकल्प
से लोप होता है। यहाँ बनना चाहिए 'गमेप्पिणु' पर 'गम्पिणु' प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या 4-442)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
31
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
उम्माहव
जगहो 1
जणन्ताई
2. दिण- पच्छिम - पहरे
विणिग्गयाइँ 2 :- विणिग्गयाई (विणिग्गय ) भूकृ 1/2 अनि ( कुञ्जर) 1 / 1
कुञ्जर
इव
विउल-वरण हो
गयाई 2 = गयाई
3. वित्थिष्णु
र
पइसन्ति
जाय
गो
महादुमु
दिट्ठ
ताव
4. गुरु-सु कवि
सुन्दर-सराई
णं
विहय
पढावइ
अक्खराई
5. वृक्कण-किसलय
कक्का
रवन्ति
(उम्माहअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक (TOT) 6/1
( जण जन्त) व 1/2
32 J
[ ( दिण) - (पच्छिम ) वि- (पहर ) 7 / 1 ]
अव्यय
[ ( विउल) वि - (वण ) 6 / 1 ]
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
(जग्गोह) 1/1
[ (महा) - (दुम) 1 / 1]
( दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
[ (गुरु) - ( वेस) 2 / 1 ] (कर + एवि ) संकृ
[ ( सुन्दर ) - (सर) 2/2]
अव्यय
(वित्थिष्ण ) भूक 2 / 1 अनि (रण्ण) 2/1
विशाल ( फैले हुए) वन को (में)
( पइस पइसन्त ( स्त्री) पइसन्ति) वक्रु 1/2 प्रवेश करते हुए
अव्यय
ज्योंहि
बरगव
( विहय) 2/2
( पढ + आव) व प्रे. 3 / 1 सक
( अक्खर ) 2/2
[ ( वुक्कण बुक्कण ) - ( किसलय ) 2 / 2 ]
(कक्का) 2/2 ( रव) व 3/2 सक
अतिपीड़ा को जन (समूह) में उत्पन्न करते हुए
दिन के अन्तिम प्रहर में
बाहर निकल गए
हाथी
की तरह
घने वन को
चले गए
महावृक्ष
देखा गया
त्योंह
शिक्षक के रूप को
धारण करके
सुन्दर स्वरों को
मानो
पक्षियों को
पढ़ाता है
प्रक्षरों को
1. कमी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) । 2. मात्रा को ह्रस्व करने के लिए यहाँ अनुस्वार के स्थान पर लगाया गया है ( है. प्रा. व्या. 4-410 ) । 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) ।
101
कौए, नये कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर
4.
'गमन' अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है ।
5. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया झाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) +
क - ar (ध्वनि) को बोलते हैं (ये)
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #146
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________________
वाउलि-विहङ्ग कि-क्की भणन्ति
[(वाउलि=बाउलि)-(विहङ्ग) 1/2] (कि-क्की) 2/2 (भण) व 3/2 सक
बाउलि-पक्षी किक्की (ध्वनि) को कहते हैं (थे)
वण-कुक्कुड
जल-मुर्गे कु-क्कू (ध्वनि) को कहते हैं (थे) और
आयरन्ति अण्णु
[(वण)-(कुक्कुड) 1/2] (कु-क्कू) 2/2 (आयर) व 3/2 सक (अण्ण) 1/1वि अव्यय (कलावि) 1/2 (के-क्कई) 2/2 (चव) व 3/2 सक
कलावि के-क्का चवन्ति
मोर के-क्का (ध्वनि) बोलते हैं (ये)
7. पियमाहविय
को-पकर लवन्ति कं-का वप्पीह समुल्लवन्ति
[(पिय)-(माहविया) 1/2] अव्यय (को-क्कउ) 2/2 (लव) व 3/2 सक (कं-का) 2/2 (वप्पीह =बप्पीह) 1/2 (समुल्लव) व 3/2 सक
कोयलें पावति को-कउ (ध्वनि) को बोलती है कं-का (ध्वनि) पपोहे बोलते हैं (थे)
8.
सो तरुवरु गुरु-गणहर-समाणु फल-पत्त-वन्तु प्रक्खर-णिहाण.
(त) 1/1 सवि [(तरु)-(वर) 1/1 वि] [(गुरु)-(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] [(अक्खर)-(णिहाण) 1/1]
वह श्रेष्ठ वृक्ष गुरुगणधर के समान फल-पत्तों-बाला अक्षरों का भण्डार
पइसन्तेहि असुर-विमद्दणेहि
सिरु
णामेवि राम-जगद्दणेहि परिअञ्चेवि
(पइस→पइसन्त) वकृ 3/2 I (असुर)-(विमद्दण) 3/2 वि] (सिर) 211 (णाम+एवि) संकृ [(राम)--(जणद्दण) 312]] (परिअञ्च+एवि) संक (दुम) 111 [(दसरह)-(सुअ) 3/2] (अहिणन्द→अहिणन्दिअ) भूक 1/1 (मुणि) 1/1 अव्यय (सइंमुअ) 3/2
प्रवेश करते हुए (के द्वारा) असुरों का नाश करनेवाले सिर को नमाकर राम-लक्ष्मण के द्वारा परिकमा करके वृक्ष चशरथ के पुत्र (द्वारा) अभिनन्दन किया गया मुनि को तरह अपनी मुजाओं से
दसरह-सुएहिं अहिररान्दिउ मणि
सईभएहिं
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 33
Page #147
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________________
-
सन्धि-28
सीय स-लक्खणु दासरहि तरुवर-मूले परिट्ठिय जाहिं पसरइ
(सीया) 1/1
सीता (स-लक्ख ण) 1/1 वि
लक्ष्मण के साथ (दासरहि) 1/1
राम [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1]
श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में (परिट्ठिय) भूक 1/1 अनि
बैठे अव्यय
ज्योंही (पसर) व 3/1 अक
फैलता है (फैल गये) (सु-कइ) 6/1
सुकवि के (कव्व) 1/1
काव्य अव्यय
की भांति [(मेह)-(जाल) 111]
बादलों के सघन समूह [ (गयण)+ (अङ्गणे)][(गयण)-(अङ्गण)7/1] आकाश के आँगन में अव्यय
त्योंही
सुकइहे।
कन्यु
जिह मेह-जालु
गयणङ्गणे तावेहि =ताहिं
28.1
पसरइ मेह-विन्दु गयणङ्गणे पसर जेम सेण्णु समरङ्गणे
(पसर) व 3/1 अक
फैलता है [(मेह)-(विन्द) 1/1]
जलकणों का समूह [(गयण)+ (अङ्गणे)[(गयण)-(अङ्गण)7/1] अाकाश के क्षेत्र में (पसर) व 3/1 अक
फैलती है अव्यय
जिस प्रकार (सेण्ण) 1/1
सेना [(समर) + (अङ्गणे)][(समर)-(अङ्गण)7/1] युद्ध के क्षेत्र में
2.
पसर जम तिमिरु अण्णाणहो पसरह जेम
(पसर) व 3/1 अक अव्यय (तिमिर) 1/1 (अण्णाण) 6/1 (पसर) व 3/1 अक अव्यय (बुद्धि )1/1 (बहु-जाण) 6/1 वि
फैलता है जिस प्रकार अंधकार प्रज्ञान का फैलती है जिस प्रकार बुद्धि बहुत प्रकार का ज्ञान रखने वाले की
बुद्धि
बहु-जाणहो
3.
पसरइ
फैलता है
(पसर) व 3/1 अक अव्यय
जेम
जिस प्रकार
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन,पृष्ठ 156 । 2. इट्ठः-इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261 ।
34
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाउ
पाविदृहों
पसरइ
जेम
5.
धम्मु धम्म हो
4. पसरइ
जेम
जोह
मयवाहहो
पसरइ
जेम
कित्ति
जगणा
पसरई
जेम
चिन्त
धरण- हीणहो
पसरइ
जेम कित्ति
सु-कुलीहो
6. पसरइ
जेम
सट्टु
सुर-तूरहो
पसरइ
जेम
रासि
हे
सूरहो
7. पसर
जेम
दवग्गि
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
(are) 1/1
( पावि + इट्ठ 1
( पसर) व 3 / 1
अव्यय
( धम्म) 1 / 1
( धम्म + इठ्ठ 1 धम्मिट्ठ ) 6 / 1 वि
पाविट्ठ ) 6 / 1 वि
अक
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(Groer) 1/1
[ ( मय) - (वाह ) 6 / 1 वि]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(fafer) 1/1
[ (जग) - ( णाह ) 6 / 1]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यध
(farat) 1/1
[ ( धण ) - ( हीण ) 6 / 1]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(ffer) 1/1
( सु- कुलीन) 6/1
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(सद्द) 1 / 1
[(सुर) - (तूर) 6/1]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
( रासि ) 1/2
(ह) 7/1
( सूर) 6/1
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(af) 1/1
पाप
अत्यन्त पापी का फैलता है।
जिस प्रकार
धर्म
अत्यन्त धार्मिक का
फैलता है
जिस प्रकार
ज्योत्स्ना (प्रकाश)
मृग को धारण करनेवाले का
फैलती है
जिस प्रकार
महिमा
जिनदेव को
फैलती है (उभरती है)
जिस प्रकार
चिन्ता
धन से रहित को
फैलता है
जिस प्रकार
यश
प्रत्यधिक शालीन कर
फैलता है
जिस प्रकार
1.
इट्ठ = इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261 ।
शब्द
देवों की तुरही (वाद्य) का
फैलती है ( हैं )
जिस प्रकार
किरणें
श्राकाश में
सूर्य की
फैलती है जिस प्रकार
दावाग्नि
[ 35
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
वणन्तरे पसरह मेह-जालु
[(वण)+ (अन्तरे)][(वण)-(अन्तर)7/1] (पसर) व 3/1 अक [(मेह)-(जाल) 1/1] अव्यय (अम्वर) 7/1
जंगल के अन्दर फैलता है (फैला है) बाबलों का समूह उसी प्रकार प्राकाश में
तिह
अम्बरें
8. तडि
तब्यड
पडद घणु गज्जइ जारगइ रामहों सरणु पवज्जाइ
(तडि) 1/1 (तडयड) व 3/1 अक (पड) व 3/1 अक (घण) 1/1 (गज्ज) व 3/1 अक (जाणई) 6/1 (राम) 6/1 (सरण) 2/1 (पवज्ज) व 3/1 सक
बिजली (ने) तड़तड़ करती है (किय) पड़ती है (पड़ी) बादल गरजता है (गर्जा) जानकी (को) राम को शरण में (को) जाती है (गई)
अमर-महाघणु-गहिय-कर [(अमर)-(महा) वि-(घणु)-(गहिय) भूकृ- इन्द्रधनुष को, पकड़े हुए, हाथ
(कर) 1/1] मेह-गइन्दे [(मेह)-(गइन्द) 7/1]
मेघरूपी हाथी पर चडेवि (चड+एवि) संकृ
चढ़कर नस-लुद्ध
[(जस)-(लुद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] यश का इच्छक उपरि अव्यय
ऊपर गिम्म-गराहिवहो [(गिम्भ)-(णराहिव) 6/19
ग्रीष्मराजा के पाउस-राउ [(पाउस)-(राम) 1/1]
पावसराना गाई=णाई अव्यय
मानो सण्गद्ध
(सण्णद्धअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक आक्रमण के लिए तैयार
28.2
पाउस-णरिन्दु गलगज्जिउ धूली-रउ বিল विसज्निउ
अव्यय [(पाउस)-(णरिन्द) 1/1] [(गलगज्ज→गलगज्जिअ) भूकृ 1/1] [(धूली)-(रय→2)1/1] (गिम्म) 3/1 (विसज्ज) भूकृ 11
पावस-राजा गरजा धूल-बेग प्रीष्म द्वारा मेजा गया
1. 'गमन' अर्थ में द्वितीया का प्रयोग होता है।
2. रअ वेग
36
1
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
2
गम्पिणु। मेह-विन्दे आलग्गउ तडि-करवाल-पहारेहिं
[गम+एप्पिणु =गमेप्पिणु-→गम्पिणु] संकृ जाकर [(मेह)-(विन्द)2 7/1]
मेघ-समूह को (आलग्ग→आलग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा. चिपक गई [(तडि)-(करवाल)-(पहार) 3/2]
बिजलीरूपी तलवार के प्रहारों
भग्गउ
(भग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक
छिन्न-भिन्न कर दी गई
3.
जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ उट्टि
जब विमुख (विपरीत मुख) को चली भयंकर
अव्यय (विवरम्मुह) 2/1 वि (चल→चलिअ) भूक 1/1 (विसाल अ) 1/1 वि 'अ' स्वा. (उट्ठ) भूक 1/1 (हण) विधि 1/1 सक (भण→भणन्त) व 1/1 (उण्ह+आल:-उण्हाल→उण्हालअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
उठी
भणन्तु
मारो कहती हुई उष्ण/ग्रीष्म ऋतु
उण्हालउ
4. धग-धग-धग-धगन्तु
(धग-धग-धग-धग) वकृ 1/1 (उद्धाइअ) भूक 1/1 अनि (हस हस हस हस) वकृ 1/1 (संपाइअ) भूकृ 1/1 अनि
खब (धग-धग) जलती हई ऊंची दौड़ो (उठी) उत्तेजित होती हुई प्रवृत्त हुई
हस-हस-हस-हसन्तु संपाइउ
5. जल जल जल जल जन (जल जल जल जल जल) व 3/1 अक तेजी से जलती है (जली) पचलन्तउ
(प-चल→पचलन्त-→पचलन्तअ) वकृ 1/1 . चलती हुई (कूच करती हुई)
'अ' स्वार्थिक जालावलि फुलिङ्ग [(जाला)+ (आवलि)+(फुलिङ्ग)]
लपट की, शृंखला से, चिगा[(जाला)-(आवलि)-(फुलिङ्ग)2/2] रियों को मेल्लन्तउ
(मेल्ल→मेल्लन्त→मेल्लन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा. छोड़ते हुए
धूम को, श्रृंखला के, ध्वजदण्डों को, ऊंचा करके
6. धूमावलि-धयबण्डा प्पिणु [(धूम)+ (आवलि)+ (धय)+ (दण्ड)+
(उन्भेप्पिण)] [(धूम)-(आवलि)-(धय)-
(दण्ड)-(उन्म+एप्पिणु) संकृ] वर-पाउल्लि-खन्यु (वर) वि-(वाउल्लि)-(खग्ग) 2/1] कड्ढेप्पिण (कड्ड+एप्पिणु) संक
श्रेष्ठ, तूफानरूपी, तलवार को खींचकर
1. देखें पृष्ठ 31, 27.14.9, पाद टिप्पणी। 2. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण
3-137)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
37
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--------------------------------------------------------------------------
________________
7. मडम डमडन्तु
पहरन्त तरुवर-रिउ-मड-थड
(झड झड झड झड) वकृ 1/1
झपट मारते हुए (पहर→पहरन्त→पहरन्तअ)वकृ 1/1 'अ' स्वा. प्रहार करते हुए [(तरु)-(वर)वि-(रिउ)-(भड)-(थड) श्रेष्ठ वृक्षोंरूपी, शत्रु के, योद्धा, 2/1]
समूह को . (भज्ज→भज्जन्त→भज्जन्तअ)वकृ 1/1 'अ' स्वा. नष्ट करते हुए
मज्जन्तउ
मेह-महागय-घड
विहडन्तउ
[(मेह)-(महा) वि-(गय)-(घडा) 2/1] मेघरूपी, महा-हाथियों को,
टोली को (विहड--विहडन्त→विहडन्तअ)वकृ 1/1 'अ' स्वा. खण्डित करते हुए अव्यय
जब (उण्हालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
ग्रीष्मऋतु (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
दिखाई दी (भिड→भिडन्त,भिडन्तअ)वकृ 1/1 'अ' स्वा. भिड़ती हई
उण्हालउ दिठ्ठ भिडन्तउ
घणु अष्फालिउ पाउसेण तडि-रंकार-फार दरिसन्तें चोएवि जलहर-हत्यि
(धणु) 1/1
धनुष [(अप्फल)(प्रे)→अप्फाल→(अप्फालिअ)भूव 1/1]ताना गया (वृद्धि प्राप्त) (पाउस) 3/1
पावस के द्वारा [(तडि)-(टङ्कार)-(फार) 2/1] बिजली की, टङ्कार और चमक (दरिस→दरिसन्त) वकृ 3/1
दिखाते हुए (चोअ+एवि) संक
प्रेरित करके [(जलहर)-(हत्थि )
बादलरूपी हाथी(हड) 2/2 वि]
घटा को [(णीर)-(सरासण (स्त्री)->सरासणी) 1/2] जलरूपी तीर (मुक्क) भूक 1/2 अनि
छोड़े गये अव्यय
तुरन्त
जीर-सरासणि
तुरन्तें
28.3
1. जल-वाणासणि पायहिं
जलरूपी, तीरों के, प्रहारों से
धाइन गिम्भ-गराहिउ
[(जल)-(वाणासण (स्त्री)→वाणासणी, वाणासणि1)-(घाय) 3/2] (घाय=धाम→धाइअ) भूकृ 1/1 [(गिम्भ)-(णराहिल) 1/1] (रण) 7/1 (विणिवाइअ) भूकृ 1/1 अनि
चोट पहुंचाया हुआ ग्रीष्मराजा युद्ध में गिरा दिया गया
रणे
विणिवाइउ
2. बद्दुर
(ददुर) 1/2
1. समास में रहे हुए स्वर परस्पर में अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाया
करते हैं (हे. प्रा. व्या. 1-4) ।
38
]
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
रोने इसलिए
वि
लग्ग
लगे
सज्जण
(रड) 7/1 अव्यय (लग्ग) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (सज्जण) 1/2 अव्यय (णच्च) ब 3/2 अक (मोर) 1/2 (खल) 1/2 वि (दुज्जण) 1/2 वि
को तरह सज्जनों की तरह नाचते हैं (नाचे) मोर शरारती
णच्चन्ति
मोर
दुष्टों
3.
पूरन्ति
सरित अक्कन्वें
अव्यय (पूर) व 3/2 सक (सरि) 1/2 (अक्कन्द) 3/1 अव्यय (कइ) 1/2 (किलिकिल) व 3/2 अक (आणन्द) 3/1
मानो भरती हैं (मरा) नदियों ने रोने के कारण मानो कवि प्रसन्न होते हैं (हुए) आनन्द से
का .किलिकिलन्ति आणन्में
विमुक्क उग्रोसें।
अव्यय (परहुय) 1/2 (विमुक्क) भूकृ 1/2 अनि (उग्घोस) 3/1 अव्यय (वरहिण) 1/2 (लव) व 3/2 सक (परिओस) 3/1
मानो कोयलें स्वतन्त्र की गई ऊंची आवाज में मानो मोर बोलते हैं (बोले) सन्तोष से
वरहिण लवन्ति परिओसें
5.
णं
सरवर बहु-प्रंसु-अलोहिलय
मानो बड़े तालाब विपुल, आँसूरूपी, जल से, भरे
अव्यय [(सर)-(वर) 1/2 वि] [(वहु) वि- (अंसु)- (जल)- (उल्लिय) 1/2 वि] अव्यय [ (गिरि)-(वर) 1/2 वि]
मानो
गिरिवर
बड़े पर्वत
1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण
3-137)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
39
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--------------------------------------------------------------------------
________________
हरिसें
हर्ष से
(हरिस) 3/1 (गजोल्लिय) 1/2 वि
गजोल्लिय
पुलकित
6.
णं
उण्ह
वि दवग्गि विमोएं णं णच्चिय महि विविह-विणोएं
अव्यय (उण्ह)6/1 वि अव्यय (दवग्गि) 6/1 (विओअ) 3/1 अव्यय (णच्च) भूकृ 1/1 (महि) 1/1 [(विविह) वि -(विणोअ) 3/1]
वाक्यालंकार के लिए तप्त मानो दावाग्नि के वियोग से वाक्यालंकार नाची धरती विविध विनोद के कारण
7.
णं अत्यमित दिवायर
मानो अस्त हुआ
सूर्य
दुक्खें
अव्यय (अथमिअ) 1/1 वि (दिवायर) 1/1 (दुक्ख) 3/1 अव्यय (पइसर) व 3/1 अक (रयणि) 1/1 अव्यय (सुक्ख) 3/1
मानो व्याप्त होती है (हो गई)
पइसरइ रयणि सई-सई सुक्खें
स्वयं सुख के कारण
8.
सुहावने हुए, पत्ते
रत्त-पत्त तर पवणाकम्पिय
वृक्ष
[(रत्त) भूक अनि - (पत्त) 1/2] (तरु)6/1 [(पवण)+ (आकम्पिय)] [(पवण)(आकम्पिय) भूकृ 1/1] (क) 3/1 स
पवन से हिले डुले
केण
वि
अव्यय
वहिउ गिम्भु
किसके द्वारा पावपूरक नष्ट किया गया (मारा गया) ग्रीष्म मानो बोला गया
जम्पिय
9. तेहए
काले भयाउरए
(वह→वहिअ) भूक 1/1 (गिम्भ) 1/1 अव्यय (जम्प-→जम्पिय) भूकृ 1/1 (तेहब) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (काल) 7/1 [(भय)+ (आउरए)] [(भय)-(आउरअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक] (वे) 1/2 घि अव्यय
उस जैसे समय में भयातुर
दोनों
वेणि मि
[ अपप्रश काव्य सौरभ
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________________
वासुएव-वलएव तरुवर-मूले स-सीय
थिय जोगु
[(वासुएव)-(वलएव) 1/2] [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1] [(स) वि-(सीया) 1/1] (थिय) भूक 1/2 (जोग) 2/1 [(लअ)+(एविणु) संकृ] [(मुणि)-(वर) 1/1 वि] अव्यय
राम और लक्ष्मण वृक्ष के नीचे के भाग में सीता-सहित बैठ गये योग ग्रहण करके महामुनि की मांति
लएविणु मुरिणवर जेम .
अपभ्रंश काध्य सौरम ]
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________________
1.
रुनइ
विहोसण
सोयककमिय
तुह सत्यमिउ
सु अत्यमियत
2. तुहुँ
ग
जिनोसि
ཝཱ ཝཱ ར ཝ བྷཱ སྠཽཎྜཱ
सयलु जिउ
वन्दिय-जणु
3. तुहुँ
पडिप्रोऽसि
சு पडिड
पुरन्दरु
42 ]
पाठ-4
पउमचरिउ
सन्धि - 76
76.3
(रुअ ) व 3 / 1 अक
( विहीण ) 1 / 1
[ ( सोय ) - (क्कमक्कमियक्कमियअ )
भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक ]
( तुम्ह ) 1 / 1 स
[ (ण) + ( अत्यमिउ ) ] ग= अव्यय ( अत्थम (ater) 1/1
( अत्थम ) भूक 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
अत्थमिअ ) भूकृ 1 / 1
( तुम्ह) 1 / 1 स
अव्यय
[ ( जिओ) + (असि ) ] जिओ (जिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि असि (अस) व 2 / 1 अक (सयल) 1 / 1 वि (जिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (fageror) 1/1 ( तुम्ह ) 1 / 1 स
अव्यय
[ ( मुओ) + (असि ) ] ओ ( अ ) भू 1 / 1 अनि असि (अस) व 2 / 1 अक
( मुअमुअल) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक [ ( वन्द) भूकृ - ( जण ) 1 / 1]
( तुम्ह ) 1 / 1 स
[ ( पडिओ ) + (असि ) ] पडिओ (पड पडिअ ) भूकृ 1 / 1
असि (अस) व 2 / 1 अक
अव्यय
(पड - पडिअ ) भूकृ 1/1 ( पुरन्दर ) 1 / 1
रोता है ( रोया) विभीषरण
शोक से युक्त
तुम
नहीं, समाप्त हुए
वंश
समाप्त हो गया
तुम
नहीं
जीते गए,
हो
सकल
जीत लिया गया
त्रिभुवन
तुम
नहीं
भरे,
हो
मर गया
सम्मानित जन समुदाय
तुम
पड़े,
नहीं
पड़ा
इन्द्र
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
5.
मउड
6.
ཟླ ༈ སྠ ། ལྒ ལྐ ཐ ཀྐཱ སྠཽ སྠཽ ཎྜ ཐ ཟླ
ण
भग्गु
4. विट्टि
गिरि-मन्दद
लङ्काउरि
पट्ट मन्दोयरि
། ལྐ ཞཱ ཝ ཝཱ
तुट्टु
तुट्टु
तारायण
हियज
रग
भिण्णु
मिण्णु
गयणङ्गणु
चक्कु
ण
तुक्कु
दुक्कु
एक्कन्तरु
आउ
रण
खुट्ट
खुट्ट
रयणायक
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( मउड) 1 / 1
अव्यय
( भग्ग ) भूकृ 1 / 1 अनि
( भग्ग ) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( गिरि) - ( मन्दर) 1 / 1]
(fafg) 1/1
अव्यय
( णट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
( g ) भूकृ 1 / 1 अनि
( लङ्काउरी ) 1/1 (वाया) 1 / 1
अव्यय
(ण) भूकृ 1/1 अनि
(g) भूकृ 1 / 1 अनि ( मन्दोयरी ) 1/1
( चक्क ) 1/1
अव्यय
( ढुक्क ) भूकृ 1 1 1 अनि
(ढुक्क) भूक 1 / 1 अनि
[ ( एक्क) + ( अन्तरु ) ] एक्क (एक्क) 1/1
अन्तर (अन्तर) 1 / 1
(आउ ) 1/1
अव्यय
(खुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि (खुट्ट) भूक 1 / 1 अनि
( रयणायर) 1/1
मुकुट
नहीं
टुकड़े-टुकड़े किया गया टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया सुमेरु पर्वत
( हार ) 1 / 1
अव्यय
( तुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
( तुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
[ (तारा) - ( अणयण) 1 / 1]
( हियअ ) 1/1
अव्यय
( भिण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि
( भिण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि
भंग कर दिया गया
[ ( गयण) + (अङ्गणु) ] [ ( गयण ) - (अङ्गण) 1 / 1] प्रकाश प्रवेश
विचार पद्धति
नहीं
समाप्त हुई
समाप्त हो गई
लंकापुरी
वाणी
नहीं
नष्ट हुई
नष्ट हो गई
मन्दोदरी
हार
नहीं
टूटा
टूट गए
तारागण
हृदय
नहीं
भंग किया गया
चक
नहीं
या (पहुँचा
आ पहुँची
एक,
परिवर्तित दशा
आयु
नहीं
क्षीण हुई क्षोण हो गया
सायर
[ 43
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीउ
गउ मउ प्रासा-पोट्टल
(जीअ) 1/1 अव्यय (गअ) भूक 1/1 अनि (ग) भूकृ 1/I अनि [(आसा)-(पोट्टल) 1/1] (तुम्ह) 1/1 स अव्यय (सुत्त) भूकृ 1/1 अनि (सुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक [(महि)-(मण्डल) 1/1]
नीवन नहीं विदा हुमा विदा हो गई प्राशाओं की पोटमी तुम नहीं सोये सो गया पृथ्वीमण्डल
तुहुँ
सुन्तु
मुत्तउ
महि-मण्डल
8. सीय
नहीं
आरिणय प्रारिणय जमउरि हरि-वल
(सीया) 1/1
सीता अव्यय (आण→आणिय (स्त्री)→आणिया) भकृ 1/1 लायी गई (आण→आणिय (स्त्री)→आणिया) भकृ 1/1 लाई गई (जमउरी) 1/l
यमपुरी [(हरि)-(वल) 1/1]
राम की सेना (कुद्ध) भूकृ 1/1 अनि
कुपित हुई अव्यय
नहीं (कुद्ध) भूकृ 1/1 अनि
कुपित हुपा (केसरि) 1/1
सिंह
केसरि
सुरवर-सण्ढ-बराइगा सयल-काल
बेचारे देवताओं के समूहद्वारा सभी काल में जो हरिण
मिग
रहे
सम्भूया रावण
[(सुरवर)-(सण्ढ)-(वराई) 3/1 वि] [(सयल)-(काल) 7/1] (ज) 1/2 सवि (मिग) 1/2 (सम्भूय) भूकृ 1/2 अनि (रावण) 8/1 (तुम्ह) 3/1 स (सीह) 3/1 अव्यय (त) 1/2 सवि
हे रावण
तेरे
सोहेण
सिंह के बिना
विणु
अव्यय
ही
वि अज्जु मच्छन्दीहूया
प्राज
अव्यय [(सच्छन्द (स्त्री)→सच्छन्दी) - (य) भूकृ 1/2 अनि]
स्वच्छन्दी, हुए
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति में भी शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृष्ठ 1471
44 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
76.7
1. दिठ्ठ
पुणो वि पाहु पिय-णारिहि सुन्तु मत्त-हत्थि
(दिट्ठ) भुकृ 1/1 अनि अव्यय (णाह) 1/1 [(पिय)--(णारी) 3/2] (सुत्त) भूकृ 1/1 अनि [(मत्त) वि - (हत्थि ) 1/1] अव्यय (गणियारि) 3/2
देखा गया फिर पति प्रिय पत्नियों द्वारा सोया हुआ मतवाला हाथी जैसे हथिनियों के द्वारा
गरिणयारिहिं
2. वाहिरिणहिं
नदियों द्वारा
जैसे
सुक्कड रयणायर कमलिणिहिं
(वाहिणी) 3/2 अव्यय (सुक्कअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (रयणायर) I/I (कमलिणी) 3/2 अव्यय [(अत्थवण)1 - (दिवायर) 1/1]
सूखा हुआ समुद्र कमलिनियों के द्वारा जैसे डूबने से (समाप्त हुआ) सूर्य
अथवण-दिवायर
कुमुइरिणहि
कुमुदनियों द्वारा
व्य
जैसे
जरढ-मयलञ्छणु विज्जुहि व्व
(कुमुइणी) 3/2 अव्यय I (जरढ) वि-(मयलञ्छण) 1/1] (विज्जु) 3/2 अव्यय अव्यय [(वरिस→वरिसिय) भूकृ -- (घण) 1/1]
क्षीण चन्द्रमा बिजलियों द्वारा जैसे पुनः पुनः बरसा हुमा बादल
वरिसिय-घणु
4. अमर-वहूहि
चवरण-पुरन्दर गिम्भ-दिसाहि
[(अमर)-(वहू ) 3/2] अव्यय [[(चवण)-(पुरन्दर) 1/1] वि] [(गिम्भ)-(दिसा) 3/2] अव्यय [(अञ्जण)-(महिहर) 1/I]
देवताओं की स्त्रियों द्वारा जैसे मरण को प्राप्त इन्द्र ग्रीष्म में दिशात्रों द्वारा जैसे वृक्षों से युक्त पर्वत
अजण-महिहरु
5. भमरावलिहि
भंवरों की पंक्तियों द्वारा
[ (भमर) + (आवलिहि) ] [(भमर)-(आवलि) 3/2] अव्यय [(सूड→सूडिय) भूक-(तरुवर) 1/1]
म्व सूडिय-तरुवर
जैसे नाश को प्राप्त, श्रेष्ठ वृक्ष
1. अस्तमन→अत्थवण=डूबना
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
45
.
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________________
कलहंसीहि
स्व
अजलु
महासर
6. कलयण्ठीहि
स्व
माहवणिग्गमु
णाइणिहिं
46
व
हय-गरुड-भुयङ्गमु
7. वहुल-पोसु
व
तारा - पन्तिहिं
तेम
दसास-पासु
दुक्कन्तिहिँ
8. दस- सिय
दस-सेहरु
दस-मउडड
गिरि
व
स- कन्दरु
स-तरु
स- कूडउ
9. रिएबि
अवत्थ
दसाण हो
हा हा
सामि
भरणन्तु
स- वेणु
अन्तेउय
मुच्छा-बिहलु णिवडिउ
[ ( कलहंस (स्त्री) व लहंसी ) 3/2]
अव्यय
→
( अजल ) 1 / 1 वि
[ (महा) वि - (सर) 1/1]
( कलयण्ठी) 3/2
अव्यय
[ ( माहव ) - ( णिग्गम) 1 / 1]
(गाइणी) 3/2
अव्यय
[ ( हय) भूकृ अनि - (गरुड ) - ( भुयङ्गम) 1 / 1]
[ ( बहुल ) - (पओस ) 1 / 1 वि]
अव्यय
[(arr)-(fa) 3/2]
अव्यय
[ (दस) + (आस) + ( पासु) ]
[ (दस) वि - (आस) - ( पास ) 1 / 1]
( ढुक्क ढुक्कंत
ढुक्कंती ) व
3/2
[ (दस) वि- (सिर) 1 / 1]
(दस) वि - ( सेहर ) 1 / 1]
[ (दस) वि- ( मउड-अ) 1 / 1 'अ' स्वार्थिक ]
(fafe) 1/1
अव्यय
( स - कन्दर) 1 / 1 वि
(स-तरु) 1 / 1 वि
( स - कूडअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( णिअ + एवि ) संकु
( अवस्था ) 2 / 1
( दसाणण ) 6/1
अव्यय
( सामि ) 1 / 1
( भणभणन्त) व 1/1
(स-वेयण) 1 / 1 वि
( अन्तेउर) 1/1
[ ( मुच्छा) - ( विहल ) 1 / 1]
( णिवड विडिअ ) भूकृ 1 / 1
राजहंसनियों द्वारा
जैसे
जलरहित बड़ा तालाब
कोकिलों द्वारा
जैसे
वसन्त ऋतु का जाना नागिनियों द्वारा
जैसे
गरुड से मारा हुश्रा
कृष्णपक्ष, दोषों से युक्त जैसे
तारों की पंक्तियों द्वारा
उसी प्रकार
दसमुखवाले के पस
जाती हुई ( रानियों) के द्वारा
दससिर
दस शिखा
दसमुकुट
पर्वत
मानो
गुफा - सहित
वृक्ष - सहित शिखर- सहित
देखकर
अवस्था को
रावरण को
हाय-हाय
स्वामी
कहते हुए
पोड़ा सहित
सर्प
अन्तःपुर
मूर्च्छा से व्याकुल
गिरा
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
महिहिं झत्ति णिच्चेयणु
(महि) 7/1 अव्यय (णिच्चेयण) 1/1 वि
पृथ्वी पर शीघ चेतना-रहित
सन्धि-77
माइ-विनोएं जिह-जिह
विभीषण
विहीसणु सोउ तिह-तिह दुक्खरण रुवा स-हरि-वल-वाणर-लोउ
[(भाइ)-(विओअ) 3/1]
भाई के वियोग से अव्यय
जैसे-जैसे (कर) व 3/1 सक
करता (विहीसण) 1/1 (सोअ)2/1
शोक अव्यय
वैसे-वैसे (दुक्ख) 3/1
दुःख के कारण (रुव) व 3/1 अक
रोते [(स)-(हरि)-(वल)-(वाणर)-(लोअ)1/1] राम, लक्ष्मरण सहित वानर
जाति के लोग
77.1
दुम्मणु (दुम्मण) 1/1 वि
दुःखी मन दुम्मरण-वयरणउ
[(दुम्मण) वि-(वयराअ)1/I 'अ' स्वा.]वि] उदास मुखवाला ग्रंसु-जलोल्लिय-गयउ [(अंसु)+(जल)+ (उल्लिय)+(रायणउ)] अाँसु के जल से गीली हई
[[(अंसु)--(जल)-(उल्ल→उल्लिय) भूकृ- आँखोंवाला (रायणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक] वि] (ढुक्क) 1/1 वि (दे)
पहुँचा कइद्धय-सत्थर [(कइद्धय)-(सत्थअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक ] कपि (चिह्नयुक्त) ध्वज
(लिए हुए) जन-समूह जहिं अव्यय
जहाँ रावणु (रावण) 1/1
रावण पल्हत्थउ
(पल्हत्थअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक मार गिराया गया
तेणी समाणु विणिग्गय-णामेहि
विठ्ठ
(त)3/1 स
उसके अव्यय
साथ [[ (विणिग्गय) भूक अनि-(णाम) 3/2] वि] फैले हुए नामवाले (विख्यात) (दिट्ठ) भूक 1/1 अनि
देखा गया (दसाणण) 1/1
रावण [(लक्खण)-(राम) 3/2]
राम और लक्ष्मण द्वारा
दसागणु लक्खण-रामेहि
1. साथ (समाणु) के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है ।
अप त्रंश काव्य सोरम ]
[ 47
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________________
3. दिट्टई
स-मउड-सिरई पलोट्टई
(दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि [(स-मउड) वि-(सिर)1/2] (पलोट्ट) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (स-केसर) 1/2 वि (कन्दोट्ट) 1/2
देखे गए मुकुटसहित सिर जमीन पर गिरे हुए मानो पराग-सहित कमल
स-केसराई कन्दोट्टई
4. दिटुइँ
मालयलई पायडियई प्रद्धयन्द-विम्बाई
(दिट्ठ) मूक 1/2 अनि (भालयल) 1/2 (पायड->पायडिय) भूकृ 1/2 [(अद्धयन्द)-(विम्व) 1/2] अव्यय (पड->पडिय) भूकृ 1/2
देखे गए भाल,ललाट खुले हुए अर्द्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब
मानो
पडियई
देखे गए
5. विदुई
मणि-कुण्डलई स-तेय
(दि8) भूकृ 1/2 अनि [(मणि)-(कुण्डल) 1/2] (स-तेय) 1/2 वि अव्यय [(खय) भूकृ-(रवि)-(मण्डल) 1/2] (अणेय) 1/2 वि
मरिणयों से (बने हुए) कुण्डल कान्ति-युक्त मानो गिरे हुए, रवि-चक
खय-रवि-मण्डलई प्रमेय
अनेक
देखी गई
दिट्टर भउहउ भिडि-करालउ
भौंहें
(दिट्ठ→(स्त्री) दिट्ठा) भूक 1/2 अनि (भउहा) 1/2 [(भिडि)-(करालअ) 1/1 वि 'अ' स्वा.] अव्यय [(पलय)+(अग्गि)+ (सिहउ)] [(पलय)-(अग्गि)-(सिहा) 1/2] [(धूम) + (आलउ)] [[(धूम)-(आलअ) 1/1] वि]
पलयम्गि-सिहज
भौंह के विकार से भयंकर मानो प्रलय की प्राग की ज्वालाएं धुएँ के प्राश्रयवाली
धूमालउ
दिट्टई दोह-विसालई णेत्तई मिहुणा
(दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि [( दीह) वि-(विसाल) 1/2 वि] (णेत्त) 1/2 (मिहुण) 1/2 अव्यय [(आमरण)+ (आसत्तइँ)] [(आमरण) - (आसत्त) भूकृ 1/2 अनि]
देखे गए लम्बे और चौड़े नेत्र स्त्री-पुरुष के जोड़े मानो मृत्यु तक प्रासक्त
आमरणाससई
1.
कभी-कभी समास के अन्त में 'यल' लगाने से अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
48 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
मुह-कुहरई
ट्ठोट्टई दिट्ठई जमकरणाई
[(मुह)-(कुहर) 1/2]
मुख-विवर [(8)+ (ओटुइँ)]r (8) भूक अनि-(ओट्ठ)1/2] दाँतों से काटे गए होठ (दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि
देखे गये [(जम)-(करण) 1/2]
मृत्यु के साधन अव्यय
मानो (जम) 6/1
यम के (अणिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि
अप्रीतिकर
जमहो । अणिट्ठाँ
१. दिल
महन्भुवा भड-सन्दोहें
(दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि (महन्मुव) 1/2 [ (भड)-(सन्दोह) 3/1] अव्यय (पारोह) 1/2 (मुक्क) भूकृ 1/2 अनि (णग्गोह) 311
देखी गई महा-भुजाएँ योद्धाओं के समूह द्वारा मानो शाखाएँ निकाली हुई बड़ के पेड के द्वारा
पारोह
मुक्क
जग्गोहें
10. दिट्ट
उरस्थलु फाडि
चक्के
(दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि (उरत्थल) 1/1 (फाड) भूक 1/1 (चक्क) 3/1 [(दिण)-(मज्झ) 1/1] अव्यय (द) (मज्झत्य) 3/1 दि (अक्क) 3/1
देखी गई छाती फाड़ी हुई चक्र के द्वारा दिन का बीच मानो मध्य में स्थित सूर्य के द्वारा
दिण-मना
मज्झत्थे
अक्क
11. प्रवणियलु
विश्मेण विहजिउ
1(अवणि)-(यल) 1/1] अव्यय (विझ) 3/1 (विहञ्ज) भूकृ 1/1 अव्यय (वि) 3/2 वि (माअ) 3/2 (तिमिर) 1/1
पृथ्वोतल मानो विध्य के द्वारा विभक्त कर दिया गया मानो विविध भागों द्वारा अंधकार मानो इकट्ठा किया गया
विहिं भाएहिं तिमिरु
अव्यय
पुजिउ
(पुञ्ज) भूकृ 1/1
12 पेक्खेवि
(पेक्ख+एवि) संक
1. मह+भुव=महन्भुव
अपभ्रश काव्य सौरभ ।
49
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________________
रामेण
समरङ्गणं रामरणहो
मुहाई
श्रालिंगे प्पिण
धोरिउ
स्वहि
विहीसरण
करहूँ
1. सो
e
मुख
जो
मय-मत्तउ
नीव दया-परिचतउ
वय चारित विणउ
दाण-रणङ्गणे दीगड
2. सरणाइय- वन्दिग्गहै
गोग्ग
सामिहे
श्रवसरे
मित्त-परिग्गहे
3. णिय परिहके पर- विहरे
ग
जुज्जइ
तेह
पुरिसु
विसरण
रज्जड
50 1
( राम ) 3 / 1
राम के द्वारा
[ ( समर ) + (अङ्कणे ) ] [ (समर) - ( अङ्गण ) 7/1] युद्धस्थल में
( रामण ) 6 / 1
( मुह) 2/2
( आलिङ्ग + एप्पिणु) संकृ (धीरधीरिज ) भूक 1 / 1
(रुव) व 2 / 1 अक
( विहीण ) 8 / 1
अव्यय
77.2
(त) 1 / 1 सवि
( मुअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (ज) 1 / 1 सवि
[ ( मय ) - ( मत्तअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वा. ] [[ (जीव ) - (दया) - (परिचत्तअ ) भूकृ 1/1 अनि ] वि]
[ ( वय ) - (चारित) - ( विहाअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक ]
[ ( दाण ) - ( रणङ्गण ) 7 / 1 ]
( दीणअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
[ (गो) - (ग्गह) 7/1
(arfa) 6/1
( अवसर ) 7/1
[ ( मित्त) - ( परिग्गह) 7/11
[ ( णिय) वि - (परिहव ) 7/1
[ ( पर) वि- (विहुर) 7/1]
अव्यय
( जुज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
( अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पुरिस ) 1/1
( विहीण ) 8 / 1
( रुज्जइ ) व भाव 3 / 1 अक अनि
रावण के मुखों को
छाती से लगाकर धीरज बंधाया गया
रोते हो
हे विभीषण
क्यों
[ ( सारण ) + (आइय ) + ( वन्दिग्गहे ) ]
शरण में आए हुए के लिए,
[ ( सारण ) - (आइय ) भूक अनि - ( वन्दिग्मह) 7/1] ( दोषियों को ) कैदीरूप में
पकड़ने में
गाय के संरक्षरण में
स्वामी के
समय में
मित्र की सहायता में
यह
मरा हुआ
जो
अहंकार के नशे में चूर
जीव दया छोड़ दी गई
( जिसके द्वारा )
व्रत और चारित्र से हीन
दान और युद्धस्थल में
भीरु
निज का अपमान होने पर
दूसरे के दुःख में
नहीं
लगा जाता है
सा
पुरुष
हे विभीषण रोया जाता है
[ अपभ्रश काव्य सोरभ
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________________
4. अण्णु
अन्य भी पाप-कर्म का उत्पादक
दुक्किय-काम जपेरउ
(अण्ण) 1/1 दि मव्यय 1(दुक्किय)- (कम्म) - (जणेरअ) 1/1 वि 'अ' स्वाधिक] (गरजब) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(पाव)-(भार) 1/1] (ज) 6/1 स (केरअ) 111
गरप्राउ
पाव-भाव
बहुत भारी पाप का बोझ जिसके सम्बन्धार्थक परसर्य
7. सव्वंसह
वि सहेवि
भी
सक्कड़ अहो अगाउ भणन्ति
(सव्वंसहा) 1/1 अव्यय (सह+एवि) हेकृ अव्यय (सक्क) व 3/1 अक अव्यय (अण्णाअ) 2/1 (मरण→(स्त्री)भणन्ती) ककृ 1/1 अव्यय (थक्क) व 3/1 अक
सहने के लिए नहीं समर्थ होतो है पादपूरक अन्याय को कहती हुई नहीं शकती है
थक्कइ
काँपती है नदी क्यों
बेवह वाहिरिण कि मई सोसहि धाहावड़ खज्जन्ती ओसहि
मुझको
(वेव) ब 3/1 बक (बाहिणी) 1/1 अव्यय (अम्ह) 2/1 स (सोस) व 2/1 सक (धाहाव) व 3/1 अक (खज्ज→खज्जन्त→खज्जन्ती) व 111 (ओसहि) 1/1
सुखाते हो हाहाकार मचाती है खाई जाती हुई औषधि
7. छिज्जमार
काटो जाती हुई
वरणसइ उग्घोसह कइय
(छिज्ज→छिज्जमाण→(स्त्री)छिज्जमाणा) वक कर्म 1/1 (वणसइ) 1/1 (उग्घोस) व 3/1 सक अव्यय (मरण) 1/1 (णिर+आस-णिरास) 61 वि (हो) अवि 3/1 अक
वनस्पति घोषणा करती है कब मरण दुष्ट चित्तवाले कर होगा
मरणु
णिरासहो होसइ
8.
पवणु
(पवण) 1/1
पवन
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
51
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________________
जा
भिड
माणु
(ण) 6/1 स (भिड) व 3/1 अक (दे) (भाणु)6/1 (कर) 1/2 (खञ्च) व 3/1 सक
कर
खञ्चइ
उससे भिड़ता है सूर्य की किरणें . परास्त करती है (परास्त कर देती हैं) धन राजकुल के चोरों की स्तुति से इकट्ठा करता है
धणु राउल-चोरग्गिहुँ
(धण) 2/1 [(राउल)-(चोर)-(ग्गी) स्त्री 5/0] (सञ्च) व 3/1 सक
9. विन्ध
कण्टेहि
(विन्ध) व 3/1 सक (कण्ट) 3/2 अव्यय (दुव्वयण) 3/2
(विस)-(रुक्ख) 1/1] अव्यय (मण्ण) व कर्म 3/1 सक (सयण) 3/2
बींध देता है काँटों से पादपूरक दुर्वचनरूपी
दुब्वयणेहि विस-रुक्खु
विष-वृक्ष
मणिज्जा सयहिं
की तरह माना जाता है स्वजनों द्वारा
10. धम्म-विहणउ
पाव-पिण्डु अणिहालिय-थामु
[(धम्म)-(विहू णअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक] धर्म-रहित [(पाव)-(पिण्ड) 1/1]
पाप का पिण्ड [(अण)+ (इह)+ (आलिय) + (थामु)] नहीं, यहाँ, निवास किया [(अण)-(इह)-(आलि→आलिय) भूकृ - हुआ, स्थान (थाम) I/I (दे)] (त) 1/1 सवि
वह (रोव+एवउ) विधि कृ 1/1
रोया जाना चाहिए (ज) 6/1 स
जिसका [ (महिस)-(विस)-(मेस) 3/2]
महिष, वृष और मेष के द्वारा (णाम) 1/1
नाम
सो रोवेवउ जासु महिस-विस-मेसहि
णामु
77.4
1.
तं णिसुणेवि पहाणउ भणइ विहीसण-राणउ
(त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ (पहाणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (भण) व 3/1 सक [(विहीसण)-(राणअ) 1/I 'अ' स्वार्थिक]
उसको सुनकर प्रधान कहता है (कहा) विभीषण राजा
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
52
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
एत्तिउ रुअमि दसासहो।
इतना रोता हूँ दसमुखवाले (रावण) के द्वारा
अव्यय (अ) व 1/1 अक [(दस)+ (आसहो)] [[(दस) वि-(आस)6/1] वि] (भर) भूकृ 1/1 (भुवण) 1/1 अव्यय (अयस) 6/1
भरिउ भुवणु
भर दिया गया जगत
कि
अयसहो।
अपयश से
सरीरें
2. एण
(ण→णेण→एण) 3/1 सवि (प्रा.) (सरीर) 3/1
शरीर के द्वारा अविरणय-याणे [(अविणय)-(थाण) 3/1] वि]
दोष के घर दिद-गटू-जल-विन्दु-समाणे [(दिट्ट) भूक अनि-(णट्ठ) भूक अनि-(जल)- देखा गया, नाश को प्राप्त, (विन्दु)-(समारण) 3/1]
जल-बिन्दु के समान
3. सुरचावण
अथिर-सहाय तडि-फुरणेण
[(सुर)-(चाव) 3/1] अव्यय [[(अथिर) वि-(सहाव) 3/1] वि] [(तडि)-(फुरण) 3/1] अव्यय [(तक्खण)-(भावें)] तक्खण=अव्यय (भाव) 3/1
इन्द्र धनुष के समान अस्थिर-स्वभाववाले बिजली की चमक के समान
तक्खण-भावें
शोध (परिवर्तनशील) अवस्था होने से
4. रम्मा-गम्भेण
{(रम्भा)-(गम्भ) 3/1]
णीसारें पक्व-फलेण
अव्यय (णीसार) 3/1 वि [(पक्व) वि-(फल) 3/1] अव्यय [(सउण)+(आहारें)] [(सउण)-(आहार)3/1 वि]
केले के पेड़ के भीतर (के भाग) के . समान साररहित पके फल के समान पक्षियों के (प्रिय) भोजन
सउणाहारें
11. तउ
तप
नहीं
(तअ) i/1 अव्यय (चिण्ण) भूकृ 1/1 अनि [(मण)-(तुरअ) 1/I]
चिण्णु मरण-तुरज
किया गया मनरूपी घोड़ा
1 कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)। 2. तुल्य (समान) का अर्थ बतानेवाले शब्दों के साथ तृतीया या षष्ठी विभक्ति होती है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 53
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________________
खञ्चित मोक्खु
अव्यय (खञ्च) भूक 1/1 (मोक्ख) 1/1 अव्यय (साह) भूकृ 1/1 (णाह) 1/1 अव्यय (अञ्च) भूकृ 1/1
नहीं वश में किया गया मोक्ष नहीं साधा गया परमेश्वर नहीं पूजा गया
साहिउ णाहु ग अञ्चित
12. वउ
धरिउ मह
नहीं धारण किया गया विनाश
यह
किउ रिणवारिउ अप्पउ किउ तिरण-समउ णिरारिउ
(वअ) 1/1 अव्यय (धर) भूकृ 1/1 (मह) 1/1 (इम) 1/1 सवि (कि) भूकृ 1/1 (णिवार) भूकृ 1/1 (अप्पअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (कि) भूकृ 1/1 [(तिरण)-(समअ)1/1 वि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय
किया गया रोका हुआ अपना बनाया गया तिनके के समान निश्चय ही
54
- अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-5
पउमचरिउ
सन्धि-83
83.2
9.
एत्तडउ
इतना
दोसु
दोष
पर रहुवइ
किन्तु रघुपति
कि
परमेसरि
परमेश्वरी
साहिं
घरे
(एत्त+अडअ) 1/1 वि (दोस) 1/I अव्यय (रहुवइ) 8/1 अव्यय अव्यय (परमेसरी) 1/1 • अव्यय (घर)7/1 अव्यय (पमाय) विधि 2/1 अक (लोय) 6/2 (छन्द) 3/1 (आण+एवि) संकृ (का) 1/1 सवि (परिक्खा ) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक
नहीं घर में नहीं भटके
पमाहि लोयहँ छन्देरण आणेवि कावि परिक्ख करे
लोगों के छल से जानकर, समझकर कोई भी परीक्षा करें
83.3
1.
तं णिसुणेवि चवड रहुरगन्वणु जाणमि सोयहे तरराउ सइत्तणु
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संकृ (चव) व 3/1 सक (रहुणन्दण) 1/1 (जाण) व 1/1 सक (सीया) 6/1 अव्यय (सइत्तण) 2/1
उसको सुनकर कहता है (कहा) रघुनन्दन जानता हूँ सीता के सम्बन्धक परस्र्ष सतीत्त्व को
2. जागमि
जिह
(जाण) व 1/1 सक अव्यय
जानता हूँ जिस प्रकार
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
55
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--------------------------------------------------------------------------
________________
हरिवंसुप्पण्णी
हरिवंश में उत्पन्न हुई
जाणमि
[(हरि)+ (वंस)+ (उप्पण्णी )] [(हरि)-(वंस)-(उप्पण्ण- (स्त्री) उप्पण्णी) भूक 1/। अनि] (जाण) व 1/] सक अव्यय [ (वय)-(गुण)-(संपण्ण→ (स्त्री) संपण्णी) भूक 1/1 अनि]
जिह
जानता हूँ . जिस प्रकार व्रत और गुण से युक्त
वय-गुरण-संपण्णी
3. जामि
जिह
जिरण-सासणे भत्ती जागमि
(जाग) व 1/1 सक अव्यय [(जिण)-(सासरण) 7/1] (भत्ति) 1/1 (जाण) व 1/1 सक अव्यय (अम्ह) 4/1 स [ (सोक्ख) + (उप्पत्ती) ] [ (सोक्ख) - (उप्पत्ति) 2/1 ]
जानता हूँ जिस प्रकार जिनशासन में भक्ति जानता हूँ जिस प्रकार मेरे लिए सुख की उत्पत्ति को
जिह
महु सोक्खुप्पत्ती
4.
जा
(जा) 1/1 सवि अणुगुणसिक्खावयधारी [(अणु)-(गुण)-(सिक्खा)-(वय)
(धार→(स्त्री) धारी) 1/1 वि] जा
(जा) 1/1 सवि सम्मत्तरयणमणिसारी [(सम्मत)-(रयण)-(मणि)
(सार→(स्त्री) सारी) 1/1 वि]
अणुव्रत, गुणवत व शिक्षाव्रतों को धारण करनेवाली जो सम्यक्त्वरूपीरत्नों और मरिणयों का सार (निचोड़)
5. जारणमि
जिह सायर-गम्भीरी जारणमि जिह सुरमहिहर-धोरी
(जाग) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार [(सायर)-(गम्भीर→(स्त्री)गम्भीरी)2/1 वि] सागर के समान गम्भीर को (जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार [(सुर)-(महिहर) - (धीर→(स्त्री) धीरी) मेरु (देवताओं के) पर्वत के 2/1 वि
समान धैर्यवाली को
6. जारणमि
अंकुस-लवरण-जणेरी
जाणमि
(जाण) व 1/1 सक
जानता हूं [(अंकुस)-(लवण)-(जणेर→(स्त्री) जणेरी) अंकुश और लवरण को माता 2/1 वि ] (जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार (सुया) 2/1
पुत्री को (जरणय) 6/1
जनक की
जिह
सुय जरण्यहो
56
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
केरो
7. जारणमि
सस
भामण्डलराय हो
जाणमि
सामिरिम
रज्ज हो
आय हो
8. जाणमि
जिह
श्रन्तेउर-सारी
जार मि
जिह
महु पेसण-गारी
9. मेल्लेप्पिनु गायर लोएप
महु
घरे
उब्भा
करेवि
कर
जो
दुज्जसु
उप्परे
घित्तउ
एउ
रण
जाणहो
एक्कु
पर
1. तहिं अवसरे रयणास जाएं
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
अव्यय
(जाण) व 1 / 1सक (ar) 2/1
J. ( मामण्डल ) - (राय) 6/11
(जाण) व 1 / 1
क
( सामिणी ) 2 / 1
( रज्ज) 6/1 (आय) 6 / 1 वि
( जबग) व 1 / 1 सक
अव्यय
[ ( अन्तेउर) - ( सार (स्त्री) सारी) 1 / 1 वि ] (जार) व 1 / 1 सक
अव्यय
( अम्ह) 4 / 1 स
I (पेण) - (गार (स्त्री) गारी ) 1 / I वि]
→
(मेल्ल + एप्पिणु) संकृ
[ ( गायर ) - (लोअ ) 3 / 11
( अम्ह) 4 / 1 स
(घर) 7/1
( उब्भ) 2 / 2 वि (कर + एवि ) संकृ
(कर) 212
(ज) 1 / 1 सवि
( दुज्जस ) 1/1
अव्यय
(चित्त) भूकृ 1 / 1 अनि
(अ) 1 / 1 सवि
अव्यय
(जाण) 4/1 (एक्क) 1/1 वि
अव्यय
83.4
(त) 7/1 स ( अवसर ) 7/1
[ ( रयणासव ) - ( जाअ ) भूकृ 3 / 1 अनि ]
सम्बन्ध सूचक परसर्ग
जानता हूँ
बहन को भामण्डल राजा की
जानता हूँ
स्वामिनी को
राज्य की
इस ( को )
जानता हूँ
जिस प्रकार
अन्तःपुर में श्र ेष्ठ
जानता हूँ जिस प्रकार
मेरे लिए
आज्ञा (पालन) करनेवाली
मिलकर
नगर के लोगों द्वारा
मेरे लिए
घर में
ऊँचे
करके
हाथों को
जो
अपयश
ऊपर
डाला गया
यह
नहीं
समझने (जानने के लिए
एक
किन्तु
उस ( पर)
अवसर पर
रत्नाश्रव के पुत्र (द्वारा)
[ 57
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोक्किय तियड विहिसरग-राएं
(कोक-→कोक्किया) भूकृ 1/1 (तियडा) 1/1 [ (विहीसरण)-(राअ) 3/1]
बुलायी गई विजटा विभीषण राजा के द्वारा
2. बोल्लाविय
बुलवाई गयी यहाँ पर
एत्तहे
वि
तुरन्तें
[(बोल्ल+आवि) प्रे. भूक 1/1] अव्यय अव्यय क्रिविअ (लंकासुन्दरी) 1/1 अव्यय (हणुवन्त) 3/1
लङ्कासुन्दरि तो हणुवन्तें
तुरन्त लंकासुन्दरी तब हनुमान के द्वारा
3. विरिण
दोनों
वि
विण्णवन्ति पणमन्तिउ सीय-सइत्तण गव्यु वहन्तित
(विष्ण→विण्णी) 1/1 वि अव्यय (विण्णव) व 3/2 सक (परणम→पणमन्त→पणमन्ती)बकृ 1/2 [(सीया)-(सइत्तण) 6/1] (गब्ब) 2/1 (वह→वहन्त→वहन्ती) वकृ 1/2
कहती हैं प्रणाम करती हुई सीता के सतीत्व के गर्व को धारण करती हुई
4.
देव देव जई हुप्रवह डाइ जइ मारुउ पड-पोट्रले वज्झइ
(देव) 8/1 अव्यय (हुअवह) 1/1 (डज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि अव्यय (मारुअ) 1/1 [(पड)-(पोट्टल) 7/1] (वज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि
यदि अग्नि जलाई जाती है यदि
हवा
कपड़े को पोटली में बांधी जाती है
5.
पायाले गहङ्गणु
लोट्टइ
अव्यय
यदि (पायाल) 7/1
पाताल में [(णह+अङ्गणु)] [(णह)- (अङ्गण) 1/1] (लोट्ट) व 3/1 अक
लोटता है [(काल)+ (अन्तरेण)][(काल)-(अन्तर)3/1] समय बीतने से (काल) 1/1
काल अव्यय
यदि (रिणटु→तिट्ट) व 3/1 अक
नष्ट होता है
कालान्तरेण कालु जइ तिद्वइ
यदि
अव्यय (उप्पज्ज) व 3/1 अक
उप्पज्जइ
उत्पन्न होता है
58 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
8.
सरण
कियन्तहो
जइ
7. जइ
9.
गासइ
सासणु अरहन्तहो
श्रवरें
उग्गमइ
faaree
मेरु- सिहरे
जइ
णिवसइ
सायरु
एउ
असे
वि
सम्भाविज्जइ
सीयहे
सोलु
रण
पुणु
मइलिज्जइ
जह
एव
वि
पड
पत्तिज्जहि
तो
परमेसर
एउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( मरण) 1 / 1 (faua) 6/1
अव्यय
( गास ) व 3 / 1 अक
( सारण ) 1/1
( अरहन्त ) 6 / 1
अव्यय
( अवर ) 3 / 11
( उग्गम ) व 3 / 1 अक
( दिवायर) 1 / 1
[ ( मेरु) - ( सिहर ) 7 / 1]
अव्यय
( रिणवस ) व 3 / 1 अक
( सायर) 1/1
(अ) 1 / 1 सवि (असेस) 1/1 वि
अव्यय
( सम्भ + आव (प्रे ) सम्भाव सम्भाविज्ज) प्रे. व कर्म 3 / 1 सक
( सीया ) 6/1
(सील) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
( मइल ) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
( पति + ज्ज 2 ) व 2 / 1 सक
अव्यय
( परमेसर ) 8/1
(अ) 2/1 स
मरण
यमराज का
यदि
नष्ट होता है
शासन
श्ररहन्त का
यदि
पश्चिम दिशा में
उगता है
सूर्य
पर्वत के शिखर पर
यदि
रहता है
सागर
यह
सब
हो
संभावना कराई जा सकती है
सीतां का
शील, आचरण
नहीं
किन्तु
मलिन किया जाता ( सकता है
यदि
इस प्रकार
भी
1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) I
2. 'ज्ञ' पादपूरक है ।
नहीं
विश्वास होता है
तो
हे परमेश्वर
इसको (यह )
1 59
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
करे तुल-चाउल-विस-जलजलणहं पञ्चह एक्कु
(कर) विधि 2/1 सक [(तुल)-(चाउल)-(विस)-(जल)-(जलण) तिल, चावल, विष, जल, 6/2]
अग्नि में से (पञ्च) 6/2 वि
पांचों में से . (एक्क) 2/1 वि अव्यय (दिव्व) 2/1 वि
आरोप की शुद्धि के लिए को.
जानेवाली परीक्षा को (धर) विधि 2/1 सक
धारण करें
दिषु
83.5
1.
तं णिसुणेवि रहवई परिओसिउ एव
(त) 2/I सवि (गिसुण+एवि) संकृ (रहुवइ) 1/1 (परिओस ) भूकृ 1 अव्यय (हो) विधि 3/1 अक (हक्कारअ) 1/1 (पेस ->पेसिअ) भूकृ 1/
उसको सुनकर रघुपति (राम) संतुष्ट हुए इसी प्रकार
होउ
होवे
हक्कार पेसिउ
हरकारा (खुलानेवाला) भेजा गया
9.
चढ़ें
चडु पुप्फ-विमाणे भडारिए मिलु पुत्तह! पइ-देवरहें। सहुँ
(चड) विधि 2/1 सक
(पुष्फ)-(विमाण) 7/1] (भडारिआ) 8/1 अनि (मिल) विधि 2/1 सक (पुत्त) 6/2 [(पइ)-(देवर) 6/23 अव्यय (अच्छ) 43/2 अक (मज्झ)7/1 (परिट्टिय) भूक 1/1 अनि (पिहिमि)1/1 अव्यय [(चउ)-(सायर) 6/2]
पुष्पक विमान पर हे पूजनीया मिलो पुत्रों का (पुत्रों को) पति और देवरों को साथ रहती है मध्य में स्थित पृथ्वी जिस प्रकार चारों सागरों के
अच्छहिँ
मज्झे परिट्रिय पिहिमि
चउ-सायरहें
1 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण
3-134)।
2. यहाँ बहुवचन का एकवचन के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
60
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
तं
णिसुरवि
लवरगंकुस - मायए
वुत्तु
विहीणु
गग्गिरवायए
2 गिट्ठर - हियय हो अ-लय-णामहो
जाणमि
तत्ति
ण
किज्जइ
रामहो
3. घल्लिय
जेण
6. जहिं
माणुसु
जीवन्तु
वि
लुच्चइ
विहि
कलिकालु
वि
पाहुँ
मुच्चइ
रुवन्ति
(रुव रुवन्त
(स्त्री) रुवन्ती) व 1 / 1
वणन्तरे
[ ( वण) + (अन्तरे ) ] [ ( वण) - ( अन्तर) 7/1] डाइणि रक्खस- भूय- भयङ्करे [ (डाइगि) - ( रक्खस ) - ( भूय ) - ( भयङ्कर) 7/1 fa]
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
(त) 2 / 1 सवि
(रिसुण + एवि ) संकृ
[ ( लवण) + (अंकुस) + (मायए)]
[ ( लवण ) - ( अंकुस ) - (माया) 3 / 1] (वृत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
( विहीण ) 1 / 1
[ ( गग्गर) - (वाया) 3 / 11
83.6
[(मिट्ठर) वि- (हियय ) 6 / 1]
[ (अ) + ( लइ) + (अ) + ( गामहो ) ]
[ ( अ - लइय) - (ग्राम) 6 / 1]
(जाण) व 1 / 1 सक
(afa) 1/1
अव्यय
( कि) व कर्म 3 / 1 सक (राम) 6/1
( घल्ल) भूकृ 1 / 1
(ज) 3 / 1 स
अव्यय
( माणुस ) 1 / 1
(जीव ) बकु 1 / 1
अव्यय
( लुच्चइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि (fafa) 1/1
[ ( कलि ) (दे ) - ( काल ) 1 / 1]
अव्यय
(पारण) 5/2
( मुच्चइ ) व कर्म 3 / 1सक अनि
(त) 7 / 1 सवि
उसको
सुनकर
लवण और अंकुश को माता
के द्वारा
कहा गया विभीषण
भरी हुई वाणी से
निष्ठुर हृदय के
नाम को मत लो
जानती हूँ तृप्ति (संतोष )
नहीं
की जाती है (की गई )
राम के
डाली गई जिनके द्वारा
रोती हुई
वन के अन्दर में
डाकिनियों, राक्षसों, भूतोंवाले डरावने (वन) में
जहाँ पर
मनुष्य जीता हुआ
भो
7. तहिं
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
काटा जाता है
विधि ( विधाता )
कालरूपी शत्रु
भो
प्रारणों से
छुटकारा पा जाता है
उस (में)
[ 61
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
वणे चल्लाविय अण्णाणे एवहिं
(वण) 7/1 [(घल्ल)+ (आवि) प्रे भूकृ 1/1] (अण्णाण) 3/1 अव्यय (क) 1/1 सवि (त) 4/1 स अव्यय (विमाण) 3/1
वन में डलवा दी गई अजान से अब क्या उसके लिए संप्रदानार्थक परसर्ग विमान से
तहो तणे विमाणे
8.
जो
जो
तेण
डाहु
उप्पाइयउ पिसुणालाव-भरीसिएग
सो
(ज) 1/1 सवि (त) 3/1 स
उसके द्वारा (डाह) 1/1
ईर्ष्या (उप्पाअ→उप्पाइयअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वाथिक उत्पन्न की गई
(पिसुरण)+ (आलाव)+(भर)+(ईसिएण)] चुगलखोरों के ईर्ष्या से भरे [(पिसुरण)-(आलाव)-(भर)वि-(ईसिअ)3/1] हुए पालाप से (त) 1/1 सवि क्रिवि
कठिनाई से [(उल्हा→उल्हाव-→उल्हाविज्ज) प्रे व कर्म शान्त किया जाता है 3/1 सक] [(मेह)-(सअ) 3/1]
सैंकड़ों मेहों से अव्यय (वरिस) 3/1 'इअ' स्वार्थिक
बरसने से (द्वारा)
वह
दुक्करु उल्हाविज्जइ
मेह-सएण
वि
वरिसिएण
83.8
7. सोय
भीय सइत्तण-गवें वलेवि पवोल्लिय मच्छर-गन्वें
(सीया) 11 अव्यय (भीय) भूकृ 1/1 अनि [ (सइत्तण)-(गव्व) 3/1] (वल+एवि) संक (प-वोल्ल) भूकृ 1/1 [(मच्छर)-(गव्व) 3/1]
सीता नहीं डरी सतीत्व के गर्व के कारण मुड़कर कहा गया ईया और गर्व से
पुरुष
तुच्छ
8. पुरिस
रिणहीण होन्ति गणवन्त वि
(पुरिस) 1/2 (णिहीण) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (गुणवन्त) 1/2 वि अव्यय
गुरगवान चाहे
62 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
तियहे।
स्त्री के द्वारा
पत्तिज्जन्ति मरन्त वि
(तिया) 6/1 (ण) 1/2 सवि (प्रा) (पत्ति→पत्तिज्ज) व कर्म 3/2 सक (मर-→मरन्त→(स्त्री)मरन्ता) वकृ 1/1 अव्यय
विश्वास किये जाते हैं मरती हुई
चाहे
9.
खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहे
पउराणियहे कुलुग्णयहे रयणायरु खारई देन्तउ तो वि ण थक्का णम्मयहे
(खड) 2/1
घास-फूस को (लक्कड) 2/1
लकड़ी को (सलिल) 1/1
पानी (वह→वहन्त→(स्त्री) वहन्ति→वहन्तिय) ले जाती हुई वक 6/1 'अ' स्वार्थिक (पउराण→पउराणिय) 6/1 वि 'य' स्वार्थिक प्राचीन (का)
(कुल)+(उग्गयहे)][(कुल)-(उग्गया)6/1 वि] पवित्र (का) (रयणायर) 1/1
समुद्र (खार) 2/2
खार को (दा→देन्त-→देन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक देता हुआ अव्यय
तो भी अव्यय (थक्क) व 3/1 अक
थकता है (णम्मया) 6/1
नर्मदा का
नहीं
83.9
साणु
कुत्ता
केण वि जणेण गणिज्जइ गङ्गा-णइहिं
(साण) 1/1 अव्यय (क) 3/1 स अव्यय (जण) 3/1 (गण) व कर्म 3/1 सक [ (गङ्गा)-(णइ) 7/1] (त) 1/1 स अव्यय (पहा) प्रे व कर्म 3/1 सक
नहीं किसी के द्वारा भी जन के द्वारा आदर किया जाता है गंगा नदी में वह
पहाइज्जइ
नहलाया जाय
2. ससि
स-कलंकु
(ससि) 1/1 (रा-कलंक) 1/1
चन्द्रमा कलंक-सहित
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण
3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
63
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तहिा
जि
णिम्मल कालउ
(त) 6/ स अव्यय (पहा) 1/1 (णिम्मला) 1/1 वि (कालअ) 1/1 वि 'अ' स्वाधिक (मेह) 1/1 (त) 6/1 स अव्यय (तडि) 1/1 (उज्जल) 1/1 वि
उससे पादपूरक प्रभा निर्मल काला बादल, मेघ उससे पादपूरक बिजली श्वेत/उज्ज्वल
तहि
तडि उज्जल
_ उवलु अपुज्जु
केरा वि ठिप्प
(उवल) 1/1 (अपुज्ज) 1/1वि अव्यय (क):/1 स अव्यय (छिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि (त) 6/1 स अव्यय (पडिमा) 1/1 (चन्दण) 3/1 (विलिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि
पत्थर अपूज्य नहीं किसी के द्वारा भी छुआ जाता है उससे
तहि।
जि पडिम चन्दगण विलिप्पड़
प्रतिमा चन्दन से लोपी जाती है
धुज्जइ पाउ
पंकु जइ
लग्गइ कमलमाल पुणु जिणहो वलग्गइ
(धुज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (पाअ) 1/1 (पङ्क) 1/1 अव्यय (लग्ग) व 3/1 अक [(कमल)-(माला) 1/1] अव्यय (जिण) 6/1 (बलगमा) व 3/1 अक
धोया जाता पाँव कीचड़ यदि लगता है कमल को माला किन्तु जिनेन्द्र के चढती है
दीवउ होइ सहावे काल
(दीवअ) 1/1 (हो) व 3/1 अक (सहाव) 3/1 (कालअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
दीपक होता है स्वभाव से काला
1. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर किया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
641
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
बट्टि - सिहए मण्डिज्जइ
अम्लउ
6. पर खारिहिं
एवड्डुउ
अन्तरु
मरखे
वि
वेल्लि
7.
ण
मेल्लइ
तरुवरु
एह
पई
कवण
वोल्ल
पारंभिय
सइ-वडाय
मई
अज्जु
समुब्भिय
8. तुहुँ
पेक्खन्तु
अच्छु
चोसत्यक
डह
जलण
जइ
डहेवि
समत्थउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
I(af)-(fre) 3/1] (मण्ड ) व कर्म 3 / 1 सक (आलअ) 1 / 1
[ ( णर) - (णारी) 7/21
( एवड्डु + अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( अन्तर ) 1 / 1 वि
( मरण) 7/1
अव्यय
(afees) 1/1
अव्यय
(मेल्ल) व 3 / 1 सक
( तरुवर ) 2/1
( एता ) 1 / 1 सवि
( तुम्ह ) 3 / 1 ख
(कवण) 4 / 1 स
(ator) 1/1
( पारम्भ पारम्भिया ) भूकृ 1 / 1
[ (सइ) - ( बडाया) 1 / 1]
( अम्ह ) 3 / 1 स
अव्यय
( समुब्भ समृभिया) भूकृ 1 / 1
( तुम्ह ) 1/1 स
( पेक्ख
पेक्खन्त) वकृ 1 / 1
(अच्छ) 1/1 (दे)
(वीसत्थ - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(डह) विधि 3 / 1 अक्क
( जलण ) 1/1
अव्यय
(डह + एवि ) हे
( समत्यअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
बत्ती ( after ) की शिखा से सुशोभित किया जाता है
घर, श्राखय
नर और नारी में
इतना
अन्तर
मरने पर
भी
बेल
नहीं
छोड़ती है
वृक्ष को
ये
तुम्हारे द्वारा किसलिए
बोल
आरम्भ किया गया
सतीत्व की पताका
मेरे द्वारा
आज
भली प्रकार से ऊँची की गई
follo
तुम देखते हुए
अत्यन्त
विश्वासयुक्त जलाबे
यदि जलाने के लिए
समर्थ
[ 65
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-6
महापुराण
सन्धि-16
16.3
13. थिउ
चक्कु
ठहर गया चक्र
नहीं
पुरवरि
पइसरह
गाव
केरण
वि धरियउ ससिबिबु
(थिअ) भूकृ I/1 अनि (चक्क ) 1/I अव्यय (पुरवर) 7/1 (पइसर) व 3/1 सक अव्यय (क)3/1 स अव्यय (धर→धरियअ) भूकृ 1/I 'अ' स्वाथिक [(ससि)-(बिंब) 1/1] अव्यय (मह) 7/1 (तारायण) 3/2 (सुरवर) 3/2 (परियर→परियरिय) भूकृ 1/I 'अ' स्वा.
श्रेष्ठ नगर में प्रवेश करता है (किया) मानो किसी के द्वारा पादपूरक पकड़ लिया गया चन्द्रमण्डल मानो आकाश में तारागणों द्वारा श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया
णहि तारायणहि सुरवरेहि परियरियउ
16.4
1.
ता भरिणय रिगराइरणा रूढराइरणा चंडवाउवयं
कि
अव्यय
तब (भण→मणिय) भूकृ 1/1
कहा गया (रिणराइ) 3/1 वि
निर्भय (के द्वारा) [(रूढ) वि-(राअ) 3/1]
प्रसिद्ध राजा के द्वारा [[(चंड)-(वाउ)-(वेय) 1/1]वि] प्रचण्ड वायु के वेगवाला अव्यय
क्यों [(थिय)+ (इह)] (थिय) भूकृ 1/1 अनि ठहरा, इह =अव्यय
यहां (रहंग-य) 1/1 'य' स्वार्थिक
चक्र [(णिच्चल)+ (अंगयं)]
दढ़ अंगवाला (णिच्चल) वि-(अंगय) 1/1 'य' स्वा.] वि]
थियमिह
रहंगर्य णिच्चलंगयं
1. निराधि→निराहि→निराइ→णिराइ ।
66 ]
[ अपभ्रंश काव्य सोरम
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
तरुणतर रिणतेयं
2. तं
णिसुणेपिण
भणइ
पुरोहिउ
जेणेयहू
गइप सरु
गिरोहिउ
3. अक्खमि
तं
सुहि
परमेसर
देवदेव
दुज्जय
भर हे सर
4. सुयज्य बल पडिबलविवाहं [[ ( मुय ) - ( जुय) वि - (बल) - (१ डिबल) - (fa-am) 6/2] fa]
5. तेओहा मियचंद दिणेसहं
नगरपदिम हिलच्छ
पयभर थिरमहियलकं पवनहं [ ( पय) - ( भर ) - (थिर) - ( महियल ) - ( कंपवण ) 6 / 2 वि
को
पडिमल्लु
एत्यु
तुह भायहं
7. सेव
[[ (तरुण) - ( तरणि) - (तेय) 1 / 1] वि ]
(त) 2/1 स
( णिसुण + एप्पिणु) संकृ
( भण) व 3 / 1 सक
( पुरोहिअ ) 1 / 1
अप त्रंश काव्य सौरभ
[ ( जेण) + ( इयहु ) ] जेण (ज) 3 / 1 स
इहु ( इम इअ इय) 6/1 स
[ ( गइ) - ( पसर) 1 / 1]
( पिरोहिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( अक्ख) व 1 / 1 सक
(त) 2 / 1 स
( णिसुण) विधि 2 / 1 सक
( परमेसर ) 8/1
[ (देव) - (देव) 8 / 1 ] ( दुज्जय) 8 / 1 वि ( भरहेसर ) 8 / 1
]
(क) 1 / 1 सवि
( पडिमल्ल) 1 / 1 वि
युवा सूर्य के तेजवाला
उसको
सुनकर
कहता है ( कहा ) पुरोहित
जिस कारण से,
इसकी
गति का प्रवाह
रोका गया
6. कित्तिसत्तिजणमेत्तिसहायहं [ ( कित्ति ) - ( सत्ति ) - ( जण ) - (मेति ) - ( सहाय) कीर्ति, शक्ति, जनता से
4/2]
मित्रता, सहायता के लिए
कौन
अव्यय
( तुम्ह ) 6 / 1 स (माय) 4/2
( सेवा ) 2 / 1
बताता हूँ
उसको
]
तेज, तिरस्कृत, चाँद, सूर्य का
[ ( तेअ) + (ओह मिय) + (चंद) + ( दिणेसह ) [ ( तेअ) - (ओहामिय) (दे) वि- (चंद) - (दिशेस ) 6/21 [ ( जणण ) - (दिण्ण) भूक अनि - (महि) - विलासहं ( लच्छि ) - ( विलास ) 4 / 2 ]
सुनो ( सुनें)
हे परमेश्वर
हे देवों के देव
दुर्जेय
हे भरतेश्वर
भुजात्रों के जोड़ा (दोनों), बल से, शत्रु को सेना का दमन करनेवाले
पैरों के भार से, स्थिर,
पृथ्वीतल को, कंपाने वाले
पिता के द्वारा दी गई, पृथ्वी
( रूपी) लक्ष्मी, मनोविनोद के लिए
जोड़वाला (प्रतिद्वन्द्वरे )
यहाँ
तुम्हारे
भाइयों का
सेवा
[ 67
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
करंति
可
गृहमाईव
नउ
णवंति
तुह
जयराईवई
8. देति
रण
करभरू
केसरिकंधर
पर
मुहिय
इ
मुंजंति
वसुंधर
9. श्रज्ज
कि
ते
सिज्यंति
གླ ཝཱ མ སྠཽ ཤྲཱ ཤྲཱ ཚ༷ སྠཽ ཕ
जि
पइसड़
म
1. ता
विगया
बहुवरा
68 ]
(कर) व 3/2 सक
अव्यय
[ (ह) + (मा) + (अईवई ) ]
[(णह) - (भा) - (अईव ) 2 / 2 ]
अव्यय
(णव) व 3 / 2 सक
( तुम्ह ) 6/1
[ ( पय) - (राईव ) 2/23
(दा) व 3/2 सक
अव्यय
[ ( कर) - (मर) 2 / 1]
[[ ( केसरि ) - (कंधर) 1 / 11 वि
अव्यय
( मुहिय ) 6 / 1 (दे )
अव्यय
(मुंज) व 3/2 सक
( वसुंधरा ) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(त) 1/2 स
(सिज्झ ) व 3 / 2 सक
अव्यय
(ज) 3 / 1 स
अव्यय
( पइस) व 3 / 1 सक
( पट्टण ) 7/1
( चक्क ) 1 / 1
अव्यय
(त) 3 / 1 स
अव्यय
16.7
अव्यय.
( विगय) मूकृ 1 / 1 अनि
( बहुयर ) 1 / 1
करते हैं
नहीं
नखवाले, कान्ति से,
अत्यधिक
नहीं
प्रणाम करते हैं
तुम्हारे
चरण (रूपी) कमलों को
देते हैं
नहीं
कर की राशि
सिंह के समान गर्दनवाले
किन्तु
बिना मूल्य के
ही
भोगते हैं
पृथ्वी को
श्राज
भो
वे
जीते जाते हैं
नहीं
जिस कारण से
ही
प्रवेश करता है
नगर में
चक्र
नहीं
उस कारण से
ही
तब
गया
दूत
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
जरामरणोहरा रिवकुमार वासं दुमदलललियतोरणं
रसियवारणं
छिरणभूमिदेसं
2. तेहि
4.
भणिय
ते
विणउ
करेणु
सामिसाल गुरुह
परवेपणु
3. सुरणरविसहरमय
इं
जणेरी
करहु
केर
पररगाहह
फेरी
पण वहु
कि
बहुए
पलावें
पुहइ
प
लग्भइ
मिच्छागावें
5. तं
सुवि कुमारगणु
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ ( जरण ) - (मणोहर) 1 / 1 वि]
मनुष्यों के मन को हरनेवाला राजपुत्रों के घर
[ ( णिव) - (कुमार) - (वास) 2 / 1] [[ (दुम) - ( दल) - (ललिय ) - ( तोरण ) 2 / 1 ] वि] वृक्ष समूह से ( निर्मित) सुन्दर तोरणवाला
[[ ( रसिया ) - ( वारण) 2 / 1 ] वि ]
घोड़े और हाथीवाला
[ [ ( छिपण) भूकृ अनि - ( भूमि ) - ( देस) 2 / I ] वि] बाँटी हुई जमीन के भागवाला
(त) 3/2 स
(भण भणिय) भूकृ 1/2 (a) 1/2 afa
(farmer) 2/1
( कर + एप्पिणु) संकृ
[ ( सामि ) - ( साल ) - ( तणुरुह ) 2 / 2 वि ]
( पणव + एप्पिणु) संकृ
[ ( सुर ) - (गर) - (विसहर 1 ) - (भय) 2 / 1 ]
अव्यय
(जणेर (स्त्री) जणेरी) 2 / 1 वि
(कर) विधि 2 / 1 सक
परसर्ग
[ ( णर) - ( णाह ) 6 / 1]
(केर
(त) 2 / 1 स
(रिसुरण + एवि ) संकृ
[ (कुमार) - ( गण ) 1 / 1]
1. विसहर = वृषधर = धर्म धारण करनेवाला = धार्मिक |
(स्त्री) केरी) 2 / 1 (दे)
( पणव) विधि 2 / 1 सक
(क) 1 / 1 सवि
( बहुअ ) 3 / 1 वि
( पलाव ) 3 / 1
( पुहई) 1 / 1
अव्यय
( लब्भइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
[ (मिच्छा) वि- (गाव) 3 / 1 ]
उनके ( उसके ) द्वारा
कहे गये
वे
विनय
करके
स्वामी, श्रेष्ठ, पुत्रों को
( सन्तान को )
प्रणाम करके
देवता, मनुष्य, धार्मिक
(जन में ) भय को
निश्चय ही
उत्पन्न करनेवाली
करो
सम्बन्धवाचक
नरनाथ की
सेवा
प्रणाम करो
क्या
बहुत
प्रलाप से
पृथ्वी
नहीं
प्राप्त की जाती है
मिथ्या गर्व से
उसको
सुनकर
कुमारगरण
| 69
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--------------------------------------------------------------------------
________________
घोसइ
तो
परणवहुं
नइ
वाहि
8.
रण
दोसs
6. तो
पणवहु
जइ
सुसुइ
कलेवरु
तो
पण वहुं
जइ
जोविउ
सुंदरु
7. तो
ལྦ ཤྲཱ ལ༹ྷཱ བྷྲ ཟྭ གཽ ཝ མཱ – སྠཽ ཝ
परवहु
नरइ
रंग
झिज्जइ
जो
पणवहुं
पुट्ठ
प
भज्जइ
तो
परवहु
जइ
बलु
मोहट्टइ
तो
70 ]
(घोस ) व 3 / 1 सक
अव्यय
( पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
( वाहि) 1/1
अव्यय
( दीसइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
अव्यय
( परणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
( सु-सुइ) 1 / 1 वि
( कलेवर ) 1 / 1
अव्यय
( परणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(offerer) 1/1 (सुंदर) 1 / 1 वि
अव्यय
(पणव) व 1/2 सक
अव्यय
(जर) व 3 / 1 अक
अव्यय
( झिज्ज) व 3 / 1 अक
अव्यय
( पणव) व 1/2 सक
अव्यय
(gfg) 2/1
अव्यय
( मज्ज) व 3 / 1 सक
अव्यय
(पणव) व 1/2 सक
अव्यय
(बल) 1/1
[ ( ग ) + (ओहट्टाइ ) ] ण अव्यय
( ओहट्ट ) व 3 / 1 अक
अव्यय
कहता है ( कहा )
तब
प्रणाम करते हैं
यदि
व्याधि
नहीं
देखी जाती है।
तब (तो)
प्रणाम करते हैं
यदि
अत्यन्त पवित्र
शरीर
तब (तो)
प्रणाम करते हैं
यदि
जीवन
सुन्दर
तब (तो)
प्रणाम करते हैं
जो
जीर्ण होता है
न
क्षीण होता है
तो
प्रणाम करते हैं
यदि
पीठ
नहीं
भंग करता है
तो
प्रणाम करते हैं
यदि
बल
नहीं,
कम होता है
तो
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
पणवहुं
जइ
(पणव) व 1/2 सक अव्यय (सुइ) 1/1 अव्यय (विहट्ट) व 3/1 अक
प्रणाम करते हैं यदि पवित्रता नहीं नष्ट होती है
विहट्ट
तो
9. तो
पणवहुं जइ
प्रणाम करते हैं
यदि
मयण
ग
अव्यय (पणव) व 1/2 सक अव्यय (मयण) 1/1 अव्यय (तुट्ट) व 3/1 अक अव्यय (पणव) व 1/2 सक अव्यय (काल) 1/1 अव्यय (खुट्ट) व 3/1 अक
प्रेम नहीं खण्डित होता है
तो परणवहं जइ कालु
तो
प्रणाम करते हैं यदि
रण
नहीं क्षोरण होती है
10. कंठि
कयंतवासु
गले में यम का फंदा
(कंठ) 7/1 [ (कयंत)-(वास) 1/1] अव्यय (चहुट्ट) व 3/1 अक (दे) अव्यय (पणव) व 1/2 सक
नहीं
चिपकता है
तो
.
तो
प्रणाम करते हैं
परणवहुं जइ रिद्धि
अव्यय
(रिद्धि) 1/] अव्यय (तुट्ट) व 3/1 अक
यदि वैभव नहीं
घटता है
11. जइ
जम्मजरामरण हरइ चउगइदुक्खु रिणवारइ
अव्यय [(जम्म)-(जरा)-(मरण) 2/2] (हर) व 3/1 सक [(चउ) वि-(गइ)-(दुक्ख) 2/1] (रिणवार) व 3/1 सक अव्यय (पणव) व 1/2 सक (त) 4/1 सवि
यदि जन्म, जरा और मरण को(का) हरण करता है चार गति के दुःख को दूर करता है
तो
परणवहुं तासु
प्रणाम करते हैं उस (के लिए)
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
71
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--------------------------------------------------------------------------
________________
गरेसहो
राजा को (के लिए)
यदि
नई संसारकै
(णरेस) 4/1 अव्यय (संसार) 5/1 (तार) व 3/1 अक
संसार से पार लगाता है
तारइ
16.8
1. पुणरवि
तेहि गहिरयं सवणमहुरयं एरिसं पउत्तं प्राणापसरधारणे
अव्यय (त) 3/2 स (गहिर-य) 1/1 वि 'य' स्वार्थिक [(सवण)-(महुर-य) 1/1 वि] (एरिस) 1/1 वि (पउत्त) भूक 1/1 अनि [ (आरणा)-(पसर)-(धारण1) 7/1]
फिर उनके द्वारा महत्वपूर्ण सुनने में मधुर इस प्रकार कहा गया (कहे गये) आज्ञा-प्रसार के पालन करने के प्रयोजन से पृथ्वी के निमित्त से प्रणाम करना (करने के लिए)
धरणिकारणे परराविउं
[(धरणि)-(कारण) 7/1] (पणव) हेकृ अव्यय (जुत्त) भूकृ 1/1 अनि
नहीं
जुत्तं
उपयुक्त
शरीर-खण्ड को भू-खण्ड को, पृथ्वी को महत्व देकर
पिडिखंडु महिखंडु महेप्पिण किह पणविज्जइ माणु मुएप्पिणु
[(पिंडि)-(खंड) 2/1] [(महि)-(खंड) 2/1] (मह+एप्पिणु) संकृ अव्यय (पणव+ इज्ज) व कर्म 3/1 सक (माण) ./1 (मुअ + एप्पिणु) संकृ
क्यों
प्रणाम किया जाता है (जाए) आत्मसम्मान को छोड़कर
3. बक्कलणिवसणु
कंदरमंदिर वणहलभोयणु वर
[(वक्कल)-(णिवसण) 1/1] [(कंदर)-(मंदिर) 1/1] [(वण)-(हल)-(भोयण) 1/1] (वर) 1/1 वि अव्यय (सुन्दर) 1/1 वि
वृक्ष की छाल का वस्त्र गुफा में घर जंगल के फलों का भोजन श्रेष्ठ पादपूरक अच्छा
सुन्दर
4. वर
(वर) 1/1वि
श्रेष्ठ
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135) ।
72 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दालिदु
सरीरहु
दंडण
उ
पुरिसह हिमादिहंडण
5. परफ्बरयधूसर
8.
feकरसरि
असुहाfवरिष
णं
परिहरि
6. विपडिहारदंडसंघट्टण
को
विसहर
करेण
उरलोट्ट
7. को
བྲཱཝཱམཏྟཱཝ ཏྠཱཡཝཱ།
पहु श्रासण्णु
लहइ
धिट्ठत्तणु
पविरलदंसणु
हत्त
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
(दलिद्द) 171
( सरीर) 4 / 1
(दंडण ) 1/4
अव्यय
( पुरिस ) 6 / 1
( अहिरण) - (विहंडण ) 1/13
[ ( पर) वि- ( पय) - (रथ) - ( धूसर घूसरा ) 1 / 1 वि}
[ ( किंकर ) - ( सरि) 1/11
( असुहाविरणी) 1/1 वि
अव्यय
[ ( पाउस ) - (सिरिहर सिरिहरी ) 111 वि]
(क) 1 / 1 सवि
(वि- सह ) व 3 / 1 सक
(कर) 3 / 1
[ ( उर) - ( लोट्टण ) 1 / 1]
(क) 1 / 1 सवि ( जोय) व 3 / 1 सक
अच्यय
[ (भू) + (भंग) + (आलउ ) ] [ ( भू ) - (भंग) - ( आलअ ) 2 / 1]
अव्यय
[ ( णिब ) -- ( पडिहार ) - (दंड) - ( संघट्टण ) 2 / 1] राजा के द्वारपालों के डंडों कर
संघर्षर
कौन
( हरिस हरिसिअ ) भूक 1/1
अव्यय
( रोस ) 3 / 1
( काल - अ ) 1 / 1वि 'अ' स्वार्थिक
( पहु) 6 / 1
( आसण्ण) 1 / 1 वि
( लह) व 3 / 1 सक (fagam) 2/1
[[ ( प - विरल) वि- ( दसरा ) 1 / 1] वि] ( हित्त) 2 / 1
निर्धनता
शरीर के लिए
दंड देना
नहीं
व्यक्ति के
स्वाभिमान का खंडन
दूसरे के पैरों को धूल से पोले रंगवालो
सेवकरूपी नदो
असुन्दर
मानो
वर्षाऋतु को शोभा को हरने
चाली
सहता है (सहेमा )
हाथ से छाती पर महार
कौन
देखता है (देखे)
बार-बार
भौंहों की सिकुड़न का स्थान
क्या
प्रसन्न हुअर
क्या
क्रोध से
काला
राजा के
समीप
पाता है / प्राप्त होता है
ढोठता, निर्लज्जता को
बहुत थोड़ा दर्शन करनेवाला स्नेहरहितता को
[ 73
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
9. मोणें
जड़
भडु
खंतिइ
काय
श्रज्जव
बसु
पंडिय
पलाविरु
कनहसील
भष्णइ
सु
1. महरपifie
वायगारउ
केम वि
गुलि
ण
होइ सेवारज
10. मुरियादमरुयत्ते [ ( अमुरिणय ) भूकृ- (हियय ) - ( चारु) वि
(गरुयत्त ) 3 / 1 वि]
( कलहसील) 1 / 1 कि
( भण्इ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि ( सुहडत्त ) 3 / 1
1. अहवा हि
कि
हर्य
जं
समागयं
बुल्लहं
परस्तं
तं
जो
विसयविसर
घिas
परवसे
74 ]
( मोरण ) 3 / 1
' ( जड) 1 / 1 वि
(भड ) 1 / 1 वि
(खति खंतिए खंतिइ ) (स्त्री) 3 / 1 (कायर) 1 / 1 वि
( अज्जव ) 1/1
( पसु ) 6/1
( पंडियअ ) ( पलाविर)
1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
1 / 1 वि
[ ( महुर ) - ( पयंपिर) 1 / 1 वि]
( चायगारअ ) 1 / 1 त्वि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
( गुणि) 1 / 1 वि
अव्यय
(हो) व 3 / 1 अक
[ (सेवा) - (रअ) 1 / 1 वि
16.9
अव्यय
(त) 3/2 स (क) 1 / 1 सवि
( हय ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
( समागय ) भूकृ 1 / 1 अनि
( दुल्लह) 1 / 1 वि
(परत) 1 / 1
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
[ ( विसय ) - ( विस ) - (रस) 7 / 1]
(धिव) व 3 / 1 सक
[ ( पर) वि - ( वस) 7/1]
मौन के कारण
आलसी
वीर
क्षमा के कारण
कायर
सरलता
पशु का पंडित
बकवास करनेवाला
न समझे हुए, हृदय में, सुन्दर,
महान
कलहकारी
कहा जाता है योज्ञापन के कारण
मधुर बोलनेवाला खुशामदी
किसी प्रकार भो
गुणी
नहीं
होता है
सेवा में लोन
अथवा
उनसे (उससे
क्या
नष्ट किया गया
पादपूरक
प्राप्त ( श्राया हुआ)
दुर्लभ
मनुष्यत्व
तो
जो
विषयरूपी विष के रस में
डालता है
दूसरे के वश में
[
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
तस्स
उसको
(त) 6/1 स (क) 1/1 सवि (वुहत्त) 1/1
क्या
बुहत्त
विद्वत्ता
2.
कंचणकंडे जंबुड विध मोत्तियदामें मंकडु
[(कंचरण)-(कंड) 3/1] (जंबुज) 2/1 'अ' स्वार्थिक (विध) ब 3/1 सक
(मोत्तिय)-(दाम) 3/1] (मंकड) 2/1 (बंध) व 3/1 सक
सोने के तीर से सियार को
आहत करता है मोती की रस्सी से बन्दर को बाँधता है
बंध
खोलपकारणि देउल मोडइ सुत्तणिमित्तु
[(खीलय)-(कारण) 3/1] (देउल) 2/1 (मोड) व 3/1 सक 1 (सुत्त)-(रिणमित्त) 1/11 (दित्त) भूक 2/1 अवि (मरिण) 2/1 (फोड) व 3/1 सक
खम्भे के प्रयोजन ने देवमन्दिर को तोड़ता है सूत के निमित्त दीप्त मणि को कोड़ता है
दित्तु
मरिण फोड
4. कप्पूरायररुक्ल
कपूर के श्रेष्ठ चुक्ष को
रिगसुंभइ कोद्दवछेत्तहुँ चइ पारंभइ
[ (कप्पूर)+ (आयर)+ (रुक्खु)] [(कप्पूर)-(आयर2)-(रुक्ख) 2/1] (णिसुंभ) व 3/1 सक [ (कोदव)-(छेत्त) 6/1] (वइ) 2/1 (पारंभ) व 3/1 सक
नष्ट करता है कोदों के खेत की बाड़ बनाता है
5. तिलखत्यु
पय डहिवि चंदणतर
[ (तिल)-(खल) 2/11 (पय) व 3/1 सक (डह+ इवि) संक [(चंदण)-(तरु) 2/13 (विस) 2/1 (गेण्ह) व 3/1 सक (सप्प3) 6/1 (ढरेय+अवि) संकृ
तिलों की खल को पकाता है जलाकर चन्दन के वृक्ष को विष ग्रहण करता है सर्पको होकर
विसु
गण्हइ
सप्पड
ढोयदि
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 ।
2. आयर-→आकर श्रेष्ठ, संस्कृत-हिन्दी-कोश, आप्टे । 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134) ।
क्षपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
75
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर
(कर) 2/1
हाय में
पोले
काले
6. पीयई
कसणइं लोहियसुक्कई तक्के विक्कइ सो माणिक्कई
इपीय) 2/2 वि (कसण) 2/2 वि [(लोहिय) वि-(सुक्क ) 2/2 वि] (तक्क) 3/1 (विक्क) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (माणिक्क) 2/2
लाल और सफेद छाछ के प्रयोजन से बेचता है वह मारिणक्यों को
जो मगुयत्तणु भोएं णासह
(ज) 1/1 सवि (मणुयत्तण) 2/1 (भोअ) 3/1 (पास) व 3/1 सक (त) 3/1 स (समारण) 1/1 (हीण) 1/1 वि (क) 1/1 सवि (सीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि
मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से नष्ट करता है उसके समान हीन कौन कहा जाता है
समाणु
होणु
सीसह
8.
चित्त को
समत्व में
चित्तु समत्तरिण
य रिणयत्तइ
(चित्त) 2/1 (समत्तण) 7/1 अव्यय (णियत्त) व 3/1 सक (पुत्त) 2/1 (कलत्त) 2/1 (वित्त) 2/1 (सं-चित) व 3/1 सक
नहीं लगाता है पुत्र को (को) स्त्री (पत्नी) को धन की अत्यन्त चिन्ता करता है
कलस्तु वित्तु संचित
मरइ रसरणफंसणरसबउ
मे-मे-मे करन्तु
(मर) व 3/1 अक [(रसरण)-(फंसण)-(रस)-(दड्डअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय (कर) वकृ 1/1 अव्यय (मेंढअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक
मरता है रसना (जिह्वा) और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ मे-मे (शब्द) करता हुआ जिस प्रकार मेंढ़ा
जिह
मेंढउ
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-137)। 2. प्रयोजन के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है ।
76
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
10.
खज्जइ पलयकालसदूलें उज्झइ दुक्खयासगजालें
(खज्ज) व कर्म 3/1 सक अनि [(पलय)-(काल)-(सदूल) 3/1] (डज्झइ) व कर्म 3/J सक अनि [(दुक्ख)-(हुयासण)-(जाल) 3/1]
खाया जाता है प्रलयकालरूपी बाघ के द्वारा जलाया जाता है दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला के
द्वारा
11. मंजरु
कुंजरु महिसउ
बिलाव हाथी
भैसा
मंडलु
(मंजर) 1/1 (कुंजर) 1/1 (महिस-अ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (मंडल) 1/1 (दे) (हो) व 3/1 अक (जीअ) 1/1 (मक्कड) 1/1 (माहुंडल) 1/1 (दे)
कुत्ता
होता है
जीव
होइ जीउ मक्कडु माहुंडलु
बन्दर सर्प
12. केलासहु
जाइवि तवयरणु वाएं भासिउ किज्जइ जेणेह
(केलास1) 6/1
कैलाश पर्वत को (पर) (जाअ) संकृ
जाकर [(तव)-(यरण) 1/1]
तप का आचरण (ताअ) 3/1
पिता के द्वारा (भास→भासिअ) भूक 1/1
कहा हुआ (बताया हुआ) (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
किया जाता है [(जेण) + (इह)] जेण (ज) 3/1 स जिसके द्वारा इह =अव्यय
यहाँ [(सु)-(दूसह)-(तावयर→(स्त्री)तावयरि)1/1] अत्यन्त दुसह्य-दुःखकारी (संसारिणी2) 6/1 वि
संसारी जीव के द्वारा (तिसा) 1/1
प्यास (छिज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
छेदी जाती है
सुदूसहतावयरि संसारिणि तिस छिज्जइ
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, (हे.प्रा.व्यो. 3-134)। 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 77
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________________
पाठ-7
महापुराण
सन्धि-16
16.11
1.
ता पत्तो चरो
पहले
रिगवइगो
राजा के
घर
भणइ
कहता है (बोला) सुनो
सुण
अव्यय (पत्त) भूकृ 1/1 अनि (चर) 1/1 अव्यय (णिवइ) 6/1 (घर) 2/1 (भण) व 3/1 सक (सुण) विधि 2/1 सक (सु-राय) 8/1 (इसि) 1/2 (तुम्ह)6/1 स (सहोयर) 1/2 [(सील)--(सायर) 1/2] अव्यय (देव) 8/1 (जाय) भूकृ 1/2 अनि
हे श्रेष्ठ राजन
सुराया इसिणो
मुनि तुम्हारे
भाई
सहोयरा सीलसायरा अज्जु
शील के सागर प्राज हे देव हो गये
जाया
एक
हो
पर बाहुबलि सुदुम्मा णउ तउ
किन्तु बाहुबलि अत्यन्त दुर्मति
एक्क 1/I वि अव्यय अव्यय (बाहुबलि) 1/1 (सुदुम्मइ) 1/1 वि अव्यय (तअ) 2/1 (कर) व 3/1 सक अव्यय (तुम्ह) 4/2 (पणव) व 3/1 सक
कर
तप करता है
तुम्हह परराव
तुमको (तुम्हारे लिए) प्रणाम करता है
16.19
(ज) 1/1 सवि
78 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #192
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________________
दिग्णं महेसिणा दुरियणासिणा गयरदेसमेतं
दिया गया है (दिये गये हैं) महर्षि के द्वारा पाप के नाशक नगर, देश, केवल
वह
मह
(दिण्ण) भूकृ 1/1 अनि (महेसि) 3/1 [(दुरिय)-(णासि) 3/1 वि] [(णयर)-(देस)-(मेत्त) 1/1] (त) 1/1 सवि (अम्ह) 4/1 स [(लिह→लिहिय) भूकृ-(सासण) 1/1] [(कुल)-(विहूसण) 1/1] (हर) व 3/1 सक (क) 1/1 सवि (पहुत्त) 2/1
लिहियसासणं कुलविहूसणं
मेरे लिए लिखित प्रादेश कुल को शोमा छोन (सकता) है कौन प्रभुता को
को
पहुत्तं
2. केसरिकेसर
वरसइथणयलु सुहडहु सरणु मझु धरणीयल
[(केसरि)-(केसर) 2/1] [(वर) वि-(सइ)-(थणयल) 2/1] (सुहड) 6/1 (सरण) 2/1 (अम्ह) 6/1 स (धरणीयल) 2/1
सिंह के बाल को श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को सुभट की शरण को
मेरी
जमीन को
3.
जो
जो हत्थेरण छिवई
सो केहज
(ज) 1/1 सवि (हत्थ) 3/1
हाथ से (छिव) व 3/1 सक
छूता है (त) 1/1 सवि
वह (केह-अ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
कैसा अव्यय
क्या (कयंत) 1/1
यम [(काल)+(अणल)] [(काल)-(अगल) 1/l] कालरूपी अग्नि (जेहा) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
कयंतु कालारणल जैहज
जंसर
ह सो।
परणवमि
को
सो भण्ग महिखंडेण कवण परमुण्रगइ
(अम्ह) 1/1 स (त) 2/1 सवि (पणव) व ]/1 सक (क) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि (भण्णइ) व कर्म 3/1 सक अनि (महिखंड) 3/1 (कवरण) 6/1 स [(परम)+(उण्णइ)] [(परम)वि-(उण्इ
उसको प्रणाम करता हूँ (करू) कौन वह कही जाती है पृथ्वीखंड के कारण
किसको )1/1] परम उन्नति
1. द्वितीया विभक्ति के अर्थ में 'सो' का प्रयोग विचारणीय है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
79
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
5. कि
जम्मरिण
देवहि
असिंचि
कि
6. कि
तहु
अग्गड़
8
मंदरगिरिसिहरि समच्चिर
80
सुरवइ
णच्चिउ
सिरिसइरिणियs
7. चक्कु
दंड
तं
कि रोमंचिउ
तासु
जि
सारउ
महु
पुण
कुंभारहु
केरज
णर
हिम
ररिण
जे
अव्यय
( जम्मण ) 7/1
(देव) 3/2
( अहिसिंच) भूक 1 / 1
अव्यय
[ ( मंदर ) - ( गिरि) - ( सिहर ) 7 / 1 ] (समच्च) भूकृ 1/1
अव्यय
(त) 6 / 1 स
अव्यय
(सुरवइ) 1/1
( णच्च राच्चिअ ) भूकृ 1 / 1
[ ( सिरि) + ( सइरिणी) + (यइ ) ]
[ ( सिरि) - ( सइरिणी ) 6 / 11]
यइ अइ अव्यय
अव्यय
(रोमंचिअ ) 1 / 1 वि
( चक्क ) 1/1
(दंड) 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
(त) 4 / 1 स
अव्यय
( सार - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( अम्ह ) 4 / 1 स
अव्यय
(ण) 1 / 1 स
( कुंभार ) 6/1 परसर्ग
(जर) 2/2
( णिहण) व 1 / 1 सक
(रण) 7/1 (ज) 2/2 सवि
क्या
जन्म पर
देवताओं के द्वारा
अभिषेक किया गया
क्या
सुमेरु पर्वत के शिखर पर
पूजा गया
क्या
उसके
श्रागे
इन्द्र
नाचा
लक्ष्मी, स्वेच्छाचारिणी के द्वारा,
अरे
क्यों
पुलकित
करिसूयर रहवरडिभयर हं [ ( करि ) - ( सूयर ) - ( रहवर ) - (डिमय ) - (रह ) हाथीरूपी सूअरों पर श्रेष्ठ रथों पर, छोटे रथ ( समह ) पर
6/112
चक्र
दंड
वह उसके लिए
ही
महत्वपूर्ण
मेरे लिए
किन्तु
वह
कुम्हार का सम्बन्धार्थक
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) । 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
मनुष्य
मारता हूँ (मागा)
रण में
जो
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
वि
ཏྠཱ མལླསྶ ལླཱཝ
महारह
9. भरहु
मज्
भुयामरु
तइ
चुक्कइ
जइ
सुमरइ
जिणवरु
10. तह
मेइरिग
महू
पोयणरु
आइजिणिदे
दिण्णउं
भिडज
पडल
असि
सिहिसिहह
जइ
ण
सरइ
पडिपवण्णउं
1. ता
एण
जंपियं
किं
सुविप्पियं भरणसि
भो
कुमारा
वाणा
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
अव्यय
( महारह) 212 वि
( भरह ) 1 / 1
(हर) व 3 / 1 सक
अव्यय
( अम्ह ) 6 / 1 स
[ ( भुया) - (भर) 2 / 1]
अव्यय
(चुक्क) व 3 / 1 अक
अव्यय
( सुमर) व 3 / 1 सक (fouraz) 2/1
(त) 6 / 1 स
( मेइणी ) 1 / 1
( अम्ह ) 6 / 1स
[ ( पोयण ) - ( जयर) 1 / 1]
[ ( आई ) - ( जिणिद ) 3 / 1]
( दिण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि
( अभिड ) विधि 3 / 1 सक
( पs ) विधि 3 / 1 सक
( असि ) 2 / 1
[ (सिहि ) - (सिहा) 7/1]
अव्यय
अव्यय
(सर) व 3 / 1 सक
( पडिपवण्णअ ) 2 / 1
16.20
अव्यय
(gar) 3/1
( जंप - जंपिय) भूकृ 1 / 1
(क) 1 / 1 सवि
(सु - विप्पिय) 2 / 1 वि
( मरण) व 2 / 1 सक
अव्यय
(कुमार) 1 / 1
(aror) 1/2
भो
योद्धा
भरत
हरता है (हरेगा)
क्या
मेरे
भुजाबल को
तभी उसी जमम)
चूकता है (बच निकलेगा )
यदि
स्मरण करता है। जिनवर को (का)
'तुम्हारी
पृथ्वी
मेरा
पोदनपुर नगर
आदि जिनेन्द्र के द्वारा
दिये हुये
मिले
पड़े
तलवार को
अग्नि की ज्वाला में
यदि
नहीं
मानता है
स्वीकार किए हुए को
तब
दूत के द्वारा
कहा गया
क्या
अप्रिय
कहते हो
कुमार
बारण
1 81
Page #195
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________________
भरहपेसिया पिछसिया हौति दुण्णिवारह
। (भरह)-(पेंस -→सिय) भूक 1/2] (पिंछ)-(भूसिय) भूक 112 अनि ]
हो) व 3/2 अक (दु-रिणवार) 1/2 वि
भरत के द्वारा भेजे हुए पंख से विभूषित होते हैं कठिनाईपूर्वक हटाये जानेवाले
पत्थरेण कि
क्या
लिज्जइ
(पत्थर) 31 अव्यय (मेरु) I इदल) व कर्म 3/1 सक अव्यय (खर) 3/I (मायंग) 11 (खल) व कर्म २/1 सक
कि
मेर (पर्वत) टुकड़े-टुकड़े किया जाता है क्या गधे के द्वारा हाथी गिराया जाता है
खरेण मायंगु खलिज्जा
जुगनू द्वारा
खज्जोएं रवि णित्तेइज्जइ
सूर्य
ईखज्जोअ)3/ (रवि) 1/1 (णित्तेअ) कर्म 3/} सक अव्यय (घुट्ट) 3/1 (जलहि) 1/1 (सोस) व कर्म 3/1 सक
घुट्टण जलहि सोसिजई
तेजरहित किया जाता है क्या चूंट के द्वारा समुद्र सुखाया जाता है
गोप्पएण कि
गोप्पअ) 3/1 अव्यय (णह) 1/1 (मारण) व कर्म 3/1 सक (अण्णाण) 3/1 अव्यय (जिरण) 1/1 (जाण) व कर्म 3/1 सक
गौ के पैर के द्वारा क्या आकाश मापा जाता है अज्ञान के द्वारा
माणिज्जई अण्णाणे
क्या
जिणु
जिनेन्द्र समझा जाता है
जाणिज्जइ
5. वायसे
गडु णिज्झई शवकमलेण कुलिसु
(वायस) 3/1 अव्यय (गरुड) 1/1 (रिणरुज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(रणव) वि-(कमल) 3/1] (कुलिस) 1/1 अव्यय (विज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि
कौए के द्वारा क्या गरुड़ रोका जाता है नूतन कमल के द्वारा वत्र क्या बेधा जाता है
विज्स
6. करिणा
(करि) 3/1
हाथी के द्वारा
82 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
क्या
सिंह
मय.रि मारिज्जा
अव्यय (मयारि) 1/1 (मार) व कर्म 3/1 सक अच्यय (बसह) 3/1 (वग्ध) 1/1 (दार) व कर्म 3/1 मक
यसहेस
मारा जाता है क्या बैल के द्वारा शेर चोरा जाता है
बग्घु
दारिज्जा
क्या धोबी के द्वारा
हंसें
ससंकु धवलिज्जा
अव्यय (हंस) 3/4 (ससंक) 1/ (धवल) व कर्म 3/1 सक अव्यय (मणुअ) 3/1 (काल) 1/1 (कवल) व कर्म 3/1 सक
मणुए कालु कवलिज्ज
सफेद किया जाता है क्या मनुष्य के द्वारम काल नगला जाता है
8. डेंडुहेरण
कि सप्पु डसिज्ज
डेंडुह) 3/1 अव्यय (सप्प) 1/1 (डस) व कर्म 3/1 सक अव्यय (कम्म) 3/1 (सिद्ध) 1/ (वसि) 7/1 (कि) व कर्म 3/1 सक
मेंढक के द्वारा क्या साँप काटा जाता है क्या कर्म के द्वारा
कम्मरण सिद्ध
वसि
वश में किया जाता है
किज्जइ
9. कि
गोसासे लोउ रिणहिप्पड़
अच्यय (णीसास ) 3/1 (लोअ) 1/1 (रिणहिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि अध्यय (तुम्ह) 3/1 स्व [ (भरह)-(णराहिअ) 1/1] (जिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि
क्या श्वांस से लोक स्थापित किया जाता है क्या तुम्हारे द्वारा भरत नराधिप जीता जाता है
पई भरहणराहिउ जिप्पड़
10. हो
पाश्चर्य
होउ
अव्यय (हो) विधि 3/1 अक (पहुप्प) व 3/1 अक
पहुप्पड़
समर्थ होता है
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[83
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
नंपिएण
(जंपिअ) भूक 3/1
राउ
तुहुप्परि
वग्गइ करवालाह सूहि सव्वलहि परइ रणंगणि लम्ग
हराअ) 1/1 [(तुह) + (उप्परि)]तुह (तुम्ह) 6/1 स उप्परिः= अव्यय (वग्ग) व 3/1 अक (करवाल) 3/2 (सूल) 3/2 (सव्वल) 3/2 (पर) व 3/1सक
(रण)+ (अंगणि)[(रण)-(अंगण)7/1] (लम्गअ) भूकृ7/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
प्रलाप किया हुआ होने के कारण राजा तुम्हारे, . ऊपर चौकड़ो भरेगा (कूदता है) तलवारों के साय त्रिशूलों के साथ बछों के साथ भ्रमण करता है (करेगा) रण के आंगन में निकटवर्ती
16.21
1.
ता भणियं स-हेउणा मयरकेउणा
तब कहा गया युक्तिसहित कामदेव के द्वारा
यहाँ
कहीं
कहि मि जाया
भी
अव्यय (भण→भणिय) भूकृ 11 (स-हेउ) 3/1 वि (मयरकेउ) 3/1 अव्यय अव्यय अव्यय (जाय) भूकृ 1/2 अनि (ज) 1/2 सवि [(पर) वि-(दविण)-(हारी) 1/2 वि] (कलहकारी) 1/2 वि (त) 1/2 मवि (जय)7/1 (राय) 1/2
परदविरणहारिणो कलहकारिणो
परद्रव्य को हरनेवाला कलह करनेवाले (कलहक.रो)
जयम्मि
जगत में
राया
राजा
2. वुड्डउ
जंबुङ सिव सद्दिज्जइ एण
(वुड्डअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (सिव) 1/1 (सद्द) व कर्म 3/ सक (एअ) 3/1 स अव्यय (अम्ह) 4/1 स (हासअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (दा-+इज्ज) व कर्म 3/1 सक
सियार समृद्धि बुलाई जाती है इससे मानो मेरे लिए हँसो दी जाती है
गाई
महु
हासउ दिज्जइ
84 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
जो बलवंतु चोर सो रापन
जो बलवान चोर
(ज) 1/1 सवि (बलवंत) 1/1 वि (चोर) 1/1 (त) 1/1 सवि (राणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (गिब्बल) 1/1 वि अव्यय (कि) व कर्म 3/1 सक (णिप्राणअ) 1/I वि
णिब्बलु
वह राजा निर्बल फिर किया जाता है निष्पारण
पुणु
किज्ज णिप्राण
छीना जाता है पशु का पशु के द्वारा
4. हिप्पइ
मृगह मृगण जि प्रामिसु हिप्पड़ मणुयह मणुएण
(हिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि (मृग) 6/1 (मृग) 3/1 अव्यय (आमिस) 1/1 (हिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि (मणुय) 6/1 (मणुअ) 3/1 अव्यय (वस) 1/1
मांस छीना जाता है मनुष्य का मनुष्य के द्वारा
वसु
प्रभुत्व
5. रक्खाकंखइ
रएप्पिणु
[(रक्खा)-(कंखा→कखाए→कंखाइ)3/1] (जूह→वूह) 2/1 (रअ) संकृ (एक्क) 6/1 वि परसर्ग (आरणा) 1/1 (लअ) संक
रक्षा की इच्छा से व्यूह रचकर एककी सम्बन्धार्थक प्राज्ञा
केरी प्रारण लएप्पिणु
लेकर
6.
ते णिवसंति तिलोइ गविट्ठउ
(त) 1/2 सवि (णिवस) व 3/2 अक (तिलोअ) 7/1 (गविट्ठअ) भूक 1/1 अनि (सीह) 6/1
सीहह
निवास करते हैं त्रिलोक में खोज किया हमा सिंह का सम्बन्धार्थक समूह
केरउ
परसर्ग
बंदु
(वंद) 1/1 अव्यय (दिट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
नहीं
विट्ठउ
देखा गया
7. मारणभंगि
[(माण)-(भंग) 7/1]
मान के भंग होने पर
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 85
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर मरण
श्रेष्ठ मरण नहीं जीवन
जीविउ
(वर) 1/1 वि (मरण) 1/1 अव्यय (जीविअ) 1/1 (एहअ) 1/1 वि (दूय) 8/1 अव्यय (अम्ह) 3/1 स (भाव) भूकृ 1/1
ऐसा
दूय सुठ्ठ
हे दूत सचमुच मेरे द्वारा विचारा गया
मई
भाविउ
आवे
8. आवउ
भाउ घाउ
भाई
तह
दंसमि संझाराउ
(आव) विधि 3/1 सक (भाअ) 1/1 (घास) 2/1 (त) 6/1.स (दस) व 1/1 सक (संझाराअ) 1/1 अव्यय (खरण) 7/1 (विद्धंस) व 1/1 सक
घात को उसके दिखाता हूँ (दिखाऊंगा) संध्याराग की तरह एक क्षरण में नष्ट करता हूँ(नष्ट कर दूंगा)
खणि विद्धंसमि
9. सिहिसिहाहं।
देविदु वि
अग्नि की ज्वालानों को देवेन्द्र भी नहीं सह सकता है
सहइ
[(सिहि)-(सिहा)6/2] (देविंद) 1/1 अव्यय अव्यय (सह) व 3/1 सक (अम्ह)6/1 स (मणसिय)6/1 (विसिह) 2/2 (क) 1/1 सवि (विसह) व 3/1 सक
मरगसियह विसिह को विसहइ
कामदेव के बाणों को कोन सहता है (सहेगा)
10. एक्कु
एक
परउव्याव
(एक्क) 1/1 वि अव्यय [(पर) वि-(उव्वार) 1/1] (णरिंद) 6/1 अव्यय (पइसर) व 3/1 सक
परम-मलाई राजा की
रिंदद
यदि
पइसरइ
जाता है (चला जाय)
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
86
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरण
जिरणयंदहु
11. संघट्टमि
लुट्टमि
घड
दलमि
सुहड
ररणमग्गड
पहु
प्रावउ
दावउ
बाहुबल
मह
बाहुबल
प्रग्गड
1. ar
E c
उ
विणिग्गओ
रियपुरं
गनो
तम्मि
णिवरणवासं
सो
विores
सायरं
सारसायरं
परपविडं
महीसं
2. विसमु
देव
बाहुबलि
णरेसद
अपभ्रंश काव्य सौरम }
( सरण) 2 / 1
( जिरगयंद ) 6 / 1
( संघट्ट) व 1 / 1 सक
(लुट्ट) व 1 / 1 सक
[ ( गय ) - (घडा) 6 /2]
( दल) व 1 / 1 सक
( सुहड ) 2/2
[ ( रण ) - ( मग्गअ ) 7/1 'अ' स्वार्थिक ]
( पहु) 1 / 1
(आव) विधि 3 / 1 सक
( दाव) विधि 3 / 1 सक
( बाहुबल) 2 / 1
( अम्ह ) 6 / 1 स (argafa) 6/1
अव्यय
अव्यय
( दूअ ) 1/1
( विणिग्गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( गिय) वि- (पुर) 2 / 1]
( अ ) भूकृ 1 / 1 अनि
16.22
(a) 7/1 =
[ (वि) - ( शिवास) 2 / 1]
(त) 1 / 1 स
( विष्णव) व 3 / 1 सक
( सायर) 1 / 1 वि
[ ( सार ) - ( सायर) 1 / 1]
( परणव परणविअ ) भूकृ 1 / 1
( महीस ) 1 / 1
( विसम) 1 / 1
(देव) 8 / 1
( बाहुबलि ) 1/1
( णरेसर ) 8/1
शरण को जिनदेव को
मारता हूँ ( मारूंगा)
लूटता हूँ (लूटूंगा) गजसमूह को
चूर-चूर करता हूँ (करूँगा) योद्धानों को
रगपथ में
राजा
श्राव
दिखाए
बाहुबल को
मुझ बाहुबलि के
आगे
तब
दूत
गया
निजनगर को
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) । 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
गया
वहाँ पर
राजा के घर
वह / उसने
कहता है ( कहा ) श्रादरसहित
बलरूपी सागर
प्रणाम किया गया
पृथ्वी का ईश
खतरनाक
देव बाहुबलि हे नरेश्वर
[ 87
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्नेह
नहीं
संधइ संघ गणि
(णेह) 2/1 अव्यय (संघ) व 3/1 सक (संध) व 3/1 सक (गुण) 7/1 (सर) 2/1
रखता है रखता है धनुष की डोरी पर बारण
कार्य
नहीं
3. कज्जु
(कज्ज) 2/1
अव्यय बंधइ
(बंध) व 3/1 सक बंधइपरियरु→परियर बंधइ [(परियर) 2/1, (बंध) व 3/1 सक] संधि
[संधि) 2/1
अव्यय इच्छा
(इच्छ) व 3/1 सक इच्छइ
(इच्छ) व 3/1 सक संगरु
(संगर) 2/1
करता है कमर कसता है संधि नहीं चाहता है चाहता है
युद्ध
पहुं
पेच्छा पेन्छइ
(तुम्ह) 2/1 स अव्यय (पेच्छ) व 3/1 सक (पेच्छ) व 3/1 सक [(भुय)-(बल)2/1] (आणा) 2/1 अव्यय (पाल) व 3/1 सक (पाल) व 3/1 सक [(गिय) वि-(छल) 2/1]
तुमको नहीं देखता है देखता है भुजाओं के बल को प्राज्ञा को
भुयबलु आरण
नहीं
पाल पालइ रिणयछलु
पालता है पालता है अपनी दलील को
माणु
छंड भयरसु
(माण) 2/1 अव्यय (छंड) व 3/1 सक (छंड) व 3/1 सक [(भय)-(रस) 2/1] (दइव) 2/1 अव्यय (चित) व 3/1 सक (चित) व 3/1 सक (पोरिस) 2/1
स्वाभिमान नहीं छोड़ता है छोड़ता है भय का भाव प्रारम्ध को नहीं विचारता है विचारता है पुरुषार्थ को
व्य
चित चितइ पोरिसु
6.
संति
(संति) 2/1
शान्ति
88
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
मरगइ मण्णइ कुलकति पुहइ
अव्यय (मण्ण) व 3/1 सक (मण्ण) व 3/1 सक [(कुल)-(कलि) 210] (पुहइ) 2/1 अव्यय (दा) व 3/1 सक (दा) व 3/4 सक [(वाण)+ (भरवलि)] [(वाण)-आवलि) 2/11
नहीं विचारता है विचारता है कुटुम्ब का झगड़ा युवी नहीं देता है देता है बारणों की पंक्ति
देड
पाणावलि
7. तुज्न
तुमको नहीं
रगवड
मुरिणवंड अंगु
( तुम्ह) 4/1 व अव्यय (णव) ब 3-1 सक (णव) व 31/ सक I (मुणि)-(तण्डव' ) 2| (अंग) 2/1 अव्यय (क) व 3/1 सक (कड्ड) व 3/1 सक (खंड) 22
प्रणाम करता है प्रणाम करता है मुनि समूह को अंग को नहीं बाहर निकालता (खोंचता है बाहर निकालता (खींचता) है तलवारों को
कड्डइ खंडन
8. देव
भाइ
(देव) 8/1 अव्यय (दा) व 3/1 सक (भाइ) 1/1 (तुम्ह) 4/17 (पोयण) 2/1 अव्यय (जाण) ब 1/1 सक (दा) भवि 3/1 सक (रण)-(भोयण) 2/1]
नहीं देता है (देगा) भाई तुम्हारे लिए 'पोदनपुर
तुह पोयणु
पर
किन्तु
जाणमि
देसह
जानता है देगा रग-रूपी भोजन
रणभोयणु
ढोयइ रयरखई गउ
(ढोय) व 3/1 सक (रयरण) 2/2
भेंट करता है (करेगा) रत्नों को
अव्यस
1. तण्डव-तण्डवु→तण्डउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[ 89
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________________
करिरयरण्इं ढोएसइ ध्रुव परउररयणई
[(करि)-(रयण) 2/2] (ढुक्क→ढोअ) भवि 3/1 सक (दे) क्रिवि [(णर)-(उर)-(रयण) 2/2]
हायोरूपी रत्नों को भेंट करेगा निश्चित रूप से मनुष्य के छातीरूपी रत्नों को
10. संताण
कुलक्कम गुरुकहिउ खत्तधम्म
णउ
वुझाइ मज्जायविवज्जिउ सामरिसु प्रवसें दाइउ जुज्झइ
(संताण) 2/1 (कुलक्कम) 2/1 [(गुरु)-(कह→कहिअ) भूकृ 2/1] [(खत्त)-(धम्म) 2/1] अव्यय (वुज्झ) व 3/1 सक [(मज्जा -य)-(विवज्जिअ) भूक 1/1 अनि] (सामरिस) 1/1 वि (अवस) 3/1 क्रिवि (दाइअ) 1/1 (जुज्झ) व 3/1 सक
वंश कुलाचार गुरु के द्वारा कथित क्षत्रिय धर्म को नहीं समझता है मर्यादारहित ईर्ष्यालु अवश्य ही समान गोत्रीय युद्ध करता है (करेगा)
90
]
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #204
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________________
पाठ-8
महापुराण
सन्धि-17
17.7
11. छुडु-छुडु
कारणि वसुमइहि' सेण्णई जाम हणंति परोप्पर अंतरि
अव्यय (कारण) 3/1 (वसुमइ) 6/1 (सेण्ण) 1/2 अव्यय (हण) व 3/2 सक (परोप्पर) 2/1 दि (अन्तर) 7/1 अव्यय (पइट्ठ) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (मंति) 1/2 (चव) व 3/2 सक (समुब्भ+इवि) संकृ I(रिणय) बि-(कर) 2/1]
अति शीघ प्रयोजन से धरती के सेनाएं ज्योंही प्रहार करती है एक दूसरे पर बीच में तब हो (त्योंहो) प्रविष्ट हुए वहाँ मंत्री कहते हैं (कहा) ऊंचा करके अपना हाथ
ताम
तहि मंति चवंति समुग्भिवि णियकर
17.8
बिहि बलहं. সন্নি
दोनों सेनाओं के बीच में
जो
(बि3) 6/1 (बल) 612 (मज्झ) 7/1 (ज) 1/1 सवि (मुय) व 3/1 सक (बाण) 2/2 (त) 4/1 स (हो) भवि 3/1 अक
मुयद बारण
छोड़ता है (छोड़ेगा)
बाण
उसके लिए होगी
होस
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 । 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1571 3. एकवचन का बहुवचन अर्थ में प्रयोग हुआ है।
अपभ्रंश काव्य सोरम ]
[
91
Page #205
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________________
रिसहर तरिणय प्राण
(रिसह) 6/1 (स्त्री) परसर्ग (आरण) स्त्री 1/1
ऋषभदेव की सम्बन्धसूचक सौगन्ध
2.
त रिणसुणिदि सेणगई सारियाई चडियई चावई उत्तारियाई
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ (सेण्ण) 1/2 (सार→सारिय) भूक 1/2 (चड→चडिय) भूकृ 1/2 (चाव) 1/2 (उत्तार→उत्तारिय) भूकृ1/2
उसको सुनकर सेनाएं हटाई गई चढ़े हुए
धनुष
उतारे गए
3.
उसको
तं रिगसुरिणवि रहसाऊरियाई
सुनकर बेग से भरी हुई
(त) 2/1 स (णिसुण+ इवि) संकृ [(रहस)+ (आऊरियाई)] [(रहस)-(आऊर) भूक 1/2] (वज्ज→वज्जंत) वकृ 1/2 (तूर) 1/2 (वार) भूक 1/2
वजंतई
बजती हुई तुरहियों रोकी गई
वारियाई
4.
त णिसुरिणवि धारापहसियाई करवालई कोसि णिवेसियाई
(त) 2/1स (रिणसुण+इवि) संकृ [(धारा)-(पहस) भूकृ 1/2] (करवाल) 1/2 (कोस) 7/1 (रिणवेस) भूकृ 1/2
उसको सुनकर धारों का उपहास को हुई तलवारें म्यान में रख दी गई
5.
उसको
तं णिसुरिणवि रिपद्धंगई
सुनकर
कान्तियुक्त घटकवाले
(त) 2/1 स (रिणसुण+इवि) संकृ [(रिणद्ध)+ (अंगई)] [[(गिद्ध) भूकृ अनि-(अंग) 1/2] वि] (घण) 1/2 (रिणमुक्क) भूकृ 1/2 अनि [(कवय)-(णिबंधण) 1/2]
घने
घरगाई रिणम्मुक्कई कवयरिणबंधणाई
खोल दिए गए कवचों के बन्धन
6.
तं णिसुरिणवि
(त) 2/1 स (रिणसुण+इवि) संकृ
उसको सुनकर
1. वृहत् हिन्दी कोश ।
92 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #206
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________________
मय-मायंग
[ (मय)-(मायंग) 1/2] (रुद्ध) भूकृ 1/2 अनि [(पडिगय)-(वर)-(गंध→गंधा)-(लुद्ध) भूक 1/2 अनि] (कुद्ध) भूकृ 1/2 अनि
मदवाले हाथी रोक लिये गए प्रतिपक्षी, श्रेष्ठ, गंध के इच्छुक
पडिगयवरगंधालुद्ध
कुद्ध
7.
तं णिसुरिणवि मच्छरभावभरिय
हरि फुरुहुरंत
(त) 2/1 स (रिणसुण+इवि) संकृ [(मच्छर)-(भाव)-(भर) भूकृ 1/2] (हरि) 1/2 (फुरुहुर) वकृ 1/2 (धाव) व 1/2 (घर) भूकृ 1/2
उसको सुनकर ईर्ष्याभाव से भरे हुए घोड़े थरथराते हुए दौड़ते हुए पकड़ लिये गये
धावंत धरिय
रथ
खंचिय कड्डिय पग्गहोह वारिय विधत अणेय
(रह) 1/2 (खंच→खंचिय) भूकृ 1/2
खींच लिये गए (कड्ढ) भूकृ 1/2
खींच ली गई [(पग्गह)+ (ओह)] [(पग्गह)-(ओह) 1/2] लगामें (वार) भूक 1/2
रोक दिए गए (विंध) वकृ 1/2
बेधते हुए (अणेय) 1/2 वि
अनेक (जोह) 1/2
जोह
योद्धा
17.9
पररामियसिरेहि मउलियकरहिं बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहि
[ (पणमिय) संक-(सिर) 3/2]
प्रणाम करके, सिरों से [(मउल→मउलिय) भुकृ-(कर) 3/2] संकुचित किए हुए, हाथों से (बाहुबलि) 1/1
बाहुबलि (भरह) 1/1
भरत [(महुर)+ (अक्खरेहिं)][(महुर)-(अक्खर)3/2] मधुर शब्दों से
2. उग्गमियरोसपसमंतएहि
उत्पन्न हुए, क्रोध को, शान्त करते हुए (के द्वारा) दोनों
[(उग्गमिय) भूकृ-(रोस)-(पसमंतअ) वकृ 3/1 'अ' स्वार्थिक] (वि) 1/2 वि अव्यय (विष्णव) भूकृ 1/2 (महंतअ) 3/2 'अ' स्वार्थिक
विष्णि वि विष्णविय महंतएहि
ही
कहे गये मन्त्रियों द्वारा
प्राप
3. तुम्हइं
विष्णि
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय
दोनों
वि
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
। 93
Page #207
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________________
मनुष्य अन्तिम देहवाले
जण चरमदेह तुम्हई विग्णि
प्राप
(जण) 1/2 [[(चरम)-(देह) 1/2] वि] (तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [(जय)-(लच्छि)-(गेह) 1/2]
वि
दोनों . ही विजयरूपी लक्ष्मी के घर
जयलच्छिगह
आप दोनों
विण्णि
वि
प्रखलियपयाव तुम्हई विण्णि
प्रबाधित प्रतापवाले प्राप दोनों
गंभीरराव
गंभीर वारणीवाले
5. तुम्हई
विण्णि
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [[ (अखलिय)-(पयाव) 1/1] वि] (तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [[ (गंभीर)-(राव) 1/1] वि] (तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [[ (जग)-(धरण)-(थाम) 1/1] वि] (तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [(रामा)+ (अहिराम)] [(रामा)-(अहिराम) 1/1]
प्राप दोनों
जगधरणयाम
जगत को, धारण करने की, शक्तिवाले आप दोनों
तुम्हई विपिण
वि
रामाहिराम
स्त्रियों के लिए प्राकर्षक
आप
6. तुम्हइं
विष्णि
दोनों
वि
मि
पयंड महिमहिलहि केरा बाहुवंड
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय (सुर) 4/2 अव्यय (पयंड) 1/2 वि [(महि)-(महिला) 6/1] परसर्ग [ (बाहु)-(दंड) 1/2] (तुम्ह) 1/2 स
देवताओं के लिए भी प्रचण्ड पृथ्वीरूपी महिला की सम्बन्धवाचक लम्बी भुजाएँ
7. तुम्हइं
प्राप
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 157।
94 ]
[ अपभ्रंश काव्य सोरम
Page #208
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________________
दोनों
विण्णि
(वि) 1/2 वि
अव्यय णिवणायकुसल [(रिणव)-(णाय)-(कुसल) 1/1 वि] रिणयतायपायपंकरहमसल [(णिय) वि-(ताय)-(पाय)-(पंकरह)
(भसल) 1/2]
राजनीति में कुशल निज, पिता के, चरणरूपी, कमलों के भौरें
आप
तुम्हई विष्णि
दोनों
जन
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय (जण) 1/2 (जण) 6/1 (चक्खु) 1/2 (इच्छ) विधि 2/2 सक (अम्हारअ) 2/1 वि [(धम्म)-(पक्ख) 2/1]
अग जणहु चक्खु इन्छ? अम्हारउ धम्मपक्खु
जन के
चाहें हमारे धर्मपक्ष को
9. खरपहरणधारावारिएण [(खर)वि-(पहरण)-(धारा)-(दार-→दारिअ) प्रखर, आयुधों की, धारों से भूकृ 3/1]
विदारित (क) 1/1 सवि
क्या किंकरणियरें [(किंकर)-(णियर) 3/1]
अनुचर समूह से मारिएण (मार→मारिअ) भूकृ 3/1
मारे गए
10. किर
बराएं दंडिएण सोमंतिणिसत्यें रंडिएण
अव्यय (काई) 1/1 सवि (वराअ) 3/1 वि (दंड→दंडिअ) भूकृ 3/1 [(सीमंतिणी→सीमंतिणि)-(सत्थ)3/1] (रंड→रंडिअ) भूक 3/1
पादपूरक क्या बेचारों से सजा दिये हुये (से) नारी समूह से विधवा किए हुए
11. दोह
दोनों के
हो
ममत्थ होवि
(दो) 6/2 वि अव्यय परसर्ग (मज्यस्थ) 1/1 (हु+अवि) संकृ (आउह) 2/1 (मेल्ल+इवि) संकृ [(खम)-(माअ) 2/1] (ले+एवि) संकृ
आउह मेल्लिवि
सम्बन्धवाचक मध्यस्थित होकर आयुध (को) छोड़कर क्षमाभाव को धारण करके
लेवि
12. प्रवलोयंतु
(अवलोय) वकृ 1/1
समझते हुए
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
95
Page #209
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________________
धराहिवs
एत्तिउ किज्जउ
2.
सुस्तु
सुजुत्तउ तुम्ह
दोह
te e
मि
होउ
रण तिविह
धम्मणाएण
शिउत्तर
1. पहिलउ श्रवरोप्पर 2
दिट्टि
धरह
मा
पत्तलपत्तरण चलण
करह
बीयउ
हंसावलिमारिएण
अवरोप्परु
सिंच
पाणिएख
4. जुज्झह विण्णि
96 1
( धराहिवइ ) 8 / 1
( एत्तिअ ) 1 / 1 वि
( कि + इज्ज) विधि कर्म 3 / 1 सक (सुत्त) भूकृ 2 / 1 अनि
( सुजुत्तअ ) भूकृ 2 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
(तुम्ह) 6/2 स (दो) 6/2 वि
अव्यय
(हो) विधि 3 / 1 अक (रण) 1 / 1
(तिविह) 1 / 1 वि
[ ( धम्म ) - ( गाअ ) 3 / 1]
( णिउत्तअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
17.10
( पहिल - अ) 1 / 1 वि (दे) 'अ' स्वार्थिक (अवरोप्पर) 2 / 1 वि
(fafg) 2/1
(घर) विधि 2 / 2 सक
अव्यय
[ ( पत्तल ) - ( पत्तरण ) - (चल) 2 / 1]
(जुज्झ ) विधि 2 / 2 सक (वि) 1/2 वि
हे राजन्
इतना
किया जाए
भली प्रकार कहे हुए को
उपयुक्त
तुम
दोनों में
हो
हो
युद्ध
तीन प्रकार का
धर्म और न्याय से निर्धारित
(कर) विधि 2 / 2 सक
( बीयअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
[ ( हंस ) + (आवलि) + (माणिएण ) ]
[ ( हंस) - ( आवलि) - (माण माणिअ) ] भूक 3 / 1]
( अवरोप्पर) 2 / 1 वि (त्रिवि)
( सिंच) विधि 2 / 2 सक (41FOTзT) 3/1
पहले
एक दूसरे पर
दृष्टि
डालो
मत
पलकों के बालरूपी, बालों के अग्रभाग का हलन चलन करो
दूसरा
हंस को, कतारों से सम्मानित
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
2.
इस शब्द (परस्पर) के 'आपस में' 'एक दूसरे के विरुद्ध' आदि अर्थ में कर्म, करण और अपादान के एकवचन के रूप क्रिया - विशेषण की भाँति प्रयुक्त होते हैं (आप्टे, संस्कृत - हिन्दी कोश ) ।
एक दूसरे के विरुद्ध
छिड़काव करो पानी से
युद्ध करें दोनों
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #210
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________________
रिपवमल्ल ताम एक्केरण तुलिज्जा एक्कु जाय
अव्यय इ(णिव)-(मल्ल)1/21 अध्यय (एक्क) 3/1 वि
तुल-- इज्ज) ब कर्म 3/1 सक (एक्क) 1/1वि अच्यय
हो राजारूपी, पहलवान तब तक एक के द्वारा उठा लिया जाता है
जब तक
5. अवरोप्पर
जिणिवि परक्कमेण
(अवरोप्पर) 2/1 दि (जिण+इवि) संक (परक्कम) 3/1 (गेण्ह) व 2/2 सक [(कुल)-(हर)-(सिरी) 2/1] (विक्कम) 3/1
एक दूसरे को जीतकर शूरवीरता से ग्रहण करें (करता है) पित-गृह के वैभव को सामर्थ्य से
गेण्हह
कुलहरसिरि विक्कमेष
तणसोहाहसियपुरंदरेहि
ता
चितिउ
(तणु)-(सोहा)-(हसिय) भूकृ-(पुरंदर)6/1] शरीर की, शोभा के कारण,
उपहास किया गया, इन्द्र का अव्यय
उस समय (चित+चिंतिम) भूकृ 111
विचारा गया (दो) 3/2 वि
ोनों अव्यय (सुन्दर) 3/2
सुन्दर (राजाओं) द्वारा
दोहि
मो
मि सुन्दरेहि
दूहवियहि रणवजोवणेष
(क) 1/1 सवि (दूहव→दूहविय) भूकृ7/1
(ब) वि-(जोवण) 3/11 (क) 1/1 सवि (फल→फलिअ) भूक 3/1 अव्यय (कडुअ)3/1 वि 'अ' स्वार्थिक (वण) 3/1
क्या दुःखी करनेवाले नवयौवन से क्या 'फले हुए
फलिएक वि कडुएं पणेष
कड़वे बन से
(ज) 1/2 सधि अव्यय (कर) व 3/2 सक (सुहासिय) 2/2
जो नहीं करते हैं सुन्दर वचनों को
करंति सुहासियई
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1571 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[ 97
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________________
मंतिहिं भासियाई णयवयणई
ताहं
परिवह रिद्धि कओ
(मंति) 3/2 (भास→भासिय) भूकृ2/2 [(णय)-(वयण) 2/2] (त) 6/2 सवि (गरिंद) 6/2 (रिद्धि) 1/1 अव्यय अव्यय [(सीहासण)-(छत्त) 1/2] (रयण) 1/2
मन्त्रियों द्वारा कहे हुए नीति-वचनों को उन राजानों की रिद्धि कहाँ से कहाँ सिंहासन, छत्र
सीहासणछत्तई रणय
98
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #212
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________________
पाठ-9
जंबूसामिचरित
सन्धि -9
9.8
1. विणयसिरोए
कहाणउ सीसह संखिणिनिहि बरइसहो दोसइ
(विणयसिरी)3/1 (कहाणअ) 1/1 (सीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(संखिणी)-(निहि) 6/1] (वरइत्त) 4/1 (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि
विनयश्री के द्वारा कथानक कहा जाता है (कहा गया). संखिणी को निधिको दूल्हे के लिए बतलायी जाती है
2. कम्मि
पुरम्मि दरिदें साडि संखिणि
(क) 7/1 सवि (पुर) 7/1 (दरिद्द) 3/1 (ताड→ताडिअ) भूक 1/1 (संखिणी) 1/1 अध्यय (क) 1/1 सवि (कच्याडिअ)1 1/1 वि (दे)
किसी नगर में दरिद्र (स्थिति) के द्वारा ताड़ा हुआ (प्रताड़ित) संखिणी नामक कोई कबाड़ी
नाम
कोवि कव्वाडि
3. दिरिण-दिणि
वणे कव्वाडहो धाव भोयणमस्तु किलेसें पाव
(दिण)-(दिण)7/1 (वण) 7/1 (कव्वाड) 4/1 (धाव) व 3/1 सक [(भोयण)-(मत्त) 2/13 क्रिवि (पाव) व 3/1 सक
प्रतिदिन वन में कबाड़ीपन के लिए भागता है (था) भोजनमात्र दुःखपूर्वक पाता है (था)
4. भुत्तसेसु
दिवसेसु पवनउ
[(भुत्त)-(सेस) 1/1 वि] (दिवस) 7/2 (पवनअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक (रूवअ) 1/1 (एक्क) 1/1 वि
भोजन में से बचा हुआ कुछ दिनों में प्राप्त किया गया रुपया
1. कव्वाडिअ=कावर उठानेवाला ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[
99
Page #213
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________________
रोक्कु संपन्न
{रोक्क) 1/1 वि (दे) (संपन्नम) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
रोकड़ी प्राप्त (हासिल) किया गया
5. महिलसहाएँ
चड्डिउ कलसे छुहेकि धरायले मड्डिङ
[(महिल→महिला)-(सहाब) 3/1] (रहस)17/1 (चड्ड→चडिअ) भूकृ 11 (कलम) 7/1 (छुह + एवि) संकृ
धरायल) 7/1 (गड→गड्डिअ) भूकृ 1/1
पत्नी के सहयोग से एकान्त में चढ़ा गया कलश में रखकर धरती में माड़ दिया गया
6.
чі трі чи прији
प्रह रविगहणे कयावि विहाणई चलियई तित्ये चयवि निमयाणइँ
अव्यय (रवि)-(महण) 7/1] अव्यय (विहाण) 7/1 (चल→चलिय) 1/2 (तित्थ) 7/1 (चय+अवि) संकृ [(निय) वि-(थाण) 2/2]
वाद में सूर्यग्रहण के अवसर पर किसी भी समय प्रभात में चले तीर्थ-स्थान को छोड़कर निज निवासों को
7.
पूरिएहिं मणिरयरणसुवाहिँ अबलोइउ संखिरिणनिहि अण्णहि
(पूर→पूरिअ) भूकृ 3/2 [(मणि)-(रयण)-(सुवष्ण) 3/2] (अवलोअ→अवलोइअ) भूक 1/1 [(संखिणी)-(निहि) 1/1] (अण्ण) 3/2 स
सम्पन्न (के द्वारा) मणि, रत्न और सोने से देख ली गयो संखिरणी की निधि अन्य (व्यक्तियों) के द्वारा
8.
मंतिज्जए आएण असारें खडहडंतरूवयसंचारें
(मंत+इज्ज) व कर्म 3/1 सक (आअ) भूकृ 3/1 अनि (असार)3/l [(खडहड्त) वकृ-(रूवय)-(संचार) 3/1]
सोचा जाता है (गया) आये हुये के द्वारा असार खड़खड़ करते हुए रुपये की गति के कारण
9. जाणाविउ
लोयाण
(जाण+आवि+अ) प्रे. भूकृ 1/1 (लोय) 4/2 (प्रा)
बतलाया गया लोगों के लिए
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 ।
2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1461
3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135)।
1001
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #214
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________________
स्वमार्ग में
समग्गा अम्हई गिण्हाविज्जहु लग्गा
[(स) वि-(मग्ग)17/1] (अम्ह) 1/2 स (गिह+आवि+ इज्ज) प्रे. व कर्म 1/2 सक। (लग्ग) भूकृ4/2 अनि
ग्रहण कराये जाते हैं लगे हुए
10. चितेवि
तम्मि छुद्ध निउ भल्लउ एक्केक्कउ
(चित+रवि) संकृ (त) 7/1 स (छुद्ध) 1/1 वि (दे) (निअ) 2/1 वि (भल्लअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक [(एक्क)+ (एक्कउ)] [(एक्क)-(एक्कअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक] [(मणि)-(रयण) 1/1] (गरिल्लअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
सोचकर उस (विषय) में डाल दिया गया निज भले को एक-एक
मरिगरयणु गरिल्लउ
मरिणरत्न श्रेष्ठ
वह पूर्ण कर दिया गया
करके
11. सो
संपुण्णु करेवि पवत्तई पहाएवि तित्थे निययघर पत्तई
(त) 1/1 सवि (संपुण्ण) भूकृ 1/1 अनि (कर+एवि) संकृ (पवत्त) भूकृ 1/2 अनि . (हा+एवि) संकृ (तित्थ) 7/1 [(नियय)-(घर) 2/1] (पत्त) भूकृ 1/2 अनि
प्रवृत्त हुए स्नान करके तीर्थ में अपने घर को
12. प्रह
छरणदिणि महिलाए कहिज्जा रूवउ
अव्यय [(छण)-(दिण) 7/1] (महिला) 3/1 (कह) व कर्म 3/1 सक (रूवअ) 1/1 अव्यय (नाह) 8/1 (विलस) व कर्म 3/1 सक
तब उत्सव के दिन पर पत्नी के द्वारा कहा जाता है (गया) रुपया आज हे नाथ भोग किया जाता है (जाए)
नाह
विलसिज्ज
13. संखिरिण
खरगड कलसु जहिं
(संखिणि) 1/1 (खण) व 3/1 सक (कलस) 1/1 अव्यय
संखिरगी खोदता है कलश जहां पर
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 101
.
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________________
रखा गया देखा गया
धरियर दिउ ताम करण्यमणिभरियड
(धर→धरिय→धरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. (दिट्टअ) भकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक अव्यय [(कणय)-(मणि)-(भर→भरिय→मरियम) भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक]
स्वर्ण तथा मरिणयों से भरा
हुमा
14. सरहसु
उत्साहसहित एकान्त में कहा गया हे प्रिय
कहिउ पिए पेक्खहि मई सम पुणवंतु
[(स) वि-(रहस) 1/1 वि] (रहस) 1/1 (कह) भूकृ 1/1 (पिअ) 8/1 (पक्ख) विधि 2/1 सक (अम्ह) 3/1 (सम) 1/1 वि (पुण्णवंत) 1/1 वि (क) 1/1 सवि (लक्ख) विधि 2/1 सक
मेरे
समान पुण्यवान कौन समझो
को
लक्खहि
15. अजवि
सिद्धिनएण निहाणे रयमि
अव्यय [(सिद्धि)--(नअ) 3/1] (निहाण) 7/1 (रय) व 1/] सक (उवाअ) 2/1 (अवर) 2/1 वि [(मइ)-(नाण) 3/1]]
आज ही योग शक्ति की युक्ति से खजाने में रचता हूँ उपाय दूसरा बुद्धिज्ञान से
उवाउ
अवरु मइनाणे
•
16 किमि
नेमि करेमि
(क) 1/1 सवि अव्यय (ले) व 1/1 सक (कर) व 1/1 सक अव्यय (खोयण) 2/1 (हो) भवि 3/1 अक (कव्वाड) 3/1 अव्यय (भोयण) 1/1
कुछ भी नहीं लेता हूँ (लूंगा) करता हूँ (करूंगा) नहीं खनन हो जायेगा कबाडीपन से
खोयणु होस कव्वाडेण
मोयण
मोजन
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1461
2. 'सम' (समान) के योग में तृतीया होती है।
102 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
17. श्रह
कलसेसु
छुहेवि
एक्brea
बहु दविरणासए
गड्डेवि
मुक्कउ
18 अपह पव्वे
पुणुवि
t to f
पहे
पूर हु
केम
न
पइट्ठइ
19. निहिहिं 1
रयणु
एक्केक्क
लइयउ
सुपउ
करेवि
सव्यु
परिचयउ
20. प्रवरहि
समए
जाम
उग्घाडइ
रितउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
अव्यय
( कलस) 7/2
( छुह + एवि ) संकृ
[ ( एक्क) + (एक्कउ ) ]
[ ( एक्क) वि - ( एक्कअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक ]
( बहु) 6 / 1 वि
(अण्णा) 7/1 स
( पव्व ) 7/1
बहुत
[ ( दविण ) + (आसए) ] [ (दविरण) - (आसा ) 3 / 1] द्रव्य की आशा से
( गड्ड + एवि ) संकृ
( मुक्कअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
( पह) 7/1
( दिट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि
(पूर ) विधि 1 / 2 सक
अव्यय
( हियअ ) 7 / 1
अव्यय
( पट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि
(fafe) 7/1
( रयण) 1 / 1
( सव्व) 211 सवि
( परिचय 'अ' स्वार्थिक
परिचय परिचय ) भूकृ 1 / 1
तब
कलशों में
( अवर) 7 / 1 वि
(समय) 7/1
अव्यय
रखकर
एक-एक को
[ ( एक्क) + ( एक्कउ ) ]
[ ( एक्क) - (एक्कअ) 1 / 1 वि ]
(लअलइयलइयअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक ले लिया गया
(सुण्णअ ) 2 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(कर + एवि ) संकृ
गाड़कर
छोड़ दिया गया
दूसरे
समय
जब
( उग्घाड ) व 3 / 1 सक
(रित्तअ) भूकृ 2 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
उघाड़ता है खाली को
1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा. व्या. 3 - 135 ) 1
दूसरे पर्व पर
फिर
पथ में
देखे गये
भरें
किस प्रकार
हृदय में नहीं
बैठी
निधि में से
रत्न
एक-एक
खाली
करके
सबको
छोड़ दिया गया
[ 103
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________________
नियवि करहिं सिंह ताडइ
(निय + अवि) संक (कर) 3/2 (सिर) 2/1 (ताड) व 3/1 सक
देखकर हाथों से सिर पीटता है ।
21. अच्छउ
रयरगसमूह सरूवउ
नाने दो रत्नसमूह को सौन्दर्य-युक्त
(अच्छ) विधि 3/1 सक [(रयण)-(समूह) 2/1] (सरुवअ) 2/1 वि 'अ' स्वाथिक (त) 1/1 सवि अव्यय (विट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (मूल) 7/1 (ज) 1/1 सवि (रूवअ) 1/1
वि विणठ्ठ
भी
नष्ट हो गया
मूल में
जो
नो
रूवउ
रुपया
स्वाधीन लक्ष्मी को
नहीं
मोगता है इच्छा करता है
22. साहीगलच्छि
नउ भुंजइ महइ समग्गल सग्गदिहि संखिरिपहि जेम बरइत्तहो करे लग्गेसइ सुण्णनिहि
[(साहीण) वि-(लच्छी) 2/1] अव्यय (भुंज) व 3/1 सक (मह) व 3/1 सक (समग्गल) 2/1 वि [(सग्ग)-(दिहि)12/1J (संखिणि) 6/1 अव्यय (वरइत्त) 6/1 (कर) 7/1 (लग्ग) भवि 3/1 अक (सुष्ण)-(निहि) 1/1]
मोक्ष सुख को (को) संखिणी के जिस प्रकार दूल्हे के हाथ में लगेगी शून्यनिधि
9.11
1.
उसको
त निसुणेविं
सुनकर
कुमार
बुच्चइ विसु साहीण
(त) 2/1 स (निसुण+एवि) संक (कुमार) 3/1 (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (विस) 1/1 (साहीण) 1/1 वि अव्यय
कुमार के द्वारा कहा जाता है (कहा गया) विष अपने पास क्या
1. दिहि-सुख ।
104 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
अव्यय
नहीं
लहु
शीघ
अव्यय (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि
मुच्चइ
छोड़ दिया जाता है
2. रयणिहि
नयरे सियालु पट्टउ मुउ बलद्दु रच्छामहे दिट्ठ
(रयणि) 7/1 (नयर) 7/1 (सियाल) 1/1 (पइट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक (मुअ) भूकृ 1/1 अनि (बलद्द) 1/1 [(रच्छा)-(मुह) 7/1] (दिटुअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
रात्रि में नगर में गीदड़ प्रविष्ट हुश्रा मरा हुआ बैल मोहल्ले के मुख पर देखा गया
3.
भक्खं तेरण दंत-वणे। काणि रयरिणविरामपमाणु
(भवख→भक्खंत) वकृ3/1 [(दंत)-(वण) 7/1]
(काण- काणिअ)2 भूक 1/11 [(यणि)-(विराम)-(पमाण) 1/1] अव्यय (जाण→जाणिअ) भूकृ i/l
खाते रहने के कारण दाँतों के समूह से ढोला हो गया रात्रि की समाप्ति की सोमा
जाणिउँ
जानी गयो
पहाए वस-प्रामिसमुज्झिउ
(हु→हुअ) भूकृ 711 (पहाअ) 7/1 [(वस)-(प्रामिस)-(मुज्झ--→मुज्झिअ) भूकृ 1/1] [ (जण)-(संचार)-(वमाल) 3/1]
होने पर प्रभात बैल के मांस में मोहित
जरणसंचारवमालें
मनुष्यों के आवागमन के कोलाहल से होश में माया (समझा)
बुज्झिाउ
(बुज्झ→बुझिअ) भूकृ 1/1
5. भयकंपिरु
नीसरिवि
[ (भय)-(कंप+इर= कंपिर) 1/1 वि] (नीसर+इवि) संकृ अव्यय (सक्कअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
(चिंतिय) भूकृ-(मंत) 1/1] (पड+ एविणु) संकृ (थक्का ) भकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
भय से कंपनशील निकलकर नहीं समर्थ हुआ विचारी हुई, योजना
सक्कउ चितियमंतु पविणु थक्कउ
पड़कर
निश्चेष्ट हुआ
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135)। 2. यहां अनुस्वार का आगम हुआ है । अनुस्वार का अनुनासिक किया गया है।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
105
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________________
6.
अप्पउ मुयउ करिवि बरिसावमि किर वणु पुणुवि निसागमि
अपने को मरा हुमा बनकर दिखलाता हूँ अवश्य ही
(अप्पअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (मुयअ) भूक 2/1 'अ' स्वाथिक (कर+इवि) संकृ (दरिस+आव) प्रे. ब 1/1 सक अव्यय (वण) 2/1 अव्यय [(निना)+ (आगमि)] [(निसा)-(आगम) 7/1] (पाव) व 1/1 सक
वन को
फिर रात्रि आने पर
पावमि
चला जाता हूँ (जाऊँगा)
बीसइ दिवसि मिलिय पुरलोएं
एक्के
नरेण पवड्डियरोएं
(दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि
देखा जाता है (देखा गया) (दिवस) 7/1
दिन (होने) पर (मिल+-य) संकृ
मिलकर [(पुर)-(लोअ) 3/1]
नगर के लोगों द्वारा (एक्क)3/1 वि
एक (नर) 3/1
मनुष्य के द्वारा [(पवड्ड->पवड्डिय) भूकृ-(रोअ) 3/1] बढ़े हुए रोग के कारण (ओसह + अत्यु1=ओसहत्थ) 1/1
औषधि के लिए (लुअ) भूकृ 1/1 अनि
काट ली गई [(पुच्छ)-(स-कण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक] पूंछ, कान सहित (चित) व 3/1 सक
सोचता है (सोचा) (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वाथिक अध्यय
आज अव्यय
भी (धण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
भाग्यशाली
ओसहत्थु
लुउ पुच्छ-सकण्णउ
चित
जंबुद्ध
गोदड़
प्रज्ज
वि
धाउ
जो लूंगा पूंछरहित
जीवेसमि अपुच्छु विणु कहि
(जीव) भवि 1/1 अक (अपुच्छ) 1/1 वि अव्यय (कण्ण) 3/2
बिना
एक्कवार
अव्यय
कानों से (केवल) एक बार यदि छूटता हूँ (छूट जाऊँ) पुण्यों से
अव्यय (छुट्ट) व 1/1 अक (पुण्ण) 3/2
छट्टमि
पुण्णहिं
1. अत्थ-हेत्वर्थक परसर्ग । 2. बिना के योग में तृतीया हुई है।
106
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
10. वोल्लइ
अवरु
(बोल्ल) व 3/1 सक (अवर) 1/1 वि (एक्क) 1/1 वि [(कामुय) वि-(जण) 1/1] (मेण्ह) व 1/1 सक (दंत) 2/1 (कर) व 1/1 सक (वस) 7/1 वि [(पिया-पिय)1-(मण)2/1]
बोलता है (बोला) अन्य एक कामुक मनुष्य लेता हूँ
कामुयजणु गेण्हमि दंतु करमि बसि पियमणु
दांत
करता हूँ (करूंगा) वश में प्रिया के मन को
11. पाहणु
लेवि
देत
किर
(पाहण) 2/1 (ले+एवि) संकृ (दंत) 2/1 अव्यय (चूर) व 3/1 सक (जाण+इवि) संकृ (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वाथिक (हियअ) 7/1 (बिसूर-विसूर) व 3/1 अक
लेकर दांत पादपूरक तोड़ता है जानकर गोवड़ मन (हृदय में) खेद करता है
जारिणवि
जंबुउ
बिसूरह
काटे गये, पूंछ, कान मानी गई
12. खंडियपुन्छ-कष्ण
मणिय तिणु दुक्कर जीवियास
[(खंडिय) भूक-(पुच्छ)-(कण्ण) 1/1] (मण्ण-→मण्णिय) भूकृ 1/1 (तिण) 1/1 वि (दुक्कर) 1/1 वि [(जीविय)+(आस)] [(जीविय)-(आसा) 1/1] (दंत) 3/2 अव्यय
कठिन जीने की आशा (उम्मीर)
दंतहिं विण
दांतों के बिना
13. चितवि
धाउ जव-पारणे लइउ
(चित+अवि) संकृ (मुक्क) भूकृ 1/1 अनि (धा→धाअ) भूकृ 1/1 [ (जव)-(पाण) 3/1] (लइ→लइअ) भूकृ 1/1 (कंठ) 7/1 [(हरि)-(सरिस) 3/1 वि] (साण) 3/1
सोचकर म्लान भागा वेग से, प्राणसहित पकड़ लिया गया मुंह (कंठ) में सिंह के समान कुत्ते के द्वारा
हरिसरिसे
सावं
1. समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है (हे. प्रा. व्या. 1-4)।
अपभ्रंश काव्य सौरम
[ 107
Page #221
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________________
14. मारिउ
ताम जाण कयनाएं
(मार-→मारिअ) भूकृ 1/1 अव्यय (जाण) विधि 3/1 सक (कयन→(स्त्री) कयना) 3/1 (खद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (मिल+इवि) संकृ [(सुणह)-(समवाअ) 3/1]
मार दिया गया उस समय समझो मार डालने के कारण खा लिया गया मिलकर कुत्ते के समूह द्वारा
मिलिवि सुरबहसमवाएं
15. इय
विसयंधु
इस प्रकार विषयों में अंधा
मूढ
मूढ़
जो
अव्यय [(विसय)+ (अंधु)] [ (विसय)-(अंध) 1/1 वि] (सूढ) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि (अच्छ) व 3/1 अक
(कवरण) स-(भंति) 1/1] (त) 1/1 सवि (पलय) 6/1 (मच्छ) व 3/1 सक
अच्छह कवणभंति
रहता है क्या, सन्देह वह
सो
नाश को
पलयहो' पच्छ
पाता है
10.11
1. जंबूसामि
कहारगड साहब वारिणउ कोवि परोहणु वाहा
(जंबूसामि) 1/1 (कहाणअ) 2/1 (साह) व 3/1 सक (वारिणअ) 1/1 (क) 1/1 सकि (परोहण) 2/1 (वाह) व 3/1 सक
जंबूस्वामी कथानक कहता है (कहते हैं) वणिक कोई जहाज ले जाता है (ले गया)
गऊ परतीरे पुहइधण-तुल्ला एक्कु जि रयणु किरिगउ बहुमोल्लउ
(गअ) भूकृ 1/I अनि
गया [(पर) वि-(तीर) 7/1]
दूसरे किनारे पर [(पहइ)-(धण)-(तुल्लअ) 1/1 वि 'अ' स्वा.] पृथ्वी के धन के तुल्य (एक्क) 1/1 वि
एक अव्यय (रयण) 1/1 (किरण→किणिअ) भूक 1/1
खरीदा गया (बहुमोल्लअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
बहुमूल्य
रत्न
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
108
]
[ अपभ्रंश,काव्य सौरभ
Page #222
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________________
3. चडिवि
पोइ लंघ सायरजलु श्रावंत चित मणे
(चड+इवि) संकृ (पोअ) 7/1 (लंघ) व 3/1 सक [(सायर)-(जल) 2/1] (आ→आवंत→आवंतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा. (चित) व 3/1 सक (मण) 7/1 (मंगल) 2/1 वि
चढ़कर जहाज पर पार करता है (पार किया) सागर के जल को पहुँचते हुए सोचता है (सोचने लगा) मन में इष्ट
मंगलु
जब बन्दरगाह को पहुंचता हूँ (पहुंचूंगा)
बेलाउलु पावमि तहि पुण विक्कमि
वहाँ
अव्यय (वेलाउल) 2/1 (पाव) व 1/1 सक अव्यय अव्यय (विक्क) व 1/I सक (एअ) 2/1 सवि (माणिक्क) 2/1 (महागुण) 2/1 वि
एउ
फिर बेचता हूँ (बेचूंगा) इस मारिणक, रत्न (को) अत्यधिक कीमतवाले
माणिक्कु महागुणु
5. हरि-करि
किणवि
भंडु
नाणाविहु গ্রহ जाएसमि निवसंपयनिहु
[(हरि)-(करि) 2/1]
थोड़े व हाथी (किरण+अवि) संकृ
खरीदकर (भंड) 2/1
बर्तन (भांडा) (नाणाविह) 2/1 वि
नाना प्रकार के (घर) 2/1
घर (जाअ) भवि 1/1 सक
जाऊँगा (निव)-(संपया→संपय1)-(निह)2/1 वि] राजा की सम्पदा के समान
6
तब
अह हत्थाउ गलिउ दरनिद्दहो
हाथ से निकल गया
अव्यय (हत्थ) 5/1 (प्रा.) (गल→गलिअ) भूक 1/1
(दर)+(निद्दहो)] दर:- अव्यय (निद्दा)3 6/1 (पड→पडिअ) भूकृ 1/1 (रयण) 1/1
प्रल्प निद्रा में
पडिउ रयणु
1. समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है (हे. प्रा. व्या. 1-4)। 2, निह=समान । 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 109
Page #223
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________________
मज्झे
(त) 1/1 सवि (मज्झ)7/1 (समुद्द) 6/1
समुद्दहो.
भीतर (अन्दर) समुद्र के
घाहावइ
तरियह
दोहरगिर हा-हा जाणवत्तु किज्जउ थिर
(धाहाव) व 3/1 अक (तर→तरिय) भूक 4/1 [(दीहर) वि-(गिर) 2/1] अव्यय (जाणवत्त) 1/1 (कि→किज्ज) विधि कर्म 3/1 सक (थिर) 1/1 वि
हाहाकार मचाता है (मचाया) तैरे हुए (लोगों) के लिए ऊंची प्रावाज प्ररे, अरे जहाज किया जाए स्थिर
8.
गिरा यहाँ
निवडिउ एत्यु रयणु अवलोयहो
(निवड→निवडिअ) भूक 1/I अव्यय (रयण) 1/1 (अवलोय) 4/1 (त) 2/1 स (आण+एवि) संकृ अव्यय (अम्ह) 4/1 (ढोय) 8/2 वि (दे)
आणेवि
अवलोकन के लिए उसको लाकर फिर मेरे लिए हे उपस्थित (लोगों)
पुणुवि
होयहो
9. सायरे
न? वहंतहो। पोबहो।
(सायर) 7/1 (नट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (वह→वहंत) वक 6/1 (पोय) 6/1 अव्यय (लगभइ) व कर्म 3/1 सक अनि (माणिक्क) 1/1 (पलोय) 8/2
सागर में लुप्त हुमा चलते हुए जहाज में कहाँ प्राप्त किया जाता है (जाएगा)
नभइ
मारिणक्कु
पलोयहो
हे देखनेवाले (मनुष्यों)
यह
10. इय
मणुयजम्म मारिणक्कसम रइसुहनिद्दावसजायभम
(इअ) 1/1 सवि [(मणुय)-(जम्म) 1/1]
मनुष्य जन्म [(माणिक्क)-(सम) 1/1 वि]
रत्न के समान [(रइ)-(सुह)-(निद्दा)-(वस)-(जाय) भूकृ- रतिसुखरूपी निद्रा के वश में (भम)1/1]
हुप्रा भ्रमण
1. कमी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
110 ]
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसारसमुद्दि हराबियउ जोयंतु
[(संसार)-(समुद्द)7/1] (हराविय→हरावियअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (जोय→जोयंत) वकृ 1/I अव्यय अव्यय (लह) व 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स
संसार समुद्र में हराया गया देखता हुभा (खोजता हुआ) किस प्रकार फिर प्राप्त करता हूँ (पाऊंगा)
केम
पुणु
लहमि
अपभ्रंश काव्य सौरम ।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-10
सुदंसरणचरिउ
सन्धि
-2
2.10
1. आयग्जि
प्रागमे सत्त विन
(आयण्ण) विधि 2/1 सक (पुत्त) 8/1 अव्यय (आगम) 7/1 (सत्त) 1/2 दि अव्यय (वसण) 1/2 (वुत्त) भूकृ 1/2 अनि
जिस प्रकार प्रागम में सातों हो, सभी व्यसन कहे गये (समझाये गये)
वसण
2.
सप्पाइ दुक्खु
दिति
[(सप्प)+ (आइ)] [(सप्प)-(आइ) 1/2] सर्प प्रादि (दुक्ख ) 2/1
दुःख को अव्यय
यहाँ (दा) व 3/2 सक (एक्क) 7/1 वि (भव) 7/1
जन्म में (दुण्णिरिक्ख) 2/1 वि
कठिनाई से विचार किये जानेवाले
देते हैं
एक्क
दुण्णिरिक्खु
3. विसय
विषय किन्तु
नहीं
मंति नम्मंतरकोडिहिं
(विसय) 1/2 अव्यय अव्यय (मंति) I/1 [(जम्म)+ (अन्तर)+ (कोडिहिँ)] { (जम्म)-(अन्तर)-(कोडि) 7/2 वि] (दुह) 2/1 (जण) व 3/2 सक
सन्देह करोड़ों जम्मों के अवसर पर
भरणंति
उत्पन्न करते (रहते) हैं
4. चिरु
अव्यय
वीर्घकाल के लिए
1. संख्यावाचक शब्दों के पश्चात् प्रयुक्त होने पर 'समस्तता' का अर्थ होता है। 2. शन्य विभक्ति, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 ।
112 1
[ अपभ्रश काव्य सोरम
Page #226
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________________
रुद्ददत्तु रिगवडिउ णरयण्णवे
(रुद्ददत्त) 1/1 (णिवड→णिवडिअ) भूकृ 1/1 [(णरय) + (अण्णवे)] [(णरय)-(अण्णव):/l] [ (विसय)-(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि]
पड़ा नरकरूपी समुद्र में
विसयजुस्तु
विषयों में लीन
आयरेण
जो
(वढ) 1/1 वि क्रिविअ (ज) 1/1 सवि (रम) व 3/1 सक (जूअ) 2/1 [(बहु) वि-(डफ्फर) 3/1]
उत्साहपूर्वक जो खेलता है जुआ
रमद
बहुडपफरेण
6
सो
च्छोहजुत्तु पाहगइ जणि सस घरिरिण पुत्तु
यह रोष से युक्त हुमा कष्ट देता है माता बहिन
पत्नी पुत्र को
(त) 1/1 सवि [(च्छोह)-(जुत्त) भूकृ I/1 अनि] (आहण) व 3/1 सक (जणणी) 2/1 (ससा) 2/1 (घरिणी) 2/1 (पुत्त) 2/1 (जूय) 2/1 (रम→रमंत) बकृ 1/1 (णल) 1/1 अव्यय (जुहिट्ठिल्ल) 1/1 (विहुर) 21 (पत्त) भूक 1/1 अनि
7.
जयं
रमंतु
णलु
सह्य
जुआ खेलते हुए नल ने और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने कष्ट पाया
जुहिडिल्लु विहरु पत्तु
8. मंसासणेण
बढेइ
बप्पु
[(मंस) + (असणेण)] [(मंस)-(असण)3/1] मांस खाने के कारण (वड) व 3/1 अक
बढ़ता है (दप्प) 1/1
अहंकार (दप्प) 3/1
अहंकार के कारण (त) 3/1 सवि
उस
दप्पेण तेण
अहिलसह
मज्जु
(अहिलस) व 3/1 सक (मज्ज) 2/1 (जूअ) 2/1 अव्यय (रम) व 3/1 सक
इच्छा करता है मद्य की (को) जुमा
मी
रमेह
खेलता है
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
113
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुदोससज्ज
[(बहु) वि-(दोस)-(सज्जु)12/1]
बहुत सी बुराइयों में गमन
10. पसर
अकित्ति ते→तें कज्जे-कज्जें कोरइ
(पसर) व 3/1 अक (अकित्ति) 1/1 (त) 3/1 सवि (कज्ज) 3/1 (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि (त) 5/1 स (रिणवित्ति) 1/1
फैलता है अपयश उस कारण से - की जानी चाहिए उससे निवृत्ति
तहो
रिणवित्ति
11. जंगलु
असंतु वणु रक्खसु मारिउ णरए पत्तु
(जंगल) 2/1 (अस→असंत) वकृ 1/1 (वरण) 1/1 (रक्ख स) 1/1 (मार→मारिअ) भूकृ 1/1 (णरअ) 7/1 (पत्त) भूकृ 1/1 अनि
मांस खाते हुए वन राक्षस मारा गया नरक पाया
12. मइरापमस्तु
[(मइरा)-(पमत्त) भूकृ 1/1 अनि
मदिरा के कारण नशे में चूर
हुआ
कलहेप्पिणु हिसइ इट्टमित्तु
(कलह+एप्पिणु) संकृ (हिंस) ब 3/1 सक [(इट्ठ)-(मित्त) 2/1]
झगड़ा करके कष्ट पहुंचाता है प्रिय मित्र को
13. रच्छहे
पडे उम्भियकर विहलंघलु
(रच्छा ) 6/1 (पड) व 3/1 अक. [(उभ→उब्भिय) संकृ -(कर) 2/1] (विहलंघल) 1/1 वि (ड) व 3/1 अक
राजमार्ग पर गिर जाता है ऊँचा करके, हाथ को उन्मत्त शरीरवाला नाचता है
14. होता
सगव्य
(हो→होंत) वकृ 1/2 (सगव्व) 1/2 वि
होते हुए घमंडी
i
1. सर्ज-सज्जु गमन, अनुसरण, (संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे)। 2. यह विधि-अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 121।
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 2481 4. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135)। 5. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
114]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #228
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________________
गय
जायव
मज्जे मज्जे
खयहो 1
सध्य
15. साइणि
व
बेस
रत्ताधरिसण
वरिसइ
सुबेस
16. तो
जो
वसेs
सो
कायरु
ਚਿਸੂਰ
से
17. वेसाप मत्तु खिद्धणु
हुउ
इह
ཐཱ
चरिण
चारुदत्तु
18. कयवीजचेसु
रणासंतु
परम्मुह
छुट्ट
19. जे
सूर होंति
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
( जायव) 1/2
( मज्ज ) 3 / 1
( खय) 6 / 1
( सव्व ) 1/2
(साइणी) 1/1
अध्यय
(वेसा) 1 / 1
[ (रक्त रक्त रक्ता 2 ) - ( घरिसरण ) 2 / 1]
( दरिस ) व 3 / 1 सक
( सुवेस) 2/1
(त) 6/1 स
(ज) 1 / 1 सवि
(वस ) व 3 / 1 अक
(त) 1 / 1 सवि
(कायर) 1 / 1 वि
( उच्छिट्ठअ ) 2 / 1 'अ' स्वाधिक (अस) व 3 / 1
सक
[ ( वेसा ) - ( पमत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि ] (णि) 1 / 1 वि
( हु हुअ ) भूकृ 1 / 1
अव्यय
(वणि) 1 / 1 वि
( चारुदत्त ) 1 / 1
[ ( कय) भूकू अनि - ( दीण) वि- (वेस) 1 / 1]
(पास) व 1/1
(परम्मुह ) 1/1 वि
[ (छुट्ट) भूकृ अनि - (केस) 1 / 1]
(ज) 1/2 सवि
( सूर ) 1/2 वि (हो) व 3 / 2 अक
प्राप्त हुए
यादव
मदिरा के कारण
विनाश को
सभी
पिशाचिनी
की तरह वेश्या
खून का घर्षण दिखाती है।
सुन्दर वेश
उसके
जो
रहता है
वह
अस्त-व्यस्त
जूठन
खाता है
वेश्या में मस्त हुआ
धनरहित
हुआ
यहां
व्यापारी
चारुवत्त
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134) 2. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाते हैं (हे. प्रा. व्या 1-4 ) ।
बना दिया गया, दयनीय, वेश
दूर हटाती हुई
विमुख
काट दिये गये, बाल
नो
वीर
होते हैं
[ 115
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवरा
शबरों का ही
hot
चाहे
(सवर) 1/2 अव्यय अव्यय (त) 1/1 सकि (त) 1/2 सवि अव्यय (हण) व 3/2 सक
वह
नहीं मारते हैं
हरांति
20. वणे
तिरण चरंति णिसुरणेवि
(वण) 7/1 (तिरण) 2/1 (चर) व 3/2 सक (णिसुण+एवि) संकृ (खड्डकअ) 2/1 अव्यय (डर) व 3/2 अक
वन में घास चरते हैं सुनकर खड़खड़ आवाज निश्चित डर जाते हैं
खड्डकउ
णिक डरंति
21. वरणमयउलाई
[(वण)-(मय)-(उल) 2/2]
किह
बन में रहनेवाले मगों केसमूह को क्यों मारता है
अव्यय (हण) व 3/1 मक (मूढ) 1/1 दि (कि→किअ) भूक 1/1 (त) 3/2 स (कि) 1/1 स
किउ तेहिं तेहिं काई→काई
किया गया उनके द्वारा क्या
22. पारद्धिरत्तु
चक्कवइ णरए गउ बंभयत्तु
[(पारद्धि)-(रत्त) भूक 1/I अनि] (चक्कवइ) 1/1 (णरअ) 7/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (बंभयत्त) 1/1
शिकार का प्रेमी चक्रवर्ती नरक में (को) गया ब्रह्मदत्त
23. चल
चोर धि? गुरुमायबप्पु
(चल) 1/1 वि (चोर) 1/1 (धिट्ठ) भूक 1/1 अनि [(गुरु)-(माया)2-(बप्प) 2/1]
चंचल चोर निर्लज्ज गुरु, मां और बाप को
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135)। 2. माया→माय, समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाते हैं (हेम प्राकृत
व्याकरण 1-4)।
116
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
माणइ
ण
इठ्ठ
24. यियबलेण
वंचइ
प्रवर
वि
सो
छलेण
25. भयकूवि
छूढ़
णउ
गिद्दभुक्खु
पावेइ
मूढ़
26. पद्धडिय
एह
सुपसिद्धी
गामें
विज्जलेह
27. पावेज्जइ
बंधेवि
रिगज्जइ
वित्वारेवि
रहे 2
चच्चरे
दंडिज्जह
तह
खंडिज्जह
मारिज्जह
पुरवाहिरे
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( माण ) व 3 / 1 सक
अव्यय
( इट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( णिय) वि- (भुय) - (बल) 3 / 1 ]
(वंच) व 3 / 1 सक
(त) 2 / 2 स (अवर) 2/2
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
(छल) 3/1
[ (भय) - ( कुव ) 7 / 1 ] (छूट) 1 / 1 वि
अव्यय
[ ( णिद्द) - (भुक्ख ) 2 / 1]
(पाव) व 3 / 1 सक ( मूढ ) 1 / 1 वि
(पद्धडिया ) 1 / 1 (एआ) 1 / 1 सवि
( सुपसिद्धि) 1/1
( णाम) 3/1
(विज्जलेहा ) 1 / 1
(पाव) 1 व कर्म 3 / 1 सक
(बंध + एवि ) संक
(णी) व कर्म 3 / 1 सक
( वित्थार + एवि ) संकृ
(रह) 7/1
( चच्चर) 7/1
(दंड) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
1. प्र-आप् पाव पकड़ लेना (आप्टे, संस्कृत - हिन्दी कोश ) ।
2. टिप्पण, सुदंसणचरिउ, 2.10, पृष्ठ 268
(खंड) व कर्म 3 / 1 सक
( मार ) व कर्म 3 / 1 सक
[ ( पुर ) - ( वाहिर ) 7 / 1वि ]
मानता है
नहीं श्रादरणीय
निज भुजाओं के बल से
ठगता है
उनको
दूसरों को
भो
वह
जालसाजी से
संकटरूपी कुए में
उपेक्षित
नहीं
निद्रा और भूख को
पाता है
मूढ़
पद्धडिया छंद
यह
ख्याति
नाम से
विद्युल्लेखा
पकड़ा जाता है बांधकर
ले जाया जाता है
फैलाकर
चौराहे पर
मुख्यमार्ग पर
दंडित किया जाता है
तथा
काटा जाता है।
मारा जाता है।
शहर के बाहरी भाग में
[ 117
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
2.11
1. परवसुरयहो
[(पर) वि-(वसु)-(रय)1 6/1]
अंगारयहो सूलिहि→सूलिहि
(अंगारय)16/1 (सूली) 7/2 (भरण) 1/1 वि (जाय) भूकृ1/1 अनि (मरण) 1/1
परतव्य में अनुरक्त होने के कारण अंगारककेशारा सलियों पर धारण करनेवाला प्राप्त किया गया मरण
जायं मरणं
2. इय
रिगएवि बरलो तो
इसको जानकर मनुष्य उस समय
(इम) 2/1 सवि (णिअ) संकृ (जण) 1/1 अव्यय अव्यय (मूढमण) 1/1 वि (चोरी) 2/1 (कर) व 3/1 सक अव्यय (परिहर) व 3/1 सक
भी मूर्ख
मूठमणो
चोरी
चोरी करता है
नहीं
परिहरड
छोड़ता है
3.
जो
अहिलसह
(ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(जुवइ) 2/1] अव्यय (अहिलस) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (णीसस) व 3/1 अक (गा→गाय) व 3/1 सक (हस) व 3/1 सक
जो अन्य की स्त्री को लोक में चाहता है वह लालायित रहता है प्रशंसा करता है मिलता-जुलता है
बोससइ गायक हस
12. सहिऊरण
(सह) संक (जब) 7/1 (रिणवड) 43/1 अक (गरम) 7/1
जगत में गिरता है
णिवाड़
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)। 2. निश्वस्=णीसस लालायित होना, मोनियर विलियम, संस्कृत-अंग्रेजी कोष (देखें-श्वस्) । 3. हस्= मिलना-जुलना, (आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोष)।
118 ]
। अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #232
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________________
होऊ 1
अबुहा
रामण
पमुहा
13. परयारश्या
चिद
खयहो
गया
सत्त
वि
वसणा
एए
कसरणा
1. इयरहें इयरहं
->
पासिउ
सोल
वि
जुबइहे
मंड
मासिउ
( इयर) 6 / 2 वि
दिव्याहरण दिव्याहरणहं[ (दिव्व) + (आहरणहं ) ]
[ ( दिव्व) - ( आहरण ) 6 / 2] ( पास पासिअ ) भूकृ 1 / 1 (सील) 1 / 1
अव्यय
( जुबइ ) 6 / 1
( मंडण ) 1 / 1
(मास) भूकृ 1 / 1
2. हरिवि
पीय
जा
किर
-
बवणे दहब य सीले सीलें
सीय
दु
पर
जल
जलनें
( होअ) भूक 1 / 1
( अबुह ) 1 / 1 वि
( रामण ) 1/1
( पमुह ) 1 / 1 वि
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[( ( पर) वि - ( यार ) - ( रय) भूकृ 1 / 1 अनि ]
अव्यय
(खय) 6/1
( गय) भूकृ 1 / 1 अनि
(सत्त) 1 / 2 वि
अव्यय
( वसण ) 1/2
(अ) 1/2 सवि
( कसण) 1/2 वि
8.7
( हर + इवि) संकृ
( णीय) भूकृ 1 / 1 अनि
(जा) 1 / 1 सवि
अव्यय
(दहवयण ) 3 / 1 (सील) 3/1 ( सीमा ) 1 / 1 (दड्ड) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
(जलन) 3 / 1
हुआ अज्ञानी
रावण आदरणीय/श्र ेष्ठ
पर स्त्री में अनुरक्त हुप्रा
आखिरकार
विनाश को
गया
सातों
समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त
व्यसन
T
अनिष्टकर
अम्य
सुन्दर ग्राभूषणों के
Lam
जाना गया (समझा गया ) शोल
युवती का ग्रामवरण कहा गया
1.
मात्रा के लिए 'उ' को 'ऊ' किया गया है ।
2. कभी - कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
हरण करके ले जाई गई
जो
जैसा कि बतलाया जाता है
रावण के द्वारा
शोल के कारण
सीता
बलाई गई
नहीं
अग्नि के द्वारा
119
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--------------------------------------------------------------------------
________________
3. तह
खग किरायउवसग्गहॅ→
खगकिरायउवसग्गहं
चुक्किय
4. रोहिणि
खरजलेण
श्ररांतमइ
सीगुरुक्किय
6.
7.
संभाविय
सीलगुणेण
साइए
ण
5. हरि-हलि-चक्कवट्टि - जिपमायउ
अज्जु
वि
वहाइय
तिहरणम्मि विक्खायउ
एउ
सीलकमल सरहं सिउ
फणिणरखयरामरहिं- -> फणिरखयरामरहि
पसंसिउ
जणणि
ए
छारपुंज
वरि
120 1
अव्यय
( अनंतमइ ) 1/1
[ (सील) - (गुरु) - (क्किय ) भूकृ 1 / 1 अनि ]
[ (खग) - (किराय) - (उवसग्ग ) 26 / 1]
(चुक्क) भूकृ 1 / 1
(fefor) 1/1
[ ( खर) वि - ( जल ) 3 3 / 1]
( संभाविय) भूकृ 1 / 1 अनि
.
[ (सील) - ( गुण) 3 / 1]
(ई) 3/1
अव्यय
( वह ( प्र . ) वहाव (भूक) वहा विय बहाइय
(स्त्री) वहाइया) भूकृ 1 / 1
[ (हरि) - (हलि ) - (चक्कवट्टि) - (जिण) - (माओ) 1 / 2 ]
अव्यय
अव्यय
( ति - हुयण) 7/1
(विखाया) भूकृ 1 / 2 अनि
(एया) 1/2 सवि
[ (सील) - ( कमल) - (सर) - (हंसी) 1 / 2]
[ ( फणि) + (गर) + (खयर) + (अमरहिं ) ] [ ( फरिण) - (र) - ( ख-घर ) - ( अमर ) / 2]
( पसंस (स्त्री) पसंसी) 1/2 वि
( जणणि) 8/1
अव्यय
[ ( छार ) - (पुंज) 1 / 1}
अव्यय
उसी प्रकार अनन्तमती
कठोर शील धारण की हुई
विद्याधरों और किरात के
उपद्रव से
रहित हुई
रोहिणी
तेज धारवाले जल में
डुबोई गई
शील गुण नदी के द्वारा
नहीं
बहाई गयी
के कारण
नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थकरों की माताएं
आज
भो
तीन लोक में
प्रसिद्ध
ये
शीलरूपी कमल-सरोवर की हंसिनी
} श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) । 3. कमी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3 - 137 ) ।
नागों, मनुष्यों, प्रकाश में चलनेवाले ( विद्याधरों ) क्रौर देवों द्वारा
प्रशंसित
माता
हे ( श्रामन्त्रण का चिह्न)
राख का ढेर अधिक अच्छा
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #234
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________________
रगड कुसोलु मयरणेणुम्मायउ
(जा→जा1-→जाय) विधि 3/1 अक अव्यय (कुसील) 1/1 [(मरणयेण)+ (उम्मायउ)] (मयम) 3/1 (उम्मायअ) 1/1 वि
हो जाए नहीं कुशील
कामवासना के कारण, पागलपन पैदा करनेवाला (ऊमादक)
8. सोलवंतु
बुहय →बुहयणे सलहिज्जा सोलविवज्जिएण
(सीलवंत) 1/1 दि (बुहयण) 3/1 (सलह) व कर्म 3/1 सक [(सील)-(चिवज्जिम) 3/1] (किं) 1/1 सवि (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
शीलवान विद्वान व्यक्ति के द्वारा प्रशंसा किया जाता है शोलरहित होने से
किज्ज
सिद्ध किया जाता है
इसको
समझकर
जाणेविणु सोलु परिपालिज्जए
(इ.)2/1 स (जाण+ एविणु) संकृ (सील) 1/1 (परिपाल+ इज्ज) व कर्म 3/I सक (मा) 8/1 अव्यय (महासइ) 8/1
शील पालन किया जाता है माता
महासह णं .
हे महासती
अव्यय
है
लाहु रिणयंतिहे
अव्यय (लाह) 1/1 (रिणय →णियंत→णियंती)26/11 (हला) 8/1 [(मूल)-(छेअ) 1/1] (तुम्ह) 6/1 स (हो) भवि 3/1 अक
लाभ देखते हुए हे सखी प्राधार का नाम आपका हो जायगर
मूलछेउ
होस
००
अध्यय (फिट्ट) व 3/1 अक
फिट्टई
नहीं दूर होता है
अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुओं में अ (य) विकल्प से जूड़ता है, अभिनव प्राकृत
व्याकरण, पृष्ठ 265 । 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 121
Page #235
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________________
पेयव
(पेयवण)1 7/1 अव्यय (गिद्ध) 1/1 अव्यय (मिट्ट) 33/1 अक (पंकअ) 7/1 (मिंग)111 (पइट्ठ) भूक 1/1 अनि
श्मशान से इस लोक में गिद्ध नहीं दूर होता है कमल में मौरा घुसा हुमा
मिंगु
2.
म
नहीं
तुंबरणारयनेउ
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक [(तुंबर)-(णारय)-(गे) 1/1] अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक [(पंडिय)-(लोय)-(विवेअ) 1/1]
छूटता है नारद के सम्बरे का गीत नहीं नष्ट होता है जानी समुबाब का विवेक
पंरियलोयविकेट
3.
नहीं
म फिट्टा
दुज्जणे
दुटुसहाउ
अव्यय (फिट्ट) व 3/I अक (दुज्जण)17/1 [(दुट्ठ) भूक अनि - (सहाम) 1/1] अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक [(गिद्धण)-(चित्त)1 7/1] (विसाम) 1/1
बोमल होता है दुर्जन से दुष्ट स्वभाव नहीं समाप्त होती है निर्धन के चित्त से चिन्ता
णिवणचित्ते विसाज
4.
ण
मोह महाधरणवंते
अव्यय । (फिट्ट) 3/1 अक (लोह) 1/1 (महाधणवंत)17/1वि अव्यय (फिट्ट) 3/1 अक
(मारण)-(चित्त) 1/1] (कयंत)17/1
जाता है लोम महाधनवान से
नहीं
मारगचित्तु
दूर होता है मारने का भाव यमरान से
कर्यते
5.
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (जोव्वण-इत्त)17/1वि
बोवणइत्ते
हटता है यौवनवान से
1 कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या.3-136) ।
122 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #236
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________________
मरटु
अहंकार
नहीं
फिट्टइ वल्लहे
(मट्ट) 1/1 अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (वल्ल ह)7/1 (चित्त) 1/1 (बहुट्ट) I/I वि
विचलित होता है प्रेमी में मन लगा हमा
बहुट्ट
6.
न
महाकरिह
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (विंझ)1 7/1 [(महा) वि-(करि)-(जूह) 1/1] अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (सासअ)1711 [(सिद्ध)-(समूह) 1/1]
नहीं नीचे प्राता है विन्ध्य पर्वत से महान हाथियों का समूह नहीं रहित होता है शाश्वत से सिद्धों का समूह
फिट्टा सासए सिद्धसमूह
फिट्टए पाविहे पावकलंकु
नहीं छूटता है पापी से पाप का कलंक
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (पावि) 5/1 [(पाव)-(कलंक) 1/1] अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक [(कामुय)-(चित्त)17/1] (झसंक) 1/1
फिट्टए कामचिरते मसंकु
हटता है कामुक चिसो कामदेव
8.
ण किट्टए प्रायहे जो असमाह सुछंदु
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (आय)17/1 (ज) 1/1 सवि (असयाह) 1/1 (सुछंद) 1/1 अव्यय (मोत्तियदामअ) 1/1 'अ' स्वाधिक (एअ) 1/1 सवि
नहीं हटता है (हटेया) मन से आहे कदासह छंब
दि
मोतियवामन
मौक्तिकदाम
9.
ग्रहवा
अव्यय अध्यय
जहां
1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-136) ।
अपभ्रंस काव्य सौरम ]
[ 123
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________________
जिह जेण किर
जिह
जैसी
प्रवसमेव होएवउ
तिह
अव्यय
जिस प्रकार (ज)3/1स
जिसके द्वारा अव्यय
पादपूरक अव्यय अव्यय
अवश्य हो (हो+एवाहोएवा-→होएकउ) विधि कृ. 1/2 उत्पन्न की जानी चाहिए
(जायेंगी) अव्यय
वहां अव्यय
उसी प्रकार (त) 3/1 सवि
उसके द्वारा अव्यय (देहिअ) 3/1
व्यक्ति के द्वारा अव्यय (एक्कंग) 3/1 वि
अकेले [(सह+एवा→सहेवा-→सहेवउ) विधि कृ. I/2] सही जानी चाहिए (सही
जायेंगी)
तेण
देहिएग तिह एक्कंगरण सहेवच
832
1.
सुलहउ पायालए णायरगाह सुलहउ कामाउरे
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वा. (पायालअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक
(णाय)-(णाह) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वायिक [(काम)+ (आउरे) [(काम)-(आउर) 7/1 वि] I (विरह)-(डाह) 1/1]
सुप्राप्य पाताल में सों का स्वामी स्वाभाविक काम से पीड़ित में
विरहडाहु
विरह का संताप
2. सुलहउ
रावजलहरे जलपवाह सुलहन वइरायरे
(सुलहअ) 1/] वि 'अ' स्वार्थिक [(णव) वि-(जलहर) 1/1] [(जल)-(पवाह) 1/1] (सुलहा) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [ (वइर)+ (आयरे) ] [(वइर)-(आयर) 7/1] [(वज्ज)-(लाह) 1/1]
सरल नये बादल में जल का प्रवाह प्रासान हीरे की खान में
वाजलाह
हीरे की प्राप्ति
सुलभ
3. सुनहर
कस्सीरए चुसिरणपिडु सुलहउ माणससरे
(सुलहा) 1/1वि 'अ' स्वाथिक (कस्सीरअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक [(घुसिण)-(पिंड) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक (माणससर) 7/1
कश्मीर में केसरपिंड सुलभ मानसरोवर में
124
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
-
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कमलसंडु
[(कमल)-(संड) 1/1]
कमलों का समूह
दोवंतरे विविहभंडु
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्थाथिक
सुप्राप्य [(दीव)+ (अंतरे)] [(दीव)-(अंतर) 7/1] द्वीपों के अन्दर [(विविह)-(भंड) 1/1]
नाना प्रकार की व्यापारिक
वस्तुएं (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
सुलभ (पाहाण) 7/1
पत्थर में [(हिरण्ण)-(खंड) 1/1]
सोने का अंश
पाहाणे हिरण्णखंड
5. सुलहउ
मलयायले सुरहिवाउ सुलहउ गयणंगरणे उडुणिहाउ
(सुलहा) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
स्वाभाविक [(मलय)+ (अयले)][(मलय)-(अयल)17/1] मलय पर्वत से [(सुरहि) वि-(वाउ) 6/1]
सुगन्धयुक्त वायु का (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
स्वाभाविक (गयणंगण) 7/1
व्यापक प्राकाश में [(उडु)-(णिहाअ) 1/1]
तारों का समूह
सुलहन पहुपेसणे कए पसाउ सुलह ईसासे जणे कसाउ
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक [(पहु)-(पेसण) 7/1] (कअ) भूक 7/1 अनि (पसाअ) 1/1 (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक (ईसा-स) 7/1 वि (जण) 7/1 (कसाअ) 1/1
प्रासान स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार स्वाभाविक ईायुक्त व्यक्ति में कषाय
(सुलहा) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक (रविकतमणि) 3/
आसानी से प्राप्त (है) सूर्यकान्त मणियों द्वारा
7. सुलहउ
रविकंतमरिणहि→ रविकतमरिणहि हुयासु सुलहउ वरलक्खणे पयसमासु
(हुयास) 1/1 (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(वर)-(लक्खण) 7/1] [(पय)-(समास) 1/1]
अग्नि सुलभ उत्तम व्याकरण शास्त्र में पदों में समास
8. सुलहन
(सुलहर) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
सुलभ
1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-136) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
।
125
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रागमे धम्मोवसु
सुलहउ सुकईयणे
मइविसेसु
9. सुलहउ मणुयत्तणे
पिउ
कलत्तु
पर
एक्क
1.
ཚེ
जि
दुल्लह
10. जिणसासणे
जं
पवित्
Þ
कयावि
पत्तु
किह
णासमि
तं
चारितवित्तु
11. एम वियपिकि
जाम
थिउ
अभिलचित्
सुहदंसण
अभयादेवि
विलक्ख
126 J
( आगम) 7/1
श्रागम में
[ ( धम्म) + ( उवएसु) ] [ धम्म ) - ( उवएस ) 1/1] मूल्यों (धर्म) के उपदेश
( सुलहअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
सुलभ
सुकविजन में
बुद्धि की श्रेष्ठता
[ ( सुकई) 1 - ( यण) 7 / 1]
[ ( मइ ) - (विसेस) 1 / 1]
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( मणुयत्तण) 7/1
(पिअ) 1 / 1 वि
( कलत्त) 1 / 1
अव्यय
( एक्क) 1 / 1 वि
अध्यय
( दुल्लह) 1 / 1 वि
( अपवित्त ) 1 / 1 वि
[ ( जिरण ) - ( सासरण) 7/1 ]
(ज) 2/1 स
अव्यय
अव्यय
( पत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
(पास) व 1 / 1 सक (त) 2 / 1 सवि [(after)-(far) 2/1]
अव्यय
( वियप्प + इवि ) संकृ
समास के कारण दीर्घ हुआ है ( है. प्रा. व्या. 14)
अब्यय
(थिअ ) भूकृ 1 / I अनि
( अविओलचित्त ) 1 / 1 वि
[ ( सुह ) वि - ( दंसण) 1 / 1]
( अभयादेवि ) 1 / 1
(विलक्ख) 1 / 1 वि
सुलभ
मनुष्य श्रवस्था में
प्रिय
पत्नी
किन्तु
एक
हो
दुर्लभ
प्रतिपवित्र
जिन शासन में
जिसको
महों
कमी ( भी )
प्राप्त किया
कैसे
बर्बाद क
उस ( को ) afraरूपी धन को
इस प्रकार
विचार करके
जब
हुआ
शान्त चित्तवाना
मनोहर, दर्शन
प्रभयादेवी
नज्जित
| अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #240
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________________
हुय
RT
रियमर
चितइ पुणे- पुण
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
(हु) भूकृ 1/1
(ता) 1 / 1 सर्वि
[ (णिय) वि - (मण) 7/1] (ति) व 3 / 1 सक
अव्यय
हुई
वह
निज मन में विचार करती है ( करने लगी)
बार-बार
[ 127
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-11
सुदंसरणचरित
सन्धि -3
3.1
सुतरंगहे गंगहे गोउ किर जाव नम्मि राउ गच्छा
(सुतरंग→(स्त्री) सुतरंगा) 5/1 वि (गंगा) 5/1 (गोअ) 1/1 अव्यय अव्यय (जम्म)7/1 अव्यय (गच्छ) व 3/1 सक
मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से गोप पादपूरक जब तक पुनर्जन्म में नहीं जाता है (गया)
10. ता
सुहमइ .. जिरणमइ सयरणयले सुत्तिय सिविरणय पेच्छा
अव्यय (सुहमइ) 1/1 वि (जिणमइ) 1/1 [(सयण)-(यल) 7/1] (सुत्त→सुत्तिय) भूकृ 1/I (सिविणय) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक
तब शुभमति जिनमति ने बिछौनों पर सूत्र से बने हुए स्वप्नों को देखती है (देखा)
11 सुरचित्तहरो
[(सुर)-(चित)-(हर) 1/1 वि]
देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला
पर्वत
सिहरी पवरो णवकप्पयरू अमरिंदघरू
(सिहरि) 1/1 (वर) 1/1 वि [(णव)-(कप्पयरु) 1/1] [(अमरिंद)-(घर) 1/1]
श्रेष्ठ नया कल्पवृक्ष इन्द्र का घर (स्वर्ग)
2. पवरंबुरिणही
पजलंतु सिही सुविराइयो
[(पवर) + (अंबुणिहि)] [(पवर) वि- उत्तम-समुद्र (अंबुणिहि) 11] (पजल→पजलन्त) वकृ 1/1
चमकती हुई (सिहि) 1/1
अग्नि (सु-विराअ-सुविराइय-→सुविराइयअ) भूक अत्यन्त सुशोभित 1/1 'अ' स्वार्थिक (अवलोअ-→अवलोइय अवलोइयअ) भूकृ1/1 देखा गया 'अ' स्वार्थिक
अवलोइयो
128 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #242
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________________
13. पसरम्मि
cbrare glitt
14. रिसि
15. लइ जाहुँ
वरं
जिणचेइहर ग्रविलंबझुरणी
16. भयवंती पयति
अलं
सिforta
हलं
चलहारमणी चलिया
रमणरे
17. भणिप्रो
रमणी
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
( पसर) 7/1 (सइ) 1 / 1 वि
[ (वर) वि - ( सुद्धमइ ) 1 / 1 वि]
( गय→ गया) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
अव्यय
(थिअ) भूकृ 1 / 1 अनि
( कंत ) 1/1 अव्यय
(faq-faar) 8/1
[[ ( हंस) - ( गइ ) 8 / 1] वि]
(furer) 7/1
रात में
( लक्ख लक्खियलक्खियअ ) भूकृ 1 / 1'अ' स्वा. देखे गये (त) 16 / 1 स उसके द्वारा
(अक्ख अक्खिय अक्खियअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वा. कहे गये ( पभरण) व 3 / 1 सक ( प ) 1 / 1
अव्यय
(जा) व 1/2 सक
अव्यय
[ ( जिरण) - ( चेइहर ) 2 / 1]
{[ ( अविलंब) वि- (झुरिण ) 1 / 2] वि )
[ ( भयवंत) वि - ( मुणि) 1 / 2 ]
( पयड) व 3 / 2 सक
अव्यय
( सिविरण ) 6 / 1
( हल) 2 / 1
[[ (चल) - ( हार ) - ( मणि) 1/2 ] वि]
( चलचलिय (स्त्री) चलिया) भूकृ 1 / 1
( रमणी) 1/1
( भण) भूकृ 1 / 1 ( रमणी) 1 / 1
प्रभात में
सती
उत्तम शुद्धमति
गई
शीघ्र
वहाँ
बैठा
पति
जहाँ
कहता है ( कहा )
पति
हे प्रिया
हंस की चालवाली
अच्छा, ठीक जाते हैं चलते हैं)
श्र ेष्ठ
जिन चैत्यघर
बिना विलम्ब के (सहज)
ध्वनि (शब्द)
पूज्य मुनि
प्रकट करते हैं ( कर देंगे ) पूर्णरूप से
स्वप्न (समूह) का
I. कभी-कमी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हि.प्रा.व्या. 3-134)।
हल
हार की मणियाँ लहरानेवाली
चल पड़ी
रमणी
कहा गया
रमणी
[ 129
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
इय
छंदु
मुणी
बै
18. गय जिणहरु
मुणिवरु
परिणयवि
जिरगदासिए
खिसि
दिट्ठउ
गिरिवरु
तरु
सुरहरु
जलहि
सिहि
इय
सिविरतरु
सिटुड
1. कि
फलु
इय
सिविरयदंसरण
होसइ
परमेसर
कहि
खणे
2. इय
जिसुणिबि णवजनहरसरेरण
सुणि
130 ]
(इया) 1 / 1 सवि
(छंद) 1/1
( मुरिण ) 16/1
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( जिण ) - ( हर ) 2 / 1]
( मुरिणवर ) 2 / 1
( परिणव + एवि ) संकृ
( जिणदासी) 3 / 1
(forer) 7/1
( दिट्ठअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( गिरिवर) 1 / 1
3.2
(तरु) 1/1
(सुरहर) 1 /1
( जलहि ) 1 / 1
(fafe) 1/1
अव्यय
और
[ ( सिविरण) + ( अन्तरु) ] [ ( सिविण ) - ( अन्तर ) स्वप्न के भीतर
1/1]
(सिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
(क) 1 / 1 सवि
(फल) 1 / 1
(इ) 6/1 स
[ ( सिविजय) 'य' स्वार्थिक - ( दसरा ) 3 / 1]
(हो) भवि 3 / 1 अक
(परमेसर ) 8/1
( कह ) विधि 2 / 1 सक
(खण) 3 / 1 क्रिविअ
( इय) 2 / 1 स
( णिसुण + इवि ) संकृ
[[ (राव) वि- (जलहर ) - (सर) 3 / 1] वि]
( सुरण ) विधि 2 / 1 सक
यह
छंद
मुनि के द्वारा
गये
जिन-मन्दिर
मुनिवर को
प्रणाम करके जिनवासी के द्वारा रात्रि में
देखा गया
श्र ेष्ठ पर्यंत
कल्पवृक्ष
इन्द्र का निवास
समुद्रः
अग्नि
कहा गया
EECE E
स्वप्न (-समूह ) के दर्शन से
हे परमेश्वर
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा.व्या. 3-134 ) ।
कहें.
तुरन्त
इसको
सुनकर
नये मेघ के समान ( गंभीर)
स्वरबाले
सुनो
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
संदरि पभणिउ मुणिवरेण
(सुंदरी) 8/1 (पभण) भूक 1/i (मुणिवर) 3/1
हे उत्तम स्वी कहा गया मुनिवर के द्वारा
3. उत्तुंगे
भरभारिपधरेण होसइ सुधीर
(उत्तुंग) 3/1 वि [(भर)-(भारिय) वि-(घर) 3/1 वि] (हो) भवि 3/1 अक (सुधीर) 1/1 वि (सुअ) 1/1 (गिरिवर)3/1
ऊँचे भारी मार धारण करनेवाले होगा अत्यधिक धैर्यवान
पुत्र
गिरिवरेण
गिरिवर (पर्वत) से
4. कुसुमरयसुरहिफयमहुअरेण [(कुसुमरय)-(सुरहि)-(कय) भूकृ अनि -
(महुअर) 3/1]
मकरन्द (फलों की रज) को सुगन्ध से आकर्षित किये गये भंवर सहित दानी लक्ष्मीवान तरुवर से
वाइउ लच्छीहरु तरुवरेण
(चाइअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(लच्छी )-(हर) 1/1 वि] (तरुवर) 3/1
5. सुररमणीकोलामणहरेण [(सुर)-(रमणी)-(कोला)-(मणहर) 3/! वि] देवताओं को रमणियों को
क्रीड़ा से सुन्दर सुरवंदणीउ [(सुर)-(वंदणीअ) 1/1 वि]
देवतानों द्वारा वंदनीय वरसुरहरेण [(वर) वि -(सुर)-(हर) 3/1]
इन्द्र के घर से
जल-तरंगें माकाश से छ ली
6. जललहरीधुंबियप्रवरेण [[(जल)-(लहरी)-(चुंबिय) भूक -(अंबर)
3/1]वि] गुणगणगहीर
[(गुण)-(गण)-(गहीर) 1/1] रयणायरेप
(रयणायर) 3/1
गुणों का समूह (तया)गंभीर समुद्र से
7. पइरिणविडजडत्तविणासणेण[ (अइ) वि-(णिबड) वि -(जडत्त) बि -
(विणासण)3/1वि] कलिमलु
(कलिमल) 2/1 रिगडहाइ
(रिगड्डह) व 3/सक हुआसणेष
(हुआसण) 3/1
प्रति घने जड़त्व का विनाश करनेवाली पाप (रूपी) मल को जला देता है (रेगा) अग्नि से
8. सुंदर
मरणहरु गुणमरिमणिकेउ जुवईयरवल्लहु मयरकेउ
(सुदर) 1/1 वि (मणहर) 1/1 वि [(गुण)-(मणि)-(णिकेअ) 1/1] [(जुवई)-(यण)-(वल्लह) 1/1 वि] (मयरकेउ) 1/1
सुन्दर मनोहर गुणरूपी मरिणयों का पर युवती वर्ग का प्रिय प्रेम का देवता
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
I 131
,
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिम्मच्छर बुहयणलद्धसंसु
1/1] (रिणम्मच्छर) 1/1 वि [[(बुह)-(यण)-(लद्ध) भूकृ अनि - (संसा→संस) 1/1] वि]
अपने कुलरूपी मानसरोवर का राजहंस ईर्ष्यारहित ज्ञानीवर्ग की प्रशंसा प्राप्त कर ली गई
10. उवसग्गु
सहेवि हवेवि साहु पावसइ झाणे मोक्खलाहु
(उवमग्ग) 2/1 (सह+एवि) संकृ (हव+ एवि) संकृ (साहु) 1/1 (पाव) भवि 3/1 सक (झाण)3/1 [(मोक्ख)-(लाह) 2/1]
उपसर्ग सहन करके होकर साधु प्राप्त करेगा ध्यान के द्वारा मोक्ष के लाभ को
11. जिणु
मुरिण गर्ववि हरिसियमणाई रिणयगेह
(जिण) 2/1 (मुणि) 2/1 (गव+एवि) संकृ [[(हरिसिय) भूकृ-(मण) 1/2] वि] [(णिय) वि-(गेह) 2/1] (गय) भूकृ 1/2 अनि (वि) 1/2 वि अव्यय (जण) 1/2
जिनेन्द्र को मुनिवर को प्रणाम करके हर्षित मनवाले निज घर को चले गये दोनों
गयई
विणिग वि जणाई
हो
मनुष्य
12. गोवउ
गोप
बि
वहाँ
बियाणे तहिं मरेवि थिउ वरिणपियउयरए अवयरेवि
(गोवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय
भी (णियाण) 3/1
निवानसहित अव्यय (मर+एवि) संकृ
मरकर (थिअ) भूकृ 1/1 अनि
रहा [(वणि)-(पिया-पिय)-(उयरज)7/1'अ' स्वा.] वणिक की पत्नी के उदर में (अवयर + एवि) संकृ
प्राकर
13. तहिँ
गमए अन्मए
अव्यय (गब्भअ)7/1 'अ' स्वार्थिक (अब्भअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (रवि) 1/1
वहाँ गर्भ में प्राकाश में की तरह
सूर्य
132 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
_
कमलिरिणदले गाव
कमलिनी के पत्ते पर की तरह
जलु
सिप्पिउडए णिविडए ठिउ सहइ
[(कमलिणि)-(दल) 7/1] अव्यय (जल) 1/1 [ (सिप्पि)-(उडअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक] (णिविडअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (लिअ) भूकृ 11 अनि (सह) व 3/1 अक अव्यय (णितुल्ल) 1/1 वि (मुत्ताहल) 1/1
सिप्पिदल में सघन स्थित शोभता है(शोभायमान हुआ) की तरह असाधारण मोती
णितुल्लु मुत्ताहलु
3.5
1. तेण
पुत्ते
जणु
(त) 3/1 सवि (पुत्त) 3/1 (जण) 1/1 (तुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (ख) 7/1 (महंत) 3/2 वि (मेह) 3/2 (जल) 1/1 (वुट्ठ) भूक 1/1 अनि
उस पुत्र से मनुष्य वर्ग सन्तुष्ट हुमा आकाश में घने बादलों द्वारा जल बरसाया गया
महंतेहिं मेहेहिं
जलु
वुट्ठ
2. दुट्ठपाविट्ठपोरत्थगण
तठ्ठ
[(दुट्ठ) वि-(पाविट्ठ) वि-(पोरत्थ) वि-(गण) दुष्ट, अत्यन्त पापी, ईर्ष्यालु 1/1]
वर्ग (समूह) (तट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
डर गया (णंदि) 1/1 (आणंद-→(स्त्री) आणंदी) 1/1
आनन्द (देव) 3/2
देवताओं द्वारा (णह) 7/1
प्राकाश में (धुढ) भूकृ 1/1 अनि
घोषित किया गया
पाणंदि देवेहि गहे
घुटु
3. दुंदुहीघोसु
कयतोसु
[(दुदुही)-(घोस) 1/1] [I (कय) भूक अनि -(तोस) 1/1] वि]
धुंदुभी-घोष दिया गया, (किया गया) सन्तोष उत्पन्न हुआ दिव्य फूलों को (फूल) खिले हुए
(हुअ) भूकृ 1/1 (दिव्व) 1/1 वि (फुल्ल) 2/2 (पप्फुल्ल) भूकृ2/2 अनि
दिव्वु
पप्फुल्ल
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
133
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मेल्लेइ
छोड़ता है (छोड़ने लगा)
वर्ण
(मेल्ल) व 3/1 सक (वरण) 1/1 (सव्व) 1/1 सवि
वन
सव्यु
समस्त
4. मंदु
आणंदयारी हुप्रो वाउ वावि। कुवेसु अम्महिउ
(मंद) 1/1 वि (आणंदयारी) 1/1 वि (हुअ) भूकृ 1/1 (वाअ) 1/1 (वावी) 7/2 (कूव) 7/2 (अब्भहिन) 1/1 वि (जल) 1/1 (जा→जाअ) भूकृ 1/1
मन्द अानन्दकारी हुश्रा (चला) पवन बावड़ियों में
कुत्रों में
जलु
अत्यधिक जल भरा (उत्पन्न हुआ)
जाउ
5. गोसमूहेहि
विक्खित्तु थरणदुद्ध एंतजंतेहि पहिएहिं
[(गो)-(समूह) 3/2] (विक्खिस) भूकृ 1/1 अनि [(थण)-(दुद्ध) 1/1] [(एंत) वकृ-(जंत) वकृ 3/2] (पहिअ) 3/2 वि (पह) 1/1 (रुद्ध) भूक 1/1 अनि
गो-समूहों द्वारा बिखरा गया थरणों से दूध प्राते-जाते हुए (के कारण) पथिकों के कारण मार्ग रुक गया
6.
तब
तो दिणे
छट्टि
अव्यय (दिण) 7/1 (छ8) 7/1 वि [(उक्किट्ठ) भूकृ अनि -(कमस) 3/1] (दाव→दाविय) भूकृ 1/l (छट्टिय2→छट्टिया) 1/1 'य' स्वार्थिक
उक्किट्ठकमसेरण दाविया छट्टिया
दिन पर छठे उत्कृष्टरूप से दिखलाया जन्म के पश्चात किया गया उत्सव झटपट वणिक (वैश्य) के द्वारा
ज्झत्ति वइसेण
अव्यय (वइस) 3/1
___ अट्ठ
आठ
(अट्ठ) 1/2 वि (दो) 1/2 वि (दिवह) 1/1
दिवह
दिन
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति में शन्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है, (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृष्ठ 147)। 2. छट्ठी→छट्टि (स्त्री)=जन्म के पश्चात किया जानेवाला उत्सव ।
134 ]
[ अपभ्रंश काव्य सोरम
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________________
वोलीण
व्यतीत शोध
जाय
तब
ताम जा
(वोलीण) 1/1 वि अव्यय (जा) भूक 1/1 अव्यय अव्यय अव्यय (जिणयासी) 1/1 [(स) वि-(अणुराय) 1/1]
णाम जिणयासि सणुराय
जब नामक जिणदासी अनुराग-सहित
8. बाल
सोमालु देविंदसमदेह लेवि मत्तीए जाएवि जिणगेहु
(वाल) 2/1 (सोमाल) 2/1 वि [[(देविंद)-(सम)-(देह) 2/1] वि] (ले+एवि) संकृ (भत्ति ) 3/1 (जा+एवि) संक [(जिण)-(गेह) 2/1]
बालक को सुकुमार इन्द्र के समान देहवाले लेकर भक्तिपूर्वक जाकर जिनमन्दिर
तोयए पेच्छियउ पुच्छियउ मुणिचन्दु मसमायंगु गामेरा
(ता) 3/1 स
उसके द्वारा (पेच्छ→पेच्छिय→पेच्छियअ) भकृ 1/1 'अ' स्वा. देखे गये (पुच्छ→पुच्छिय→पुच्छियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. पूछे गये (मुणिचन्द) 1/1
मुनिचन्द (मत्तमायंग) 1/1
मतमात्तंग (णाम) 3/1
नाम से (इय) 1/1 सवि
यह (छन्द) 1/1
छंद
छंदु
10. मंदर
जिह थिर
तिह
मेरुपर्वत जिस प्रकार स्थिर उसी प्रकार ज्ञानियों द्वारा कुम्भराशि कही जाती है
(मंदर) 1/1 अव्यय (थिर) 1/1 वि अव्यय (बुहयण) 3/2 (कुंभरासि) 1/1 (पभण) व कर्म 3/1 सक (मम्ह) 6/1 स (तरणअ) 2/1 भव्यय (एरिस) 2/1 वि (मुण+इवि) संकृ (मुणिवर) 8/1 (णाम) 1/1
बुहयरराहिं कुंभरासि पाणिज्जा महु तणन तणउ एरिसु मुणिवि
मेरा
पुत्र सम्बन्धार्थक परसर्ग ऐसा जानकर हे मुनिवर नाम
मुणिवर
णाम
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
। 135
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________________
रइज्जइ
(रअ) व कर्म 3/1 सक
रचा जाता है (रचा जाए)
3.6
1.
तं सुणिकरण पणदुरईसो
(त) 2/1 स
उसको (सुण) संकृ (प्रा.)
सुनकर [[(पण?) भुकृ अनि --(रइ+ईस)1/1] वि] (जिसके द्वारा) काम नष्ट कर
दिया गया है (वे) [I (मेह)-(णिघोस) 1/1] वि]
मेघ के समान स्वरवाले (भण) व 3/1 सक
कहता है (बोले) [(जइ)+ (ईस)] [[ (जइ)-(ईस) 1/1]वि विशिष्ट मुनि
मेहणियोसु भणेइ जईसो
2. विठ्ठ
तए
सिविणंतरे
(दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
देखा गया (तुम्ह) 3/1 स
तुम्हारे द्वारा [(सिविण)+ (अंतरे)] [(सिविण)-(अन्तर) स्वप्न के अन्दर 7/1] (सार) 1/1 वि
श्रेष्ठ (पुत्ति) 8/1, ए=अव्यय
पुत्री, हे (तुंग) 1/1 वि
ऊँचा [(सुदंसण)-(मेर) 1/1]
सुन्दर पर्वत
सारो पुत्तिए तुंगु सुदंसणमेरो
तेण
3. किज्जउ
(कि) विधि कर्म 3/1 सक
अव्यय सुदंसणु
(सुदंसण) 1/1 णामो
(णाम) 1/1 सज्जणकामिणिसोत्तहिरामो [(सज्जण)+(कामिरिण)+(सोत्त)+
(अहिरामो)] [(सज्जरण)-(कामिणि)(सोत्त)-(अहिराम) 1/1 वि]
किया जाए (रखा जाय) इसलिए सुदर्शन नाम सज्जन और कामिनियों के कानों के लिए मनोहर
4.
तब
rant
तो
अव्यय जिरणयासे→जिरण्यासि (जिणयासी) 1/1
जिनदासी णविवि (णव +इवि) संकृ
प्रणाम करके जईसं
[(जइ) + (ईस)] [(जइ)-(ईस) 2/1 वि] विशिष्ट मुनि को चित्ते (चित्त) 7/1
मन में पहि? (पहिट्ठा→पहिट्ठ) भूक 1/1 अनि
आनन्दित हुई गया (गय-→गया) भूक 1/1 अनि
गयो सणिवासं (सणिवास) 2/1
स्वनिवास को
5. सोहरणमासे
दिरणे
[(सोहण) वि-(मास) 7/1] (दिण) 7/1
शुभ-मास में दिन में
136
1
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
छड
दित्तं
बद्धउ
पालणयं
सुविचित्तं
6. देवमहीहरि
णं
सुरवच्छो
वड्डइ
तत्थ
परिट्ठिउ
वच्छो
7. वड्डइ णं
9.
वयपालणे
धम्मो
वड्डइ णं
9.
पियलोयरणे पेम्मो
8. वड्ढइ णं
नवपाउसि
कंदो
एसु
पयासिउ
दोहयछंदो
जगतमहरु
ससहरु
मयरहरु
जिह वड्ढत
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
अव्यय
( दित्तं ) भूकृ 1 / 1 अनि
( बद्धअ) भूकृ 1 / 1
( पालणय) 1 / 1 'य' स्वार्थिक (सुविचित्त) 1 / 1वि
अनि 'अ' स्वार्थिक
[ (देव) - (महीहर) 7/1]
अव्यय
[ ( सुर ) - (वच्छ ) 1 / 1 ] (वड ) व 3 / 1 अक
अव्यय
( परिडिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (वच्छ ) 1/1
(वड) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( वय ) - ( पालण ) 13 / 1]
(धम्म) 1/1
(वड ) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( पिय) वि - ( लोयण ) 13 / 1] ( पेम्म) 1 / 1
(व) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ (राव) वि - ( पाउस) 7 / 1]
( कंद) 1/1
अव्यय
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 ।
शीघ्र
दिव्य ( प्रकाशमय )
बांधा गया
पालना
अत्यन्त सुन्दर
देव- पर्वत (सुमेरु) पर
जैसे
देव - बालक
बढ़ता है ( बढ़ने लगा )
वहाँ
रहा हुआ (स्थित)
बालक
बढ़ता है
जैसे
व्रत पालन से
धर्म
बढ़ता है
जैसे
स्नेही के दर्शन से
प्रेम
( पयास) भूकृ 1 / 1
[ ( दोहय) - ( छंद ) 1 / 1]
[ ( जग ) - ( तमहर) 1 / 1 वि]
( ससहर) 1 / 1
चन्द्रमा
( मयरहर) 1 / 1
समुद्र
अव्यय
जिस प्रकार
( वड्ढ→ वड्ंत → वड्ंतअ ) वकृ 1 / 1 'अ' स्वा. बढ़ता हुआ
चढ़ता है
जैसे
नई वर्षा ऋतु
बादल
इस प्रकार
व्यक्त किया गया
दोधक छन्द
में
जग के अन्धकार को दूर
करनेवाला
[ 137
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________________
भाव मरणवल्लहु दुल्लहु सज्जणहं पुरएवहो सुउ णावा
(भाव) व 3/1 अक [(मण)-(वल्लह) 1/1 वि] (दुल्लह) 1/1 (सज्जण) 6/2 (पुरएव) 6/1 (सुअ) 1/1 अव्यय
अच्छा लगता है मन को अच्छा लगनेवाला दुर्लभ सज्जनों के . पुरुदेव
पुव
के समान
138
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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________________
पाठ-12
करकंडार
सन्धि
-2
2.16
उच्चकहाणी णिसुणि
पुत्त
अव्यय [(उच्च) वि-(कहाणी) 2/1] (रिणसुण) विधि 2/1 सक (पुत्त) 8/1 (संपज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (संपइ) 1/1 (ज) 3/1 स (विचित्त) 1/1 वि
इसके विपरीत उच्च की कहानी सुन हे पुत्र प्राप्त की जाती है संपत्ति जिससे नाना प्रकार की
संपज्ज संपइ
विचित्त
2. परिकलिवि
संगु
पोचहो हिएण उच्चरण समउ किउ
(परिकल) संकृ (संग) 2/1 (णीच) 6/1 वि (हिअ) 3/1 (उच्च) 3/1 वि अव्यय (किअ) भूक 1/1 अनि (संग) 1/1 (त) 3/1 स
समझकर संगति को नीच (व्यक्ति) को हृदय से उच्च के (साथ) साथ किया गया संग उसके द्वारा
संगु तेण
3. वारणारसिरणयरि
मणोहिरामु अरबिंदु णराहिउ अस्थि
वाराणसी नगर में मन को प्रसन्न करनेवाला अरविंद
(वाणारसी-→वाणारसि)1-(णयर)7/1] (मणोहिराम) 1/1 वि (अरविंद) 1/l (णराहिल) 1/1 (अस) व 3/1 अक अव्यय
है (था) नामक
4. संतोसु
वहंतउ
(संतोस) 2/1 (वह→वहंत→वहंतअ) व
प्रसन्नता को धारण करता हुआ
1/1 'अ' स्वा.
1. समास में ह्रस्व का दीर्घ, दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है (हे.प्रा.व्या. 1-4)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
139 ]
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________________
नियमम्मि
पारद्धिहे
$1
गउ
एक्कहिँ दिणम्मि
5 जनरहिय हिं अडविि
सो
*
पडिउ
तह
भुक्खएँ विष्णडिउ
6. अमिए
विरिणम्मिय
सुहराई
फलई ताई
7. संतुट्ठ
तहो वरवर हो 2
राउ
घरि
जाइवि
तहो
दिण्णउ
पसाउ
8. उवयाय
140 ]
[(fora) fa-() 7/1] ( पारद्धि) 4/1
(गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( एक्क) 7 / 1 कि
( दिण) 7/1
[ (जल) - (रह रहिय) मूक 7 / 1]
( अडवी) 7/1
(त) 1 / 1 सवि
(पड
अव्यय
पडिअ ) भूकू 1 / 1
( तण्हाअ ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक
( भुक्खाअ ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक (त्रिपड विण्णडिअ ) भूक 1 / 1
(зrfer) 3/1
(वि- णिम्म विरिणम्मिय ) भूकृ 1 / 2
( सुयर) 1 / 2 वि
(त) 4 / 1 स
( दिण्णइँ) भुकृ 1 / 2 अनि
(afar) 3/1 (ST.) (फल) 1/2
(त) 1/2 सवि
( संतुट्ठअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वाधिक
(त) 6 / 1 सवि
(aforaz) 6/1
( राअ ) 1 / 1
(घर) 7/1
( जा + इवि ) संकृ
(त) 4 / 1 सवि
( दिण्अ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( पसा) 1 / 1
( उवयार ) 1/1
अपने मन में
शिकार के लिए
गया
ལཱ ཝཱ ;
एक
दिन
जलरहित
जंगल में
वह
फँस गया
वहां पर
प्यास के द्वारा, से
भूख के द्वारा,
व्याकुल किया गया
श्रमृत से बने हुए
सुखकारी
उसके लिए (उसको)
दिए गए
वणिक के द्वारा
फल
वे
1. हे हें, मात्रा के लिए अनुस्वार लगाया जाता है ।
2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा.व्या. 3-134 ) । कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा. व्या. 3 - 135 ) ।
3.
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
प्रसन्न हुप्रा
उस पर
श्रेष्ठ दरिक पर
राजा
घर
जाकर
उसके लिए (उसको)
दिया गया
पुरस्कार
उपकार
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________________
महंतउ
जाएग
वणि
I.
णिहियउ
मंतिपयम्मि
तेण
9. अणुराएं
विगिवि
हिँ
बसहिं
दिणयरतेयकलायर
गुणगणरयणह
सील रहि गहिरिमाई 1
णं
सायर
สี
एक्कहिँ
दिरिण
मंतिवरेण
तहो
यहो
द
हरिवि
तेण
2 प्रहरण
वि
दिहिकरासु
गउ
तुरिउ विलासिरिगमंदिरासु 2
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( महंतअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( जाणअ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक
(afm) 1/1
( रिहियअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
[ ( मंति) - ( पय) 7 / 1 ]
(त) 3 / 1 स
( अणुराअ ) 3 / 1 त्रिविअ (वि) 1/2 वि
अव्यय
(वस ) व 3 / 2 अक
[ ( दिरणयर ) - ( अ ) - ( कलायर ) 1 / 1 ]
[ ( गुण) - ( गण ) - ( रयण) 6 / 2]
[ (सील) - ( णिहि ) 1/11
( गहिरिम) 7/1
अव्यय
( सायर) 1 / 1
अव्यय
( एक्क) 7/1 वि
(far) 7/1
( मंतिवर ) 3 / 1
(त) 6 / 1 सवि
(राय) 6 / 1
(दरण) 2 / 1
( हर + इवि ) संकृ
(त) 3 / 1 स
2.17
( आहरण ) 2/2
( ले + एविणु) संकृ (दिहिकर) 6/1 वि
(गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
[ ( विलासिरिण) - (मन्दिर) 6 / 1]
महान
समझनेवाला होने के कारण afte
रखा गया
मन्त्री पद पर
उसके द्वारा
स्नेहपूर्वक
दोनों ही
वहां पर
रहते हैं ( रहने लगे)
सूर्य, तेज में, चन्द्रमा
गुणसमूहरूपी रत्नों के शील के निधान गम्भीरता में के समान
सायर
तब
एक
दिन
मन्त्रोवर के द्वारा
उस
राजा के
पुत्र का ( को )
हरण करके उसके द्वारा
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
2. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
आभूषणों को
लेकर
सुखकारी
गया
शोधता से
विलासिनो के घर करे
141
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूल्य चले गये मनुष्यों के नयनों के लिए
3 गयमोल्लई
जरणरण्यरगह पियाई तहि वणिणा
प्रिय
[[(गय) भूक अनि -(मोल्ल) 1/2] वि] [(जण)-(णयण) 4/2] (पिय) 1/2 वि अव्यय (वणि) 3/1 (प्राकृत) (ता)4/1 स (समप्प→समप्पिय) भूकृ 1/2
वहाँ वणिक के द्वारा उसके लिए प्रदान किए गए
ताहे
समप्पियाई
4. सरयागमससहरमाणणोहे [(सरय)+ (आगम)+(ससहर)+ (आणणीहे)]शरदऋतु में प्रानेवाले चन्द्रमा
[[(सरय)-(आगम)-(ससहर)- की तरह मुखवाली के लिए (को) (आणण→(स्त्री) आणणी)4/1] वि] अव्यय
फिर कहियउ
(कह→कहिय-→कहियअ) भूक 1/1'अ' स्वार्थिक कहा गया (त) 3/1 स
उस (वरिणक) के द्वारा विलासिणीहे (विलासिणि) 4/1
विलासिनी के लिए (को)
पुणु
तेण
5.
मई मारिउ
शंदणु
(अम्ह) 3/1 स
मेरे द्वारा (मार→मारिअ) भूकृ 1/1
मारा गया (णंदण) 1/1
पुत्र (णरवइ)6/1
राजाका (इअ) 1/1 स (कह→कहिय→कहियअ) भूकृ 1/I 'अ' स्वार्थिक कही गई (सयल) 1/1 वि
सारी ही [[(थिर) वि-(रइ) 4/1] वि]
स्थिर स्नेहवाली के लिए(को)
गरवई हिं! इउ कहियउ सयलु थिररईहि।
यह
6.
तं सुणिवि ताइँ→ताएं पणिउ सणेहु मा कासु वि
(त) 2/I स (सुरण । इवि) संकृ (ता) 3/1 स (पभण→पमणिअ) भूकृ 1/1 (स-णेह) 1/1 न. अव्यय (क) 4/1 स अव्यय
उसको सुनकर उसके द्वारा कहा गया सस्नेह मत किसी के लिए
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 151।
2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 144 । 3. नपु. 1/1 के शब्द कभी-कभी क्रिविअ की तरह प्रयुक्त होते हैं ।
142 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
पयडु करेहि
एह
7. एतहिं लहंते
8
सुउ
णिवेण
देवाविज
fiss
रे
तेरण
जो
triline
राय हो
द
कहइ को वि
दविण
इणि
लहइ
सो
वि
9. ता
केणfa
धिट्ठे
तुरियए
राहो
अगई
भणिउ
उवलक्खि
तुह
सुउ
देव
मइँ
सो गवलइँ
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( पयड ) 2 / 1 (कर) विधि 2 / 1 सक
(ए) 2/1 सवि
(fefe") 1/1
(रायर) 7/1
(त) 3 / 1 स
अव्यय
( अलह - अलहंत) वकृ 3 / 1 (सुअ ) 2 / 1
(fora) 3/1
(देव + आव देवाव देवाविअ ) प्रे. भूकृ 1 / 1 प्रज्ञा करवायी गई
ढोल
(ज) 1/1 सवि
( राय ) 6/1
( णंदण ) 2 / 1
( कह ) व 3 / 1 सक (*) 1/1 fa
अव्यय
(दविणअ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक
( मेइणी) 2 / 1
(लह) व 3/1 सक (त) 1 / 1 सवि
अव्यय
अव्यय
(क) 3 / 1 सवि
( धिट्ठ) भूकृ 3 / 1 अनि
क्रिविअ
( रारणाह ) 6 / 1
अव्यय
(भण
( उवलक्ख ) भूकृ 1 / 1
(तुम्ह) 6 / 1 स
(सुअ) 1/1
(देव) 8/1 (अम्ह) 3 / 1 स (त) 1 / 1 सवि
(णवलअ ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक
भणिअ) भूकृ 1 / 1
प्रकट
करना
यह
यहां पर
न पाते हुए होने के कारण
पुत्र को राजा के द्वारा
नगर में उसके द्वारा
जो
राजा के
पुत्र को
कहता है (बतायेगा )
कोई भी
साथ
द्रव्य ( सम्पत्ति ) भूमि को
पाता है ( पायेगा)
वह
तब
किसी (के द्वारा )
ढोठ के द्वारा
शीघ्रता से
राजा के
आगे
कहा गया देखा गया
तुम्हारा
पुत्र, सुत
हे देव
मेरे द्वारा
यह
नए
[ 143
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंतिएं हणिउ
(मंति) 3/1 (हण ) भूकृ 1/1
मन्त्री के द्वारा मार दिया गया
2.18
1.
तं वयणु सुरणेविणु सरलबाह संतुट्ठउ मंतिहे धरणिणाहु
(त) 2/1 सवि (वयण) 2/1 (सुण+एविणु) संकृ (सरलबाहु) 1/1 (संतुटुअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक (मंति) 5/1 [(धरणि)-(णाह) 1/1]
उस (को) बात को सुनकर सरलबाहु प्रसन्न हुमा, सन्तुष्ट हुमा मन्त्री से पृथ्वी का नाथ
2.
तिहिं फलहि
मज्ने
एक्कहो फलासु गिरहरियत रिणु
(ति) 7/2 वि
तीन (में से) (फल) 7/2
फलों में से अव्यय (एक्क) 6/1 वि
एक (का) (फल) 6/1
फल का (णिरहर-णिरहरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक चुका दिया गया (रिण) 1/1
ऋण (अम्ह) 3/1 स
मेरे द्वारा (मइवर) 6/1
मन्त्रीवर के
मई
मइवरासु
3.
प्रवराह दोणि
अन्य (को) दो को आज
अज्ज
खमीसु
(अवर)2 6/2 (दो) 2/2 वि अव्यय अव्यय [(खम + ईसु)] खम (खम) विधि 2/1 सक ईसु (ईस) 8/1 (खण) 7/1 (ह→हय→हयअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (पसण्णअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक [(धरणि)-(ईस) 1/1]
क्षमा कीजिए, हे नाथ क्षण भर में
हुश्रा
खणि हुयउ पसण्णउ धररिणईसु
प्रसन्न
पृथ्वी का मुखिया
4. परियाणिवि
मंतिएँ→मंतिई
(परियाण+इवि) संकृ (मंति) 3/1
नानकर मन्त्री के द्वारा
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 152। 2. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
144 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
रायणेहु रिणवरणंदणु अपिउ दिव्वदेह
[(राय)-(णेह) 2/1] [(णिव)-(णंदण) 1/1] (अप्प→अप्पिअ) भूकृ 1/1 [[(दिव)-(देह) 1/1] वि]
राजा के स्नेह को राजा का पुत्र सौंप दिया गया सुन्दर देहवाला
हे (सम्बोधनार्थक)
5. अइ
होहि परेसर परममित्तु मई
अव्यय (हो) 42/1 अक (णरेसर) 8/1 [(परम) वि-(मित्त) 1/1] (अम्ह) 3/1 स (देव) 8/1 (तुहारअ) 1/1 सवि (कल→कलिअ) भूकृ 1/1 (चित्त) 1/1
(हे) नरेश्वर परममित्र मेरे द्वारा हे देव तुम्हारा पहचान लिया गया चित्त
तुहारउ
कलिउ
चित्तु
6.
वणिक के वचन को सुनकर राजा के द्वारा
वणिवयण सुविणु परवरेण प्रइपउरु पसाउ पइण्ण
[(वणि)-(वयण) 2/1] (सुण एविणु) संक (णरवर) 3/1 (अइपउर) 1/1 वि (पसाअ) 1/1 (पइण्ण) भूक 1/1 अनि
पुरस्कार सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया उस (के द्वारा)
तेण
(त)3/1 सवि
गुरुआरए
संग
जणु
(गुरुअ) 6/2 वि
अच्छों को (संग) 2/1
संगति को (ज) 1/1 सवि
जो (जग) 1/1
मनुष्य (वह) व 3/1 सक
धारण करता है (हिय)-(इच्छ--→इच्छिय-→इच्छिया) भूकृ 2/1] मन से चाही गई (को) (संपइ)2/1
सम्पत्ति को (त) 1/1 सवि
वह (लह) व 3/1 सक
प्राप्त करता है
हियइच्छिय संप सो
लहेइ
8.
एह
यह
उच्चकहारणो कहिय तुझु गुरगसारणि
(एता) 1/1 सवि [(उच्च) वि-(कहाणी) 1/1] (कह→कहिय→कहिया) भूकृ 1/1 (तुम्ह) 4/1 स [[(गुण )-(सारणि) 1/1] वि]
उच्च (पुरुष) की कहानी कही गयी तेरे लिए गुरणों की परम्परावाली
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
145
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुत्तय हियई बुज्झु
(पुत्त) 8/1 'अ' स्वार्थिक (हियअ) 7/1 (बुज्झ) विधि 2/1 सक
हे पुत्र हृदय में समझ
करकंडु जणाविउ खयर हियबुद्धिएं
सयलउ
कलउ
LIETU: rhaill
इय णित्तिएँ जो णरु ववहरइ
(करकंड) 1/1
करकंड (जण+आवि-जणावि→जणाविअ)प्रे. भूकृ 1/1 सिखाया गया, समझाया गया (खेयर) 7/1
खेचर के द्वारा [(हिय) वि-(बुद्धि) 3/1] .
हितकारी बुद्धि से (सयल→(स्त्री) सयला) 1/2 वि
समस्त (कला) 1/2
कलाएं (इम→इअ→इय) 6/1 स
इसकी (णित्ति) 3/1
नीति से (ज) 1/1 सवि
जो (णर) 1/1
मनुष्य (ववहर) व 3/1 सक
व्यवहार करता है (त) 1/1 सवि (भुंज) व 3/1 सक
उपभोग करता है क्रिवि
अवश्य ही (भू-वलअ) 2/1
भू-मण्डल को
वह
भंजइ रिणच्छत भवलउ
ननीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या.3-135)।
146
]
। अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-13
धण्णकुमारचरिउ
सन्धि -3
3.16
हाथ में
1. लउडि-खग्ग
सम्वहिं करि धारिय भोगवइ चल्लिय विरिणवारिय
[(लउडि)(स्त्री)-(खग्ग) 1/2]
लकड़ियाँ और तलवारें (सम्ब) 3/2 सवि
सभी के द्वारा (कर) 7/1 (धार) भूकृ 1/2
रखी गई (भोगवई) 1/
भोगवती (चल्ल→चल्लिय→(स्त्री) चल्लिया) भूकृ 1/1 चल दी (विणिवार-विणिवारिय→(स्त्री)विणिवारिया)रोकी गई भूक 1/1
2.
दूरहु
दूर से
हुँति
ए
उसके द्वारा देख लिए गए
(दूर) 5/1 (क्रिविअ) (हु) व 3/2 अक (त) 3/1 स (णियच्छ) भूकृ 1/2 (हक्का ) 2/1 (दा→देंत→दित) व 1/2 (आव) वकृ 1/2 अव्यय (पेच्छ) भूक 1/2
तेरण रिणयच्छिय हक्क दिप्त प्रावंत वि पेच्छिय
हांक
देते हुए प्राते हुए भी देख लिए गए
3
एयहु मारणत्यि
इन से मारने के इच्छुक
(एया) 5/2 सवि [(मारण)+ (अत्थि)] [(मारण)-(अत्थि) 1/2 वि] अच्यय (आव) व 3/2 सक [(वच्छ)-(उल) 2/2] अव्यय अव्यय (पाव) व 3/2 सक
यहां
आते हैं (आये हैं) बछड़ों के समूहों को
प्रावहिँ वच्छउलई राउ कत्यवि पावहिं
नहीं
कहीं भी पाते हैं (पाया)
4. इस
मणि
यह
(इय) 2/1 सवि (मण) 7/1
मन में
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
147
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंतिवि पुणु भयतट्टउ पच्छउ बलिवि णिएवि वरिण रगट्टउ
(मंत + इवि) संकृ
विचारकर अव्यय
फिर । (भय)-(तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक] भय से कांपा अव्यय
पीछे की ओर (वल + इवि) संकृ
मुड़कर (णिअ+ एवि) संकृ
देखकर (वण)7/1
जंगल में (गट्ठअ) भुकृ 1/। अनि 'अ' स्वार्थिक छिप गया
बोल्लावहि
बुलाते (थे)
गिहि आवहि एहि
(त) 1/2 सवि (बोल्ल+आव) प्रे. व 3/2 सक अव्यय (गिह) 7/1 (आव) विधि 2/1 सक (ए) विधि 2/1 सक अव्यय [(भय)-(वस) 1/1 वि] (धाव) विधि 2/1 मक
घर में प्रानो आओ मत भय के अधीन भागो
भयवसु धावहि
6. वच्छउलई
रिणयगेहि पराणिय
बछड़ों के समूह निज घर में पहुंच गए
[(वच्छ)-(उल) 1/2] [(रिणय) वि-(गेह) 7/1] (पराणिय) भूकृ 1/2 अनि (तुम्ह) 1/1 स अव्यय (थक्क) विधि 2/1 अक अव्यय (मइ) 3/1 (जारण) भूकृ 1/1
थक्कु
ग
ठहरा नहीं बुद्धि से समझा गया
मइए जारिणय
तुम्हारी
तुज्झु जरिए तुअ→तुक
दुक्खें
(तुम्ह) 6/1स (जणरिण) 1/1 (तुम्ह) 6/1 स (दुक्ख) 3/1 (सल्ल→सल्लिय→सल्लिया) भकृ 1/1 अव्यय (वरण) 7/1 (जा) विधि 2/1 सक
माता तुम्हारे दुःख द्वारा दुःखी की गई है। मत वन में
सल्लिय
वरिण जाहि
जा,
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-135)
148 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुइवि एकल्लिय
8. तह वि
ण
सो
9.
रिणयत्तु
भयभीयउ
मुरगइ
सयलु
इणु
कीयउ
जाय
रयणि
ते
सोह-मयाउर
पल्लट्टिवि
गय
*
ते
पुण णियघर
10 तासु जरणि
महदुक्खे
तत्ती
हुय
निरास
खरिण
पगलियरणेती
11. हा-हा किह
सुब-दंसणु
होइ
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( मुअ + इवि ) संकृ
[ ( एकल्ल) + (इय) ] ( एकल्ला) 1 / 1 वि
इय = अव्यय
( जा जायजाया) भूकृ 1 / 1
( रयणी) स्त्री 1/1 (त) 1/2 सवि
[ ( सीह ) + (भय) + (आउर ) ] [ (सीह ) - (भय) - ( आउर ) 1 / 2 वि ]
(पल्लट्ट + इवि ) संकृ
अव्यय
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
(णियत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ (भय) - ( मीयअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक] भयभीत
( मुरण) व 3 / 1 सक
( पवंच) 2 / 1
(सयल) 2 / 1 वि
(इम) 2 / 1 सवि
(कीयअ ) भूक 2 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
(ग) भूकृ 1/2 अनि (त) 1/2 सवि
अव्यय
[ ( पिय) वि- (घर) 2 / 1 ]
(त) 6/1 स
( जणणी) 1 / 1
[ (मह) वि - ( दुक्ख ) 3 / 1 ]
(तत्त - (स्त्री) तत्ती) भूकृ 1 / 1 अनि
(हुहुहुया) भूकृ 1 / 1
->
( णिरास (स्त्री) णिरासा) 1 / 1 वि (खण) 7/1
[[ ( पगलिय) भूक - (त्त (स्त्री) शेती)
1. 1] वि]
अव्यय
अव्यय
[ ( सुव) - ( दंसण) 1 / 1]
( हो ) भवि 3 / 1 अक
छोड़कर
केली,
यहां
तो भी
नहीं
वह
लौटा
समझता है (समझा )
छल
सबको
इस ( को ) किया हुआ
हुई
रात्रि
ये
सिंह के भय से पीड़ित
पलटकर
गये
ये
फिर
अपने घर को
उसको
माता
महादुःख के कारण
दु:खी
हुई
निराश
क्षण में
बहते हुए वाली
हाय-हाय
कैसे
सुत का दर्शन
होगा
1
149
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुट्ठ विहिहि पुणु-पुणु
(दुट्ठ)6/11 वि (विहि)6/11 अव्यय (ता) 1/1 सवि (कोस) व 3/I सक
दुष्ट किस्मत को बार-बार
सा
वह
कोसइ
कोसती है (कोसने लगी)
12. भाय-माय
हा किम जीवसमि सुबाहु सुवस्तु किम पेच्छेसमि
(भाअ) 8/1 अव्यय अव्यय (जीव) भवि 1/1 अक (सुबाहु) 2/1 वि (सुवत्त) 2/1 वि अव्यय (पेच्छ) भवि 1/1 सक
हे भाई, हे भाई हाय कैस जोदूंगी सुन्दर मुजावाले सुन्दर मुखवाले को कैसे देखेंगी
हाय-हाय क्यों
13. हा-हा
कि बंधव रिचितउ
मह
अव्यय अव्यय (बंधव) 8/1 (णिचिंतअ) 1/1 वि (अम्ह) 6/1 स (सुअ) 1/1 [(विसम)+ (अवत्थहिँ)] [(विसम) वि-(अवत्था) 7/1] (पत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक
निश्चिन्त मेरा पुत्र कठिन (विषम) अवस्था में
विसमावस्यहि
पत्तउ
पड़ा हुआ
14. हउँ
सरणि विएसे पत्ती करहि गंपि3
(अम्ह) 1/1 स (तुम्ह) 6/1 स (सरण) 7/1 (विएस) 7/1 (पत्त→(स्त्री) पत्ती) भूकृ 1/1 अनि (कर) विधि 2/1 सक (गम+एप्पि) संकृ (अम्ह) 6/1 स
तुम्हारी शरण में विदेश में पड़ी हुई करो जाकर मेरे लिए
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या.3-134)। __यष्ठी एकवचन में 'हिँ' प्रत्यय भी होता है (श्रीवास्तव, पृष्ठ 151)।
गम के साथ संबन्धक कृदन्त के प्रत्यय 'एप्पिणु' और 'एप्पि' जोड़ने पर 'ए' का विकल्प से लोप हो जाता है (गम→गमेप्पि→गप्पि→गंपि) (हेम प्राकृत व्याकरण 4-442)।
150
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुत्तहु
तत्ती
15. महु
मण
अच्छइ
बहुदुक्खायरु
इय
कंदंति
रिवारइ
भायरु
16. प्रच्छहि
कलणु
म
कंदहि
बहिणि
पुर-सयासि
1.
2.
सो
विस
रयणी
17. जिम
णियउरि
धरियउ
खोरे
भरियउ
परपेसरण
जि
पोसियउ
मह-दुक्ख
पालिउ
देहे
लालिउ
तं
(ga) 5/1 (afa) 1/1
( अम्ह ) 6 / 1 स
(मग) 1 / 1
( अच्छ ) व 3 / 1 अक
[ ( बहु) + (दुक्ख ) + (आयरु ) ]
[ (बहु) वि - (दुक्ख ) - (आयर) 1 / 1 ]
अव्यय
( कंदकंदत कंदती ) वकृ 2 / 1
( णिवार ) व 3 / 1 सक
( भायर) 1 / 1
( अच्छ) विधि 2 / 1 अक
( कलुग) 1 / 1 वि
अव्यय
(कंद) विधि 2 / 1 अक
(afafu) 8/1
[ ( पुर ) - ( सयास) 7 / 1 ]
(त) 1 / 1 सवि
( रिवस ) व 3 / 1 अक
( रयणी) 12/1
अव्यय
[ ( यि ) वि - ( उर ) 2 7 / 1]
( घर धरियअ ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (खीर) 3/1
पुत्र से संतोष
मेरा
मन
है
बहुत दुःखों की खान
इस प्रकार
रोती हुई को रोकता है
भाई
ठहरो
करुणा-जनक
मत
रोओ
हे बहिन
नगर के पास
वह
रहता है ( रहेगा ) रात्रि में
पादपूरक
निज छाती से
लगाया गया
दूध से
पोषित
( मर मरियअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
[ ( पर) वि - (पेसण ) 3 / 1]
दूसरों की सेवा से ही
अव्यय
( पोस पोसिय→ पोसियअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वा. पाला गया
[ (मह) वि - ( दुक्ख ) 3 / 1]
बड़े कष्टों से
(पाल) भूकृ 1 / 1
रक्षण किया गया
देह
(देह) 3/1 (लाल ) भूकू 1 / 1 (त) 2/1 स
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता
है ( है. प्रा. व्या. 3 - 137 ) ।
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा. व्या. 3-135 ) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
स्नेहपूर्वक सम्भाला गया
उसको
151
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. हउँ
वीसरइ
केम
हियउ
3.
4.
होंड
दुख-दालिद्द - जडिउ पुष्यक्किय
2. रिपबंधउ
दुक्करण
णडिउ
छुह- तिस-संभरिउ
अणणिए
सह
देसंतर
फिरिउ
थक्कइ
असोय-माम
जि
घरि
ह
ग्रत्थि
पवट्टिउ
तह
पवरि
मइ
दाणु
पदिउँ
मुणिवरहु 3
सह
( वीसर) व 3 / 1 सक
अव्यय
( हियअ ) 1 / 1
3.19
( अम्ह) 1 / 1 स
(हो होंत होंतअ ) वकृ 1/1 'अ' स्वा.
[ ( दुक्ख ) - ( दालिद्द) - ( जडिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( पुब्व) वि - ( क्किय ) 1 भूकृ 3 / 1 अनि ]
( दुक्कम) 3 / 1
(ड) भूकृ 1 / 1
(रिधअ) 1 / 1 वि
[ ( छुहा छुह ) 2 - ( तिस ) - ( संभर) भूकृ 1 / 1]
( जगणी ) 3 / 1
अव्यय
(देसंतर) 2/1
(फिर) भूकृ 1 / 1
( थक्कअ ) दे. 7 / 1 'अ' स्वार्थिक
[ ( असोय) वि - (माम ) 6 / 1 ]
अव्यय
(घर) 7/1
( अम्ह) 1 / 1 स
(स) व 1 / 1 अक
( पवट्ट) भूकृ 1 / 1
(त) 7/1 सवि
(पवर) 7 / 1 वि
( अम्ह ) 3 / 1 स
(दाण) 1 / 1
( प दिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक ( मुणिवर) 4 / 1
अव्यय
मूलता है (भूलेगा )
कैसे
हृदय
मैं
होता हुआ
] दु:ख-दरिद्रता से युक्त
पूर्व में किए हुए दुष्कर्म के द्वारा
नचाया गया
धन्धेरहित भूख-प्यास सहित
माता के
साथ
विदेश में फिरा
समय
अशोक मामा के
पादपूरक
घर में
मैं
रहा
प्रवृत्त हुप्रा
उस
श्र ेष्ठ
मेरे द्वारा
दान
दिया गया
1. कभी-कभी तृतीया के लिए शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 ) ।
श्रेष्ठ मुनि के लिए
साथ
2. कभी-कभी समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है ।
3. चतुर्थी एवं षष्ठी पु. नपु. एकवचन में 'हु' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150)
152 |
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
जणरिगए बिहणिय
(जणरणी) 3/1 [(णिहण)+ (इय)] (णिहण) 4/1 (इय) 6/1 स (भवसर) 6/1
माता के विनाश के लिए इस संसार सरोवर के
भवसरह
5.
हर्ड बच्छउलहं रक्खरगह गउ
बछड़ों के समूह की रक्षा के लिए गया
(अम्ह) 1/1 स [(वच्छ)-(उल) 6/2] (रक्खण) 4/2 (गअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (सुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक अव्यय [[(विगय) भूकृ अनि -(मअ) 1/1] वि]
तहि
वहाँ
सुत्तउ जावहि विगय-भाउ
सो गया जैसे ही नष्ट हुआ, भय
6. पवणाहय
वाय से आघात प्राप्त
रिणय
आय
[(पवरण)+ (आहय)] [(पवण)-(आय) भूक 1/2 अनि] (त) 1/2 स (णिय) 7/1 वि (आय) भूकृ 1/2 अनि (घर) 7/1 (अम्ह) I/1 स [(भय)-(भीयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा.] [(कंदरी→कंदरि)2-(विवर) 7/1]
अपने
आ गये घर में
घरि
भयभीयउ कंदरि-विवरि
भय से कांपा हुमा गुफा के द्वार पर
थक्कउ तहि आयम
सुरिणत संसार-सरूवउ
(थक्क) व 1/1 अक अव्यय (आयम) 1/1 अव्यय (सुण) भूकृ 1/1 [(संसार)-(सरूवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (चित्त) 7/1 (मुण) भूकृ 1/1
बैठा वहां प्रागम बहुत सुन गया संसार का स्वरूप और चित्त में समझा गया
चित्ति मुरिएउ
8.
जा
अव्यय
1. चतुर्थी एवं षष्ठी पु. नपु. एकवचन में 'हु' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृ. 150)। 2. कभी-कभी समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है (हे.प्रा.व्या. 1-4)।
अपभ्रश काव्य सौरभ ]
[
153
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
बैठता हूँ (बैठा)
णिवसमि ता सिंघण
तब
सिंह के द्वारा मारा गया
(रिणवस) व 1/1 अक अव्यय (सिंघ) 3/1 (हअ) भूकृ 1/1 अनि (अम्ह) 1/ स (सुरवर) 6/1 (जा→जायअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (वि-बअ)12/1
सुरवर जायउ चिय विवउ
श्रेष्ठ देव का पाया पादपूरक विशिष्ट पद
9.
मुणिवयरपसाएँ दुक्खभरु छिदिवि खणि जायउ सुक्खघर
[(मुरिण)-(वयण)-(पसाअ)3/1] [(दुक्ख)-(भर) 2/1] (छिंद+ इवि) संकृ (खण) 7/1 (जा→जायअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक [(सुक्ख)-(घर) 2/1]
मुनि के वचन के प्रसाद से दुःख के बोझ को काटकर क्षण में गया सुख के घर को
10. एत्तहिं
तहट
मायरि दुहभरिया महदुक्खें खविय विहावरिया
अव्यय (त) 6/1 स (मायरि) 1/1 [(दुह)-(भर→भरिय→भरिया) भूकृ 1/1] [(मह) वि-(दुक्ख) 3/1] (खव→खविय→खविया) भूकृ 1/1 (विहावरीय) 1/I 'य' स्वार्थिक
इधर उसकी माता दुःख से भरी हुई अत्यन्त कष्ट से बितायी गई रात्रि
सुप्पहाए सयल
(उपस्थित) होकर सुप्रभात में सब
ही
(हु) संकृ (सुप्पहाअ) 7/1 (सयल) 1/2 वि अव्यय (मिल) भूक 1/2 अव्यय (जणणी) 3,1 अव्यय
मिलिया सहुँ जरपरिणए
मिले साथ माता के पादपूरक
1. वअ→वय-पद।
2. षष्ठी विभक्ति के लिए 'ह' प्रत्यय का भी प्रयोग होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन,
पृष्ठ 150)।
154 ]
। अपभ्रश काव्य सौरम
Page #268
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________________
जोय हुँ
चलिया
12. सव्वत्थ
वणम्मि
गवेसियउ
मह
सोएँ
पुरजण
सोसियउ
13. तहुँ
खोज्जु
नियंतई
जंतइँ
संत हूँ
पत्तइँ
गिरि-गुह-वारि
पुण
तहिं
तहु
कर चलाइँ
बहु-बुह-जरगणइँ
दिट्ठइँ
दहदिसि
पडिय
तणु
1. मुच्छाविय
( जोय ) 4 / 1
(चल) भूक 1 / 2
अव्यय
(वण ) 7/1
( गवेस - गवेसियअ ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
(मह) 3 / 1 वि
( सोअ) 3 / 1
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ ( पुर ) - ( जण) 1 / 1]
(सोस सोसियअ ) भूकृ 1 / 2 'अ' स्वार्थिक
(त) 6 / 1 स
( खोज्ज) 2/1
( रियरिणयंत) वकृ 1/2
( जा जंत) वकृ 1/2
(संत) भूकृ 1 / 2 अनि
( पत्त ) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( गिरि) - ( गुह ) - ( वार) 7/1]
अव्यय
अव्यय
(त) 6 / 1 स
[ (कर) - (चल) 1/2]
[ ( बहु ) वि - (दुह ) - ( जणण) 1/2 वि ]
( दिट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( दह) - (दिसि ) 42/2]
( पड) भूकृ 1 / 2
( तणु) 6 / 1
2. तृतीया विभक्ति में भी शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है ( श्रीवास्तव, पृष्ठ 147 ) ।
खोजने के लिए चले
सब ( सारे )
वन में खोजा गया
महान
शोक के कारण
नगर के जन
कृश हो गये ( थे)
उसके
मार्ग चिह्न
देखते हुए
जाते हुए
थके हुए
पहुंचे
पर्वत की गुफा के दरवाजे पर
फिर
वहाँ
उसके
1.
द्वितीया विभक्ति साथ में होने से 'जोअ' को हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग मानें तो 'जोअ = देखना ' होना चाहिए था । तब इसका प्रयोग 'उ' प्रत्यय लगाकर ( जोअ + उं) 'जोइउं' होना चाहिए था । यदि हम 'जोय' को संज्ञा मानते हैं तो 'तं' को द्वितीया विभक्ति नहीं कर सकते, उसे अव्यय मानना होगा। यह शब्द विचारणीय है ।
अपभ्रंश भाषा का अध्ययन,
हाथ और पैर
बहुत दुःख के जनक
देखे गये
3.20
( मुच्छ + आव = मुच्छाव (भुकृ) मुच्छाविय मूच्छित कर दी गई (स्त्री) मुच्छाविया) प्रे. भूकृ 1 / 1
दसों दिशाओं में
पड़े हुए शरीर के
3. षष्ठी पुल्लिंग एकवचन के लिए 'हु' प्रत्यय भी काम में आता है ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ ठ 150 ) ।
4. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-137) '
[ 155
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
Their
सयल
2. उम्मुच्छिवि
अरणम्ह
3. हा-हा
महु
1.
द
ह
सदुक्ख
किं
मुक्की
णिक्कारणि
aafra
4. वारंत
सव्व
मयज
काड
हा हा
कि
( जणणी) 1 / 1
(अ + एवि ) संकृ (a) 2/2 afa (सयल) 1/2 वि
अव्यय
( दुक्ख + आवदुरखाव ) प्रे. भूकृ 1 / 2
अव्यय
(हाअ ) 7/1
(उम्मुच्छ + इवि) संकृ
(Araft) 1/1 ( मुअ + इवि ) संकृ
अव्यय
( रोवण ) 6/1
( लग्ग ) 1 / 1
अव्यय
( हु हुहुया ) भूकृ 1/1
(अरगाह (स्त्री) अरगाहा ) 1 / 1 वि
अव्यय
( अम्ह ) 6 / 1
(vizor) 1/1
(अम्ह) 1 / 1 स
(स- दुक्ख ) 7/1
अव्यय
( मुक्क (स्त्री) मुक्की) भूकृ 1 / 1 अनि
( णिक्कारण ) 7 / 1 वि
( उवेक्ख ) संकृ
( वार वारंत) व 6/2
( सव्व) 6 / 2 वि
( गयअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
अव्यय
अव्यय
माता
देखकर
उनको
सब
भो
दुःखी
वहाँ ( उस )
स्थान पर
श्रमूच्छित होकर
माँ ने
छोड़कर
चिल्लाहट
रोने का
चिह्न
हाय
हो गई
अनाथ
हाय-हाय
मेरे
पुत्र
मैं
अत्यन्त दुःख में
क्यों
छोड़ दी गई निष्कारण
उपेक्षा करके
अकारान्त पुल्लिंग षष्ठी एकवचन में 'ह' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150 ) ।
2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134),
156 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
रोकते हुए होने पर
सबके
गये
वयों
हाय-हाय
क्यों
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
5.
ཏྠ ཡ ཡཱ ལཱཡཱ ཎྜཱ ཡྻཱ མ བྲཱ ཟླ
गेह-ठाइ
आवासिउ
कमलवत्त
6. मह
སྠཽ ཁ ཋ བྷྲ བྷཱ ཝ ཙྪཱ མ ཡྻ ཝཱ ཧཱ མ
7. इय
भरिणयि
चलरण-कर
मेलवेवि
श्रलिंगs
ज
हेण
लेवि
8. ता
अपभ्रंश काव्य सौरभ
}
[ ( ग ) + (आयउ ) ] ण = अव्यय
( आयअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक [ ( गेह) - ( ठाय ) 7 / 1]
1
अव्यय
(कुमइ ) 1 / 1
( जा जाय जाया ) भूकृ 1 / 1
(तुम्ह ) 6 / 1 स ( एता) 1 / 1 सवि
(पुत्त) 8 / 1
अव्यय
( वण) 7/1
(आवास) भूकृ 1 / 1
[[ ( कमल) - ( वत्त) 8 / 1] वि]
( अम्ह ) 16 / 1 स (खंड + इ) संकृ
( गयअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक (तुम्ह) 1 / 1 स
अव्यय
(fayar) 7/1 (अम्ह ) 1 / 1 स (पारण) 2/1 (चय) व 1 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
( पएस) 7/1
(इअ ) 2 / 1 सवि
( गण ) संकृ
[ ( चलण) - ( कर ) 2/2]
( मेलव + एवि )
( लिंग ) व 3 / 1 सक
अव्यय
(ह) 3/1
( ले + एवि ) संकृ
अध्यय
संकृ
नहीं, पहुंचे निवास स्थान में
ཙྪཱ
क्यों
कुमति
उत्पन्न हुई
तुम्हारे
यह
हे पुत्र
कि
वन में
रहा गया
कमल के समान मुख वाले
मुझको
छोड़कर
चला गया
न
क्यों
परदेश में
मैं
प्रारण
छोड़ती हूँ
ही
यहाँ (इस)
स्थान पर
यह कहकर
हाथों और पैरों को
मिलाकर
आलिंगन करती है।
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) ।
जब
स्नेह से
उठाकर
तब
[ 157
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुरवरु
चित सग्गवासि
(सुरवर) 1/1 (चिंत) व 3/1 सक [(सग्ग)-(वासि) 1/1 वि] अव्यय (जणणी) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (हुव→हुअ=हुआ) भूकृ 1/1 [(सोक्ख)-(रासि) 1/1 वि]
श्रेष्ठ देव विचारता है स्वर्ग का वासी क्या मा मेरी
जणरिण मझ
सोक्खरासि
सुख की खान
9. जाइवि
संबोहमि ताहि
अज्ज
जिम सिज्म तहि परलोइ
(जा+इवि) संकृ (संबोह) व 1/1सक (ता)3 6/1 स अव्यय अव्यय (सिज्झ) व 3/1 सक (ता) 6/1 स (परलोअ) 7/1 (कज्ज) 1/1
जाकर समझाता हूँ (समझाउँगा) उसको माज जिससे सिद्ध होता है (सिद्ध हो) उसका परलोक में कार्य
10. अण्णु
दूसरी
रिणयगुरु-चरणारविंद
(अण्ण) 2/1 वि अव्यय
भी [(रिणय)+ (गुरु)+ (चरण)+ (अरविंद)] निज गुरु के चरणरूपी [(रिणय) वि-(गुरु)-(चरण)-(अरविंद)2/2] कमलों को (पणम+अवि) संकृ
प्रणाम करके (जा+ इवि) संकृ
जाकर [[(गइ)-(मल) 1/1] वि]
मलरहित (अणिद) 1/1 वि
निदारहित
परमवि जाइवि गइमल अणिद
11. इय
चितिवि प्रायउ तहिं सुरेसु मायई
(इया) 2/2 सवि (चित+इवि) संकृ (आयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक अव्यय (सुरेस) 1/1 (माया-→मायाए→मायाइ→माया) 3/1
इनको सोचकर आया वहाँ उत्तम देव माया से
1. हुअ→भूष= भूत (प्राकृत कोश)। 2. स्त्रीलिंग शब्दों की षष्ठी विभक्ति ए.व. में 'हि' प्रत्यय भी प्रयोग में आता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृ. 157)। 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)
158
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
करेवि चिर-देह-वेसु
(कर+एवि) संकृ [(चिर) वि-(देह)-(वेस) 2/1]
बनाकर पुरानी देह के वश को
निकट प्राकर कहकर मधुर वचन
12. रिणयडउ
प्राविवि जंपिवि सुवाय कि कंदहि रोवहि मजा माय
(रिणयडअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (आव+इवि) संकृ (जंप+ इवि) संकृ (सुवाया) 2/1 अव्यय (कंद) व 2/1 अक (रोव) व 2/1 अक (अम्ह) 6/1 स (माया) 8/1
क्यों
कन्दन करती हो रोती हो मेरो है माता
13. हउँ
जीवमाणु
जीता हुआ (जोचित) मेरे देखो मुखको
णियहि
(अम्ह) 1/1 स (जीव) व 1/1 (अम्ह) 6/1 स (णिय) विधि 2/1 सक (वत्त) 2/1 (अम्ह) 1/1 स (अकयपुण्ण) 1/1 (णाम) 3/1 (पुत्त) 1/1
वस्तु
अकयपुण्णु णामेण पुत्तु
अकृतपुण्य नाम से
पुत्र
14. मोहाउर
मोह से पीड़ित
णिसुरिणवि बयप सिग्घु रिगच्छा जारिणउ
[(मोह)+(आउर)] [(मोह)-(आउर→आउरा) 1/1 वि] (रिणसुण+इवि) संक (वयण) 2/1 अव्यय (णिच्छ+इ) संकृ (जाण+इउ) संकृ (अम्ह) 6/1 स
सुनकर वचन को शीघ निश्चय करके जानकर
महु
मेरा
(सुअ) 1/1 (अणग्ध) 1/1 वि
पुत्र उत्तम
प्रगग्घु
15. मेल्लिवि
कर-चरणई
(मेल्ल+इवि) संकृ [(कर)-(चरण) 2/2] [(बहु) वि-(दुह)-(करण) 2/2 वि] (धा+इवि) संकृ
छोड़कर हाथों और पैरों को बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले दौड़कर
बहुदुहकरणई
बाइवि
अपभ्रंश काच्य सौरम ]
[ 159
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रालिंगेहि तहु
सुरवर सारउ वसु-गुण-धारउ
(आलिंग) व 3/1 सक (त)3 6/1 स अव्यय (सुरवर) 1/1 (सारअ) 1/1 वि [(वसु)-(गुण)-(धारअ) 1/1 वि] (प.) 2/1 (सर+एवि) संकृ (थिअ) भूक 1/1 अनि (त) 1/1 सवि अव्यय अव्यय
आलिंगन करती है उसका तब श्रेष्ठ देव . सर्वोत्तम पाठ गुरणों का धारक अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुमा
सरेवि थिउ
वह
भी
शोध
3.21
1. जंपद
बोलता है (बोला)
बुज्झहि जरपरिण सारु जिरगवयणु दयावर जणहैं तारु
(जंप) व 3/1 सक अव्यय (बुज्झ) विधि 2/1 सक (जणणी) 8/1 (सार) 2/1 वि [(जिण)-(वयण) 2/1] (दयावर) 2/1 वि (जण) 4/2 (तार) 2/1 वि
समझ माता श्रेष्ठ जिन-वचन को दयावान मनुष्यों के लिए उज्ज्वल
2.
को
कासु रगाहु को
कौन किसका नाथ
कौन
कासु
(क) 1/1 सवि (क) 6/1 सवि (णाह) 1/1 (क) 1/1 सवि (क) 6/1 सवि (भिच्च) 1/1 (जाण) विधि 2/1 सक (संसार) 2/1 अव्यय
भिच्च
जाणहि संसार
किसका नौकर जान संसार को पादपूरक
1. परवर्ती रूप, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 205 ।' 2. अकारान्त पुल्लिग के षष्ठी एकवचन में 'हु' प्रत्यय भी काम में आता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का
अध्ययन, पृष्ठ 150)। 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134) ।
160
]
। अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
मणि
मन में अनित्य
अरिगच्च
3. मोहें
बीउ मे-मे करेइ आउक्खए
(मण) 7/1 (अरिणच्च) 1/1 वि (मोह) 3/1 (बद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक (अम्ह) 6/1 स (कर) व 3/1 सक (आउक्खअ) 7/1 (क) 1/1 स अव्यय (क) 6/11 स अव्यय (धर) व 3/1 सक
मोह से जकड़ा हुअर मेरा-मेरा करता है आयु के समाप्त होने पर
कोई
किसी को नहीं पकड़ता है
धरेइ
अप्रारु
अत्यधिक बन्धनवाला
[(अइ) वि-(आर)2 1/1 सवि] अव्यय (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
नहीं
কিন্তু
किया जाता है (किया जाना चाहिए)
मोह
मोह अंबि
जिणधम्म
(मोह) 1/1 (अंबा→अंबे→अंबि) 8/1 [(जिण)-(धम्म) 2/1] (गह) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय (वि-लंब) विधि 2/1 अक
हे माता जिनधर्म को ग्रहरण करो
गहहि
मत
इह
यहाँ देरी करो
विलंबि
लम्महिं इच्छिय सयलसुक्ख छेइज्जहि
(ज)3/1 स (लब्भहिँ) व कर्म 3/2 सक अनि (इच्छ→इच्छिय) भूकृ 1/2 . [(सयल) वि-(सुक्ख) 1/2] (छेअ) व कर्म 3/2 सक (ज) 3/1 स [(भव)-(दुक्ख)-(लक्ख) 1/2]
जिसके द्वारा प्राप्त किए जाते हैं इच्छित सभी सुख नष्ट किए जाते हैं जिसके द्वारा संसार के लाखों दुःख
भवदुक्खलक्ख
6.
खरण
(खण)7/1
क्षरण में
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या.3-134)। 2. चार→आरबन्धन, इच्छा। 3. अकारान्त पुल्लिग, सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'शून्य' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश
भाषा का अध्ययन, पृ. 147)।
मपत्रंश काव्य सौरम ]
[ 161
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंगुरु
ལླ ཝཱ ཎྜཱ ལ ལླཾ སྠཽ
9.
करहि
पुण
पेच्छहि
संजणिय
मोउ
7. सद्दहहि
जिरणायमु
सरिदि
अज्जु
हुउ
पढम-सग्गि
सुर
देवपुज्जु
8. अवहिए
जारिणवि
ह
एत्यु
प्राउ
तुक
बोणत्य
पयडिय-सुवाउ
इथ
वयणु
सुणिवि
वसंतमोह
कर-चरण
162 J
( भंगुर ) 1/1 ( सयल) 1 / 1 वि
अव्यय
(कर) विधि 2 / 1 सक ( सोअ) 2 / 1
( अम्ह ) 16 / 1 स
अव्यय
(पेच्छ) विधि 2 / 1 सक
( संजण) भूकृ 1 / 1
( मोअ) 1 / 1
(arafa) 3/1
( जारण + इवि ) संकृ
( अम्ह ) 1 / 1 स
अव्यय
( आअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( तुम्ह ) 6 / 1 स
[ ( बोहण) + (अत्थि ) ]
[ ( बोहरण ) - ( अस्थि ) 1 / 1 वि ]
[ ( पयडिय) + (सुव) + आउ)]
[ ( पयडिय) भूकृ - ( सुव) - (आयु ) 1 / 1 ]
(सद्दह ) विधि 2 / 1 सक
श्रद्धा कर
[ ( जिण) + (आयमु ) ] [ ( जिण) - (आयम) 2/1] जिनागम को (का)
( सर इवि) संकृ
स्मरण करके
अव्यय
श्राज
(हुअ ) भूक 1 / 1
[ ( पढम) वि- ( सम्मा) 7/1] (सुर) 1/1
[ (देव) - ( पुज्ज) 1 / 1 वि ]
(इ) 2 / 1 सवि
( वयण) 2 / 1
(सुण + इवि ) संकृ
[[ ( उवसंत) मूकृ अनि - ( मोह) 1 / 1] वि [ (कर) - (चरण) 2/23
नाशवान
सब ( प्रत्येक )
मत
कर
शोक
मुझको
फिर
देख
उत्पन्न हुआ हर्ष
हुश्रा
प्रथम स्वर्ग में
देव
देवों द्वारा पूज्य
अवधि ज्ञान से
जानकर
मैं
यहां
आया
तुम्हारी
शिक्षा (बोध) का इच्छुक
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है .प्रा.व्या. 3-134 )
प्रकट की गयी,
पुत्र की आयु
इस
वचन को
सुनकर
शांत हुआ, मोह
हाथ-पैरों को
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुइवि
जाया सुबोह
(मुअ+इवि) संक
छोड़कर (जा→(भूकृ) जाय→(स्त्री) जाया) भूक 1/1 हुई (सुबोह) 1/1 वि
उत्तम ज्ञानवाली
देव के द्वारा फिर अपने मुनिनाथ (गुरु) के
पास
10. देखें
पुणु णिय-मुरिगणाह पासि वर गुह-अभंतरि वि गय तासि
(देव) 3/1 अव्यय [(णिय) वि-(मुणिरणाह) 6/1] (पास) 7/1 अव्यय [(गुह)-(अभंतर) 7/1] अव्यय (गय) भूक 1/1 अनि (तासि)16/1 वि
श्रेष्ठ गुफा के भीतर
जाया गया भयंकर
11. ति
पयाहिणि देप्पिणु गुरुपयाई
(ति) 2/2 वि (पयाहिण--(स्त्री) पयाहिणी) 2/2 (दा+एप्पिणु) संकृ [(गुरु)-(पय) 2/2] (देव) 3/1 (वंद) भूकृ 1/1 अव्यय (गरह) भूकृ 1/2
तीन प्रदक्षिणा देकर गुरुचरण को देव के द्वारा वन्दना की गई तब निन्दित किए गए
देखें
वंदिय ता गरहियाई
12. बहु
थोत्तु पयासिवि चिरकह भासिवि तुम्ह पसाएं देव पउ मई पाविउ धराउ
(बहु) 2/1 वि (थोत्त)2/1 (पयास+इवि) संकृ [(चिर) वि-(कहा) 2/1] (मास+इवि) संत (तुम्ह) 6/1 (पसाअ) 3/1 (देव) 6/1 (प.) 1/1 (अम्ह) 3/1 स (पाव) भूकृ 1/1 (धण्णअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाधिक
बहुत स्तुति व्यक्त करके पुरानी कथा कहकर तुम्हारी कृपा से देव का पद मेरे द्वारा प्राप्त किया गया प्रशंसनीय
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
163
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहु-सुह-छपणउ
एम
मणिवि
परवाज 1
कउ
164 1
[ ( बहु) वि - ( सुह ) - (छण्णअ) भूकृ 1 / 1 अनि
'अ' स्वा.]
1. प्रणिपत पणवाअ प्रणाम ।
'
अव्यय
(भरण + इवि) संकृ
( परणवाअ ) 1/1 (कअ) भूकृ 1 / 1 अनि
बहुत सुखों से आच्छादित
इस प्रकार
कहकर प्ररणाम किया गया
f
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #278
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________________
पाठ-14
हेमचन्द्र के दोहे
1. सायरु
उप्परि तणु
सागर ऊपर घास-फूस को रखता है
धरइ
तलि घल्लई रयणाई सामि सुभिच्चु वि.रिहर संमारणे खलाई
(सायर) 1/1
अव्यय (तण) 2/1 (धर) व 3/1 सक (तल) 7/1 (घल्ल) व 3/1 सक (रयण)2/2 (सामि) 1/1 (सु-भिच्च) 2/1 (वि-परिहर) व 3/| सक (संमारण) व 3/1 सक (खल) 2/2
फैक देता है रत्नों को राजा गुणवान सेवक को त्याग देता है सम्मान करता है दुष्ट सेवकों को (का)
दूरुड्डाणे
ऊंचाई से, उड़ने के कारण गिरा हुआ
पडिउ
खलु
दुष्ट
अप्पणु
मारे।
[(दूर) + (उड्डाणे)] दूर (क्रिविअ), उड्डाणे (उड्डाण)1 7/1 (पड→पडिअ) भूक 1/1 (खल) 1/1 वि (अप्पण) 2/1 (जण) 2/1 (मार) व 3/1 सक अव्यय [(गिरि)-(सिंग) 5/2] (पड→पडिअ→(स्त्री) पडिआ) 1/1 (सिला) 1/1 (अन्न) 2/1 वि अव्यय (चूर) 2/1 (कर) व 3/1 सक
अपने को मनुष्य को (मनुष्यों को) नष्ट करता है जिस प्रकार पर्वत की शिखा से गिरी हुई शिला अन्य को
गिरि-सिंगहुँ पडिअ सिल
अन्तु वि
भी
टुकड़े-टुकड़े कर देती है
करे
3.
जो
गुण
(ज)1/1 सवि (गुण) 2/2 (गोव) व 3/1 सक
गुणों को छिपाता है
गोवई
1. कभी-कभी ततीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या.3-135)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[ 165
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्परगा
पयडा
स्वयं के प्रकट करता है
करई परस्सु तसु
दूसरे के
उस (को)
(अप्प) 6/1 वि (पयड) 2/1 वि (कर) व 3/1 सक (पर) 6/1 वि (त) 6/1 सवि (अम्ह) 1/1 स [(कलि)-(जुग) 7/1] (दुल्लह) 6/1 वि (बलि) 2/1 (कि+ज्ज) व 1/1 सक (सुअण) 6/1
मैं
कलियुग में
दुर्लभ
कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्ज सुअगस्सु
पूजा (को) करता हूँ सज्जन की
दइनु घडावह वणि तनहुँ सउरिणहं पक्क फलाई
देव (ने) बनाता है (बनाये) वन में वृक्षों के पक्षियों के लिए
पके
फल
सो
(दइव) 1/1 (घडाव) ब 3/1 सक (वरण) 7/1 (तरु) 6/2 (सउणि) 4/2 (पक्क) 2/2 वि (फल) 2/2 (त) 1/1 सदि अव्यय (सुक्ख) 1/1 वि (पइट्ठ) भूकृ 1/2 अनि अव्यय अव्यय (कण्ण)7/2 [(खल) वि-(वयण) 1/2]
वह
श्रेष्ठ
बरि सुक्खु पट्ट
वि
प्रवेश (प्रविष्ट) हुआ नहीं पादपूरक कानों में दुष्टों के वचन
काहिं खल-वयणाई
5.
धवलु विसूरइ सामि अहो गरआ भरु पिक्खेवि
(धवल) 1/1 (विसूर) व 3/1 अक (मामि) 6/1 अव्यय (गरुअ) 2/1 वि (भर) 2/1 (पिक्ख) संक (अम्ह) i/1 स अव्यय
उत्तम बैल खेद करता है स्वामी के सम्बोधनार्थक बड़े (को) भार को देखकर
कि
क्यों
1. कभी-कभी क्रिया और काल के प्रत्यय के बीच में 'जज' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (हे.प्रा.व्या.) ।
166 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
जुत्तउ
दिसिहि खंडई दोणि करेवि
अव्यय (जुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक (दु)16/2 वि (दिसि) 7/2 (खंड) 2/2 (दो) 2/- वि (कर+एवि) संकृ
नहीं जोत दिया गया दो (में) दिशाओं में विभाग दो करके
6. कमलई
मेल्लवि अलि उलई करि-गंडाई महन्ति असुलह-मेच्छण
(कमल) 2/2 (मेल्ल+अवि) संकृ (अलि) 6/2 (उल) 1/2 [(करि)-(गंड) 2/2] (मह) व 3/2 सक [(असुलह)+ (एन्छण)] (असुलह) 2/1 वि (एच्छण) 2/1 वि (ज) 6/2 स (भलि ) 1/1 (दे) (त) 1/2 स अव्यय अव्यय (दूर) 2/1 वि (गण) व 3/2 सक
कमलों को छोड़कर भंवरों के समह हाथियों के गंडस्थलों को इच्छा करते हैं, चाहते हैं असुलभ, लक्ष्य को जिनका कदाग्रह
जाहं भलि3
नहीं बिल्कुल
दूर गणन्ति
मानते हैं
7. जीविउ
कासु
जीवन किसके लिए
नहीं
वल्लहउं
प्रिय
धणु
(जीविअ) 1/1 (क) 4/1 स अव्यय (वल्लहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (धरण) 1/1 अव्यय (क) 4/1 स अव्यय (इट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (दो) 2/2 वि
पुण
कासु
धन भी किसके लिए नहीं प्रिय दोनों को
दोणि
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-134) । 2. एच्छण (वि) लक्ष्य को (हेम प्राकृत व्याकरण, कोष सूची पृष्ठ 25)। 3. भलि-कदाग्रह ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
!
167
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
वि
अवसर-निवडिग्राइं तिण-सम गरगइ विसिठ्ठ
अव्यय [(अवसर)-(निवड→निवडिअ)1 भूकृ7/1] [(तिण)-(सम) 1/1 वि] (गण) व 3/1 सक (विसिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
समय आ पड़ने पर तिनके के समान गिनता है विशेष गुण-सम्पन्न
8
बलि अब्भत्थणि महु-महणु
बलि (राजा) से माँगनेवाला होने के कारण
विष्णु
छोटा
हूआ
हुश्रा
वह
(बलि)26/1 (अब्भत्थण)3 7/1 (महुमहण) 1/l (लहु→(स्त्री) लहुई) 1/1 वि (हुआ) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (इच्छ) विधि 2/1 सक (वड्डत्तणअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (दा) विधि 2/1 सक अव्यय (मम्ग) विधि 2/1 सक (क) 1/1स
जइ इच्छह वहुत्तरण
यदि चाहते हो बड़प्पन को दो मत माँगो कुछ (भी)
मग्गहु कोड
9.
कुञ्जर
हे गजराज याद कर
सुमरि
मत
सल्लइउ सरला सास
(कुञ्जर) 8/1 (सुमर) विधि 2/1 सक अव्यय (सल्लइ-अ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (सरल) 2/2 वि . (सास) 2/2 अव्यय (मेल्ल) विधि 2/1 सक (कवल) 1/2 (ज→जे→जि) 1/2 स (पाव→पाविय) भुकृ 1/2
शल्लकी (वृक्ष) को स्वाभाविक (को) साँसों को मत
मेल्लि
त्याग
कवल
प्रास (भोजन) जो प्राप्त किया गया
पाविय
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 । 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)। 3. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135)। 4. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 212। 5. अनिश्चित अर्थ के लिए 'इ' जोड़ दिया जाता है ।
168 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
विहि-वसरण
चरि
माणु
म
मेल्लि
10. विश्रा जन्ति
झडप्पड है 2
पह
मरणोरह
पच्छि
जं
अच्छइ
तं
माणि
इ
होइ
करतु
म
श्रच्छि
11. सन्ता
भोग
ज
परिहरइ
तसु
कन्त हो
बलि
की सु
ससु
दइवे
अपभ्रंश काव्य सौरभ !
[ ( विहि ) - (वस व सेण व सिरा ) 1 3 / 1 वि] विधि के वश से (a) 2/2 afa
उनको
(चर) विधि 2 / 1 सक
खा
( माण ) 2 / 1
स्वाभिमान को
अव्यय
(मेल्ल) विधि 2 / 1 सक
( दिअह ) 1/2
( जा - जन्ति) व 3 / 2 सक
( झडप्पड ) 3/2
(पड) व 3 / 2 अक (मणोरह) 1/2
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
(अच्छ) व 3 / 1 अक (त) 1 / 1 सवि
(मामाणिअ) संकृ ( प्राकृत )
अव्यय
( हो ) भवि 3 / 1 अक
( कर करत करत 3 ) वकृ 1 / 1
अव्यय
( अच्छ) विधि 2 / 1 अक
( सन्त) 2 / 2 वि
(भोग) 2/2
(ज) 1 / 1 सवि
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143 ( 2 ) ।
2.
नपु. 3 / 2 त्रिविअ की भांति काम कर रहा है ।
3. 'करत' प्रयोग विचारणीय है ।
4.
हेम प्राकृत व्याकरण 4-3891
(परिहर) व 3 / 1 सक
(त) 6 / 1 सवि
( कान्त कन्त ) 6 / 1
(बलि) 2/1
( कोसु ) व 1 / 1 सक
(त) 6/1 स
( दइव) 3 / 1
मत
छोड़
दिन
व्यतीत होते हैं।
झटपट से
रह जाती हैं
इच्छाएं
पीछे
जो
होना है
वह
मानकर
ही
होगा
सोचता हु
मत
ਬੈਠ
विद्यमान
भोगों को
जो
त्यागता है
उस (की)
सुन्दर (व्यक्ति) को
पूजा
करता हूँ
उसका
देव के द्वारा
1169
Page #283
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________________
वि
मुण्डियां
जसु
अव्यय (मुण्ड--→मुण्डिय→मुण्डियअ) भूकृ I/I 'अ' स्वा. मुंडा हाल (ज) 6/1 स.
जिसका (खल्लिहड-अ)2 1/1 वि 'अ' स्वाथिक मंजा (सीस) 1/I
सिर
खल्लिहडउ
सीसु
बह उतना (इतना
12. त
तेत्तिउ जलु सायरहो
बल
सागर का
सो
तेवडु वित्थारु तिसहे निवारण
(त) I/ सवि (नेत्तिा ) 1/1 वि (जल) 1/1 (सायर) 6/I (त) 1/1 सवि (तेवड) 1/1 सवि (वित्थार) 1/1 सकि (तिसा) 6/1 (निवारण) 1/ (पल) 1/1 अव्यय अव्यय अव्यय (धुठ्ठअ) व 3/1 अक (असार) 1/1कि
बह उतना (इतना विस्तार ध्यासका निवारण जरा सा
बल
भी
वि
नवि
नहीं
किन्तु आवाज करता रहता है निरर्थक
धुमइ. असार
13. किस
निश्चय ही खाता है
खाइ
पिअइ
अव्यय (खा) व 3/1 सक अव्यय (पिअ) व 3/1 सक अव्यय (विद्दव) व 3/1 सक (धम्म) 7/1 अव्यय (वेच्च) व 3/1 सक (रुअ+अडअ)32/1 'अडअ' स्वाथिक अव्यय (किवण) 1/1वि अव्यय
पीता है नहीं भापता है (घूमता हैं) धर्म में
बिद्दवह धम्मि
नहीं
ने
वेच्चइ
म्यय करता है रुपये को
किवणु
कंजूस, कृपण महीं
1. अनुस्वार का आगम ।
2. खल्लिहड-गंजा।
3. रूअअअडअरूअअडअ-रूअडअरुपया ।
1701
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #284
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________________
जाणइ
जइ
जमहो
खर
पहुच्चइ
अडज
14. कहि
ससहरु
कहि
मयरहरु
कहि
बरिहिणु
कह
मेह
दूर-ठा
वि
ཏྠམཎྜཱ, ། ཚཏྠཱཝཏྠཱཐ
नेह
15. सहि
न
सरवरेहि नवि
उज्जाणवणेह
देस
रवण्णा
होन्ति
चढ
निवसन्तेह सु-श्रह
6. एक्क कुडल्ली
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
(जाण) व 3 / 1 सक
अव्यय
( जम) 6 / 1
(खण) 3 / 1 त्रिविअ
( पहुच्च) व 3 / 1 अक
( अ + अडअ ) 1 / 1 'अडअ' स्वार्थिक
अव्यय
( स सहर) 1 / 1
अव्यय
(मयरहर) 1 / 1
अव्यय
(aftfgm) 1/1
अव्यय
(मेह) 1 / 1
[ (दूर) - ( ठिआहं ) ] दूर = अव्यय
( ठिअ ) भूकृ 6 / 2 अनि
अव्यय
( सज्जरण ) 6/2 (हो) व 3 / 1 अक (असड्ढलु) 1/1 वि (नेह) 1/1
( सरि) 3/2
अव्यय
(सर) 3/2
अव्यय
( सरवर ) 3/2
अव्यय
[ ( उज्जारण) - (वण) 3/2]
(देस) 1/2
(रवा) 1/2 वि
(हो) व 3 / 2 अक (वढ ) 6 / 1 वि
( निवस
( सु-अण) 3/2
निवसन्त) व 3/2
समझता है जबकि
यम का
क्षणभर में
पहुंचता है
कहीं, कहाँ
चन्द्रमर
कहां
समुद्र
मोर
कहाँ मेघ
Angragra
दूरी पर,
स्थित
सज्जनों का होता है असाधारख प्रेम
नदियों से
न
झीलों से
न
तालाबों से
नही
उद्यानों और वनों से
देश
सुन्दर
होते हैं
हे मूर्ख
बसे हुए होने के कारण सज्जनों से (द्वारा)
( एक्क) 1 / 1 वि
एक
( कुडि + उल्ल= कुडुल्ल (स्त्री) कुडुल्ली ) 1 / 1 कुटिया 'उल्ल' स्वार्थिक
[ 171
Page #285
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________________
पञ्चहि रुद्धि
तहं
पञ्चह
पाँच के द्वारा रोकी हुई उन (को) पाँचों को भी अलग-अलग बुद्धि हे बहिन सम्बोधनार्थक
जुग्रं-जुअ
(पञ्च) 3/2 वि (रुद्धि) भूकृ 1/1 अन्ति (त) 6/2 सवि (पञ्च) 6/2 वि अव्यय अव्यय (बुद्धि) 1/ (बहिणु) 8/8 अव्यक (त) 1/1 सवि (घर) 1/1 (कह) विधि 2/1 सक
अव्यय इनन्दअ) 1/1 वि अव्यय (कुडुम्ब→कुडुम्बअ) 1/I (अप्पणछंदअ) न 1/1 वि
बहिणुः
बह
घर कहि
घर कहो
किर्व
कैसे
नन्दर जत्यु
हर्ष मनानेवाला जहाँ कुटुम्ब स्वछन्दी
कुडुम्बङ
अप्परगछंदउं
17. जिभिन्दिऊ
उसना इन्द्रिय करे
नायग बसि
करहु
जसु अधिन्नई अन्नई मूलि विराटइ तुंबिरिणहे
[(जिब्भ)+ (इन्दिअ)] [(जिब्भ)-(इन्दिअ) 2/1] (नायग) 2/1 वि (वस) 7/1 कि (कर) विधि 2/2 सक (ज) 6/11 (अधिन्न) 1/2 कि (अन्न) 1/2 कि (मूल) 7/1 (विरगट्ठअ) भूकृ7/1 अनि 'अ' स्वाथिक (तुंबिणी) 6/1 अव्यय (सुक्क) भूकृ 1/2 अनि (पण्ण) 1/2
प्रमुख वश में करो जिसके अधीन अन्य मूल के समाप्त हो जाने पर तुम्बिनी के अवश्य ही निराधार (म्लान) पत्ते
प्रवसें
सुक्कई
पण्णइं
18. जेप्पि
असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु
(जि+एप्पि) संक (असेस) 2/1 वि [(कसाय)-(बल) 2/1] (दा+एप्पिणु) संकृ (अभअ) 2/1 (जय) 4/1
जीतकर सम्पूर्ण कषाय की सेना को देकर अभय नगत के लिए (को)
172
1
। अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
लेवि महव्वय सिव लहहिं झाएविणु तत्तस्सु।
(ले+ एवि) संक (महव्वय) 2/2 (सिव)2/1 (लह) व 3/2 सक (झा+एविणु) संक (तत्त) 6/1
ग्रहण करके महावतों को मोक्ष प्राप्त करते हैं ध्यान करके तत्त्व (का) को
19. देवं
दुक्कर निप्रय धणु करण
देने के लिए दुष्कर निजधन को करने के लिए नहीं तपको दिखाई देता है इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए
तउ
(दा+एवं) हे (दुक्कर) 1/1 वि [(निअय) वि-(धण) 2/1] (कर+अण) हेकृ अव्यय (तअ) 2/1 (पडिहा) व 3/1 अक अव्यय (सुह) 2/1 (भुज+अणहं) हेक (मण) 1/1 अव्यय (भुज+अगहिं)हेक अव्यय (जा) व 3/1 अक
पडिहाइ एम्बई सुह भुजरणहं मणु
मन
पर
भुजहिं
किन्तु भोगने के लिए नहीं उत्पन्न होता है
जाड
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-134)।
भपभ्रंश कान्य सौरभ
[
173
Page #287
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________________
पाठ-13
परमात्मप्रकाश
पुणु-पुणु परणविवि पंच-गुरु भावें चित्ति धरेवि भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ→तुहुं। अप्पा
अव्यय (पणव+ इवि) संकृ [(पंच) वि-(गुरु) 2/2] (भाव) 3/1 (चित्त) 7/1 (धर+एवि) संकृ (भट्टपहायर) 8/1 (णिसुण) विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/1 स (अप्प) 2/1 (तिविह) 2/1 वि (कह+ एवि) हेकृ
बार-बार प्रणाम करके पाँच गुरुनों को अन्तरंग बहुमान (भाव) से चित्त में धारण करके हे भट्ट प्रभाकर सुन
तिविहु
प्रात्मा को तीन प्रकार की कहने के लिए
कहेवि
2. अप्पा
ति-विह मुरणेवि
लहु
मूढउ
आत्मा को तीन प्रकार की जानकर शीघ्र मच्छित छोड़ आत्मावस्था (भाव) को जान स्वबोध के द्वारा ज्ञानमय
मेल्लहि
(अप्प) 2/1 (तिविह) 2/1 वि (मुण+एवि) संकृ अव्यय (मूढ अ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (मेल्ल) विधि 2/1 सक (भाअ) 2/1 (मुरण) विधि 2/I सक (स-गणाण) 3/1 (णाणमअ) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि [(परम)+ (अप्प)+ (सहाउ)] [(परम) वि-(अप्प)-(सहाअ) 1/1]
भाउ
मुणि
सण्णाणे
जो
जो परमप्प-सहाउ
परमात्म-स्वभाव
3.
मूढ़
वियक्खणु बंभु पर
(मूढ) 1/1 वि (वियक्खरण) 1/1 वि (बंभ) 1/1 (पर) 1/1 वि
मूच्छित जाग्रत प्रात्मा
परम
1. पदों के अन्त में यदि 'उ, हुं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिए यहाँ तुहं का ह्रस्व रूप बताने के लिए तुहुँ किया गया है (हे.प्रा.व्या. 4-411)।
1741
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #288
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________________
अप्पा ति-विहु हवेइ
प्रात्मा तीन प्रकार की होती है देह को
जि
अप्पा
(अप्प) 1/1 (तिविह) 1/1 दि (हव) व 3/1 अक (देह) 2/1 अव्यय (अप्प) 2/1 (ज) 1/1 सवि (मुण) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (जण) 1/1 (मूढ) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक
प्रात्मा जो मानता है
मुणइ
वह
जण
मूढु
मनुष्य मूच्छित होता है
हवेइ
देह-विभिण्णउ गाणमउ जो परमप्पु रिगएइ परम-समाहि-परिट्ठियउ
[(देह)-(विभिण्णअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक] देह से भिन्न (णाणमअ) 2/1 वि
ज्ञानमय (ज) 1/1 सवि
जो [(परम)+ (अप्पु) ] [ (परम)वि-(अप्प)2/1] परम आत्मा को (रिणअ) व 3/1 सक
देखता है (समझता है) [(परम) वि-(समाहि)-(परिट्टियअ) भूक परम समाधि में ठहरे हुए 2/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] (पंडिअ) 1/1 वि
जाग्रत (तत्त्वज्ञ) (त) 1/1 सवि अव्यय (हव) व 3/1 अक
पंडित
सो
वह
जि
हवेइ
होता है
प्रप्पा
लखउ णारगमउ कम्म-विमुक्के जेण मेल्लिवि सयल
प्रात्मा प्राप्त किया गया ज्ञानमय कर्मरहित होने के कारस जिसके द्वारा छोड़कर सकल
(अप्प) 1/1 (लद्धअ) भूकृ1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (णाणमअ) 1/1 वि [(कम्म)-(विमुक्क) 3/1 वि] (ज) 3/1 स (मेल्ल+ इवि) संकृ (सयल) 2/1 वि अव्यय (दव्व) 2/1 (पर) 2/1 वि (त) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (मुण) विधि 2/1 सक (मण) 3/1 क्रिया वि. की तरह प्रयुक्त
वि
दव्यु
दव्य को पर वह सर्वोच्च समझो रुचिपूर्वक
पह
मुगहि मणेण
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 175
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
6. णिच्चु
रिणरंजणु पारगमउ परमाणंद-सहाउ
नित्य निरंजन ज्ञानमय परमानन्द स्वभाव
जिसने
एहज
(णिच्च) 1/1 वि (णिरंजरण) 1/1 वि (णाणमअ) 1/1 वि [(परम)+ (आणंद)+ (सहाउ)] [(परम) वि-(आणंद)-(सहाअ) 1/1] (ज) 1/1 सवि (एहअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (त) 1/1 सवि (संत) भूक 1/1 अनि (सिन) 1/1 वि (स)6/1 स (मुण+इज्ज+हि) विधि 2/1 सक (माअ) 2/1
ऐसो
सा
संतु
सिउ
तासु मुणिज्जहि भाउ
सन्तुष्ट हुआ मंगलयुक्त उसकी समझ अवस्था को
7.
जो रिणय-भाउ
परिहर जो
पर-भाउ
निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है जो पर स्वभाव को नहीं ग्रहण करता है जानता है सकल को
लेड
(ज) 1/1 सवि [(णिय) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (परिहर) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (ले) ब 3/1 सक (जाण) व 3/1 सक (सयल) 2/1 वि अव्यय (णिच्च) 1/1 वि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (सिअ) 1/1 वि (संत) भूकृ 1/1 अनि (हव) व 3/1 अक
जागइ सयलु वि णिच्चु पर
नित्य सर्वोच्च
सो
सिउ
मंगलयुक्त सन्तुष्ट हुमा बनता है (बना है)
8.
जासु
जिसका
(ज)6/1 स अव्यय (वण्ण) 1/1 अव्यय
वन्न
1. विधि अर्थ के मध्यम पुरुष के एकवचन में 'इज्जहि' प्रत्यय वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है (हे. प्रा. व्या.
3-175)।
176
1
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंधु
गंध
रस जिसमें
जासु
सदु
शब्द
फासु जासु
स्पर्श जिसका
(गंध)]/1 (रस) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (सद्द) 1/l अव्यय (फाम) 1/1 (ज)6/1स अव्यय (जम्मण) 1/1 (मरण) 1/1 अव्यय अव्यय (णाअ)1/1 (णिरंजण) 1/1 वि (त) 6/1 स
जन्म
जम्मणु मरणु
मरण
वि
नाम
रगाउ रिणरंजणु
निहकलंक
तासु
उसका
BP,FF.[Fizikr F#715,18TE»!
जासु
जिसके
ण
कोह
क्रोध
..!
मोह
मोह
मद
मउ जासु
जिसके
माय
माया
ण
(ज) 6/1 स अव्यय (कोह) 1/1 अव्यय (मोह) 1/1 (मअ) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (माया) 1/1 अव्यय (मारण) 1/1 (ज) 4/1 स अव्यय (ठाण) 1/1 अव्यय (झाण) 1/1 (जिय) 1/1 (त) 1/1 सवि अध्यय (रिणरंजण) 1/1वि
माणु
जासु
ठाणु
मान जिसके लिए नहीं देश नहीं ध्यान प्रात्मा वह
झाणु जिय
सो
रिणरंजणु
निष्कलंक
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 177
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाण
(जाण) विधि 2/[ सक
जानो
10. अस्थि
है
पुण्णु
पुण्य
पाउ जसु अस्थि
पाप जिसमें
है
नहीं
हरिसु विसाउ अस्थि
हर्ष शोक
अव्यय अव्यय (पुण्ण) 1/1 अव्यय (पाअ) 1/1 (ज) 6/1 स अध्यय अव्यय (हरिस) 1/1 (विसाअ) 1/1 अव्यय अव्यय (एक्क) 1/I वि अव्यय (दोस) 1/1 (ज) 6/1 स (त) 1/1 सवि अव्यय (णिरंजण) 1/1 कि (माअ) 1/1
नहीं
दोसु
भी दोष जिसमें
जसु
सो
वह
निष्कलंक
णिरंजण भाउ
11. जासु
जिसके लिए नहीं अवलम्बन उद्देश्य
धारणु
नहीं
आसु
जिसके लिए
(ज) 4/1 स अव्यय (धारण) 1/1 (अ) 1/1 अव्यय अव्यय (ज) 4/1 स अव्यय (जंत) 1/1 अव्यय (मंत) 1/1 (ज) 4/1 स अव्यय (मंडल) 11
जंतु
यंत्र
मत्त
मन्त्र जिसके लिए
जासु
नहीं
मंडलु
प्रासन
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-134)।
178
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी
(मुद्दा) 1/1 अव्यय अव्यय (त) 1/1 सवि (मुण) विधि 2/1 सक (देअ) 1/1 (अणंत) 1/1 वि
वह
देउ
जानो दिव्यात्मा अनन्त
अरणंतु
12. वेहि
सत्यहि इंदियहि
जो
जिय
मुणहु
(वेय) 3/2
आगमों द्वारा (सत्थ) 3/2
शास्त्रों (अन्यों) द्वारा (इंदिय) 3/2
इन्द्रियों द्वारा (ज) 1/1 सवि
जो (जिय) 1/1
चैतन्य (मुण- हु) (मुण) विधि 2/1 सक
जानो हु-अव्यय
निश्चय ही अव्यय
नहीं (जा) व 3/1 अक
होता है (णिम्मल)-(झाण)3 6/2]
निर्मल ध्यान का (ज) 1/I सवि
जो (विसअ) 1/1
विषय (त) 1/1 सवि
वह [(परम)+ (अप्पु)] [ (परम)वि-(अप्प)1/1] परमात्मा (अणाइ) 1/1 वि
अनादि
जाइ हिम्मल-झारणहर जो विसउ सो परमप्पु अगाइ
13. जेहउ
णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि→सिद्धिहिं णिवसई देउ तेहउ
(जेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (गिम्मल) 1/1 वि (गाणमअ) !/1 वि (सिद्धि)7/1 (णिवस) व 3/1 अक (देअ) 1/1 (तेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
जिस तरह का निर्मल ज्ञानमय मोक्ष में रहता है दिव्यात्मा उस तरह का
1. पदों के अन्त में यदि ", हं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः ह्रस्व रूप से होता है । इसलिए यहां 'देउं' का ह्रस्व रूप बताने के लिए 'देउँ' किया गया है
(हे प्रा.व्या. 4-441)। 2. देखें टिप्पणी 1 । यहाँ 'झाणहं' को 'झाणहँ' किया गया है। 3. यहाँ बहुवचन का एकवचनार्थ प्रयोग हुआ है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 151)। 4. देखें टिप्पणी 1 । यहाँ 'सिद्धिहि' को 'सिद्धिहिँ' किया गया है ।
अपभ्रंश काव्य सोरम ]
[ 179
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिवसइ
बंभू
परु
देह देहहं
-
म
ཝཱ ;
करि
ਸੋਚ
14. जे
दिट्ठे
तुट्टन्ति
लह
कम्मइँ
पुण्व कियाइँ
सो
परु
जाहि
जोइया
देहि
वसंतु
ए
काई
15. जित्यु
ण
इंबिय सुह दुह
जित्यु
श
मरण-वावारु
सो
श्रप्पा
मुि
जीव
तु तुहुं
180 ]
( णिवस ) व 3 / 1 अक
( बंभ ) 1/1
( पर) 1 / 1 वि
(देह) 26/2
अव्यय
(कर) विधि 2 / 1 सक
(भेअ ) 2 / 1
(ज) 3 / 1 सवि
(दिट्ठ) भूकृ 3 / 1 अनि
(तुट्ट) व 3/2 अक
अव्यय
(कम्म) 1/2
[ ( पुव्व) - ( कि किय) भूक 1 / 2 ]
(त) 1 / 1 सवि
( पर) 1 / 1 सवि
(जारण) विधि 2 / 1 सक
( जोइय) 8 / 1 'य' स्वार्थिक
(देह) 7/1
(वस ) वकृ 1 / 1
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
[ ( इंदिय) - ( सुह ) - (दुह ) 1 / 2]
अव्यय
अव्यय
[ ( मण ) - ( वावार ) 1/1]
(त) 1 / 1 सवि
( अप्प ) 1/1
( मुण) विधि 2 / 1 सक (ita) 8/1 (तुम्ह) 1/1
रहता है
आत्मा
परम
देहों में
मत
कर
भेद
जिसके
अनुभव किए गए होने के
कारण
नष्ट हो जाते हैं
शीघ्र
कर्म
पूर्व में किए गए
वह
परम
समझ
हे योगी
1. यहाँ 'देहहं' का हस्व रूप बताने के लिए 'देहहँ' किया गया है (हे. प्रा.व्या. 4 - 441 ) ।
2. कभी - कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) ।
देह में बसते हुए
नहीं
क्यों
जहाँ
नहीं
इन्द्रिय-सुख-दुःख
जहां
नहीं
मन का व्यापार
वह
आत्मा
समझ
हे जीव
त
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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________________
अण्णु
परि
(अण्ण) 2/1 वि (परं+इ) परं=अव्यय इ-अव्यय (अवहार+उ) विधि 2/1 सक
दूसरीको पूरी तरह से, और छोड़ दे
प्रवहार
16. देहादेहहि-देहादेहहिं
(देह)+ (अदेहहिं)] [(देह)-(अदेह) 7/1]
देह में और बिना देह के अपने में
जो वसई भेयाभय-णएण
(ज) 1/1 सवि (वस) व 3/1 अक [(भेय)+ (अभेय)+ (णएण)] [(भेय)-(अभेय)-(णअ) 3/1] (त) 1/1 सवि (अप्प) 1/1 (मुण) विधि 2/1 सक (जीव) 8/1 (तुम्ह) 1/1 स (किं) 1/1 सवि (अण्ण) 3/1 सवि (बहुअ) 3/1 वि
रहता है भेद और अभेददृष्टि से वह प्रात्मा समझ हे जीव
अप्पा मुणि जीव तु:→तुहुं
कि
क्या
प्रणे
दूसरी
बहुएण
बहुत से
17. जीवाजीव
मत
एक्कु करि लक्खरण
भएँ
[(जीव)+ (अजीव)][(जीव)-(अजीव) 2/1] जीव और अजीव को अव्यय (एक्क) 2/1 वि (कर) विधि 2/1 सक
कर (लक्खण) 6/1
लक्षण के (भेअ) 3/1
भेद से (भेअ) 1/1 (ज) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (भरण) व 1/1 सक
कहता हूँ (मुरण) वि 2/1 सक
नान, समझ (अप्प) 2/1
आत्मा को (अप्प) 8/1
हे मनुष्य
जो
वह
भरणमि मुरिण प्रप्पा अप्पू
1. पदों के अन्त में यदि 'उ, हं, हि, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण
प्रायः हस्व रूप से होता है । इसलिए यहां 'देहादेहहिं' और 'तृहुं' को क्रमशः 'देहादेहहिँ' और 'तहँ' किया गया है।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
181
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________________
ਮਜੋਰ
18. श्रमण प्ररिदिउ
गाणमउ
मुत्ति-विरहिउ
चिमित्तु
अप्पा
इंदिय-विसउ
णवि
लक्खण
एह
णिरुत्तु
I.
जो
अप्पा
झाएइ
तासु
गुरुक्की
वेल्लडी
संसारिरिंग
तुइ
20. देहादेवलि
जो
वसड़
देउ
श्ररणाइ-अनंतु
केवल-णाण- फुरंत तणु
सो
19 भव-तणु- मोय विरत मणु [ ( भव) - ( तणु ) - ( भोय ) - (वित्त) भूकृ अनि- संसार, शरीर और भोगों से
उदासीन हुआ मन
(मण ) 1 / 1 ] (ज) 1 / 1 सवि
जो
( अप्प ) 2 / 1
श्रात्मा को (का) ध्यान करता है
( झाअ ) व 3 / 1 सक
(त) 6/1 स
उसकी
( गुरुक्क (स्त्री) गुरुक्की) 1 / 1 वि
घनी
(वेल्ल + अड > (स्त्री) वेल्लडी) 1 / 1 'अड' स्वा. बेल
( संसारिणी) 1 / 1 वि
( तुट्ट) व 3 / 1 अक
परमप्यु
रिंणमंतु
( अभेअ ) 2 / 1 वि
( अमरण) 1 / 1 वि
(अरण + इंदिय) 1 / 1 वि
( गाणमअ) 1 / 1 वि
[ ( मुत्ति ) - (विरहिअ ) 1 / 1 वि ] [ ( चित्त+मित्त
चिमित्त ) 1 / 1 ]
( अप्प ) 1 / 1
[ ( इंदिय) - (विसअ ) 1/1]
अव्यय
182 ]
( लक्खण) 1 / 1
(अ) 1 / 1 सवि
( णिरुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( देह देहा) 1 - ( देवल ) 7 / 13
(ज) 1 / I सवि
श्रभेदरूप
( बस ) व 3 / 1 अक
(देअ) 1/1
मनरहित इन्द्रियरहित
ज्ञानमय
मूर्तिरहित ( अमूर्त)
चैतन्यस्वरूप
श्रात्मा
इन्द्रियों का विषय
नहीं
लक्षण
यह
बताय गया
संसाररूपी
नष्ट हो जाती है
बसता है।
दिव्य आत्मा श्रनादि-अनन्त
[ (अरगाइ) वि- (अनंत ) 1 / 1 वि ]
[ (केवल ) - (जाण) - (फुरंत ) वकृ- ( तणु ) 1 / 1] केवलज्ञान से चमकता हुआ
शरीर
देहरूपी मन्दिर में
जो
समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं (हे. प्रा. व्या. 1-4 ) ।
(त) 1 / 1 सवि
वह
[ (परम) + (अप्पु ) ] [ ( परम ) - ( अप्प ) 1 / 1] परम श्रात्मा ( भिंत) 1 / 1 वि
सन्देहरहित
[ अपभ्रंश काव्य सोम्भ
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________________
पाठ-16
पाहुडदोहा
1.
महान
गरु दिणयह
सूर्य
गुरु
हिमकरण
गुरु
(गुरु) 1/1 वि (दिरणयर) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (हिमकरण) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (दीवअ) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (देअ) 1/1 [(अप्प→अप्पा)1-(पर) 6/2] (परंपर) 6/2 (ज) 1/1 सवि (दरिस→दरिसाव) व प्रे 3/1 सक (भेअ) 2/1
महान चन्द्रमा महान दीपक महान
दीवउ
देव
अप्पापरहं परंपरहं
जो
स्व-भाव और पर-भाव की परम्परा के नो समझाता है भेद को
दरिसाव
2. अप्पायत्तउ
स्वयं के अधीन
[(अप्प)+ (आयत्तउ)] [(अप्प)-(आयत्तज)भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा.) अव्यय अव्यय (सुह) 1/1 वि (त) 3/1 स अव्यय (कर) विधि 2/1 सक (संतोस) 2/1 [(पर) वि-(सुह) 2/1]
भी सुख उससे
कर
जि करि संतोसु परसुह
संतोष दूसरों के (अधोन) सुख को (का) हे मूर्ख विचार करते हुए (व्यक्तियों) के हृदय में
बढ चितंतह हिया
(वढ) 8/1 वि (चित,चितंत) वकृ 6/2 (हियअ) 7/1 अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (सोस) 1/1
ए
नहीं
फिट्ट
मिटती है। कुम्हलान
सोसु
3. आभुजंता
(आ-मुंज →मुंजंत) वकृ 1/2
सब प्रोर से भोगते हुए
1. समास में ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
।
183
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________________
विसयसुह
विषयों (से उत्पन्न) सुखों को जो नहीं कमी हृदय में धारण करते हैं
हियइ धरंति
[(विसय)-(सुह) 2/2] (ज) 1/2 सवि अव्यय अव्यय (हियअ) 7/1 (धर) व 3/2 सक (त) 1/2 सवि [(सासय) वि-(सुह) 2/1] अव्यय (लह) व 3/2 सक (जिणवर) 1/2 अव्यय (भण) व 3/2 सक
सासयसुह लह लहहि जिणवर
अविनाशी सुख को शीघ्र प्राप्त करते हैं जिनवर इस प्रकार कहते हैं
एम
भणंति
वि भुजंता विसय सुह
भाउ
अव्यय अव्यय
भी (भुंज→ जंत) वकृ 1/2
भोगते हुए (विसय) 6/2
विषयों के (सुह) 2/2
सुखों को (हिय+अडअ→हियडअ) 7/1 अडअ' स्वार्थिक हृदय में (भाअ) 2/1
आसक्ति को (धर) व 3/2 सक
रखते हैं (सालिसित्थ) 1/1
सालिसिस्थ अव्यय
जैसे (वप्पुडा+अउ→वप्पुडउ) 1/1 वि (दे.) बेचारा (णर) 1/2
मनुष्य (गरयौ) 6/2
नरकों में (णिवड) व 3/2 अक
गिरते हैं
धरंति सालिसित्थु जिम वप्पुड णर णरयह णिवडंति
5.
आयइंट अडवड बडवाइ
(आयअ) 7/1 (अडवड) 1/1 वि (वडवड) व 3/1 अक अव्यय (रंज→रंजिज्ज) व कर्म 3/1 सक (लोअ) 1/1 [(मण)-(सुद्ध) 7/1 वि]
आपत्ति में अटपट बड़बड़ाता है किन्तु खुश किया जाता लोक मन के कयाषरहित होने पर
रंजिज्जा
लोउ
मणसुद्ध
1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)। 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 146 ।
184 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
रिणच्चलठियई पाविज्जइ परलोउ
1(णिच्चल) वि-(ठिअ)17/1 वि] (पाव) व कर्म 3/1 सक ((पर) बि-(लोअ) 1/1]
अचलायमान और दृढ़ होने पर प्राप्त किया जाता है पूज्यतम जीवन
धंधई पडियउ सयलु
कम्मई करइ अयाणु मोक्खहर कारण एक्कु खण
(धंध) 7/1
धंधे में (पड→पडिय-→पडिय) भूकृ 1/1 'अ' स्वाचिक पड़ा हुआ (सयल) 1/1वि
सकल (जग) 1/1
जगत (कम्म) 2/2
कर्मों को (कर) व 3/1 सक
करता है (अयाण) I/1 दि
ज्ञानरहित (मोक्ख) 6/1
मोक्ष के (कारण) 2/1 (एक्क) 1/1 दि (खण) 1/1 अव्यय
नहीं अव्यय
भी (चिन) व 3/1 सक
विचारता है. (अप्पाण) 2/1
आत्मा को
वि
चित
अप्पाणु
7. अण्ण
मत
जाणहि अप्पणउ घरु
परियण
तण -
(अण्ण) 1/1 वि अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक
जानो (अप्पणअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
अपनी (घर)2/1 (परियण) 2/1
नौकर-चाकर (तणु) 2/1
शरीर (इट्ठ) 2/1 दि
इच्छित वस्तु को I (कम्म) + (आयत्तउ)]
कमों के अधीन [(कम्म)-(आयत्तअ) भुकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा.] (कारिमअ)1/1थि
बनावटी (आगम) 7/1
प्रागम में (जोइ) 3/2
योगियों द्वारा (सिट्ट) भूकृ 1/1 अनि
बताया गया
इठ्ठ कम्मायत्त
कारिम प्रागमि जोइहि सिठ्ठ
8.
जं
(ज) 1/I सवि
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1461 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
अपांश काध्य सौरम ]
[ 185
Page #299
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________________
སྠཽ ཝཿ སྠཽ ། ༧ ཎྞཱ སྠཽ ཟླ ཡ ལྕ ལྷ སྠཽ ཎྜཱ སྠཽ ཤྲཱ སྠཽ བ ཟ སཿ གླ ༥ སྥོ ཙྪཱ ར ཟ ཞཱ
मोहहि
तेण
ग
मुक्ख
9. मोक्खु
वावहि
I.......
विचितहि
186 ]
( दुक्ख ) 1/1
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
( सुक्ख ) 1/1
( किअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
(ज) 1 / 1 सकि ( सुह) 1/1 (त) 1 / 1 सवि
अव्यय
अव्यय
( दुक्ख ) 1 / 1
( तुम्ह) 3 / 1 स ( जिय ) 8 / 1 (मोह) 3/2
(वस ) 7/1
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
अव्यय
( पायअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
( मुक्ख ) 1/1
( मोक्ख ) 2/1
अव्यय
(पाव) व 2 / 1 सक (ita) 8/1
( तुम्ह) 1 / 1 स ( घण ) 2 / 1
( परियण) 2/1
(चितचित) व 1/1
अव्यय
अव्यय
( विचित) व 2 / 1 सक
(त) 2/2 स
अव्यय
अव्यय
(त) 2/2 स
अव्यय
दुःख
ही
वह
सुख
माना गया
नो
सुख
वह
ही
और
दुःख
तेरे द्वारा
हे जीव
श्रासक्ति के कारण
परतन्त्रता में
डूबा है
इसलिए
नहीं
प्राप्त की गई
परम शान्ति
शान्ति
नहीं
पाता है ( पायेगा )
हे जीव
त
धन को
नौकर-चाकर को
1. कभी-कभी एकवचन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जाता है ।
मन में रखते हुए
तो
भी
मन में लाता है
उनको
आश्चर्य
हो
उनको
पादपूरक
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
Page #300
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________________
पकड़ता है
पाव हि सुक्खु
(पाव) व 2/1 सक (सुक्ख) 2/1 (महंत) 2/1 वि
महंतु
विपुल
10. मूढा
खयलु वि कारिमउ
हे मूर्ख सब
बनावटी
मत
स्पष्ट
तुस
कंडि सिवपइ रिणम्मलि करहि
(मूढ) 8/1 वि (सयल) 1/1 वि अव्यय (कारिमअ) 1/1 वि अव्यय (फुड) 2/1 वि (तुम्ह) 1/1स (तुस) । (कंड) विधि 2/I सक {(सिव)-(पअ) 7/1] (णिम्मल) 7/1 वि (कर) विधि /1 सक (रइ) 2/1 (घर) 2/1 (परियण) 2/1 . . अव्यय (छड) संकृ
भूसे को कूट शिवपद में निर्मल कर अनुराग घर (को) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर
घर
परियणु
लहु
छंडि
11. विसयसुहा
विषय-सुखा
दो
दिन के
और फिर दुःखों का
दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि भुल्लउ जीव
[(विसय)-(सुह) 1/2] (दुइ) 6/2 वि (दिवह + अड) 6/2 'अड' स्वार्थिक अव्यय (दुक्ख) 6/2 (परिवाडि) 11 (भुल्लअ) भूक 8/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (जीव) 8/1 अव्यय (वह→वाह) प्रे विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/I स [(अ.1→अप्पा) वि-(वंध) 7/1] (कुहाडि)/1
भूले हुए हे जीव मत चला
वाहि
तुहं
अप्पाखधि कुहाडि
अपने कंधे पर कुल्हाड़ी
12. उबलि
(उव्वल) विधि 2/1 सक
उपलेपन कर
1. समास में ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है (हे.प्रा.व्या. 1-4) ।
अपभ्रंश काव्य सौरम ।
187
Page #301
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________________
बोप्पडि
घी, तेल प्रादि लगा चेष्टाएं
चिट्ठ
करि
देहि
खिला . सुमधुर प्राहार
सुमिट्टाहार
(चोप्पड) विधि 2!! सक (चिट्ठा) 2/2 (कर) विधि 2/1 सक (दा) विधि 2/1 सक [(सुमिट्ठ) (आहार)] [(सुमिट्ठ) वि-(आहार) 2/1] (सयल) 1/1 वि अव्यय (देह) 4/1 (रिणरस्थ) 1/1 वि (गय) भूकृ 1/1 अनि
सयल वि
देह
णिरत्य गय जिह दुज्जरपउवयार
सब कुछ ही देह के लिए व्यर्थ हुआ जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार
जव्यय
[(दुज्जण)-(उवयार) 1/17
13. अथिरेण
थिरा मइलेण रिणम्मला रिणग्गुरोग
(अथिर) 3/I वि (थिर→(स्त्री) थिरा)1/1 वि (मइल) 3/1 वि (रिणम्मल-→(स्त्री) णिम्मला) 11 दि (णिग्गुण) 3/1 वि [(गुण)-(सार→सारा) 1/1 वि]
अस्थिर स्थिर मलिन निर्मल गुरगरहित गुरणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ शरीर से
गुणसारा
काएपण ना विढप्पड़
उदय होती है
(काअ) 3/1 (जा) 1/1 सवि (विढप्प) व 3/1 अक (ता) 1/1 सदि (किरिया) 1/1 अव्यय अव्यय (कायव्य) विधिक 1/1 अनि
किरियह
क्रिया क्यों नहीं की जानी चाहिए
कायब्वा
14. अव्या
बुझिउ रिगच्च
(अप्प) 1/1 (बुज्झ→बुज्झिय) भूकृ 111 (णिच्च) 1/1 वि अव्यय [[(केवलणाण)-(सहा) I/1] वि अव्यय (पर)6/1वि
आत्मा समझी गई नित्य यदि केवलज्ञान स्वमाववाली
केवलरणारासहाउ
पर
1881
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #302
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________________
किज्जइ काई
वढ
तण उष्परि
अणु राउ
15. जसु
मणि
ཡོ བྷཱ བྷཱ ཝ ཟླ
करंतु
सो
मुि
पावइ
सुक्खु
रण
वि
सयलई
सत्य
मुरगंतु
16. बोहिविवज्जिउ
जीव
तुहं
विवरिउ
तच्च
मुहि
कम्मविणिम्मिय
भावडा
ते
श्रप्पाण
भरणे हि
17. ग वि
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
( किज्जइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
अव्यय
( वढ ) 8/1
( तणु) 6 / 1
अव्यय
( अणुराअ ) 1/1
(ज) 6/1 (मण) 7/1
(साग) 1 / 1
अव्यय
( विष्फुर ) व 3 / 1 अक (कम्म) 6/2 ( हेउ) 2/2
( कर करंत) वकृ 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
(for) 1/1
(पाव) व 3 / 1 सक
( सुक्ख ) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(सयल) 2 / 2 वि
( सत्थ) 2/2
(मुणत ) व 1 / 1
[ ( बोहि) - (विवज्ज विवज्जिअ ) भूकृ 8 /1]
(जीव ) 8 / 1
( तुम्ह ) 1 / 1 स
( विवरिअ ) 2 / 1 वि
( तच्च) 2 / 1
( मुण) व 2 / 1 सक
[ ( कम्म ) - ( विणिम्म ( भाव + अड) 2 / 2 'अड' स्वार्थिक
(त) 2/2 सवि
( अप्पाण ) 6 / 1
( भरण) व 2 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
की जाती है
क्यों
हे मूर्ख
शरीर के
ऊपर
आसक्ति
जिसके
हृदय में
ज्ञान
नहीं
फूटता है
कर्मों के कारणों को
करता हुआ
वह
मुनि
पाता है
सुख
नहीं
भी
सभी
शास्त्रों को
जानते हुए
असत्य
तत्त्व को
मानता है
विरिणम्मिअ) भूकृ 2 / 2] कर्मों से रचित
चित्तवृत्तियों को
श्राध्यात्मिक ज्ञान से रहित
(के बिना)
हे जीव
त
उन
स्वयं की समझता है
न
[ 189
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुहं पंडिउ मुक्खु
वि
ईसर
गीसु
(तुम्ह) 1/1 स (पंडिअ) 1/1 वि (मुक्ख) 1/1 वि अव्यय अव्यय अव्यय अव्यय (ईसर) 1/I वि अव्यय अव्यय [(ण)+(ईसु)] ण-अव्यय, ईसु (ईस) 1/1 वि अव्यय अव्यय (गुरु) 1/1 (क) 1/1 सवि अव्यय (सीस) 1/1 अव्यय अव्यय (सव्व) 1/2 सवि [(कम्म)-(विसेस) 1/1]
न, धनी,निर्धन
कोड़ा
कोई
वि
सीसु
शिध्य
ज
सम्वई कम्मविसेसु
सभी कर्मों की विशेषता
18. ण
अव्यय
अव्यय
कारणु
(तुम्ह) 11 स (कारण) 11 (कज्ज ) 1/1 अव्यय
कारण कार्य
कज्जु
अव्यय
अव्यय
सामिउ
स्वामी
अव्यय (सामिअ) 1/1 अव्यय अव्यय (भिच्च) 1/1 (सूर-अ) 1/1 वि 'अ'स्वाथिक
भिच्चु
मौकर शूरवीर
सरउ
1. अनिश्चितता के लिए 'इ' जोड़ दिया जाता है।
190
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
a སྒྲ ཤ སྠཽ 7 ཝཱ སྠཽ ཟ ཎྜཱ སྠཽ ལཾ སླ མ བླ 7 :། ་ སྠཽ པ ཟ ། མ ཇ ཡོ བ སྠཽ སྠཱ
19. पुष्ण
मिल्लवि
चेयर भाउ
20. ल वि
गोरउ
ण
वि
सामलउ
ण
वि
तुह
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(कायर) 1 / 1 वि (ita) 8/1
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
(उत्तम) 1 / 1 वि
अव्यय
अव्यय
( णिच्च) 1 / 1 वि
(gam)1/1
अव्यय
( पाअ) 1/1
अव्यय
(काल) 1/1
अव्यय
( धम्म ) 1 / 1 ( अहम्म) 1 / 1
अव्यय
(aster) 1/1 ( एक्क) 1 / 1 वि
अव्यय
(ita) 8/1
अव्यय
(हो) व 2 / 1 अक
( तुम्ह ) 1 / 1 स
( मिल्ल + इवि ) संकृ
[ ( चेयरण) वि - ( भाअ ) 2 / 1]
अव्यय
अव्यय
( गोर - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
अव्यय
( सामल - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
अव्यय
(तुम्ह) 1 / 1 स
कायर
हे मनुष्य
the to the to the
न
ही
उच्च
न
नोच
LIFE ETTETER.
पुण्य
और
पाप
और
मृत्यु
नहीं
धर्म
अधर्म
नहीं
शरीर
कुछ
भी
हे मनुष्य नहीं
है
तू
छोड़कर
ज्ञानात्मक स्वरूप को
न
पादपूरक गोरा
न
पादपूरक काला
न
पादपूरक
র
[ 191
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक्कु
वि
वष्णु
तणुअंगउ
दुर्बल अंगवाला
(एक्क) 1/1 वि अव्यय (वरण) 1/1 अव्यय अव्यय [(तणु)-(अंगअ) 1/I वि] (थूल) 1/1 वि अव्यय अव्यय अव्यय (जाण) विधि 2/1 मक (स-वण्ण) 2/1
स्थूल
जागि सवण्णु
इस प्रकार समझ स्व-वर्ण ..
192 ]
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ-17
सावयधम्मदोहा
1.
दुर्जन
सुखी
दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयणु पयासिउ
जेण
(दुज्जण) 1/1 वि (सुह→सुहिय-→सुहियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. (हो→होअ) विधि 3/1 अक (जग) 7/1 (सुयण) 1/1 (पयास→पयासिअ) भूकृ 1/1 (ज) २/1 स (अमिअ) 1/1 (विस) 3/1 (वासर) 1/1 (तम→तमेण-तमिण) 3/1 अव्यय (मरगअ) 1/1 (कच्च) 3/1
अमिउ विसें वासरु तमिरण जिम मरगउ कच्चे रण
होवे जग में सज्जन विख्यात किया गया जिसके द्वारा अमृत विष के द्वारा दिन अन्धकार के द्वारा जिस प्रकार मरकत मरिण (पन्ना) काँच से
2 जिह
समिलहि
अव्यय (समिला) 4/1
सायरगयहि दुल्लहु जूयहुए
[(सायर)-(गय) भुकृ 4/1 अनि] (दुल्लह) 1/1 वि (जूय) 6/1 (रंध) 1/1 अव्यय (जीव) 4/2 । (भव)- (जल) - (गय) भूकृ 4/2 अनि ]
जिस प्रकार समिला (लकड़ी को खोल) के लिए सागर में लुप्त दुर्लभ जुवे का छिद्र उसी प्रकारे जीवों के लिए संसाररूपी पानी (सागर) में
तिह जीवहं भव जलगयह
मणुयत्तरिण सम्बन्ध
(मणुयत्तण) 3/1 (सम्बन्ध) 1/1
मनुष्यत्व से सम्बन्ध
3. मणक्यकाहिं
[(मण)-(वय)-(काय) 3/2]
मन-वचन-काम से
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 151। 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150 । 3. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 ।
अपभ्रंश काम्य सौरभ ]
[ 193
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करहित जे.म
दया करो जिससे
दुक्कइ
पाउ
उरि सण्णाहे. बद्धइण
(दया)/1 (कर) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय (ढुक्क) 43/I सक (पाअ) II {उर) 7/1 (सण्णाह3/1 (बद्धअ→बद्धएण→बद्धइण) भूकृ3/1 अनि 'अ' स्वार्थिक अव्यय अव्यय (लग्ग) व 3/1 अक (घाअ) 1/1
प्रवेश करता है (प्रवेश करे) पाप छाती में कवच के कारण बंधे हुए
अवसि
अवश्य (निश्चय ही) नहीं लगता है
लम्ग
घाउ
घाव
पशु, धन, धान्य खेत में
पसुधणधण्णई खेत्तिय करि परिमाणपवित्ति बलियई बहुयई बंधण दुक्करु तोडहुं. जंति.
(पसु)-(घण)-(धण्ण) 7/1} (खेत्त+इय→खेत्तिय) 7/1 'इय' स्वार्थिक (कर) विधि 2/1 सक [(परिमाण)-(पवित्ति) 2/1] (बलिय) 1/2 वि (बहुय) 12 वि (बंधण) 1/. (दुक्कर) 1/1 कि (तोड) 4/1 (जा) व 3/2 अक
परिमारण से प्रवृत्ति गाढ़े (सबल) बहुत बन्धन कठिन तोड़ने के लिए होते हैं
5
भोगह करहि पमाणु जिय इंदियः
(भोग) 6/2 (कर) विधि 2/1 सक (पमाण) 2/1 (जिय) 8/1 (इंदिय) 2/2 अव्यय (कर) विधि 2/1 सक (सदष्प) 2/2 कि (हु) व 3/2 अक
भोगों का कर परिमाण हे मनुष्य इन्द्रियों को मत बना दम्भी होते हैं
करि सदप्प हुंति
1. एण→इण (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 143)। 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 । 3. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1511
1941
अपभ्रश काव्य सौरभ
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भल्ला पोसिया
अव्यय
नहीं (भल्ल→(स्त्री) मल्ला) 1/2 वि
अच्छे (पोस->पोसिय-→ (स्त्री) पोसिया) भूकृ 1/2 पाले गये (दुद्ध) 3/1
दूध से (काला) 1/2 वि
काले (सप्प→(स्त्री) सप्पा)1/2.
काला
सप्प
दाणु
दोसड
बोल्लिज
(दाण) 11
दान (कुपत्त) 4/2
कुपात्रों के लिए (दोस + अड) 1/1 'अड' स्वाथिक
दूषण अव्यय (बोल्ल) ब कर्म 3/1 सक
कहा जाता है अध्यय
नहीं अव्यय
निश्चय हो (भंति) 1/1
भ्रान्ति (पत्थर) 2/1
पत्थर को [(पत्थर)-(णाव) 1/1]
पत्थर की नाव अव्यय (दीसइ) व कर्म 3/1 मक अनि
देखी जाती है (देखी गई) (उत्तार-→उत्तारंत→ (स्त्री) उत्तारंती) वकृi/1 पार पहुंचाती हुई
मंति पत्थर
कहीं
पत्थरगाव कहि दोसइ उत्तारति
7.
जई गिहत्य
दारगण दिणु
यदि गृहस्थ दान के (से) बिना जगत में , कहा जाता है कोई
पभरिगज्जई कोइ।
अव्यय (गिहत्थ) 1/2 (दाण) 3/1 अध्यय (जग) 7/1 (पभरण) व कर्म 3/1 सद (क) I/1 में अध्यय (गिहत्थ) 1/1 (पखी) 1/1 अव्यय (हव) व 3/1 अक अव्यय (घर) 1/1 (त) 6/1 स
गिहत्थ पंखि चि हवह
गृहस्थ पक्षी भी होता है (हो जायेगा) चूंकि घर उसके
घरु
ताह
1. अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1501
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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8
वि
होइ
काई
बहुत
संपयई
जडू
किविहं
धरि
होइ
उबहिणी
खारें
भरिउ
पाणिउ
प्रियइ
ण
कोइ
9. पत्तह
दिण्ण
योवड
रे
जिय
होइ
बहुत्तु
वह
बीउ
धरणिहि
बडिऊ
वित्यरु
लेइ
महंतु
10. काई बहुत्त
196 ]
अव्यय
(हो) व 3/1 अक
(काई) D/T सवि
( बहुत्तअ ) 3 / वि 'अ' स्वार्थिक
( संपयअ ) 3/1 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
(किविण ) 6/2 वि (घर) 7/1
( हो) व 3 / 1 अक
[ ( उवहि ) - ( गीर) 1 / 1]
(खार) 3/1
( भर मरिअ ) भूक 1/1 (पाणिअ) 2/1
(पिय) व 3 / 1 सक
अव्यय
(क) 1/1 सि
(पत्त ) 4/2
( दिण्णअ) भूकृ I / I अनि 'अ' स्वार्थिक (थोव + अडअ ) 1/1 वि 'अडअ' स्वार्थिक.
अव्यय
( जिय ) 8 / 1
(हो) व 3 / 1 अक
( बहुत्त ) 1 / 1 कि
( वड ) 6 / 1
(after) 1/1
(धरण) 7/1
(पड
( वित्थर ) 2 / 1 कि
पडिअ ) भूक D/D
( ले ) व 3 / 1
सक
( महंत ) 2 / 1 कि
1. अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है ।
2. श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
(काई) 1 / 1 सवि
( बहुत्तअ ) 3 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
भी
होता है
क्या
बहुत
सम्पदा से
चो
कृपरणों के
घर में
होती है
समुद्र का जल
खार से
मरा हुआ
पानी को
बीता है
नहीं
कोई
पात्रों के लिए
दिया हुआ.
घोड़ा.
अरे
हे मनुष्य होता है.
बहुतः
बट का
बीज
पृथ्वी पर ( में )
बड़ा हुआ
विस्तार
नेता है
बड़ा
क्या
बहुत
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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जंपियई
अप्पर पडिकूलु काई
कहे गए से जो अपने लिए प्रतिकूल
कैसे
मि
मो
(जंप→जंपिय→जंपियअ) भूकृ 3/1 'अ' स्वा. (ज) 1/1 सवि (अप्प) 4/1 (पडिकूल) 1/1 वि (काई) 1/1 सवि अव्यय (पर) 4/1 वि अव्यय (त) 2/1 स (कर) विधि 2/1 सक (एत) 1/1 स अव्यय (धम्म )6/1 (मूल) 1/1
दूसरों के लिए नहीं उसको कर
करहि
यह
धर्म का
धम्म मूल
मूल
11. धम्म
धर्म
विसुद्धा
शुद्ध
किज्जइ काएग अहवा
(धम्म) 1/1 (विसुद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (त) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (ज) 1/1 सवि (कि+इज्ज) व कर्म 3/1 सक (काअ) 3/1 अव्यय (त) 1/1 सवि (घण) 1/1 (उज्जलन) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (ज) 1/1 सवि (आव) व 3/1 अक (णाअ) 3/1
पूरी तरह से जो किया जाता है काया से (अपने प्राप से) और वह धन उज्ज्वल
धण उज्जलउ
आवड गाएण
माता है न्याय से
12. अवरु
और
भी
हिं
अव्यय अव्यय (ज) 1/1 सवि अव्यय (उवयर) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (उवयार) विधि 2/1 सक अव्यय
उवयरइ
जो जहाँ उपकार कर (सकता) है वह उपकार करे वहाँ
उवयारहि तित्यु
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
[
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लइ जिय जोवियलाहडउ
(लय→लअ) संकृ
ग्रहण करके (जिय) 8/1
हे मनुष्य [(जीविय)-(लाह+अडअ) 2/, 'अडअ' स्वा.] जीवन के लाभ को (देह) 2/1
देह को . अव्यय
मत . (ले) विधि 2/1 सक (णिरत्थ) 2/1 वि
निरर्यक
बना
णिरत्यु
13. एक्काहि
इंदियमोक्कलउ पाव दुक्खसयाई जसु
(एक्क) 7/1 वि
एक (विषय) में [(इंदिय)-(मोक्कलअ)1/1 वि (दे) 'अ' स्वा.] अनियन्त्रित इन्द्रिय (पाव) व 3/1 सक
पाता है [(दुक्ख)-(सय) 2/2वि]
सैकड़ों दुःखों को (ज) 6/1 स
जिसकी अव्यय
फिर (पंच) 1/2 वि
पाँचों ही (मोक्कल) 1/2 वि (दे)
स्वच्छन्द (त) 6/1 स
उसका (उसके लिए) (पुच्छ--पुच्छिज्ज) व कर्म 3/1 सक पूछा जाता है (पूछा जाय) (काई) 1/1 सवि
क्या
पंचवि मोक्कला तसु पुच्छिज्जइ काई
14. जइ
इच्छहि संतोसु करि जिय सोक्खही विउलाह। अह्वा
अव्यय (इच्छ ) व 2/1 सक (संतोस) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (जिय) 8/1 (सोक्ख) 6/2 (विउल) 6/2 वि अव्यय (णंद) 2/1 (त)4/2 सवि (प्राकृत) (क) 11 सवि (कर) व 3/1 सक (रवि) 2/1 (मेल्ल+इवि) संकृ (कमल)4/2
यदि चाहता है सन्तोष कर हे मनुष्य सुखों को विपुल वाक्यालंकार
को कर रवि मेल्लिवि कमलाह
उनके लिए कौन करता है सूर्य को छोड़कर कमलों के लिए
15. मणुयत्तणु
(मण्यत्तण) 21
मनष्यता को
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
1981
[ अपभ्रश काव्य सौरभ
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दुल्लहु लहिवि भोयह पेरिउ जेण इंधरणकज्जें कप्पयर मूलहो खंडिउ तेण
(दुल्लह) 2/1 वि (लह+इवि) संकृ (भोय)4/2 (पेर-→पेरिअ) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स [(इंधण)-(कज्ज):/1] (कप्पयरु) 1/1 (मूल) 5/1 (खंड-→खंडिअ) भूकृ 1/1 (त)3/1 स
दुर्लभ पाकर भोगों के लिए लगा दिया गया जिसके द्वारा इंधन के प्रयोजन से कल्पतर मूल से काटा गया उसके द्वारा
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1481
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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परिशिष्ट-1
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महाकवि स्वयंभू
महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश साहित्य के सर्वाधिक चर्चित, प्रसिद्ध एवं यशस्वी कवि है । स्वयंभू अपभ्रंश के प्रथम ज्ञात कवि हैं। इन्हें अपभ्रंश साहित्य का आचार्य भी कहा जाता है। स्वयंभू अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान थे । वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के पण्डित और छन्दशास्त्र, अलंकार, व्याकरण, काव्य आदि के ज्ञाता थे।
स्वयंभू का जन्म कर्नाटक के एक साहित्यिक घराने में हुआ था। इनके पिता मारुतदेव और मां पद्मिनी थी । त्रिभुवन इनके पुत्र थे । त्रिभुवन ने ही स्वयंभू की अधूरी कृतियों को पूरा किया ।
स्वयंभू का समय 7-8वीं शताब्दी माना जाता है।
स्वयंभू की रचनाओं में उनके प्रदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । उनके प्राश्रयदाता धनञ्जय, धवलइय और बन्दइय नाम से दाक्षिणात्य प्रतीत होते हैं इसलिए यह तो निश्चित है कि उनका कार्य-क्षेत्र दक्षिण प्रदेश था ।
महाकवि की ज्ञात कृतियां तीन हैं1. पउमचरिउ 2. रिट्ठणे मिचरिउ तथा 3. स्वयंभूछन्द
1. पउमचरिउ-रामकथा पर आधारित एक श्रेष्ठ काव्य है । इसमें आचार्य विमलसूरि के प्राकृतभाषी 'पउमचरियं' और प्राचार्य रविषेण के संस्कृतभाषी 'पद्मपुराण' की कथा के आधार पर अपभ्रंश में रामकथा प्रस्तुत की गई है।
2. रिट्ठणे मिचरिउ -कवि का दूसरा महाकाव्य है रिट्ठणे मिचरिउ । यह 'हरिवंशपुराण' के नाम से भी प्रसिद्ध है । इस काव्य में जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का वर्णन है।
3 स्वयंभूछन्द-यह कवि की तीसरी कृति है । यह छन्दशास्त्र पर आधारित रचना है । इसके प्रारम्भ के तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्णवृत्तों का तथा शेष पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का विवेचन किया गया है । इससे सिद्ध होता है कि स्वयंभू का प्राकृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
3
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भारतीय वाङमय के लोकभाषा काव्य में स्वयंभू सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं । उन्होंने जनसामान्य की भाषा अपभ्रंश में काव्य रचना कर साहित्य के क्षेत्र में अपभ्रंश को गौरवपूर्ण स्थान दिलाया। लोकभाषा अपभ्रंश को उच्चासन पर प्रतिष्ठित कराने का श्रेय स्वयंभू को ही है।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ - 1. पउमचरिउ भाग 1-5, महाकवि स्वयंभू, संपा.-हरिवल्लम मायाणी,
अनु.-डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली । 2. रिट्ठणेमिचरिउ-भाग-1,महाकवि स्वयंभू, सम्पा.-अनु.-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन,
प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली । 3. हिन्दी काव्यधारा-डॉ. राहुल सांकृत्यायन, प्रकाशक-किताब महल, इलाहाबाद । 4. जैनविद्या (शोध पत्रिका)-1, स्वयंभू विशेषांक, अप्रेल-1984, प्रकाशक-जैन विद्या संस्थान
श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियां, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-4 । 5. अपभ्रंश भारती (पत्रिका)-1, स्वयंभू विशेषांक, जनवरी-1990, प्रकाशक-अपभ्रंश साहित्य
अकादमी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियां, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-41
6. महाकवि स्वयंभू-डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय, प्रकाशक-भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ़ ।
4
]
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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महाकवि पुष्पदन्त
महाकवि पुष्पदन्त अपभ्रंश के जाने-माने, शीर्षस्थ साहित्यकार है । अपभ्रंश भाषा के सन्दर्भ में महाकवि पुष्पदन्त का स्थान महाकवि स्वयंभू के समान ही प्रमुख है ।
पुष्पदन्त दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश के 'बरार' के निवासी थे । ये कश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था । प्रारम्भ में कवि शैव मतावलम्बी थे । बाद में किसी जैन मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर जैन धर्मावलम्बी हो गये और मान्यखेट में प्राकर मंत्री भरत के अनुरोध पर जिनभक्ति से प्रेरित काव्य-सृजन में प्रवृत्त हुए ।
महाकवि पुष्पदन्त का समय 10वीं शताब्दी माना जाता है ।
इनकी तीन रचनाएं है— 1. तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकार 2 गायकुमारचरिउ तथा 3. जसहर चरिउ ।
1 तिसट्टि महापुरिसगुणालंकार / महापुराण यह ग्रन्थ 'महापुराण' के नाम से भी प्रसिद्ध है । महाकवि की यह रचना अपभ्रंश की विशिष्ट कृति है । महापुराण दो खण्डों में विभक्त है(i) प्रदिपुराण और (ii) उत्तरपुराण । इन दोनों खण्डों में त्रेसठ शलाका पुरुषों अर्थात् 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव (नारायण) तथा 9 प्रतिवासुदेव ( प्रतिनारायण) के चरित वरिणत हैं ।
2. गायकुमारचरिउ- यह खण्ड काव्य है । इस काव्य में श्रुतपंचमी का माहात्म्य बतलाते हुए नागकुमार के चरित का वर्णन किया गया है ।
3. जसहर चरिउ - उ - कवि पुष्पदन्त विरचित सबसे अधिक प्रसिद्ध रचना है । यह अपभ्रंश भाषा की एक उत्तम कृति मानी जाती है । यह भी एक चरित-ग्रन्थ है । यह पुण्यपुरुष 'यशोधर' की जीवनकथा पर आधारित है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ1. महापुराण-महाकवि पुष्पदन्त, सम्पा-डॉ. पी. एल. वैद्य, अनु.-डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन,
प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । 2. णायकुमारचरिउ-महाकवि पुष्पदन्त, सम्पा.-अनु.-डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक-भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन । 3. जसहरचरिउ-महाकवि पुष्पदन्त, सम्पा.-डा. पी. एल. वैद्य, अनु.-डॉ. हीरालाल जैन,
प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । 4. महाकवि पुष्पदन्त-डॉ. राजनारायण पाण्डेय, प्रकाशक-चिन्मय प्रकाशन, जयपुर-3 ।, 5. जैनविद्या (पत्रिका)-2, 3, पुष्पदन्त विशेषांक, अप्रैल, 1985, नवम्बर, 1985,
प्रकाशक-जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियां, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-4।
6 ]
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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महाकवि वीर
महाकवि वीर अपभ्रंश भाषा के महान कवियों में से एक हैं। वीर प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में काव्य-रचना में प्रवृत्त थे किन्तु अपने पिता के मित्र श्रेष्ठी तक्खड़ के प्रोत्साहित करने पर इन्होंने लोकभाषा अपभ्रंश में काव्य-रचना की।
वीर का जन्म मालवदेश के गुलखेड़ नामक ग्राम में जैन धर्मानुयायी, लाडवर्ग गोत्र में हुअा था । इनकी मां का नाम श्रीसंतुवा था । इनके पिता देवदत्त स्वयं एक महाकवि थे।
इनका जीवनकाल विक्रम सम्वत् 1010-1085 तक माना गया है । इस प्रकार इनका समय 10-11वीं शती सिद्ध होता है ।
महाकवि वीर अपभ्रंश के उन शीर्षस्थ साहित्यकारों में से हैं जो अपनी एकमात्र कृति के कारण सुविख्यात हुए हैं । 'जंबूसामिचरिउ' इनकी एकमात्र कृति है । जबसामिचरिउ-इस काव्य में जैनधर्म के अन्तिम केवलि 'जंबूस्वामी' का जीवन-चरित ग्यारह सन्धियों में गुम्फित है।
जंबूस्वामी भगवान महावीर के गणधर सुधर्मा स्वामी के शिष्य थे । भगवान महावीर के निर्वाण के 64 वर्ष पश्चात इनका निर्वाण हुआ था ।
जंबूस्वामी का जीवनचरित साहित्यकारों एवं धर्मप्रेमियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है, इसका कारण है इनके चरित्र की विशेषता । इनके जीवन का घटनाक्रम अत्यन्त रोचक एवं अनूठा है । ऐसा घटनाक्रम फिर कभी न देखा गया, न साहित्य में अन्यत्र पढ़ा गया न सुना गया । जंबू कुमारावस्था में विवाह के बन्धन में न फंसकर संन्यास ग्रहण करना चाहते थे परन्तु परिवारजनों के बहुत आग्रह पर जंबू सशर्त विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे देते हैं । उनका कहना था कि मैं एक शर्त पर विवाह कर सकता हूँ-विवाह के पश्चात मैं अपनी पत्नियों के साथ एक रात व्यतीत करूंगा, यदि उस एक रात में वे मुझे संसार की और आकर्षित कर लेती हैं तो मैं संन्यास-विचार को त्यागकर गृहस्थ जीवन अंगीकार कर लूंगा अन्यथा प्रातः होते ही मैं संन्यास धारण कर लूंगा । और इस शर्त में जीत जंबूकुमार की ही होती है ।
इस कथानक को, महाकाव्य के तत्वों का समावेश कर महाकाव्योचित गरिमा प्रदानकर महाकवि ने अपभ्रंश वाङमय को अलंकृत किया है ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
7
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ -
1. जंबूसामिचरिउ - महाकवि वीर, सम्पा. - अनु. - डॉ. विमलप्रकाश जैन, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन |
2. जैनविद्या (पत्रिका) - 5-6, वीर विशेषांक, अप्रेल 1987, प्रकाशक- जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-4
8 f
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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कवि नयनन्दि मुनि
अपभ्रंश के जाने-माने रचनाकारों में से एक हैं- कवि नयनन्दि मुनि । नयनन्दि मुनि जैन आचार्य श्री कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए हैं । कवि नयनन्दि मुनि काव्यशास्त्र में निष्णात; प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के उच्चकोटि के विद्वान और छन्द शास्त्र के ज्ञाता थे ।
इनका स्थितिकाल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी माना गया है । कवि नयनन्दि की दो कृतियां हैं - 1. सुदंसणचरिउ और 2. सयल विहिविहारणकव्व । इनमें से 'सुदंसणचरिउ' की रचना कवि नयनन्दि ने अवन्ती देश की धारा-नगरी के जिनमन्दिर में राजा भोज के शासनकाल में वि. सं. 1100 में की थी ।
सुदंसरणचरिउ - यह अपभ्रंश भाषा का एक चरितात्मक खण्डकाव्य है । इसमें सुदर्शन केवली के चरित्र का अंकन किया गया है। सुदर्शन का चरित जैन साहित्य का बहुश्रुत तथा लोकप्रिय कथानक रहा है ।
सयलविहिविहाणकन्त्र कवि की दूसरी कृति सयल विहिविहारणकव्व एक विशिष्ट काव्य है । इस काव्य में वस्तु-विधान श्रौर उसकी सालंकार एवं सरल प्रस्तुति की गई है । इसका प्रकाशन अभी संभव नहीं हो सका ।
कविश्री नयनन्दि की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है । इनकी भाषा में सुभाषित और मुहावरों के प्रयोग से प्रांजलता मुखर है तो स्वाभाविकता व लालित्य का समावेश भी है । कवि की रचना 'सुदंसरणचरिउ' का छन्दों की विविधता एवं विचित्रता की दृष्टि से विशिष्ट महत्व है । इस रचना में कई छन्द नये हैं । इसमें लगभग 85 छन्दों का प्रयोग हुआ है, इतने छन्दों का प्रयोग अपभ्रंश के अन्य किसी कवि मे नहीं किया ।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ ---
1. सुदंसणचरिउ - मुनि नयनन्दि, सम्पादक - अनुवादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक प्राकृत, जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली, बिहार ।
2. जैनविद्या - 7 - नयनन्दि विशेषांक, अक्टूबर 1987, प्रकाशक जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियां मट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 4 |
प्रपभ्रंश काव्य सौरम ]
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कवि कनकामर
अपभ्रंश वाङमय के प्रतिनिधि कवियों की श्रृंखला में एक नाम मुनि कनकामर का भी आता है ।
कनकामर का जन्म ब्राह्मणवंश के चन्द्रऋषि गोत्रीय परिवार में हुआ था । जैनधर्म से प्रभावित होकर इन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया और बाद में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की । इनका बाल्यावस्था का नाम अज्ञात है। मुनि दीक्षा के बाद ये 'मुनि कनकामर' के नाम से जाने गये, इसी नाम से ये ज्ञात और विख्यात हैं ।
इनका स्थितिकाल ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है । कनकामर ने अपभ्रंश भाषा में एक खण्डकाव्य 'करकण्डचरिउ' की रचना की । ग्रन्थ की रचना 'प्रासाइय' नगरी में की गई। पं मंगलदेव इनके गुरु थे ।
मुनि कनकामर अपभ्रंश के अतिरिक्त कई भाषाओं के विद्वान थे ।
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करकण्डचरिउ - यह कवि की एकमात्र रचना है । कथा का प्रमुख पात्र 'करकण्डु' है, समूचे काव्य में इसी के चरित्र का विशद वर्णन है ।
'करकण्डु' की कथा जैन - साहित्य में तो प्रसिद्ध है ही, बौद्ध साहित्य में भी इसका पर्याप्त वर्णन है । दोनों ही परम्पराओं / धर्मो / साहित्यों में 'करकण्डु' को 'प्रत्येकबुद्ध" माना गया है ।
'करकण्डचरिउ' 10 सन्धियों का काव्य है । इसमें श्रुतपंचमी के फल तथा पंचकल्याणक विधि का वर्णन है । 'करकण्डचरिउ' का अपभ्रंश - काव्य परम्परा में एक विशिष्ट स्थान है । यह रचना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अन्य विशेषताओं के साथ इसमें दसवीं शताब्दी के जैनधर्म और संस्कृति के स्वरूप का तथा मन्दिरों के शिल्प का अंकन है ।
'करकण्डचरिउ' अपभ्रंश साहित्य की वीर-श्रृंगार और शान्त रसयुक्त एक अनूठी
रचना है ।
1. जो केवलज्ञान प्राप्तकर बिना धर्मोपदेश दिये ही मोक्ष चले जाते हैं उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं ।
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ1. करकण्डचरिउ-मुनि कनकामर, सम्पा.-अनु.-डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक-भारतीय
ज्ञानपीठ प्रकाशन ।
2. जैनविद्या-8.-कनकामर विशेषांक, मार्च 1988, प्रकाशक-जैनविद्या संस्थान
श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-4 ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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महाकवि जोइन्दु
जोइन्दु (योगीन्दु) अपभ्रंश भाषा के एक सशक्त प्राध्यात्मिक कवि हैं । अपभ्रंश वाङमय के रहस्यवाद-निरूपण में कवि जोइन्दु का नाम सर्वोपरि है । इन्होंने अपभ्रंश साहित्य में अध्यात्म-क्षेत्र को नया आयाम दिया है ।
जोइन्दु जैनधर्म के दिगम्बर प्राम्नाय के प्राचार्य थे और उच्चकोटि के आत्मिक रहस्यवादी साधक थे ।
अध्यात्मवेत्ता जोइन्दु के जीवन के सन्दर्भ में कोई वर्णन नहीं मिलता । जोइन्दु के काल-निर्धारण के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है । कोई उन्हें 7वीं शताब्दी का, कोई 8वीं का और कोई 10वीं या । 1वीं शती का मानते हैं । परन्तु अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि जोइन्दु विक्रम सम्वत् 700 के आस-पास हुए हैं ।
जोइन्दु के नाम पर निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख मिलता है1. परमात्मप्रकाश 2. योगसार 3. नौकारश्रावकाचार 4. अध्यात्मसन्दोह 5. सुभाषितम् 6. तत्वार्थ टीका 7 दोहापाहुड
8. अमृताशीति 9. निजात्माष्टक
परन्तु इनमें से प्रारम्भ को दो ही रचनाएं निर्धान्तरूप से जोइन्दु की मानी जाती हैं।
परमात्मप्रकाश-यह जैनदर्शन पर आधारित अध्यात्म का एक अनूठा ग्रन्थ है । जोइन्दु ने इस मुक्तक काव्य की रचना अपने शिष्य भट्ट प्रभाकर के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के लिए की । और आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग प्रकाशित किया । इस ग्रन्थ में प्रात्मा का बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा इन त्रिविधरूप वर्णन किया गया है।
परमात्मप्रकाश अपभ्रंश के मुक्तक काव्यों में शिखरस्थ है ।
योगसार-जोइन्दु की दूसरी रचना है । यह भी पूर्णतः आध्यात्मिक है । यह ग्रन्थ 'परमात्मप्रकाश' के विचारों का अनुवर्तन है । योगसार में अध्यात्म की गूढ़ता को बड़ी सरलता से व्यंजित किया गया है।
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इस ग्रन्थ की रचना संसार से भयभीत मुमुक्षुत्रों को संबोधने के लिए की गई है । 'योगसार' का योग मुक्ति का उपाय है । यह स्व को स्व के द्वारा स्व से जोड़ने की प्रक्रिया का वर्णन करता है ।
दोनों रचनाएं अपभ्रंश के विशिष्ट छन्द 'दोहा' में रचित हैं । जोइन्दु के अधिकांश वर्णन साम्प्रदायिकता से अलिप्त हैं इसलिए उनकी पदावली व काव्यशैली सहज-सामान्य है, प्रिय है, लोक- प्रचलित है । उन्होंने अपने दोहों में लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रयोग किया है इससे आध्यात्मिक तत्व भी सर्वजन बोध्य हो गये हैं । उनकी रहस्यमयी रचनाओं का प्रभाव परवर्ती अपभ्रंश कवियों पर ही नहीं अपितु हिन्दी के सन्तकवियों पर भी प्रचुरता से पड़ा है ।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ
1. परमात्मप्रकाश और योगसार -- श्रीमद् योगीन्दु, प्रकाशक - श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र श्राश्रम, श्रगास (गुजरात) 1
2. परमात्मप्रकाश प्रकाशक - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर - 3 |
और योगसार चयनिका -सम्पादक - डॉ. कमलचन्द सोगाणी,
3. जैनविद्या - 9 - योगीन्दु विशेषांक, नवम्बर 1988, प्रकाशक- जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी, जयपुर - 4 |
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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मुनि रामसिंह
रामसिंह जैन मुनि थे और जैन आध्यात्मिक रहस्यवादी धारा के प्रमुख कवि ।।
इनके सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती । अनुमानतः ये पश्चिम प्रदेश के निवासी थे । पण्डित राहुल सांकृत्यायन इन्हें राजस्थान का बताते हैं । क्योंकि इनके उदाहरण एवं उपमाएं राजस्थानी रंग में रंगे हुए हैं। इनके दोहों में प्रयुक्त शब्द योम एवं तांत्रिक ग्रन्थों का स्मरण दिलाते हैं जिनके पीठ राजस्थान में सबसे अधिक हैं । इससे भी यह अनुमान दृढ़ होता है कि ये राजस्थान के थे ।
डॉ. हीरालाल जैन इनका समय 10वीं शताब्दी मानते हैं।
पाहुडदोहा- पाहुडदोहा मुनि रामसिंह की एकमात्र कृति है। पाहुड का अर्थ उपहार, अधिकार, श्रुतदान आदि होते हैं । यहां यह 'उपहार' के विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है । पाहुडदोहा जैन मुनियों की आत्मानुभूति, परमात्म-संदेश का सरल भाषा तथा दोहा छन्द में मानव जीवन के लिए 'उपहार' स्वरूप है। 'पाहुडदोहा' अात्मानुभूतियों का संग्रह है, उसी का उपहार है, मेंट है ।
इस ग्रन्थ में गुरु की महत्ता स्वीकार्य है किन्तु अधिक महत्व आत्मानुभूति को ही दिया गया है, उसके सामने केवल शब्दज्ञान को व्यर्थ बताया गया है ।
मुनि रामसिंह उदारमना चिन्तक हैं जो सम्प्रदाय और समाज की रूढ़ियों का विरोध करते हुए मानवता की सामा य भूमि पर खड़े हैं। ये साम्प्रदायिकता व संकीर्णताओं के विरोधी हैं । इन्होंने उस जनसाधारण के लिए ज्ञान के सहज द्वार खोले हैं जिसे पढ़ने-लिखने की सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती थी।
मुनिश्री की भाषा सरल, सहज और पैनी है । तथ्य और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही असरदार है । ऐसी संक्षिप्त एवं भावपूर्ण, सटीक अभिव्यक्ति पूरे अपभ्रंश साहित्य में कम ही देखने को मिलती है।
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ1. पाहुडदोहा-मुनि रामसिंह, सम्पा.-हीरालाल जैन, प्रकाशक-कारंजा जैन पब्लिकेशन
सोसायटी, कारंजा (बरार) ।
2. पाहुडदोहा चयनिका-सम्पा.-डॉ. कमलचन्द सोगाणी, प्रकाशक-अपभ्रंश साहित्य अकादमी,
जयपुर-4 ।
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आचार्य हेमचन्द्र सूरि
हेमचन्द्र सूरि साहित्यजगत् के एक यशस्वी विद्वान थे, अगाध पाण्डित्य के धनी थे और अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान, इसीलिए इन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ' कहा जाता है ।
हेमचन्द्र सूरि का जन्म गुजरात के धक्कलपुर / धन्धूका ग्राम में मोढ़ वैश्य जैन परिवार में ई. सन् 1088 में हुआ था । इनके पिता का नाम चाचिंग तथा माता का नाम पाहिणी था । इनके बचपन का नाम चंगदेव था । ई. सन् 1109 में अन्हिलवाड जैन मठ की गुरु-गद्दी पर आसीन होने के बाद ये 'आचार्य सूरि' पद से विभूषित हुए और 'आचार्य हेमचन्द्र सूरि' कहलाने लगे । यही मठ इनके साहित्य-सृजन का प्रधान केन्द्र था ।
हेमचन्द्र सूरि को कई राजाओं का श्राश्रय प्राप्त था किन्तु प्रधान संरक्षण चालुक्यराज जयसिंह सिद्धराज व कुमारपाल का रहा । कुमारपाल ने तो हेमचन्द्र के प्रभाव से जैनधर्म स्वीकार लिया था ।
आचार्य हेमचन्द्र की अनेक रचनाएं हैं जिनमें अभिधानचिन्तामणि, योगशास्त्र, छन्दोऽनुशासन, देशीनाममाला, द्वयाश्रय काव्य, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष और शब्दानुशासन प्रमुख हैं । शब्दानुशासन ग्रन्थ सिद्धराज जयसिंह को समर्पित किया था इसलिए यह ग्रन्थ 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के नाम से जाना जाता है ।
आचार्य हेमचन्द्र अपने युग के प्रधान पुरुष थे जिनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने अपभ्रंश साहित्य को स्थायित्व प्रदान किया । इन्होंने 'शब्दानुशासन' व 'छन्दोऽनुशासन' में अनेक अपभ्रंश दोहे उद्धृत किये हैं जो संयोग, वियोग, वीर, उत्साह, हास्य, नीति, अन्योक्ति आदि से सम्बद्ध हैं । इन दोहों का साहित्यिक सौन्दर्य सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य में सबसे अलग है ।
व्याकरण के क्षेत्र में भी इनकी मौलिकता के दर्शन होते हैं । इन्होंने अन्य वैयाकरणों की भांति पाणिनी व्याकरण के लोकोपयोगी अंशों की व्याख्या / टीका करके ही संतोष नहीं किया बल्कि अपने समय तक की भाषाओं के व्याकरण बनाये और देशी भाषा और शब्दों को आगे बढ़ाया ।
अपनी तलस्पर्शी प्रतिभा और अपभ्रंश के संचयन- संरक्षण के लिए हेमचन्द्र साहित्यजगत् में सदैव अविस्मरणीय हैं ।
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आचार्य देवसेन
दिगम्बर जैन ग्रन्थकारों में प्राचार्य देवसेन एक सुप्रसिद्ध नाम है । प्राचार्यश्री ने अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत तीनों भाषाओं में ग्रन्थ-रचना की है। इनके प्रकाशित ग्रन्थों में दर्शनसार, आराधनासार, तत्वसार, नयचक्र, भावसंग्रह प्राकृत भाषा की और पालापपद्धति संस्कृत भाषा की प्रमुख रचनाएं हैं।
इनके ग्रन्थों के विषय, भाव व भाषा आदि के साम्य के आधार पर विद्वानों का मत है कि अपभ्रंश भाषा के मुक्तक काव्य 'सावयधम्म दोहा' के रचयिता 'आचार्य देवसेन' ही हैं । इनके 'भावसंग्रह' में भी पाँच पद्य अपभ्रंश भाषा के रड्डा छन्द में पाये जाते हैं, शेष भाग में भी अपभ्रंश भाषा का प्रभाव अधिक दिखता है ।
आचार्य देवसेन का समय 10वीं शताब्दी माना गया है ।
सावयधम्मदोहा-इस ग्रन्थ की रचना विक्रम की 10वीं शताब्दी में मानी जाती है। यह ग्रन्थ दोहा छन्द का एक प्राचीनतम उदाहरण है। इसका विषय श्रावकों का धर्म व आचार है ।
___'सावयधम्मदोहा' धार्मिक उपदेश तथा मूक्ति की दृष्टि से तो सुन्दर है ही साथ ही भाषा की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है ।
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महाकवि रइधू
महाकवि रइधू अपभ्रंश - साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध कवि हैं । अपभ्रंश-जगत में सर्वाधिक साहित्य-सृजन का श्रेय महाकवि रघू को ही है ।
रधू के पिता का नाम साहू हरिसिंह तथा माता का नाम विजयश्री था । कवि के जन्मस्थान के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है किन्तु उनकी रचनात्रों में वरिणत अनेक प्रसंगों के आधार से यह अनुमान दृढ़ होता है कि उनका निवास हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के सीमान्त से लेकर ग्वालियर तक के बीच किसी स्थान पर रहा होगा ।
कवि ने गोपाचल (ग्वालियर) नगर का विभिन्न दृष्टिकोणों से जिस प्रकार का वर्णन किया है उससे प्रतीत होता है कि उनकी जन्मभूमि / निवासभूमि तो गोपाचल या उसके सन्निकट ही ही होगी पर कार्यभूमि तो गोपाचल ही थी ।
रइघू ने पृथक्-पृथक् आश्रयदाताओं के आश्रय में अपना साहित्य-सृजन किया ।
नेक अन्तर्बाह्य साक्ष्यों के आधार पर रइधू का स्थितिकाल विक्रम सम्वत् 14391530 (ईस्वी सन् 1382 - 1473) माना जाता है ।
इन्होंने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की यह तो स्पष्ट ज्ञात नहीं है किन्तु 28 ग्रन्थों की जानकारी तो उपलब्ध होती है -
1. बलहद्दचरिउ
4. जसहरचरिउ
7. सावयचरिउ 10. सम्मइजिरणचरिउ
13. सिद्धन्तत्थसार
16. जीमंधरचरिउ
19. सम्मत्तगुण रिहा रणकव्व 22. उवएसमाल / उवएस रयणमाल
25. करकंडचरिउ
28. भविसयत्तकहा
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2. मेहेसरचरिउ
5. पुण्णासव कहा
8. सुकोसलचरिउ
11. सिद्धचक्कमाहप्प 14. घण्णकुमारचरिउ 17. सोलहकार रणजयमाल
20. संतिणाहचरिउ 23. महापुराण
26. सुदंसणचरिउ
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3. कोमुइहपबंधु
6. अप्पसंबोहकव्व
9. पासणाहचरिउ
12. वित्तसार
15. अरिट्टणेमिचरिउ
18. दहलक्खरणजयमाल 21. बारह भावना 24. पज्जुण्णचरिउ 27. रत्नत्रयी
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इनमें से अन्तिम सात रचनाएं अभी उपलब्ध नहीं हुई हैं।
रइधू की विशिष्टता है कि गृहस्थ होते हुए उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की। ग्रन्थ-रचना एवं मूर्तिप्रतिष्ठा-कार्य उनकी अभिरुचि के प्रमुख विषय थे। इन्हें उक्त विशाल साहित्य का निर्माण करने की प्रतिभा अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली थी।
धण्णकुमारचरिउ-प्रस्तुत ग्रन्थ एक पौराणिक चरितकाव्य है । इसमें एक श्रेष्ठि-पुत्र धन्यकुमार का जीवनचरित निबद्ध है ।
धन्यकुमार अपने पूर्वभव में अकृतपुण्य नाम का एक पितृविहीन दरिद्र बालक था । एक बार उसने अपनी माँ के साथ एक मुनिराज को आहारदान किया। उसी के फलस्वरूप वह देवगति में जन्मा और बाद में धन्यकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। इस भव में सर्वगुण-सर्वसाधन सम्पन्न होते हुए भी उसे पूर्वकृत कर्मों के कारण अनेक विपत्तियों/आपदाओं का सामना करना पड़ता है पर वह तब भी धैर्य और साहस नहीं छोड़ता । अपने साले शालिभद्र के वैराग्य से प्रेरणा लेकर धन्यकुमार को भी वैराग्य हो जाता है जिससे वह भी दीक्षा लेकर तप करता है और सद्गति प्राप्त करता है ।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ1- रइधू ग्रन्थावली-भाग-1, 2 सम्पादक-डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक-जीवराज जैन
ग्रन्थमाला, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, महाराष्ट्र ।
2 रइधू साहित्य का पालोचनात्मक परिशीलन-डॉ राजाराम जैन, प्रकाशक-प्राकृत,
जैनशास्त्र अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार ।
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परिशिष्ट-2
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पाठ-1
पउमचरिउ
सन्धि-22
प्रस्तुत कडवक महाकवि स्वयंभू विरचित पउमचरिउ से लिया गया है । यह उस समय का वर्णन है जब राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों का विवाह सम्पन्न कराकर अयोध्या लौट आते हैं।
22.1 अयोध्या पाने के पश्चात् दशरथ-पुत्र राम अषाढ़ की अष्टमी के दिन पत्नी (सीता) के साथ जिनेन्द्र का अभिषेक करवाते हैं। स्वयं दशरथ भी अभिषेक करते हैं। जिनेन्द्र के अभिषेक का गन्धोदक सभी को दिया जाता है। (दशरथ की रानी) सुप्रभा के पास गंधोदक देर से पहुंचता है जिससे सुप्रभा नाराज होती है। इसका कारण जानने के लिए राजा दशरथ कंचुकी को वहाँ बुलाते हैं।
22.2,3 कंचुकी अपनी वृद्धावस्था को देरी से आने का कारण बताते हुए नश्वर शरीर का वर्णन करता है। कंचुकी के द्वारा नश्वर शरीर का सजीव वर्णन सुनकर राजा दशरथ को विरक्ति हो जाती है और वे सम्पूर्ण वैभव (राज्य) राघव को देकर तप करने का दृढ़ निश्चय करते हैं । अपने विचार के अनुसार दशरथ राम के राज्याभिषेक एवं स्वयं के संन्यासग्रहण की घोषणा करते हैं ।
22.7.8 राम के राज्याभिषेक की घोषणा से रानी कैकेयी विचलित हो उठती है, वह अपने पुत्र भरत को राजा बनाना चाहती है। इसके लिए वह दशरथ द्वारा पूर्व में स्वीकृत दो वचनों की याद दिलाकर राजा दशरथ द्वारा दूसरी घोषणा करवाती है। रानी कैकेयी के वचन मानकर राजा दशरथ भरत के लिए राज्य, राम के लिए वनवास और स्वयं के लिए प्रव्रज्या की घोषणा करते हैं।
233 इसके बाद राम स्वयं अपने हाथों से भरत के सिर पर राजपट्ट बांधते हैं और भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को जाने के लिए माता से प्राज्ञा लेने जाते हैं। राम की माता अपराजिता राम से उनके उद्विग्न चित्त व सादगी से, बिना वैभव से आने का कारण पूछती है । राम माता से वनवास को जाने की आज्ञा मांगते हुए पूर्व में अपनी ओर से किये गये अपराधों की क्षमा मांगते हैं।
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पाठ-2
पउमचरिउ
सन्धि- 24
पउमचरिउ की चौबीसवीं सन्धि में वरिणत इस काव्यांश में उस समय का वर्णन है जबकि राम-लक्ष्मण और सीता वनवास को चले जाते हैं और उनके बिना सम्पूर्ण महल सुनसान नजर आता है ।
24.1 नगर के सभी नागरिक व्याकुल हैं । उस समय पृथ्वी भी निःश्वास लेती हुई प्रतीत होती है । नगर के लोग लक्ष्मण को एक क्षा भी विस्मृत नहीं कर पाते। अपनी प्रत्येक क्रिया में, साधन - प्रसाधन में उन्हें लक्ष्मरण का स्मरण होता है ।
24.3 राजा दशरथ भरत का राजतिलक करने लगते हैं परन्तु भरत उन्हें ऐसा करने से रोकता है । वह राज्य की असारता को लक्ष्य करते हुए अपनी संन्यास ग्रहण की इच्छा व्यक्त करता है ।
24.4 राजा दशरथ भरत को ऐसा प्रव्रज्या से क्या ? अभी तुम बालक हो, असहनीय होती है । अत: तुम राज करते तपस्या में होने वाले दुःख व कठिनाइयाँ बताते हैं ।
करने से मना करते हैं और कहते हैं कि तुम्हें अभी इसलिए यह नहीं समझते कि जिन प्रव्रज्या कितनी हुए विषय सुखों का उपभोग करो। वे भरत को
24.5 दशरथ के द्वारा बालक के लिए संन्यास की अनुपयुक्तता की बात सुनकर राजा भरत दुखी होता है और पिता से पूछता है – क्या बालक का जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती ? अगर ऐसा नहीं होता तो बालक प्रव्रज्या के लिए क्यों नहीं जा सकता ? किन्तु दशरथ ने उन्हें समझाकर, डराकर पहले राज्य-सुख का उपभोग करने तथा बाद में प्रव्रज्या को जाने के लिए कहकर पट्ट बांधा और स्वयं ने प्रव्रज्या के लिए प्रस्थान किया ।
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पाठ-3
पउमचरिउ
सन्धि-27
27.14 प्रस्तुत काव्यांश पउमचरिउ से लिया गया है । इसमें राम, लक्ष्मण और सीता के वनवास के समय की एक घटना का वर्णन है । वनवास में वे वनों, पर्वतों आदि में भटकते रहते हैं । इस काव्यांश में बताया है कि तीनों विन्ध्याचल पर्वत, ताप्ती नदी पार कर आगे बढ़ जाते हैं। मार्ग में सीता को प्यास सताने लगी। पानी की खोज करते हुए, सीता को सान्त्वना देते हुए तीनों अरुण गांव में आए। वहां उन्हें एक घर दिखाई दिया, वह घर बिल्कुल खाली
और सुनसान था । वे उस घर में प्रवेश करते हैं और पानी पीते हैं। वह कपिल नाम के व्यक्ति का घर था । वह अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का था। उसी समय कपिल वहाँ आता है । राम, लक्ष्मण और सीता को अपने घर में देखकर वह क्रोध से चिल्लाता है । उसके कटु वचनों को सुनकर लक्ष्मण, क्रोधित हो उठते हैं । वे उसे मारने लगते हैं, राम उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं और आगे बढ़ जाते हैं ।
27.15 चलते-चलते दिन के अन्तिम प्रहर में उस घने वन में उन्हें एक महावटवृक्ष दिखाई दिया, जिस पर विभिन्न प्रकार के पक्षी बैठे हुए कलरव कर रहे थे। वह वटवृक्ष ऐसा दिखा मानो स्वयं उपाध्याय आसन पर स्थित हों। राम और लक्ष्मण ने उस वृक्ष को प्रणाम कर अभिनन्दन किया।
सन्धि-28
जैसे ही सीतासहित राम व लक्ष्मण उस वृक्ष के नीचे बैठते हैं वैसे ही आकाश में बादल छा जाते हैं । आकाश में छाए हुए बादल किस प्रकार लग रहे हैं, इसी का पालंकारिक वर्णन इस काव्यांश में है।
28.1,2,3 आकाश में बादल छा जाना, बिजलियां कड़कना, उन सभी को चीरते हुए वर्षा का आना, प्रस्तुत कडवकों में कवि ने इन सब का, युद्ध में सेना के बाणों के प्रहार के समान कल्पना कर, वर्णन किया है ।
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पाठ-4
पउमचरिउ
76.3 जब राम, लक्ष्मण और सीता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए चौदह वर्ष के वनवास में जाते हैं तब वहां रावण कपट वेश धारण कर सीता का हरण करता है । सीता को पुनः प्राप्त करने हेतु राम लंकापति रावण से युद्ध करते हैं । रावण के इस कार्य से दुःखी होकर विभीषण राम की शरण में आ जाता है। ग्नन्त में राम की जीत होती है और रावण युद्ध में मारा जाता है।
रावण को मरा हुआ देखकर विभीषण मूच्छित हो जाता है। होश आने पर वह स्वयं मृत्यु की इच्छा करने लगता है । प्रस्तुत पद्यांश में उसके करुण विलाप का वर्णन किया गया है।
76.7 प्रस्तुत कडवक में रावण की मृत्यु के पश्चात् दुःखी रानियों का वर्णन किया गया है कि उन सबको किस तरह अपना अस्तित्व समाप्त होता दिखाई देता है। रावण की मृत्यु के बाद ही वे सब भी मृतप्रायः हो गई हैं। उनके भावों का पालंकारिक वर्णन कवि ने यहाँ किया है। उनको दुःख की जो अनुभूति हो रही है, प्रिय के बिछोह की जो वेदना हो रही है कवि ने उसी का विभिन्न उपमानों के द्वारा वर्णन किया है।
77.1 राम के द्वारा रावण के मारे जाने से पूरा अन्त.पुर दुःखी है । कुम्भकरण व इन्द्रजीत को भी रावण के मारे जाने की सूचना मिलती है तो वे अत्यन्त करुण विलाप करते हुए बेहोश हो जाते हैं। होश आने पर रावण की वीरता का बखान कर विलाप करने लगते हैं और यह कहते हैं कि रावण की अनुपस्थिति में सब सुख नीरस हैं । भाई के वियोग में विभीषण विलाप करता है तो वानर-समूह भी रोता है। मरा हुअा रावण वानर-समूह को कैसा लगता है दिखाई देता है, कवि ने इसी का ही विभिन्न उपमाओं से विभूषित वर्णन किया है। धरती पर पड़े हुए रावण को राम-लक्ष्मण भी अत्यधिक दुःखी हो अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हैं।
77.2 विभीषण को समझाते हुए राम कहते हैं कि हे विभीषण ! तुम रावण के लिए क्यों रोते हो ? रोया तो ऐसे पापी को जाता है जिसके बोझ से धरती दुःखी है, जिसके जीने से धरती व्याकुल है, अर्थात् जो घोर पापी है, उसे रोया जाता है। तुम रावण को क्यों रोते
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77.4 राम द्वारा समझाने पर विभीषरण जवाब देते हैं - हे राघव ! मैं इतना इसलिए रोया हूँ कि रावण ने अपना अपयश अधिक फैलाया है, उसने अपने इस अमूल्य जीवन को तिनके के समान बना दियाँ । उसका जीवन व्यर्थ ही गया, यही सोचकर मैं रोता हूँ ।
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पाठ-5
पउमचरिउ
83.2 प्रस्तुत काव्यांश पउमचरिउ की तियासीवीं सन्धि से लिये गये हैं । इसमें उस समय का वर्णन है जब राम लोकापवाद के कारण सीता को राज्य से निर्वासित करते हैं और राजा वज्रजंघ उसे बहन बनाकर पुण्डरीक नगर ले जाता है, वहीं उसके दो पुत्रों लवण व अंकुश का जन्म होता है । दोनों भाई मामा (राजा वज्रजंघ, जिन्होंने उनका पालन-पोषण किया है) के समान ही अजेय व वीर होते हैं । वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपनी वीरता की पताका फहराते हैं। नारद के मुख से राम, लक्ष्मण की वीरता का बखान एवं राम के द्वारा अपनी माता को कलंकित कहकर निकाल देने की बात को सुनकर दोनों भाई मामा के साथ अयोध्या पर चढ़ाई करते हैं । लवण-ग्रंकुश बड़ी वीरता से युद्ध करते हैं। तभी नारद राम से उन दोनों का परिचय करवाते है और कहते हैं-ये ही तुम्हारे पुत्र लवण-अंकुश हैं। यह सुनकर राम उन्हें गले लगाते हैं और जयघोष के साथ नगर में ले जाते हैं।
लवण-अंकुश नगर में प्रवेश करते हैं उस समय भामण्डल, नल-नील, अंग-अंगद, लंकाधिप, किष्किन्धराजा, जनक, कनक और हनुमान भी वहां उपस्थित थे। पूरी सभा में राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, लबरण-अंकुश ऐसे लग रहे थे मानो पांचों मन्दराचल एक साथ प्रा मिले हों। सभी ने राम का अभिनन्दन किया और कहा कि हे राम ! तुम धन्य हो जिसके ऐसे पुत्र हैं, पर पूरी सभा में सीता की कमी खटक रही है । आप (उसकी) सीता की कोई परीक्षा करके उन्हें वापस ले आयें । लोकापवाद में विश्वास करना ठीक नहीं ।
83 3 यह सुनकर राम ने कहा कि मैं सीता देवी के सतीत्व को जानता हूँ, उसके व्रत व गुणों को जानता हूँ, मैं सीता के बारे में सभी कुछ जानता हूँ पर यह नहीं जानता कि उस पर प्रजाजन ने कलंक क्यों लगाया ?
83.4 सर्वगुण-सम्पन्न राज-स्वामिनी पर लगे कलंक को निराधार बताने के लिए उसी समय प्रजाजन के सामने सभा में ही विभीषण ने त्रिजटा को और हनुमान ने लंकासुन्दरी को बुलवाया। दोनों ने सभा में आकर गर्वीले शब्दों में सीता के सतीत्व का वर्णन करते हुए कहा कि असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाये पर सीता का सतीत्व नहीं डिग सकता । फिर भी अगर आपको विश्वास नहीं होता तो तिल, चावल, विष, जल और आग इन पाँचों में से किसी भी एक पदार्थ से उसकी परीक्षा ले लीजिए।
83.5 त्रिजटा व लंकासुन्दरी से परीक्षा करवाने की बात सुनकर राम सन्तुष्ट हो गयेहाँ, यह सही है। उन्होंने इस कार्य को कार्यान्वित करने का आदेश दिया। विभीषण, अंगद,
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सुग्रीव और हनुमान पुष्पक विमान में सीता को लेने के लिए रवाना हुए। वे पुण्डरीक नगर में पहुँचे । सब वहाँ सीता देवी को सकुशल देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे सीता की जय-जयकार करते हुए लवण व अंकुश की वीरता का बखान करने लगे और कहने लगे- अब तुम्हारे बुरे दिन समाप्त हुए, अब अयोध्या चलिए । पति व देवर तथा पुत्रों से मिलकर प्रानन्दपूर्वक निवास कीजिए ।
83.6 अयोध्या वापस जाने की बात सुनकर सीता विह्वल हो जाती है और भर्रायी आवाज में कहती है- मेरे सामने कठोर हृदय राम का नाम मत लो। मुझ निर्दोष को राम ने ऐसे भयंकर जंगल में छुड़वा दिया जहाँ यम और विधाता भी अपने प्रारण छोड़ देता है । प्रब विमान भेजने से कोई मतलब नहीं । दृष्ट (चुगलखोर) लोगों के कहने से ( राम ने ) मुझे जो दुःख दिया है, वह कभी नहीं मिट सकता ।
83.8,9 इस प्रकार पहले तो सीता अयोध्या जाने से मना करती है परन्तु फिर सभी का विशेष अनुरोध देखकर सीता कोशलनगर आ जाती है । सारा नगर जब सीता को देखकर सन्तोष की सांस ले रहा था, जयघोष कर रहा था, उस समय सीता ने राम को जो कुछ कहा वही सब प्रस्तुत पद में वर्णित है ।
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पाठ-6
महापुराण
_16.3 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि पुष्पदन्त रचित महापुराण का अंश है । यह प्रसंग ऋषभदेव के पुत्र भरत-बाहुबलि पाख्यान का है ।
ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे और बाहुबलि उनसे छोटे। ऋषभदेव ने अपना राज्य सब पुत्रों में बांट दिया और स्वयं ने संन्यास ले लिया। सब पुत्र अपने-अपने राज्य से सन्तुष्ट थे। किन्तु भरत अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे। वे दिग्विजय हेतु सैन्यबल-सहित निकल पड़े। अनेक राजाओं को जीतकर वे अपने नगर अयोध्या लौटते हैं, किन्तु उनका विजय चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता। वह चक्र नगर में तभी प्रवेश कर सकता था जब सारे राजा उनकी आधीनता स्वीकार कर लेते ।
बाहुबलिसहित उनके निन्यानवे भाई भरत की आधीनता स्वीकार नहीं करते । कुछ भाई तो आधीनता स्वीकार करने के बजाय राजपाट त्याग कर जिन-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं परन्तु बाहुबलि न आधीनता स्वीकार करते हैं न संन्यास ग्रहण करते हैं। वे भरत से राज्य हेतु युद्ध करने को कहते हैं। यहाँ नगर में प्रवेश से पूर्व ठहरे हुए चक्र का आलंकारिक वर्णन है।
16.4 चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता इससे भरत को आश्चर्य होता है । वे मन्त्री से चक्र के नगर में प्रवेश न होने का कारण पूछते हैं ।
प्रस्तुत कडवक में चक्र के नगर में प्रवेश न करने के कारणों पर भरत व पुरोहित के वार्तालाप का वर्णन है।
16.7 चक्र के ठहर जाने का कारण सुन (समझ) लेने के पश्चात् भरत अपने दूत के साथ अन्य भाइयों के पास प्राधीनता स्वीकार करने हेत सन्देश भिजवाते हैं। प्रस्तुत पद्य में दत का सन्देश व कुमारगणों द्वारा भरत की प्राधीनता अस्वीकार करने का वर्णन है । कुमारगण अनेक तर्क देते हुए भरत नरेश की आधीनता स्वीकार करने को मना करते हैं और अन्त में यही कहते हैं कि हम उसी राजा को प्रणाम करते हैं जिसने चार गतियों के दुःखों का निवारण किया हो।
16.8 उपर्युक्त प्रसंग में ही अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुमारगण कहते हैं कि धरती के लिए प्रणाम करना उचित नहीं। वे सभी अभिमानहीन जीवन को निरर्थक बताते
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हैं। सभी कुमारगरण कहते हैं कि अधीन (सेवक) रहनेवाला व्यक्ति कितना ही गुरणी क्यों न हो सब बेकार है ।
16.9 सभी कुमारगण मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताते हैं और इस अमूल्य जीवन को दासता में रहकर नष्ट नहीं करना चाहते। उनका मानना है कि भोगों में लिप्त रहकर अपने समस्त जीवन को नष्ट करनेवाले मनुष्य के समान हीन कोई नहीं ।
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पाठ-7
महापुराण
पाठ छ: की कथा के अनुक्रम में ही इस कडवक में वर्णन है कि मनुष्य-जीवन का महत्व बताकर सभी भाई मुनि-वेश धारण कर कैलाश पर्वत पर तप के लिए प्रस्थान करते हैं। एक बाहुबलि रह जाते हैं जो न तप करते हैं और न ही आधीनता स्वीकार करते हैं ।
16.19 इस कडवक में उस समय का वर्णन है जब दूत आकर राजा भरत को बताता है कि आपके शेष सब भाई तो तप के लिए कैलाश पर्वत पर चले गये किन्तु एक बाहुबलि ही ऐसे हैं जो न तप साधते हैं और न ही प्राधीनता । दूत के मुख से ऐसे वचन सुनकर भरत पुन: (बाहुबलि के पास) दूत भेजता है । दूत बाहुबलि की प्रशंसा कर भरत की आधीनता स्वीकार करने को कहता है पर बाहबलि मना कर देते हैं और युद्ध के लिए कहते हैं ।
16.20 बाहुबलि के मुख से युद्ध की बात व भरत के लिए अपमानित (कटु) शब्द सुनकर दूत भरत की वीरता का बखान करता है और कहता है कि अधिक कहने से क्या लाभ ? अब भरत प्रापको रणभूमि में ही मिलेंगे और विजय प्राप्त करेंगे ।
16.21 दूत के मुख से भरत के गुणों को सुनकर बाहुबलि जो जवाब देते हैं, प्रस्तुत कडवक में उसी का वर्णन है।
16.22 बाहुबलि से मिलकर दूत अपने नगर अयोध्या पाकर भरत को बताते हैं-हे राजन् ! बाहुबलि आपकी आज्ञा नहीं मानता । वह बड़ा विषम है और पृथ्वी देने के बजाय युद्ध करना ही श्रेष्ठ समझता है । इसलिए वह अवश्य ही युद्ध करेगा।
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पाठ-8
महापुराण
17.7,8 पाठ सात की कथा के सन्दर्भ में ही भरत व बाहुबलि की सेनाएं युद्ध-मैदान में एक-दूसरे के विरुद्ध तैयार हैं । युद्ध-दुन्दुभी बजने के बाद जैसे ही अाक्रमण प्रारम्भ होने वाला होता है, दोनों पक्षों के मन्त्रीगण बीच में आते हैं और दोनों सेनाओं को युद्धविराम के लिए शपथ दिलाते हैं । उनकी शपथ को सुनकर दोनों सेनाएं चित्रलिखित सी खड़ी हो जाती हैं ।
17.9 मन्त्रीगण दोनों ही नरेशों को प्रणाम करते हैं, उन्हें उनके गुणों के बारे में बताते हुए दोनों की तुलना करते हैं और कहते हैं कि आप दोनों ही अत्यन्त वीर हैं, अपनी विजय के लिए आप दोनों ही धर्म और न्याय से युक्त परस्पर तीन प्रकार का युद्ध कर अपनी वीरता व विजय का निर्णय करें तो उचित होगा, अन्यथा विजयश्री व वीरता का निर्णय होना कठिन है। व्यर्थ ही सैनिकों का रक्त बहाना उचित नहीं।
17.10 उन्होंने सबसे पहले दृष्टि-युद्ध का सुझाव दिया, जिसमें कोई भी अपनी पलक न हिलाए । दूसरा जलयुद्ध, जिसमें दोनों एक दूसरे पर पानी उछालें । तीसरा मल्ल युद्ध, जिसमें दोनों तब तक मल्लयुद्ध करें जब तक एक दूसरे के द्वारा उठा नहीं लिए जाते ।
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पाठ-9
जम्बूसामिचरिउ
9.8 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि वीर द्वारा विरचित जम्बूसामिचरिउ की नवीं सन्धि के पाठवें कडवक से उद्धृत है। जबूकुमार राजगृही के श्रेष्ठी अरहदास के पुत्र हैं । वे केरल के राजा को युद्ध में परास्त कर अपने राज्य को लौट रहे होते हैं कि किसी प्रसंग से उनके मन में वैराग्य उत्पन्न होता है और वे माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा लेने जाते हैं ।
माता-पिता पुत्र को अनेक प्रकार से समझाते हैं कि पहले वे उन चारों कन्याओं से विवाह करें जिनके साथ उनका विवाह-सम्बन्ध निश्चित किया जा चुका है, और सांसारिक सुखों का उपभोग करें । परन्तु जंबू अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हैं । यह स्थिति देखकर कन्याओं के पिता को सन्देश भिजवाया जाता है कि कन्याओं के लिए कोई अन्य वर की तलाश करें। यह बात चारों ही कन्याएं स्वीकार नहीं करती। उन सभी को इस बात का पक्का विश्वास था कि अपने अपूर्व सौन्दर्य से जम्बूकुमार को वश में कर लेंगी । इसलिए वे मात्र एक रात के लिए विवाह करने का प्रस्ताव रखती हैं। कुमार एक रात के लिए विवाह करने को तैयार हो जाता है पर एक शर्त के साथ कि-इस रात में यदि मैं भोगानुरक्त हो जाऊँ तो ठीक अन्यथा दूसरे दिन प्रातः मैं दीक्षा धारण कर लूंगा।
विवाह के पश्चात् जम्बूकुमार की चारों पत्नियां उनको आकर्षित करने के लिए संसार-आसक्ति की अनेक कथाओं, अन्तर्कथाओं का सहारा लेकर समझाने का प्रयत्न करती हैं जिनके जवाब में स्वयं जम्बूकुमार भी कथाओं के माध्यम से संसार की असारता, जीवन की नश्वरता का वर्णन करते हुए अपने व्रत पर ही दृढ़ रहते हैं।
विनयश्री कुमार को कथानक कहती है कि किस प्रकार एक गरीब संखिणी नामक कबाड़ी स्व-अधीन (जो स्वयं के पास है) लक्ष्मी का उपभोग नहीं करता और श्रेष्ठ स्वर्गसुख की आकांक्षा में ही अपना मूल भी गवाँ देता है यही हाल इनका (जम्बूकुमार) का होगा।
9.11 दूसरी वधू रूपश्री जम्बूकुमार से कहती है-अत्यधिक अनुपलब्ध सुखों की इच्छा करनेवाले के उपलब्ध सुखों का भी नाश हो जाता है । वह ठगा जाता है ।
प्रत्युत्तर में कुमार कथा कहता है कि जो मूर्ख विषयसुखों में अन्धा होकर रहता है वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होता है । जिस प्रकार मांस खाने के लालच में गीदड़ को रात
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बीत जाने का पता ही नहीं चला और सुबह कुत्तों ने उसे खा लिया। इस कडवक में वही कथा वणित है।
10.11 नववधुओं की संसार-पासक्ति की कथाएं एवं उनके उत्तर में कुमार द्वारा संसार की नश्वरता, शरीर की असारता की कथाओं को विद्युच्चर नामक चोर सुनता रहता है। जम्बूकुमार की माता उसे देख लेती है। उससे यह पूछे जाने पर कि वह कौन है तथा यहाँ क्या करने आया था ? वह अपना परिचय बताता है और माता को आश्वस्त करता है कि अगर किसी प्रकार मैं अन्दर चला जाऊँ तो कुमार को विषय-सुखों की ओर जरूर अग्रसर कर दूंगा । यदि मैं असफल रहा तो प्रातः मैं स्वयं भी तपश्चरण/संन्यास ग्रहण कर लूंगा। माता उस चोर को कुमार के कक्ष में ले जाती है और कुमार से यह कहकर परिचय कराती है कि यह तुम्हारे मामा हैं ।
फिर मामा (विद्युच्चर) व भान्जे (जम्बू) का कथानों के माध्यम से वार्तालाप होता है । विद्युच्चर के मुख से यह सुनकर कि तुम्हारे लिए राज्य-सुख ही श्रेष्ठ है, देव सुख के लिए मन में दमन श्रेष्ठ नहीं, स्वाधीन सुखों को छोड़नेवाले को कोई सुख नहीं मिलता ।
जम्बूकुमार मनुष्य-जीवन का महत्व ग्रादि के बारे में एक कथा का दृष्टान्त देते हैं । प्रस्तुत कडवक में उसी का वर्णन है।
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2.10,11 प्रस्तुत काव्यांश मुनि नयनन्दिकृत 'सुदंसरणचरिउ' से लिया गया है ।
चम्पानगरी में ऋषभदास नाम के एक सेठ थे । उनके सुभग नाम का एक ग्वाला था । उस सुभग ग्वाले को एक बार वन में मुनिराज के दर्शन होते हैं । मुनिराज के द्वारा वह णमोकार मन्त्र का उपदेश प्राप्त करता है । वह निरन्तर उसका जाप करता है। सेठ ऋषभदास उसको मन्त्र का प्रभाव समझाते हैं और साथ में सप्त व्यसनों के दुष्परिणाम के बारे में भी बताते हैं ।
ये सप्तव्यसन क्या है ? इनके परिणाम कैसे होते हैं ? यही प्रस्तुत काव्यांश में वरित है । सेठ ऋषभदेव गोप को समझाते हुए कहते हैं कि ये सप्त-व्यसन करोड़ों जन्मों तक भारी दुःखों को देनेवाले हैं । अतः हे पुत्र ! तू मन को संयम में रख और इन व्यसनों से दूर रह ।
पाठ-10
सुदंसरणचरिउ
8.7 प्रस्तुत कडवक सुदंसरणचरिउ की आठवीं सन्धि से लिया गया है । महामुनि के उपदेशों के प्रभाव से ऋषभदास सेठ को संसार से विरक्ति होती है और वे अपने पुत्र को गृहस्थी का भार सौंप कर तपस्या के लिए चले जाते हैं । उनका पुत्र सुदर्शन व पुत्रवधू मनोरमा प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं । वसन्तोत्सव में रानी अभया सुदर्शन को देखकर उस पर मुग्ध हो जाती है और सुदर्शन को अपने वश में करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करती है । वह कहती है-या तो वह सुदर्शन को वश में करेगी अन्यथा मर जायेगी ।
पंडिता (रानी की दासी) रानी को समझाती हुई कहती है कि आवेग में आकर शील का नाश नहीं करना चाहिए । प्रस्तुत काव्य में शील की प्रशंसाकर उसके कारण अमर हुई अनेक सतियों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं और रानी को बार-बार समझाया है कि हर तरह से शील की रक्षा करनी ही चाहिए । शील ही सच्चा प्रभूषण है, शीलवान की सभी सराहना करते हैं ।
8.9 पंडिता के बार-बार समझाने पर भी रानी अभया अपना हठ नहीं छोड़ती है और सुदर्शन की रट लगाये रहती है तो पंडिता सोचती है और कहती है- जो कुछ, जिस प्रकार, जिसके द्वारा जहाँ होने वाला है, वह उसी देहधारी के द्वारा, वहाँ पर घटित होकर ही रहेगा । होनहार प्रति बलवान होता है, वह टलता नहीं । इस कडवक में इसी तथ्य को अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है ।
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8.32 इस काव्यांश में सम्यक् चारित्र की दुर्लभता का वर्णन किया गया है । कवि कहते हैं कि सम्यक् चारित्र के आगे सभी दुर्लभ वस्तुएं भी सुलभ समझो, यहाँ कवि ने सुदर्शन द्वारा स्वगत भाषण (अपने से बातचीत) का सुन्दर वर्णन किया है। सुदर्शन यही सोच रहा है कि जिनशासन के अनुसार अति पवित्र वस्तु जिसे मैं पहले कभी नहीं पा सका, उस सम्यक् चारित्र को कैसे नष्ट कर दूं ? यह तो पाताल के शेषनाग, कश्मीर के केसरपिण्ड, मानसरोवर में कमलखण्ड, खान में से हीरे की प्राप्ति से भी दुर्लभ है । अर्थात् ये सभी तो सम्भव हैं पर सम्यक् चारित्र अति दुर्लभ है और अगर वह मेरे पास है तो मैं किस प्रकार उसे नष्ट होने
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सुदंसरणचरिउ
3.1 प्रस्तुत काव्यांश मुनि नयनन्दी रचित सुदंसणचरिउ की तीसरी सन्धि से लिया गया है । इस काव्य में उस समय का वर्णन है जबकि सेठ ऋषभदास का ग्वाला (सुभग) णमोकार मन्त्र का प्रभाव जान निरन्तर उसी का स्मरण करता रहता है। एक बार गंगानदी में जलक्रीड़ा करता हुआ ठूंठ से ग्राहत होकर णमोकार मन्त्र का स्मरण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है ।
पाठ-11
इधर सेठानी अद्दासी एक रात में पाँच स्वप्न देखती है, उन्हीं का वर्णन प्रस्तुत काव्य में वर्णित है ।
3.2 प्रातःकाल सेठानी अपने पति ऋषभदास (सेठ) के साथ जिन मन्दिर में स्वप्न फल पूछने जाती है । वहाँ मुनिराज उसे स्वप्न फल को समझाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे द्वारा स्वप्न में देखे गये दृश्यों से यह ज्ञात होता है कि तुम्हारे धैर्यवान, त्यागी व लक्ष्मीवान, गुणों का समुह, पापरूपी मल को नष्ट करनेवाला पुत्र होगा ।
3. 5 प्रस्तुत काव्यांश में सेठ ऋषभदास के घर पुत्र - जन्म होने के पश्चात् का वर्णन है कि किस प्रकार सुदर्शन के जन्मोत्सव को सेठ के साथ-साथ स्वयं प्रकृति भी हर्षोल्लास के साथ मनाती है । कवि कहता है-पुत्र के उत्पन्न होने से सम्पूर्ण परिवेश ही आनन्दित हो रहा था । उसी बीच छठे दिन माता पुत्र को लेकर उसके नामकरण के लिए जिन मन्दिर गई ।
3.6 सेठानी के मुख से यह सुनकर कि बन्धुजनों ने इसका नाम कुम्भ राशि में रखने को कहा है, महामुनि ने कहा कि पुत्री तेरे द्वारा स्वप्न में सुन्दर और उच्च सुदर्शन मेरु को देखा गया था इसलिए इसका नाम सुदर्शन ही रखना उचित है । प्रस्तुत काव्यांश में बढ़ते हुए बालक का आलंकारिक वर्णन दोधक छन्द में निबद्ध किया गया है ।
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पाठ-12
करकंडचरिउ
2.16,17,18 प्रस्तुत काव्यांश मुनि कनकामर रचित करकंडचरिउ से लिये गये हैं। अंगदेश का राजा धाडीवाहन रानी पद्मावती के साथ हाथी पर बैठकर सैर करने जाते हैं । दैवयोग से हाथी जंगल की ओर भागता है, राजा तो एक पेड़ को पकड़कर बच जाते हैं पर हाथी रानी को लेकर आगे निकल जाता है। हाथी एक जलाशय में प्रवेश करता है और रानी कूदकर वन में प्रवेश करती है । उसके प्रभाव से वन हरा-भरा हो जाता है । वनमाली उसे अपने घर बहन बनाकर ले जाता है। परन्तु उसकी पत्नी दोनों पर सन्देह करती है और रानी को श्मशान में छुड़वा देती है। श्मशान में रानी एक पुत्र को जन्म देती है । उस पुत्र को रानी के लाख मना करने पर भी एक मातंग (चाण्डाल) यह कहकर ले जाता है कि मैं एक विद्याधर हूँ और श्राप के कारण मातंग हो गया हूँ। श्राप देते समय मुनि ने यह भी
ब दंतिपुर के श्मशान में करकंडु का जन्म हो तो उसका लालन-पालन करना, वह जब पुनः राज्य प्राप्त करेगा तो तुम विद्याधर हो जाओगे। इस तरह रानी को समझाकर यथोचित लालन-पालन की प्रतिज्ञा कर वह उस बालक को ले जाता है । वह उसे नाना प्रकार की विद्याएं सिखाता है तथा सत्संगति की शिक्षा देता है।
कहा था ।
प्रस्तुत काव्यांश में विद्याधर उसे उच्च पुरुषों की संगति का फल एक कहानी के माध्यम से समझा रहा है। विद्याधर बताता है कि एक वणिक एक उच्च पुरुष की संगति कर किस तरह भूमण्डल का उपभोग कर सकता है, उसकी कीर्ति किस प्रकार फैलती है।
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पाठ-13 धण्णकुमारचरिउ
3.16 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि रइधू द्वारा लिखित धण्ण कुमारचरिउ की तीसरी सन्धि से लिया गया है । भोगावती अपने पुत्र अकृतपुण्य के साथ अपने भाई के यहां रहती है । अकृतपुण्य वहाँ गाय-बछड़े चराता है ।
एक दिन अकृतपुण्य गाय-बछड़े चराते हुए घने जंगल में चला जाता है, थकान होने के कारण अपना वस्त्र बिछाकर पेड़ के नीचे सो जाता है। उसी समय तेज आँधी चलती है, बिजली चमकती है, जिससे घबराकर गाय-बछड़े अपने घर आ जाते हैं। उन गाय-बछड़ों को जंगल में न पाकर अकृतपुण्य भय के कारण जंगल में ही रह जाता है ।
पुत्र को घर न पाया जानकर माता भोगावती अत्यधिक दुःखी होती है और सभी को साथ लेकर पुत्र को ढूंढने जंगल की ओर जाती है। अकृतपुण्य मामा के साथ ग्रामवासियों को शस्त्र लिए हुए आते देखता है तो सोचता है कि गाय-बछड़ों के खो जाने के कारण ये सब मुझे मारने आए हैं, इसलिए वह और आगे भाग जाता है ।
भय से भागते हुए अकृतपुण्य एक गुफा में पहुंच जाता है। वहाँ मुनि वीरसेन शास्त्र पढ़ रहे थे। अकृतपुण्य शुभगति और सुखों को देनेवाले उन वचनों को सुनता है, उन पर चिन्तन करता है कि उसी समय एक सिंह के आक्रमण से मारा जाता है । शुभ भावों से मरकर वह प्रथम स्वर्ग को प्राप्त करता है।
319 स्वर्ग के सुखों को देखकर वह विचार करने लगता है कि मेरा कौनसा पुण्य है जिससे मुझे यह सब प्राप्त हुआ। अकृतपुण्य स्वर्ग में अपने दुःखों को याद करता है उसी समय उधर उसकी माता व मामा उस गुफा के द्वार पर आते हैं और भयंकर दुःख देनेवाला दृश्य (अकृतपुण्य का क्षत-विक्षत शरीर) देखते हैं ।
3.20 पुत्र के दसों दिशाओं में बिखरे अंगों को देखकर माता मूच्छित हो जाती है, नाना प्रकार से रुदन करती है और स्वयं भी मरने को तैयार हो जाती है । स्वर्ग से माता का विलाप एवं दुःख देखकर व गुफा में स्थित मुनिराज के चरणों में प्रणाम करने की भावना लेकर अकृतपुण्य माया से अपनी पुरानी देह का रूप धारण कर माता के सामने पाकर उसको प्रणाम करता है।
3.21 अकृतपुण्य रोती हुई माता को अनेक प्रकार से समझाता है। संसार की प्रसारता, जीवन की क्षणभंगुरता को समझाते हुए जिन-आगम का स्मरण करने को कहता है जिसके कारण स्वयं प्रकृतपुण्य ने प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य 'सुर' का स्थान प्राप्त किया।
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शुद्धि पत्र
पृष्ठ संख्या
पंक्ति संख्या
कडवक संख्या
अशुद्ध
शुद्ध
11
23
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121
[4]
[5]
22.8.6 24.3.7 83.5.9 83.8.7 16.4.1 16.4.2,3 16.4.4,5,6 16.4.7 16.4.8 16.4.9 16.7.1 16.7.2 16.7.3 16.7.4 16.7.5 16.7.6 16.7.7 16.7.8 167.9 16.7.10 16.8.1 16.8.2 16.8.3 16.8.4 16.8.5 16.8.6 16.8.7 16.8.8 16.8.9 16.8.10
(वह उस ओर) कैकेयी(उस पोर) दीसवन्तु
दोसवन्तु स्थित है
स्थित रहती है ण भीय सीय ण भीय [1-2] [1] [3-4] 12-3] [5-6-7] [4-5-6] [8] [7] [9] [8] [10] [१] [1-2] [3] [4] [3] [5] [6] [7] [8]
[8] [10] [9] [11] [10] [1-2] [1] [3] [2] [4] [3]
[4] [6]
[5] [7] [6] [8]
[7] [9] [8] [10] [9] [11] [10]
[6]
37
[9]
37
37
14 20 22
-
37
-
-
[5]
-
37
-७०
-
37
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-
39 39
-
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०
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पृष्ठ संख्या
पंक्ति संख्या
कडवक संख्या
अशुद्ध
शुद्ध
57
11
[8]
58
12 17
2.10.7 2.11 8.32.3 3.1.9 3.5.10
[7] 13 कस्सीरएँ
64.
5 25
करसीरऍ रण स्थित
67.
स्थिर
___ नोट-पृष्ठ संख्या 37 पर कडवक संख्या 16.7.7 (शुद्ध की हुई) के हिन्दी अनुवाद को इस प्रकार पढ़ें-जो न जीर्ण होता है (न) क्षीण होता है तो (हम) (उसको) प्रणाम करते हैं । यदि (कोई अपनी) पीठ भंग नहीं करता तो (हम उसको) प्रणाम करते हैं ।
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सहायक पुस्तकें एवं कोश
पउमचरिउ (भाग 1-5)
महाकवि स्वयंभू सम्पा.-डॉ. हरिवल्लभ भायाणी अनु.-डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली)
2. महापुराण
3. जंबूसामिचरिउ
4. सुदंसणचरिउ
महाकवि पुष्पदन्त सम्पा.-डॉ. पी.एल. वैद्य (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली) महाकवि वीर सम्पा.-डॉ. विमलप्रकाश जैन (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली) मुनि नयनन्दि सम्पा-डॉ. हीरालाल जैन (प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार) मुनि कनकामर सम्पा.-डॉ. हीरालाल जैन (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली)
5.
करकंडचरिउ
धण्णकुमारचरिउ (रइधू ग्रन्थावली, भाग-1)
महाकवि रइधू सम्पा.-डॉ. राजाराम जैन (जीवराज जैन ग्रन्थमाला, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, शोलपुर-महाराष्ट्र)
7. परमात्मप्रकाश
योगीन्दु
(परमश्रुत प्रभावक मण्डल, मगास-गुजरात)
४. पाहुडदोहा
मुनि रामसिंह सम्पा.-डॉ. हीरालाल जैन (अंबादास चवरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला कारंजा(बरार))
अपभ्रंश काव्य सौरभ ।
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9. सावयधम्मदोहा
प्राचार्य देवसेन सम्पा.-डॉ. हीरालाल जैन (कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसायटी, कारंजा, बरार)
10. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण
(भाग 1-2)
व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महाराज (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर)
11. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण
डॉ. आर. पिशल (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना)
12. अभिनव प्राकृत व्याकरण
डॉ. नेमिचन्द शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी)
13. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन
श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव (एस. चाँद एण्ड कं. प्रा. लि., नई दिल्ली)
14. पाइय सद्द महण्णवो
पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी)
15. अपभ्रंश-हिन्दी कोश
(भाग 1-2)
डॉ. नरेशकुमार (इण्डो-विजन प्रा. लि. 11A, 220, नेहरु नगर, गाजियाबाद)
16. वृहत् हिन्दी कोश
सम्पा-कालिकाप्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस)
17. संस्कृत-हिन्दी कोश
वामन शिवराम प्राप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली)
18. अपभ्रंश रचना सौरम
डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर)
19. Apabhramsa of Hemchandra : Dr. Kantilal Baldevram Vyas
(Prakrit Text Society, Ahmedabad)
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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