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पाठ-15
परमात्मप्रकाश
[1] पाँच गुरुत्रों को बार-बार प्रणाम करके (और) (उनको) अंतरंग बहुमान से चित्त में धारण करके (मैं) तीन प्रकार की प्रात्मा को कहने के लिए (उद्यत हुअा हूँ) । (अतः) हे भट्ट प्रभाकर ! तू (ध्यानपूर्वक) सुन ।
[2] तीन प्रकार की प्रात्मा को जानकर (तू) शीघ्र मूच्छित आत्मावस्था को छोड़ । (और) जो ज्ञानमय परमात्म-स्वभाव (है) (उसको) स्वबोध के द्वारा जान ।
[3] आत्मा तीन प्रकार की होती है-मूच्छित (आत्मा), जाग्रत (आत्मा) और परम प्रात्मा (शुद्ध प्रात्मा) । जो देह को ही प्रात्मा मानता है वह मनुष्य मूच्छित होता है।
[4] जो देह से भिन्न परम समाधि में ठहरे हुए ज्ञानमय परम आत्मा को समझता है वह ही जाग्रत होता है।
[5] सकल ही पर द्रव्य को छोड़कर जिसके द्वारा ज्ञानमय प्रात्मा प्राप्त किया गया (है) वह कर्मरहित (मानसिक तनावरहित) होने के कारण सर्वोच्च (आत्मा) (है) । (तुम) (इसको) रुचिपूर्वक समझो ।
[6] (आत्मा) नित्य (है), निरंजन (है), ज्ञानमय (है) (और)(उसका) परमानन्द स्वभाव (है) । जिस (मनुष्य) ने ऐसी (अवस्था) (प्राप्त की है) वह (निश्चय ही) संतुष्ट हुप्रा (है) (और) (वह) मंगल-युक्त (भी) (बना) (है)। उसकी (इस) अवस्था को (तू) समझ।
[7] जो (आत्मा) निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है, जो पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है, (जो) नित्य (है), सर्वोच्च (है) और सकल (पदार्थ-समूह) को जानता है वह ही सन्तुष्ट हुआ (है) (और) मंगल-युक्त (भी) बना है।
[8] जिस (अवस्था) का न (कोई) रंग (है), (जिस अवस्था में) न (कोई ) गंध (है), (जिस अवस्था में) न (कोई) (इन्द्रियात्मक) रस (है), जिस (अवस्था) में न (कोई) (कर्णेन्द्रिय सम्बन्धी) शब्द (है), (और) (जिस अवस्था में) न (कोई) (स्पर्शनेन्द्रिय संबंधी) स्पर्श (है), जिस (अवस्था) का न (कोई) जन्म (है) (और न) मरण, (जिस) (अवस्था) (का) न ही (कोई) नाम (है), उस (अवस्था) का (स्वरूप) निष्कलंक (होता है)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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