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9. मोणें
जड़
भडु
खंतिइ
काय
श्रज्जव
बसु
पंडिय
पलाविरु
कनहसील
भष्णइ
सु
1. महरपifie
वायगारउ
केम वि
गुलि
ण
होइ सेवारज
10. मुरियादमरुयत्ते [ ( अमुरिणय ) भूकृ- (हियय ) - ( चारु) वि
(गरुयत्त ) 3 / 1 वि]
( कलहसील) 1 / 1 कि
( भण्इ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि ( सुहडत्त ) 3 / 1
1. अहवा हि
कि
हर्य
जं
समागयं
बुल्लहं
परस्तं
तं
जो
विसयविसर
घिas
परवसे
74 ]
( मोरण ) 3 / 1
' ( जड) 1 / 1 वि
(भड ) 1 / 1 वि
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(खति खंतिए खंतिइ ) (स्त्री) 3 / 1 (कायर) 1 / 1 वि
( अज्जव ) 1/1
( पसु ) 6/1
( पंडियअ ) ( पलाविर)
1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
1 / 1 वि
[ ( महुर ) - ( पयंपिर) 1 / 1 वि]
( चायगारअ ) 1 / 1 त्वि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
( गुणि) 1 / 1 वि
अव्यय
(हो) व 3 / 1 अक
[ (सेवा) - (रअ) 1 / 1 वि
16.9
अव्यय
(त) 3/2 स (क) 1 / 1 सवि
( हय ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
( समागय ) भूकृ 1 / 1 अनि
( दुल्लह) 1 / 1 वि
(परत) 1 / 1
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
[ ( विसय ) - ( विस ) - (रस) 7 / 1]
(धिव) व 3 / 1 सक
[ ( पर) वि - ( वस) 7/1]
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मौन के कारण
आलसी
वीर
क्षमा के कारण
कायर
सरलता
पशु का पंडित
बकवास करनेवाला
न समझे हुए, हृदय में, सुन्दर,
महान
कलहकारी
कहा जाता है योज्ञापन के कारण
मधुर बोलनेवाला खुशामदी
किसी प्रकार भो
गुणी
नहीं
होता है
सेवा में लोन
अथवा
उनसे (उससे
क्या
नष्ट किया गया
पादपूरक
प्राप्त ( श्राया हुआ)
दुर्लभ
मनुष्यत्व
तो
जो
विषयरूपी विष के रस में
डालता है
दूसरे के वश में
[
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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