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3. तह
खग किरायउवसग्गहॅ→
खगकिरायउवसग्गहं
चुक्किय
4. रोहिणि
खरजलेण
श्ररांतमइ
सीगुरुक्किय
6.
7.
संभाविय
सीलगुणेण
साइए
ण
5. हरि-हलि-चक्कवट्टि - जिपमायउ
अज्जु
वि
वहाइय
तिहरणम्मि विक्खायउ
एउ
सीलकमल सरहं सिउ
फणिणरखयरामरहिं- -> फणिरखयरामरहि
पसंसिउ
जणणि
ए
छारपुंज
वरि
120 1
अव्यय
( अनंतमइ ) 1/1
[ (सील) - (गुरु) - (क्किय ) भूकृ 1 / 1 अनि ]
[ (खग) - (किराय) - (उवसग्ग ) 26 / 1]
(चुक्क) भूकृ 1 / 1
(fefor) 1/1
[ ( खर) वि - ( जल ) 3 3 / 1]
( संभाविय) भूकृ 1 / 1 अनि
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[ (सील) - ( गुण) 3 / 1]
(ई) 3/1
अव्यय
( वह ( प्र . ) वहाव (भूक) वहा विय बहाइय
(स्त्री) वहाइया) भूकृ 1 / 1
[ (हरि) - (हलि ) - (चक्कवट्टि) - (जिण) - (माओ) 1 / 2 ]
अव्यय
अव्यय
( ति - हुयण) 7/1
(विखाया) भूकृ 1 / 2 अनि
(एया) 1/2 सवि
[ (सील) - ( कमल) - (सर) - (हंसी) 1 / 2]
[ ( फणि) + (गर) + (खयर) + (अमरहिं ) ] [ ( फरिण) - (र) - ( ख-घर ) - ( अमर ) / 2]
( पसंस (स्त्री) पसंसी) 1/2 वि
( जणणि) 8/1
अव्यय
[ ( छार ) - (पुंज) 1 / 1}
अव्यय
उसी प्रकार अनन्तमती
कठोर शील धारण की हुई
विद्याधरों और किरात के
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उपद्रव से
रहित हुई
रोहिणी
तेज धारवाले जल में
डुबोई गई
शील गुण नदी के द्वारा
नहीं
बहाई गयी
के कारण
नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थकरों की माताएं
आज
भो
तीन लोक में
प्रसिद्ध
ये
शीलरूपी कमल-सरोवर की हंसिनी
} श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 ।
2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) । 3. कमी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3 - 137 ) ।
नागों, मनुष्यों, प्रकाश में चलनेवाले ( विद्याधरों ) क्रौर देवों द्वारा
प्रशंसित
माता
हे ( श्रामन्त्रण का चिह्न)
राख का ढेर अधिक अच्छा
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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