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[18] हे मनुष्य ! न ही तू कारण ( है ), न ही (तू) कार्य ( है ), न ही (तू) स्वामी ( है ), न ही (तू) नौकर ( है ), न ही (तू) शूरवीर ( है ), ( न ही) (तू) कायर (है), न ही (तू) उच्च (है) और न ही (तू) नीच ( है ) ।
[19] हे मनुष्य ! तू पुण्य, पाप और मृत्यु नहीं ( है ) । (तू) धर्म, अधर्म और शरीर नहीं ( है ) | ( वास्तव में) (तू) ज्ञानात्मक स्वरूप को छोड़कर कुछ भी नहीं है ।
[20] (हे मनुष्य ) ! (तू) न गोरा ( है ), न काला ( है ) । इस प्रकार ( तेरा) कोई भी वर्ण नहीं है । (तू) न ही दुर्बल अंगवाला ( है ) और न ही स्थूल ( शरीरबाला ) है । ( अत: ) तू स्ववर्ण ( स्व-रूप ) को समझ ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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