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महाकवि स्वयंभू
महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश साहित्य के सर्वाधिक चर्चित, प्रसिद्ध एवं यशस्वी कवि है । स्वयंभू अपभ्रंश के प्रथम ज्ञात कवि हैं। इन्हें अपभ्रंश साहित्य का आचार्य भी कहा जाता है। स्वयंभू अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान थे । वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के पण्डित और छन्दशास्त्र, अलंकार, व्याकरण, काव्य आदि के ज्ञाता थे।
स्वयंभू का जन्म कर्नाटक के एक साहित्यिक घराने में हुआ था। इनके पिता मारुतदेव और मां पद्मिनी थी । त्रिभुवन इनके पुत्र थे । त्रिभुवन ने ही स्वयंभू की अधूरी कृतियों को पूरा किया ।
स्वयंभू का समय 7-8वीं शताब्दी माना जाता है।
स्वयंभू की रचनाओं में उनके प्रदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । उनके प्राश्रयदाता धनञ्जय, धवलइय और बन्दइय नाम से दाक्षिणात्य प्रतीत होते हैं इसलिए यह तो निश्चित है कि उनका कार्य-क्षेत्र दक्षिण प्रदेश था ।
महाकवि की ज्ञात कृतियां तीन हैं1. पउमचरिउ 2. रिट्ठणे मिचरिउ तथा 3. स्वयंभूछन्द
1. पउमचरिउ-रामकथा पर आधारित एक श्रेष्ठ काव्य है । इसमें आचार्य विमलसूरि के प्राकृतभाषी 'पउमचरियं' और प्राचार्य रविषेण के संस्कृतभाषी 'पद्मपुराण' की कथा के आधार पर अपभ्रंश में रामकथा प्रस्तुत की गई है।
2. रिट्ठणे मिचरिउ -कवि का दूसरा महाकाव्य है रिट्ठणे मिचरिउ । यह 'हरिवंशपुराण' के नाम से भी प्रसिद्ध है । इस काव्य में जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का वर्णन है।
3 स्वयंभूछन्द-यह कवि की तीसरी कृति है । यह छन्दशास्त्र पर आधारित रचना है । इसके प्रारम्भ के तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्णवृत्तों का तथा शेष पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का विवेचन किया गया है । इससे सिद्ध होता है कि स्वयंभू का प्राकृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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