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________________ विहि-वसरण चरि माणु म मेल्लि 10. विश्रा जन्ति झडप्पड है 2 पह मरणोरह पच्छि जं अच्छइ तं माणि इ होइ करतु म श्रच्छि 11. सन्ता भोग ज परिहरइ तसु कन्त हो बलि की सु ससु दइवे अपभ्रंश काव्य सौरभ ! [ ( विहि ) - (वस व सेण व सिरा ) 1 3 / 1 वि] विधि के वश से (a) 2/2 afa उनको (चर) विधि 2 / 1 सक खा ( माण ) 2 / 1 स्वाभिमान को Jain Education International अव्यय (मेल्ल) विधि 2 / 1 सक ( दिअह ) 1/2 ( जा - जन्ति) व 3 / 2 सक ( झडप्पड ) 3/2 (पड) व 3 / 2 अक (मणोरह) 1/2 अव्यय (ज) 1 / 1 सवि (अच्छ) व 3 / 1 अक (त) 1 / 1 सवि (मामाणिअ) संकृ ( प्राकृत ) अव्यय ( हो ) भवि 3 / 1 अक ( कर करत करत 3 ) वकृ 1 / 1 अव्यय ( अच्छ) विधि 2 / 1 अक ( सन्त) 2 / 2 वि (भोग) 2/2 (ज) 1 / 1 सवि 1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143 ( 2 ) । 2. नपु. 3 / 2 त्रिविअ की भांति काम कर रहा है । 3. 'करत' प्रयोग विचारणीय है । 4. हेम प्राकृत व्याकरण 4-3891 (परिहर) व 3 / 1 सक (त) 6 / 1 सवि ( कान्त कन्त ) 6 / 1 (बलि) 2/1 ( कोसु ) व 1 / 1 सक (त) 6/1 स ( दइव) 3 / 1 For Private & Personal Use Only मत छोड़ दिन व्यतीत होते हैं। झटपट से रह जाती हैं इच्छाएं पीछे जो होना है वह मानकर ही होगा सोचता हु मत ਬੈਠ विद्यमान भोगों को जो त्यागता है उस (की) सुन्दर (व्यक्ति) को पूजा करता हूँ उसका देव के द्वारा 1169 www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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