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1] वह ही धर्म शुद्ध (है) जो पूरी तरह (स्व) काया से ( अपने श्राप से) किया जाता है। (और वह ( ही ) धन उज्ज्वल ( है ) जो न्याय से आता है ।
[12] और भी जो (मनुष्य) जहाँ (जैसा) उपकार कर सकता है वह वहाँ (वैसा) उपकार करे । हे मनुष्य ! (तू) जीवन के लाभ को ग्रहण करके देह को निरर्थक
मत बना |
[13] अनियन्त्रित इन्द्रिय ( जब ) एक (विषय) में ( ही लीन होती है) तो (व्यक्ति) सैकड़ों दुःखों को प्राप्त करता है । फिर जिसकी पाँचों ( ही इन्द्रियाँ) स्वच्छन्द हैं, उस (व्यक्ति) का क्या पूछा जाए ?
[14] हे मनुष्य ! यदि (तू) विपुल सुखों को चाहता है, (तो) सन्तोष कर । सूर्य को छोड़कर उन कमलों के लिए और कौन हर्ष ( प्रदान ) करता है ?
[15] दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर जिसके द्वारा ( वह ) दिया गया ( है ) उसके द्वारा ईंधन के प्रयोजन से कल्पतरु मूल से काटा गया ( है ) ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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भोगों के लिए लगा
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