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913-6
महापुराण
सन्धि - 16
16.3
घत्ता - चक्र ठहर गया । श्रेष्ठ नगर में (उसने ) प्रवेश नहीं किया, मानो (वह) किसी के द्वारा पकड़ लिया गया (हो) । श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया ( वह ) ( ऐसा लगता था मानो आकाश में चन्द्रमण्डल तारागरणों द्वारा (घेर लिया गया) (हो) ।
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16.4
[12] तब निर्भय और प्रसिद्ध राजा (भरत) के द्वारा (यह ) कहा गया ( कि ) प्रचण्ड वायु के वेगवाला, युवा सूर्य के तेजवाला (यह ) दृढ़ अंगवाला चक्र यहाँ क्यों ठहरा (स्थिर हुआ ) ? [34] उसको सुनकर (राज) पुरोहित ने कहा (कि ) जिस कारण से इस (चक्र) की गति का प्रवाह रोका गया ( है ) उसको (मैं) बताता हूँ- हे परमेश्वर ! हे देवों के देव ! हे दुर्जेय भरतेश्वर ! (ग्राप ) उसको सुनें । [5-6-7] (तुम्हारे भाइयों का ) (जो ) दोनों भुजात्रों के बल से शत्रु की सेना का ( विविध प्रकार से ) दमन करनेवाले (हैं), (जो ) स्थिर पृथ्वीतल को पैरों के भार से कँपानेवाले ( हैं ), ( जिनके द्वारा ) सूर्य और चन्द्रमा का तेज तिरस्कार किया गया (तिरस्कृत) ( है ), (जिनको) पृथ्वीरूपीलक्ष्मी पिता के द्वारा मनोविनोद के लिए दी गई ( है ), (तथा) कीर्ति, शक्ति प्रोर जनता से ( उनकी ) मित्रता ( है ) ( और वे ) ( उनकी) सहायता के लिए ( तत्पर हैं ) । तुम्हारे (उन ) भाइयों का यहाँ कौन जोड़वाला ( प्रतिद्वन्द्वी ) ( है ) । [8] ( इसलिए ) ( वे) ( तुम्हारी) सेवा नहीं करते हैं । तुम्हारे अत्यधिक कान्ति से ( युक्त) नखवाले चरणरूपी कमलों को (वे) प्ररणाम नहीं करते हैं। [9] (और भी) सिंह के समान गर्दनवाले ( तुम्हारे ) (भाई) कर की राशि भी नहीं देते हैं, किन्तु (वे ) ( इस प्रकार ) बिना मूल्य के ही पृथ्वी को भोगते हैं। [10] जिस (उपर्युक्त) कारण (समूह) से ही वे आज भी ( सिद्ध नहीं हैं) जीते नहीं जाते हैं, उस कारण (- समूह ) से ही चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता है ।
16.7
[12] मनुष्यों के मन को हरनेवाला दूत (उन) राजपुत्रों के घर गया । ( वह घर) वृक्ष - समूह से ( निर्मित) सुन्दर तोरणवाला ( था), घोड़े और हाथीवाला ( था) और
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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