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बट्टि - सिहए मण्डिज्जइ
अम्लउ
6. पर खारिहिं
एवड्डुउ
अन्तरु
मरखे
वि
वेल्लि
7.
ण
मेल्लइ
तरुवरु
एह
पई
कवण
वोल्ल
पारंभिय
सइ-वडाय
मई
अज्जु
समुब्भिय
8. तुहुँ
पेक्खन्तु
अच्छु
चोसत्यक
डह
जलण
जइ
डहेवि
समत्थउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ 1
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I(af)-(fre) 3/1] (मण्ड ) व कर्म 3 / 1 सक (आलअ) 1 / 1
[ ( णर) - (णारी) 7/21
( एवड्डु + अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( अन्तर ) 1 / 1 वि
( मरण) 7/1
अव्यय
(afees) 1/1
अव्यय
(मेल्ल) व 3 / 1 सक
( तरुवर ) 2/1
( एता ) 1 / 1 सवि
( तुम्ह ) 3 / 1 ख
(कवण) 4 / 1 स
(ator) 1/1
( पारम्भ पारम्भिया ) भूकृ 1 / 1
[ (सइ) - ( बडाया) 1 / 1]
( अम्ह ) 3 / 1 स
अव्यय
( समुब्भ समृभिया) भूकृ 1 / 1
( तुम्ह ) 1/1 स
( पेक्ख
पेक्खन्त) वकृ 1 / 1
(अच्छ) 1/1 (दे)
(वीसत्थ - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(डह) विधि 3 / 1 अक्क
( जलण ) 1/1
अव्यय
(डह + एवि ) हे
( समत्यअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
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बत्ती ( after ) की शिखा से सुशोभित किया जाता है
घर, श्राखय
नर और नारी में
इतना
अन्तर
मरने पर
भी
बेल
नहीं
छोड़ती है
वृक्ष को
ये
तुम्हारे द्वारा किसलिए
बोल
आरम्भ किया गया
सतीत्व की पताका
मेरे द्वारा
आज
भली प्रकार से ऊँची की गई
follo
तुम देखते हुए
अत्यन्त
विश्वासयुक्त जलाबे
यदि जलाने के लिए
समर्थ
[ 65
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