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पञ्चहि रुद्धि
तहं
पञ्चह
पाँच के द्वारा रोकी हुई उन (को) पाँचों को भी अलग-अलग बुद्धि हे बहिन सम्बोधनार्थक
जुग्रं-जुअ
(पञ्च) 3/2 वि (रुद्धि) भूकृ 1/1 अन्ति (त) 6/2 सवि (पञ्च) 6/2 वि अव्यय अव्यय (बुद्धि) 1/ (बहिणु) 8/8 अव्यक (त) 1/1 सवि (घर) 1/1 (कह) विधि 2/1 सक
अव्यय इनन्दअ) 1/1 वि अव्यय (कुडुम्ब→कुडुम्बअ) 1/I (अप्पणछंदअ) न 1/1 वि
बहिणुः
बह
घर कहि
घर कहो
किर्व
कैसे
नन्दर जत्यु
हर्ष मनानेवाला जहाँ कुटुम्ब स्वछन्दी
कुडुम्बङ
अप्परगछंदउं
17. जिभिन्दिऊ
उसना इन्द्रिय करे
नायग बसि
करहु
जसु अधिन्नई अन्नई मूलि विराटइ तुंबिरिणहे
[(जिब्भ)+ (इन्दिअ)] [(जिब्भ)-(इन्दिअ) 2/1] (नायग) 2/1 वि (वस) 7/1 कि (कर) विधि 2/2 सक (ज) 6/11 (अधिन्न) 1/2 कि (अन्न) 1/2 कि (मूल) 7/1 (विरगट्ठअ) भूकृ7/1 अनि 'अ' स्वाथिक (तुंबिणी) 6/1 अव्यय (सुक्क) भूकृ 1/2 अनि (पण्ण) 1/2
प्रमुख वश में करो जिसके अधीन अन्य मूल के समाप्त हो जाने पर तुम्बिनी के अवश्य ही निराधार (म्लान) पत्ते
प्रवसें
सुक्कई
पण्णइं
18. जेप्पि
असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु
(जि+एप्पि) संक (असेस) 2/1 वि [(कसाय)-(बल) 2/1] (दा+एप्पिणु) संकृ (अभअ) 2/1 (जय) 4/1
जीतकर सम्पूर्ण कषाय की सेना को देकर अभय नगत के लिए (को)
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। अपभ्रंश काव्य सौरभ
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