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जाणइ
जइ
जमहो
खर
पहुच्चइ
अडज
14. कहि
ससहरु
कहि
मयरहरु
कहि
बरिहिणु
कह
मेह
दूर-ठा
वि
ཏྠམཎྜཱ, ། ཚཏྠཱཝཏྠཱཐ
नेह
15. सहि
न
सरवरेहि नवि
उज्जाणवणेह
देस
रवण्णा
होन्ति
चढ
निवसन्तेह सु-श्रह
6. एक्क कुडल्ली
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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(जाण) व 3 / 1 सक
अव्यय
( जम) 6 / 1
(खण) 3 / 1 त्रिविअ
( पहुच्च) व 3 / 1 अक
( अ + अडअ ) 1 / 1 'अडअ' स्वार्थिक
अव्यय
( स सहर) 1 / 1
अव्यय
(मयरहर) 1 / 1
अव्यय
(aftfgm) 1/1
अव्यय
(मेह) 1 / 1
[ (दूर) - ( ठिआहं ) ] दूर = अव्यय
( ठिअ ) भूकृ 6 / 2 अनि
अव्यय
( सज्जरण ) 6/2 (हो) व 3 / 1 अक (असड्ढलु) 1/1 वि (नेह) 1/1
( सरि) 3/2
अव्यय
(सर) 3/2
अव्यय
( सरवर ) 3/2
अव्यय
[ ( उज्जारण) - (वण) 3/2]
(देस) 1/2
(रवा) 1/2 वि
(हो) व 3 / 2 अक (वढ ) 6 / 1 वि
( निवस
( सु-अण) 3/2
निवसन्त) व 3/2
समझता है जबकि
यम का
क्षणभर में
पहुंचता है
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कहीं, कहाँ
चन्द्रमर
कहां
समुद्र
मोर
कहाँ मेघ
Angragra
दूरी पर,
स्थित
सज्जनों का होता है असाधारख प्रेम
नदियों से
न
झीलों से
न
तालाबों से
नही
उद्यानों और वनों से
देश
सुन्दर
होते हैं
हे मूर्ख
बसे हुए होने के कारण सज्जनों से (द्वारा)
( एक्क) 1 / 1 वि
एक
( कुडि + उल्ल= कुडुल्ल (स्त्री) कुडुल्ली ) 1 / 1 कुटिया 'उल्ल' स्वार्थिक
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