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पाठ-6
महापुराण
_16.3 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि पुष्पदन्त रचित महापुराण का अंश है । यह प्रसंग ऋषभदेव के पुत्र भरत-बाहुबलि पाख्यान का है ।
ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे और बाहुबलि उनसे छोटे। ऋषभदेव ने अपना राज्य सब पुत्रों में बांट दिया और स्वयं ने संन्यास ले लिया। सब पुत्र अपने-अपने राज्य से सन्तुष्ट थे। किन्तु भरत अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे। वे दिग्विजय हेतु सैन्यबल-सहित निकल पड़े। अनेक राजाओं को जीतकर वे अपने नगर अयोध्या लौटते हैं, किन्तु उनका विजय चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता। वह चक्र नगर में तभी प्रवेश कर सकता था जब सारे राजा उनकी आधीनता स्वीकार कर लेते ।
बाहुबलिसहित उनके निन्यानवे भाई भरत की आधीनता स्वीकार नहीं करते । कुछ भाई तो आधीनता स्वीकार करने के बजाय राजपाट त्याग कर जिन-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं परन्तु बाहुबलि न आधीनता स्वीकार करते हैं न संन्यास ग्रहण करते हैं। वे भरत से राज्य हेतु युद्ध करने को कहते हैं। यहाँ नगर में प्रवेश से पूर्व ठहरे हुए चक्र का आलंकारिक वर्णन है।
16.4 चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता इससे भरत को आश्चर्य होता है । वे मन्त्री से चक्र के नगर में प्रवेश न होने का कारण पूछते हैं ।
प्रस्तुत कडवक में चक्र के नगर में प्रवेश न करने के कारणों पर भरत व पुरोहित के वार्तालाप का वर्णन है।
16.7 चक्र के ठहर जाने का कारण सुन (समझ) लेने के पश्चात् भरत अपने दूत के साथ अन्य भाइयों के पास प्राधीनता स्वीकार करने हेत सन्देश भिजवाते हैं। प्रस्तुत पद्य में दत का सन्देश व कुमारगणों द्वारा भरत की प्राधीनता अस्वीकार करने का वर्णन है । कुमारगण अनेक तर्क देते हुए भरत नरेश की आधीनता स्वीकार करने को मना करते हैं और अन्त में यही कहते हैं कि हम उसी राजा को प्रणाम करते हैं जिसने चार गतियों के दुःखों का निवारण किया हो।
16.8 उपर्युक्त प्रसंग में ही अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुमारगण कहते हैं कि धरती के लिए प्रणाम करना उचित नहीं। वे सभी अभिमानहीन जीवन को निरर्थक बताते
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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