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16.20
[1] तब दूत के द्वारा (यह ) कहा गया - - हे कुमार ! (आप) क्या अप्रिय (वचन) कहते हो । भरत के द्वारा भेजे हुए पंख से विभूषित बाण कठिनाईपूर्वक हटाये जानेवाले होते हैं । [2] क्या पत्थर से मेरु (पर्वत) टुकड़े-टुकड़े किया जाता है ? क्या गधे के द्वारा हाथी गिराया जाता है ? [3] जुगनू द्वारा क्या सूर्य तेजरहित किया जाता है ? घूंट के द्वारा क्या समुद्र सुखाया जाता है ? [4] गौ के पैर के द्वारा क्या आकाश मापा जाता है ? अज्ञान के द्वारा क्या जिनेन्द्र समझा जाता है ? [5] कौए के द्वारा क्या गरुड़ रोका जाता है ? नूतन कमल के द्वारा क्या वज्र बेधा जाता है ? [6] हाथी के द्वारा क्या सिंह मारा जाता है ? बैल के द्वारा क्या शेर चीरा जाता [7] क्या धोबी के द्वारा चन्द्रमा सफेद किया जाता है ? क्या मनुष्य के द्वारा काल निगला जाता है ? [8] क्या मेंढक के द्वारा सांप काटा जाता है ? क्या कर्म के द्वारा सिद्ध वश में किया जाता है ? [9] क्या श्वास से लोक स्थापित किया जाता है ? क्या तुम्हारे द्वारा भरत नराधिप जीता जाता है ?
घत्ता - आश्चर्य ! (कोई ) प्रलाप किया हुआ होने के कारण समर्थ होता है (तो) होवे । राजा (भरत) तलवारों के साथ, त्रिशूलों के साथ, बर्गों के साथ निकटवर्ती रण के आँगन में भ्रमण करेगा और तुम्हारे ऊपर चौकड़ी भरेगा ।
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16.21
[1] तब कामदेव के द्वारा युक्तिसहित (यह ) कहा गया- -जो परद्रव्य को हरनेवाला (है), कलहकारी (है), वे जगत में यहाँ या कहीं भी राजा हुए ( हैं ) ? [2] (वह) (भरत) बूढ़ा सियार ( है ) ( जिसके द्वारा) (अब भी) समृद्धि बुलाई जाती है। इससे मानो मेरे लिए हँसी दी जाती है। [3] जो बलवान चोर ( है ) वह राजा (होता है ), फिर निर्बल (व्यक्ति) निष्प्राण किया जाता है। [4] पशु के द्वारा पशु का माँस ही छीना जाता है । मनुष्य के द्वारा मनुष्य का प्रभुत्व ही छीना जाता 1 [5-6] रक्षा की इच्छा से व्यूह रचकर, एक की आज्ञा लेकर वे (राजा) निवास करते हैं । त्रिलोक में खोज किया हुआ ( है ) ( कि) सिंह का समूह नहीं देखा गया ( है ) । [7] मान के भंग होने पर मरण श्रेष्ठ (है), जीवन नहीं । हे दूत ! ऐसा मेरे द्वारा सममुच विचारा गया ( है I [8] भाई आवे, को दिखलाऊँगा । सन्ध्याराग की तरह एक क्षरण में नष्ट कर ज्वालाओं को देवेन्द्र भी नहीं सह सकता है, (तो) मुझ कामदेव के [10] राजा की परम भलाई एक ( इसमें ) ही है यदि (राजा) जिनदेव की शरण को चला जाये ।
(मैं) उसके घात [9] अग्नि की
दूंगा । बारणों को कौन सहेगा ?
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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