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________________ 16.20 ता दूएण जंपियं किं सुविप्पियं भगसि भो कुमारा। वारणा भरहपेसिया पिछभूसिया होंति दुण्णिवारा ॥1 पत्थरेण कि मेरु दलिज्जइ किं खरेण मायंगु खलिज्जइ ॥2 खज्जोएं रवि गित्तेइज्जइ किं घुट्टेण जलहि सोसिज्जइ ॥3 गोप्पएण किं गहु माणिज्जइ अण्णाणे किं जिणु जाणिज्जइ ॥4 वायसेरण किं गरुडु णिरुज्झइ णवकमलेण कुलिसु कि विज्झइ ॥5 करिणा किं मयारि मारिज्जइ कि वसहेण वग्घु दारिज्जइ ॥6 कि हंसें ससंकु धवलिज्जइ किं मणुएण कालु कवलिज्जइ ॥7 डेंडुहेण कि सप्पु डसिज्जइ किं कम्मेण सिद्ध वसि किज्जइ ॥8 किं णीसासें लोउ रिणहिप्पइ कि पई भरहणराहिउ जिप्पइ ॥9 घत्ता-हो होउ पहुप्पई जंपिएण राउ तुहुप्परि वग्गइ। करवालहिं सूहि सव्वाहं परइ रणंगणि लग्गइ ॥ 10 16.21 ता भणियं सहेउणा मयरकेउरणा एत्थ कहि मि जाया। जे परदविणहारिणो कलहकारिणो ते जयम्मि राया ॥1 वड्ढउ जंबुउ सिव सद्दिज्जइ एण गाई महु हासउ दिज्जइ ॥2 जो बलवंतु चोरु सो राणउ रिणब्बलु पुणु किज्जइ णिप्राणउ ॥3 हिप्पइ मृगहु मृगेण जि आमिसु हिप्पइ मणुयहु मणुएण जि वसु ॥4 रक्खाकंखइ जूहु रएप्पिणु एक्कहु केरि प्रारण लएप्पिणु ॥5 ते रिणवसंति तिलोइगविठ्ठउ सोहहु केरउ वंदु रण दिउ ।।6 मारणभंगि वर मरणु रण जीविउ एहउ दूय सुठ्ठ मई माविउं ॥7 आवउ माउ घाउ तहु दंसमि संझाराउ व खरिण विद्धसमि ॥8 सिहिसिहाहं देविदु वि ण सहइ महु मणसियह विसिह को विसहइ ॥9 एक्कु जि पर उव्वारुणरिंदहु जब पड़सरइ सरण जिणयंदहु ॥ 10 42 } अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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