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________________ 1. तं णिसुरवि लवरगंकुस - मायए वुत्तु विहीणु गग्गिरवायए 2 गिट्ठर - हियय हो अ-लय-णामहो जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहो 3. घल्लिय जेण 6. जहिं माणुसु जीवन्तु वि लुच्चइ विहि कलिकालु वि पाहुँ मुच्चइ रुवन्ति (रुव रुवन्त (स्त्री) रुवन्ती) व 1 / 1 वणन्तरे [ ( वण) + (अन्तरे ) ] [ ( वण) - ( अन्तर) 7/1] डाइणि रक्खस- भूय- भयङ्करे [ (डाइगि) - ( रक्खस ) - ( भूय ) - ( भयङ्कर) 7/1 fa] अपभ्रंश काव्य सौरभ ] (त) 2 / 1 सवि (रिसुण + एवि ) संकृ [ ( लवण) + (अंकुस) + (मायए)] [ ( लवण ) - ( अंकुस ) - (माया) 3 / 1] (वृत्त) भूकृ 1 / 1 अनि ( विहीण ) 1 / 1 [ ( गग्गर) - (वाया) 3 / 11 Jain Education International 83.6 [(मिट्ठर) वि- (हियय ) 6 / 1] [ (अ) + ( लइ) + (अ) + ( गामहो ) ] [ ( अ - लइय) - (ग्राम) 6 / 1] (जाण) व 1 / 1 सक (afa) 1/1 अव्यय ( कि) व कर्म 3 / 1 सक (राम) 6/1 ( घल्ल) भूकृ 1 / 1 (ज) 3 / 1 स अव्यय ( माणुस ) 1 / 1 (जीव ) बकु 1 / 1 अव्यय ( लुच्चइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि (fafa) 1/1 [ ( कलि ) (दे ) - ( काल ) 1 / 1] अव्यय (पारण) 5/2 ( मुच्चइ ) व कर्म 3 / 1सक अनि (त) 7 / 1 सवि उसको सुनकर लवण और अंकुश को माता के द्वारा For Private & Personal Use Only कहा गया विभीषण भरी हुई वाणी से निष्ठुर हृदय के नाम को मत लो जानती हूँ तृप्ति (संतोष ) नहीं की जाती है (की गई ) राम के डाली गई जिनके द्वारा रोती हुई वन के अन्दर में डाकिनियों, राक्षसों, भूतोंवाले डरावने (वन) में जहाँ पर मनुष्य जीता हुआ भो 7. तहिं 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) । काटा जाता है विधि ( विधाता ) कालरूपी शत्रु भो प्रारणों से छुटकारा पा जाता है उस (में) [ 61 www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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