________________
1.
तं
णिसुरवि
लवरगंकुस - मायए
वुत्तु
विहीणु
गग्गिरवायए
2 गिट्ठर - हियय हो अ-लय-णामहो
जाणमि
तत्ति
ण
किज्जइ
रामहो
3. घल्लिय
जेण
6. जहिं
माणुसु
जीवन्तु
वि
लुच्चइ
विहि
कलिकालु
वि
पाहुँ
मुच्चइ
रुवन्ति
(रुव रुवन्त
(स्त्री) रुवन्ती) व 1 / 1
वणन्तरे
[ ( वण) + (अन्तरे ) ] [ ( वण) - ( अन्तर) 7/1] डाइणि रक्खस- भूय- भयङ्करे [ (डाइगि) - ( रक्खस ) - ( भूय ) - ( भयङ्कर) 7/1 fa]
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
(त) 2 / 1 सवि
(रिसुण + एवि ) संकृ
[ ( लवण) + (अंकुस) + (मायए)]
[ ( लवण ) - ( अंकुस ) - (माया) 3 / 1] (वृत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
( विहीण ) 1 / 1
[ ( गग्गर) - (वाया) 3 / 11
Jain Education International
83.6
[(मिट्ठर) वि- (हियय ) 6 / 1]
[ (अ) + ( लइ) + (अ) + ( गामहो ) ]
[ ( अ - लइय) - (ग्राम) 6 / 1]
(जाण) व 1 / 1 सक
(afa) 1/1
अव्यय
( कि) व कर्म 3 / 1 सक (राम) 6/1
( घल्ल) भूकृ 1 / 1
(ज) 3 / 1 स
अव्यय
( माणुस ) 1 / 1
(जीव ) बकु 1 / 1
अव्यय
( लुच्चइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि (fafa) 1/1
[ ( कलि ) (दे ) - ( काल ) 1 / 1]
अव्यय
(पारण) 5/2
( मुच्चइ ) व कर्म 3 / 1सक अनि
(त) 7 / 1 सवि
उसको
सुनकर
लवण और अंकुश को माता
के द्वारा
For Private & Personal Use Only
कहा गया विभीषण
भरी हुई वाणी से
निष्ठुर हृदय के
नाम को मत लो
जानती हूँ तृप्ति (संतोष )
नहीं
की जाती है (की गई )
राम के
डाली गई जिनके द्वारा
रोती हुई
वन के अन्दर में
डाकिनियों, राक्षसों, भूतोंवाले डरावने (वन) में
जहाँ पर
मनुष्य जीता हुआ
भो
7. तहिं
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हे. प्रा. व्या. 3-134 ) ।
काटा जाता है
विधि ( विधाता )
कालरूपी शत्रु
भो
प्रारणों से
छुटकारा पा जाता है
उस (में)
[ 61
www.jainelibrary.org