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मंगुरु
ལླ ཝཱ ཎྜཱ ལ ལླཾ སྠཽ
9.
करहि
पुण
पेच्छहि
संजणिय
मोउ
7. सद्दहहि
जिरणायमु
सरिदि
अज्जु
हुउ
पढम-सग्गि
सुर
देवपुज्जु
8. अवहिए
जारिणवि
ह
एत्यु
प्राउ
तुक
बोणत्य
पयडिय-सुवाउ
इथ
वयणु
सुणिवि
वसंतमोह
कर-चरण
162 J
( भंगुर ) 1/1 ( सयल) 1 / 1 वि
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अव्यय
(कर) विधि 2 / 1 सक ( सोअ) 2 / 1
( अम्ह ) 16 / 1 स
अव्यय
(पेच्छ) विधि 2 / 1 सक
( संजण) भूकृ 1 / 1
( मोअ) 1 / 1
(arafa) 3/1
( जारण + इवि ) संकृ
( अम्ह ) 1 / 1 स
अव्यय
( आअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( तुम्ह ) 6 / 1 स
[ ( बोहण) + (अत्थि ) ]
[ ( बोहरण ) - ( अस्थि ) 1 / 1 वि ]
[ ( पयडिय) + (सुव) + आउ)]
[ ( पयडिय) भूकृ - ( सुव) - (आयु ) 1 / 1 ]
(सद्दह ) विधि 2 / 1 सक
श्रद्धा कर
[ ( जिण) + (आयमु ) ] [ ( जिण) - (आयम) 2/1] जिनागम को (का)
( सर इवि) संकृ
स्मरण करके
अव्यय
श्राज
(हुअ ) भूक 1 / 1
[ ( पढम) वि- ( सम्मा) 7/1] (सुर) 1/1
[ (देव) - ( पुज्ज) 1 / 1 वि ]
(इ) 2 / 1 सवि
( वयण) 2 / 1
(सुण + इवि ) संकृ
[[ ( उवसंत) मूकृ अनि - ( मोह) 1 / 1] वि [ (कर) - (चरण) 2/23
नाशवान
सब ( प्रत्येक )
मत
कर
शोक
मुझको
फिर
देख
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उत्पन्न हुआ हर्ष
हुश्रा
प्रथम स्वर्ग में
देव
देवों द्वारा पूज्य
अवधि ज्ञान से
जानकर
मैं
यहां
आया
तुम्हारी
शिक्षा (बोध) का इच्छुक
1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है .प्रा.व्या. 3-134 )
प्रकट की गयी,
पुत्र की आयु
इस
वचन को
सुनकर
शांत हुआ, मोह
हाथ-पैरों को
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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