SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुइवि जाया सुबोह (मुअ+इवि) संक छोड़कर (जा→(भूकृ) जाय→(स्त्री) जाया) भूक 1/1 हुई (सुबोह) 1/1 वि उत्तम ज्ञानवाली देव के द्वारा फिर अपने मुनिनाथ (गुरु) के पास 10. देखें पुणु णिय-मुरिगणाह पासि वर गुह-अभंतरि वि गय तासि (देव) 3/1 अव्यय [(णिय) वि-(मुणिरणाह) 6/1] (पास) 7/1 अव्यय [(गुह)-(अभंतर) 7/1] अव्यय (गय) भूक 1/1 अनि (तासि)16/1 वि श्रेष्ठ गुफा के भीतर जाया गया भयंकर 11. ति पयाहिणि देप्पिणु गुरुपयाई (ति) 2/2 वि (पयाहिण--(स्त्री) पयाहिणी) 2/2 (दा+एप्पिणु) संकृ [(गुरु)-(पय) 2/2] (देव) 3/1 (वंद) भूकृ 1/1 अव्यय (गरह) भूकृ 1/2 तीन प्रदक्षिणा देकर गुरुचरण को देव के द्वारा वन्दना की गई तब निन्दित किए गए देखें वंदिय ता गरहियाई 12. बहु थोत्तु पयासिवि चिरकह भासिवि तुम्ह पसाएं देव पउ मई पाविउ धराउ (बहु) 2/1 वि (थोत्त)2/1 (पयास+इवि) संकृ [(चिर) वि-(कहा) 2/1] (मास+इवि) संत (तुम्ह) 6/1 (पसाअ) 3/1 (देव) 6/1 (प.) 1/1 (अम्ह) 3/1 स (पाव) भूकृ 1/1 (धण्णअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाधिक बहुत स्तुति व्यक्त करके पुरानी कथा कहकर तुम्हारी कृपा से देव का पद मेरे द्वारा प्राप्त किया गया प्रशंसनीय 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)। अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy