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________________ जिह जेण किर जिह जैसी प्रवसमेव होएवउ तिह अव्यय जिस प्रकार (ज)3/1स जिसके द्वारा अव्यय पादपूरक अव्यय अव्यय अवश्य हो (हो+एवाहोएवा-→होएकउ) विधि कृ. 1/2 उत्पन्न की जानी चाहिए (जायेंगी) अव्यय वहां अव्यय उसी प्रकार (त) 3/1 सवि उसके द्वारा अव्यय (देहिअ) 3/1 व्यक्ति के द्वारा अव्यय (एक्कंग) 3/1 वि अकेले [(सह+एवा→सहेवा-→सहेवउ) विधि कृ. I/2] सही जानी चाहिए (सही जायेंगी) तेण देहिएग तिह एक्कंगरण सहेवच 832 1. सुलहउ पायालए णायरगाह सुलहउ कामाउरे (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वा. (पायालअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक (णाय)-(णाह) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वायिक [(काम)+ (आउरे) [(काम)-(आउर) 7/1 वि] I (विरह)-(डाह) 1/1] सुप्राप्य पाताल में सों का स्वामी स्वाभाविक काम से पीड़ित में विरहडाहु विरह का संताप 2. सुलहउ रावजलहरे जलपवाह सुलहन वइरायरे (सुलहअ) 1/] वि 'अ' स्वार्थिक [(णव) वि-(जलहर) 1/1] [(जल)-(पवाह) 1/1] (सुलहा) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [ (वइर)+ (आयरे) ] [(वइर)-(आयर) 7/1] [(वज्ज)-(लाह) 1/1] सरल नये बादल में जल का प्रवाह प्रासान हीरे की खान में वाजलाह हीरे की प्राप्ति सुलभ 3. सुनहर कस्सीरए चुसिरणपिडु सुलहउ माणससरे (सुलहा) 1/1वि 'अ' स्वाथिक (कस्सीरअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक [(घुसिण)-(पिंड) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक (माणससर) 7/1 कश्मीर में केसरपिंड सुलभ मानसरोवर में 124 [ अपभ्रंश काव्य सौरम Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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