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________________ रिपवमल्ल ताम एक्केरण तुलिज्जा एक्कु जाय अव्यय इ(णिव)-(मल्ल)1/21 अध्यय (एक्क) 3/1 वि तुल-- इज्ज) ब कर्म 3/1 सक (एक्क) 1/1वि अच्यय हो राजारूपी, पहलवान तब तक एक के द्वारा उठा लिया जाता है जब तक 5. अवरोप्पर जिणिवि परक्कमेण (अवरोप्पर) 2/1 दि (जिण+इवि) संक (परक्कम) 3/1 (गेण्ह) व 2/2 सक [(कुल)-(हर)-(सिरी) 2/1] (विक्कम) 3/1 एक दूसरे को जीतकर शूरवीरता से ग्रहण करें (करता है) पित-गृह के वैभव को सामर्थ्य से गेण्हह कुलहरसिरि विक्कमेष तणसोहाहसियपुरंदरेहि ता चितिउ (तणु)-(सोहा)-(हसिय) भूकृ-(पुरंदर)6/1] शरीर की, शोभा के कारण, उपहास किया गया, इन्द्र का अव्यय उस समय (चित+चिंतिम) भूकृ 111 विचारा गया (दो) 3/2 वि ोनों अव्यय (सुन्दर) 3/2 सुन्दर (राजाओं) द्वारा दोहि मो मि सुन्दरेहि दूहवियहि रणवजोवणेष (क) 1/1 सवि (दूहव→दूहविय) भूकृ7/1 (ब) वि-(जोवण) 3/11 (क) 1/1 सवि (फल→फलिअ) भूक 3/1 अव्यय (कडुअ)3/1 वि 'अ' स्वार्थिक (वण) 3/1 क्या दुःखी करनेवाले नवयौवन से क्या 'फले हुए फलिएक वि कडुएं पणेष कड़वे बन से (ज) 1/2 सधि अव्यय (कर) व 3/2 सक (सुहासिय) 2/2 जो नहीं करते हैं सुन्दर वचनों को करंति सुहासियई 1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 1571 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135) । अपभ्रंश काव्य सौरभ । [ 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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