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________________ 6. अप्पउ मुयउ करिवि बरिसावमि किर वणु पुणुवि निसागमि अपने को मरा हुमा बनकर दिखलाता हूँ अवश्य ही (अप्पअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (मुयअ) भूक 2/1 'अ' स्वाथिक (कर+इवि) संकृ (दरिस+आव) प्रे. ब 1/1 सक अव्यय (वण) 2/1 अव्यय [(निना)+ (आगमि)] [(निसा)-(आगम) 7/1] (पाव) व 1/1 सक वन को फिर रात्रि आने पर पावमि चला जाता हूँ (जाऊँगा) बीसइ दिवसि मिलिय पुरलोएं एक्के नरेण पवड्डियरोएं (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि देखा जाता है (देखा गया) (दिवस) 7/1 दिन (होने) पर (मिल+-य) संकृ मिलकर [(पुर)-(लोअ) 3/1] नगर के लोगों द्वारा (एक्क)3/1 वि एक (नर) 3/1 मनुष्य के द्वारा [(पवड्ड->पवड्डिय) भूकृ-(रोअ) 3/1] बढ़े हुए रोग के कारण (ओसह + अत्यु1=ओसहत्थ) 1/1 औषधि के लिए (लुअ) भूकृ 1/1 अनि काट ली गई [(पुच्छ)-(स-कण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक] पूंछ, कान सहित (चित) व 3/1 सक सोचता है (सोचा) (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वाथिक अध्यय आज अव्यय भी (धण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक भाग्यशाली ओसहत्थु लुउ पुच्छ-सकण्णउ चित जंबुद्ध गोदड़ प्रज्ज वि धाउ जो लूंगा पूंछरहित जीवेसमि अपुच्छु विणु कहि (जीव) भवि 1/1 अक (अपुच्छ) 1/1 वि अव्यय (कण्ण) 3/2 बिना एक्कवार अव्यय कानों से (केवल) एक बार यदि छूटता हूँ (छूट जाऊँ) पुण्यों से अव्यय (छुट्ट) व 1/1 अक (पुण्ण) 3/2 छट्टमि पुण्णहिं 1. अत्थ-हेत्वर्थक परसर्ग । 2. बिना के योग में तृतीया हुई है। 106 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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