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________________ हरिवंसुप्पण्णी हरिवंश में उत्पन्न हुई जाणमि [(हरि)+ (वंस)+ (उप्पण्णी )] [(हरि)-(वंस)-(उप्पण्ण- (स्त्री) उप्पण्णी) भूक 1/। अनि] (जाण) व 1/] सक अव्यय [ (वय)-(गुण)-(संपण्ण→ (स्त्री) संपण्णी) भूक 1/1 अनि] जिह जानता हूँ . जिस प्रकार व्रत और गुण से युक्त वय-गुरण-संपण्णी 3. जामि जिह जिरण-सासणे भत्ती जागमि (जाग) व 1/1 सक अव्यय [(जिण)-(सासरण) 7/1] (भत्ति) 1/1 (जाण) व 1/1 सक अव्यय (अम्ह) 4/1 स [ (सोक्ख) + (उप्पत्ती) ] [ (सोक्ख) - (उप्पत्ति) 2/1 ] जानता हूँ जिस प्रकार जिनशासन में भक्ति जानता हूँ जिस प्रकार मेरे लिए सुख की उत्पत्ति को जिह महु सोक्खुप्पत्ती 4. जा (जा) 1/1 सवि अणुगुणसिक्खावयधारी [(अणु)-(गुण)-(सिक्खा)-(वय) (धार→(स्त्री) धारी) 1/1 वि] जा (जा) 1/1 सवि सम्मत्तरयणमणिसारी [(सम्मत)-(रयण)-(मणि) (सार→(स्त्री) सारी) 1/1 वि] अणुव्रत, गुणवत व शिक्षाव्रतों को धारण करनेवाली जो सम्यक्त्वरूपीरत्नों और मरिणयों का सार (निचोड़) 5. जारणमि जिह सायर-गम्भीरी जारणमि जिह सुरमहिहर-धोरी (जाग) व 1/1 सक जानता हूँ अव्यय जिस प्रकार [(सायर)-(गम्भीर→(स्त्री)गम्भीरी)2/1 वि] सागर के समान गम्भीर को (जाण) व 1/1 सक जानता हूँ अव्यय जिस प्रकार [(सुर)-(महिहर) - (धीर→(स्त्री) धीरी) मेरु (देवताओं के) पर्वत के 2/1 वि समान धैर्यवाली को 6. जारणमि अंकुस-लवरण-जणेरी जाणमि (जाण) व 1/1 सक जानता हूं [(अंकुस)-(लवण)-(जणेर→(स्त्री) जणेरी) अंकुश और लवरण को माता 2/1 वि ] (जाण) व 1/1 सक जानता हूँ अव्यय जिस प्रकार (सुया) 2/1 पुत्री को (जरणय) 6/1 जनक की जिह सुय जरण्यहो 56 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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