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छड
दित्तं
बद्धउ
पालणयं
सुविचित्तं
6. देवमहीहरि
णं
सुरवच्छो
वड्डइ
तत्थ
परिट्ठिउ
वच्छो
7. वड्डइ णं
9.
वयपालणे
धम्मो
वड्डइ णं
9.
पियलोयरणे पेम्मो
8. वड्ढइ णं
नवपाउसि
कंदो
एसु
पयासिउ
दोहयछंदो
जगतमहरु
ससहरु
मयरहरु
जिह वड्ढत
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
अव्यय
( दित्तं ) भूकृ 1 / 1 अनि
( बद्धअ) भूकृ 1 / 1
( पालणय) 1 / 1 'य' स्वार्थिक (सुविचित्त) 1 / 1वि
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अनि 'अ' स्वार्थिक
[ (देव) - (महीहर) 7/1]
अव्यय
[ ( सुर ) - (वच्छ ) 1 / 1 ] (वड ) व 3 / 1 अक
अव्यय
( परिडिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (वच्छ ) 1/1
(वड) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( वय ) - ( पालण ) 13 / 1]
(धम्म) 1/1
(वड ) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( पिय) वि - ( लोयण ) 13 / 1] ( पेम्म) 1 / 1
(व) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ (राव) वि - ( पाउस) 7 / 1]
( कंद) 1/1
अव्यय
1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 ।
शीघ्र
दिव्य ( प्रकाशमय )
बांधा गया
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पालना
अत्यन्त सुन्दर
देव- पर्वत (सुमेरु) पर
जैसे
देव - बालक
बढ़ता है ( बढ़ने लगा )
वहाँ
रहा हुआ (स्थित)
बालक
बढ़ता है
जैसे
व्रत पालन से
धर्म
बढ़ता है
जैसे
स्नेही के दर्शन से
प्रेम
( पयास) भूकृ 1 / 1
[ ( दोहय) - ( छंद ) 1 / 1]
[ ( जग ) - ( तमहर) 1 / 1 वि]
( ससहर) 1 / 1
चन्द्रमा
( मयरहर) 1 / 1
समुद्र
अव्यय
जिस प्रकार
( वड्ढ→ वड्ंत → वड्ंतअ ) वकृ 1 / 1 'अ' स्वा. बढ़ता हुआ
चढ़ता है
जैसे
नई वर्षा ऋतु
बादल
इस प्रकार
व्यक्त किया गया
दोधक छन्द
में
जग के अन्धकार को दूर
करनेवाला
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