________________
दिग्णं महेसिणा दुरियणासिणा गयरदेसमेतं
दिया गया है (दिये गये हैं) महर्षि के द्वारा पाप के नाशक नगर, देश, केवल
वह
मह
(दिण्ण) भूकृ 1/1 अनि (महेसि) 3/1 [(दुरिय)-(णासि) 3/1 वि] [(णयर)-(देस)-(मेत्त) 1/1] (त) 1/1 सवि (अम्ह) 4/1 स [(लिह→लिहिय) भूकृ-(सासण) 1/1] [(कुल)-(विहूसण) 1/1] (हर) व 3/1 सक (क) 1/1 सवि (पहुत्त) 2/1
लिहियसासणं कुलविहूसणं
मेरे लिए लिखित प्रादेश कुल को शोमा छोन (सकता) है कौन प्रभुता को
को
पहुत्तं
2. केसरिकेसर
वरसइथणयलु सुहडहु सरणु मझु धरणीयल
[(केसरि)-(केसर) 2/1] [(वर) वि-(सइ)-(थणयल) 2/1] (सुहड) 6/1 (सरण) 2/1 (अम्ह) 6/1 स (धरणीयल) 2/1
सिंह के बाल को श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को सुभट की शरण को
मेरी
जमीन को
3.
जो
जो हत्थेरण छिवई
सो केहज
(ज) 1/1 सवि (हत्थ) 3/1
हाथ से (छिव) व 3/1 सक
छूता है (त) 1/1 सवि
वह (केह-अ) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
कैसा अव्यय
क्या (कयंत) 1/1
यम [(काल)+(अणल)] [(काल)-(अगल) 1/l] कालरूपी अग्नि (जेहा) 1/1 वि 'अ' स्वाथिक
कयंतु कालारणल जैहज
जंसर
ह सो।
परणवमि
को
सो भण्ग महिखंडेण कवण परमुण्रगइ
(अम्ह) 1/1 स (त) 2/1 सवि (पणव) व ]/1 सक (क) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि (भण्णइ) व कर्म 3/1 सक अनि (महिखंड) 3/1 (कवरण) 6/1 स [(परम)+(उण्णइ)] [(परम)वि-(उण्इ
उसको प्रणाम करता हूँ (करू) कौन वह कही जाती है पृथ्वीखंड के कारण
किसको )1/1] परम उन्नति
1. द्वितीया विभक्ति के अर्थ में 'सो' का प्रयोग विचारणीय है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
79
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org