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________________ उम्माहव जगहो 1 जणन्ताई 2. दिण- पच्छिम - पहरे विणिग्गयाइँ 2 :- विणिग्गयाई (विणिग्गय ) भूकृ 1/2 अनि ( कुञ्जर) 1 / 1 कुञ्जर इव विउल-वरण हो गयाई 2 = गयाई 3. वित्थिष्णु र पइसन्ति जाय गो महादुमु दिट्ठ ताव 4. गुरु-सु कवि सुन्दर-सराई णं विहय पढावइ अक्खराई 5. वृक्कण-किसलय कक्का रवन्ति (उम्माहअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक (TOT) 6/1 ( जण जन्त) व 1/2 32 J [ ( दिण) - (पच्छिम ) वि- (पहर ) 7 / 1 ] Jain Education International अव्यय [ ( विउल) वि - (वण ) 6 / 1 ] ( गय) भूकृ 1 / 2 अनि (जग्गोह) 1/1 [ (महा) - (दुम) 1 / 1] ( दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय [ (गुरु) - ( वेस) 2 / 1 ] (कर + एवि ) संकृ [ ( सुन्दर ) - (सर) 2/2] अव्यय (वित्थिष्ण ) भूक 2 / 1 अनि (रण्ण) 2/1 विशाल ( फैले हुए) वन को (में) ( पइस पइसन्त ( स्त्री) पइसन्ति) वक्रु 1/2 प्रवेश करते हुए अव्यय ज्योंहि बरगव ( विहय) 2/2 ( पढ + आव) व प्रे. 3 / 1 सक ( अक्खर ) 2/2 [ ( वुक्कण बुक्कण ) - ( किसलय ) 2 / 2 ] (कक्का) 2/2 ( रव) व 3/2 सक अतिपीड़ा को जन (समूह) में उत्पन्न करते हुए दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल गए हाथी की तरह घने वन को चले गए For Private & Personal Use Only महावृक्ष देखा गया त्योंह शिक्षक के रूप को धारण करके सुन्दर स्वरों को मानो पक्षियों को पढ़ाता है प्रक्षरों को 1. कमी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) । 2. मात्रा को ह्रस्व करने के लिए यहाँ अनुस्वार के स्थान पर लगाया गया है ( है. प्रा. व्या. 4-410 ) । 3. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) । 101 कौए, नये कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर 4. 'गमन' अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । 5. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया झाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) + क - ar (ध्वनि) को बोलते हैं (ये) [ अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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