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वाउलि-विहङ्ग कि-क्की भणन्ति
[(वाउलि=बाउलि)-(विहङ्ग) 1/2] (कि-क्की) 2/2 (भण) व 3/2 सक
बाउलि-पक्षी किक्की (ध्वनि) को कहते हैं (थे)
वण-कुक्कुड
जल-मुर्गे कु-क्कू (ध्वनि) को कहते हैं (थे) और
आयरन्ति अण्णु
[(वण)-(कुक्कुड) 1/2] (कु-क्कू) 2/2 (आयर) व 3/2 सक (अण्ण) 1/1वि अव्यय (कलावि) 1/2 (के-क्कई) 2/2 (चव) व 3/2 सक
कलावि के-क्का चवन्ति
मोर के-क्का (ध्वनि) बोलते हैं (ये)
7. पियमाहविय
को-पकर लवन्ति कं-का वप्पीह समुल्लवन्ति
[(पिय)-(माहविया) 1/2] अव्यय (को-क्कउ) 2/2 (लव) व 3/2 सक (कं-का) 2/2 (वप्पीह =बप्पीह) 1/2 (समुल्लव) व 3/2 सक
कोयलें पावति को-कउ (ध्वनि) को बोलती है कं-का (ध्वनि) पपोहे बोलते हैं (थे)
8.
सो तरुवरु गुरु-गणहर-समाणु फल-पत्त-वन्तु प्रक्खर-णिहाण.
(त) 1/1 सवि [(तरु)-(वर) 1/1 वि] [(गुरु)-(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] [(अक्खर)-(णिहाण) 1/1]
वह श्रेष्ठ वृक्ष गुरुगणधर के समान फल-पत्तों-बाला अक्षरों का भण्डार
पइसन्तेहि असुर-विमद्दणेहि
सिरु
णामेवि राम-जगद्दणेहि परिअञ्चेवि
(पइस→पइसन्त) वकृ 3/2 I (असुर)-(विमद्दण) 3/2 वि] (सिर) 211 (णाम+एवि) संकृ [(राम)--(जणद्दण) 312]] (परिअञ्च+एवि) संक (दुम) 111 [(दसरह)-(सुअ) 3/2] (अहिणन्द→अहिणन्दिअ) भूक 1/1 (मुणि) 1/1 अव्यय (सइंमुअ) 3/2
प्रवेश करते हुए (के द्वारा) असुरों का नाश करनेवाले सिर को नमाकर राम-लक्ष्मण के द्वारा परिकमा करके वृक्ष चशरथ के पुत्र (द्वारा) अभिनन्दन किया गया मुनि को तरह अपनी मुजाओं से
दसरह-सुएहिं अहिररान्दिउ मणि
सईभएहिं
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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