________________
पाठ-3
पउमचरिउ
सन्धि-27
27.14
9. वरि
पहरिउ बरि किउ तवचरण
तरि विसु
अधिक अच्छा प्रहार किया गया अधिक अच्छा किया गया तप का आचरण अधिक अच्छा विष हालाहल अधिक अच्छा मरना अधिक अच्छा
अव्यय (पहर→पहरिअ) भूक 1/1 अव्यय (कि→किअ) भृकृ 1/1 [(तव)-(चरण) 1/1] अव्यय (विस) 1/1 (हालाहलु) 1/1 अव्यय (मरण) 1/1 अव्यय (अच्छ→अच्छिअ) भूकृ 1/I [गम-एप्पिणु = गमेप्पिणु→गम्पिणु] संकृ [(गुहिल) वि-(वण) 7/1] अव्यय अव्यय अव्यय (रिणवस→णिवसिअ) भूकृ 1/1 [(अवुह =अबुह) वि-(यण) 7/1]
हालाहलु वरि मरणु वरि अच्छिउ गम्पिणु गुहिल-वणे रणवि रिणविस→रिणमिस वि णिवसिउ
टिके हुए
जाकर गहन वन में नहीं पल भर
किन्तु
ठहरे हुए मुर्खजन में
प्रवृहयणे
27.15
1.
तब तीनों
तो तिणि वि एम चवन्ताई
अव्यय (ति) 1/2 वि अव्यय अव्यय (चव→चवन्त) वकृ 1/2
इस प्रकार से कहते हुए
1. गम में सम्बन्धक-कृदन्त अर्थक प्रत्यय ‘एप्पिणु' और 'एप्पि' को लगाने पर आदिस्वर 'एकार' का विकल्प
से लोप होता है। यहाँ बनना चाहिए 'गमेप्पिणु' पर 'गम्पिणु' प्रयोग पाया जाता है, (हे. प्रा. व्या 4-442)।
अपभ्रंश काव्य सौरम ]
[
31
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org