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प्रकाशकीय
हमारे देश में प्राचीनकाल से ही लोकभाषाओं में साहित्य-रचना होती रही है । 'अपभ्रंश' भी एक ऐसी ही लोकभाषा/जनभाषा थी जिसमें जीवन की सभी विधाओं में पुष्कलमात्रा में साहित्य रचा गया । 8वीं से 13वीं शताब्दी तक यह सारे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा रही । अपभ्रंश साहित्य की विशालता, लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत-व्याकरण' के चतुर्थ पाद में सूत्र संख्या 329 से 446 तक स्वतन्त्ररूप से अपभ्रंश भाषा की व्याकरण-रचना की ।
अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर-भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा का अध्ययन आवश्यक है ।
अनेक कारणों से अपभ्रंश का साहित्य प्रकाशित न होने से इसकी रुचि पाठकों में न पनप सकी और इसके समुचित ज्ञान का प्रभाव बना रहा । धीरे-धीरे यह अपरिचय की प्रोट में छिप गई, इसके अध्ययन-अध्यापन की भी उचित व्यवस्था न हो सकी, परिणामतः अपभ्रंश का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर हो गया।
- अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई । अकादमी का प्रयास है-अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक-निधि के साथ साथ आधुनिक मार्य भाषाओं के स्वभाव और उनकी संभावनाएं भी स्पष्ट हो सकें।
इसके लिए अकादमी में अपभ्रंश भाषा के अध्यापन की समुचित व्यवस्था है । अका. दमी में अपभ्रंश सर्टिफिकेट कोर्स और अपभ्रंश डिप्लोमा कोर्स विधिवत् निःशुल्क चलाये जाते हैं।
अपभ्रंश भाषा सरल रूप में सीखी जा सके, इस क्रम में 'अपभ्रंश रचना सौरम' प्रकाशित की गई। उसी क्रम में 'अपभ्रंश काव्य सौरम' प्रकाशित है । इसमें अपभ्रंश काव्यों से चयनित अंश, उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ दिये गये हैं। मेरा
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
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