SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानो बड़ के पेड़ के द्वारा निकाली हुई ( छोड़ी हुई) शाखाएँ ( हों ) । [ 10 ] चक्र के द्वारा फाड़ी हुई ( दमकती ) छाती देखी गई, मानो ( आकाश के ) मध्य में स्थित सूर्य के द्वारा दिन का बीच (दो बराबर के भाग) (हुए) / हों ) । [11] मानो विध्य (पर्वत) के द्वारा पृथ्वी - तल विभक्त कर दिया गया ( हो ), मानो ( पृथ्वी के) विविध भागों द्वारा अंधकार इकट्ठा किया गया (हो) । घत्ता - युद्धस्थल में रावण के ( पड़े हुए) मुखों को देखकर राम के द्वारा (विभीषण को) छाती से लगाकर धीरज बँधाया गया । (और) ( कहा गया ) ( कि) हे विभीषण ! (तुम) क्यों रोते हो ? (तथा) (जिसके [1] वह (ही) मरा हुआ (है), जो अहंकार के नशे में चूर ( है ) द्वारा ) जीव दया छोड़ दी गई ( है ) | ( जो ) व्रत और चारित्र से हीन है, ( जो ) दान और युद्ध - स्थल में मीरु ( है ) । [2] ( जो ) शरण में आए हुए के लिए, कैदी रूप में पकड़ने में, (गाय की चोरी होने पर ) गाय के समय में, मित्र की सहायता में, निज का अपमान होने पर, ( दोषियों को) संरक्षरण में, स्वामी के ( कठिन ) (और उसको ( ऐसा व्यक्ति ( तथा ) ( जिसके द्वारा ) दूसरे के दुःख में ( काम में ) नहीं लगा जाता है, हे विभीषण ! वैसा पुरुष रोया जाता है। [47] अन्य भी ( जो ) पाप कर्म का उत्पादक ( है ) ( वह) (तथा) जिसके (जीवन में ) पाप का बहुत भारी बोझ (है) (वह) ( रोया जाता है ) ( जिसको) पृथ्वी भी सहने के लिए समर्थ नहीं है ( वह भी ) ( जिस ) अन्याय को कहती हुई नहीं थकती है, ( जिसके कारण ) नदी कांपती है, कहती है ) ( कि ) (तुम) (मेरा ) ( प्रयोग करके) मुझको क्यों सुखाते हो ? रोया जाता है ) ( जिसके कारण ) खाई जाती हुई प्रौषधि हाहाकार मचाती है, अर्थात् दुःखी होती है), (जिसके कारण ) काटी जाती हुई वनस्पति घोषणा करती है (ऊँची आवाज में कहती है ) ( कि) (ऐसे) दुष्ट चित्तवाले (व्यक्ति) का मरण कब होगा । [8] उस (पापी) के (साथ) (शीतल) पवन भी ( बार-बार) भिड़ता है परास्त कर देती हैं । ( वह) राजकुल के चोरों की (सभी को ) दुर्वचनरूपी काँटों से बींध देता है । जाता है (ऐसा व्यक्ति रोया जाता है) । ( (और) सूर्य की (तप्त) किरणें (भी) (उसे) स्तुति से धन इकट्ठा करता है । [9] (वह) ( वह) स्वजनों द्वारा विष-वृक्ष की तरह माना 77.2 घत्ता- - (जो) धर्मरहित (है), (जो ) पाप का पिण्ड ( है ), ( जिसका ) यहां निवास किया हुआ (अन्य ) (कोई ) स्थान नहीं है (जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है) जिसका नाम महिष, वृष और मेष (राशि) के द्वारा ( कहा जाता है) वह रोया जाना चाहिए । अपभ्रंश काव्य सौरभ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only [ 25 www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy