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________________ हरिसें हर्ष से (हरिस) 3/1 (गजोल्लिय) 1/2 वि गजोल्लिय पुलकित 6. णं उण्ह वि दवग्गि विमोएं णं णच्चिय महि विविह-विणोएं अव्यय (उण्ह)6/1 वि अव्यय (दवग्गि) 6/1 (विओअ) 3/1 अव्यय (णच्च) भूकृ 1/1 (महि) 1/1 [(विविह) वि -(विणोअ) 3/1] वाक्यालंकार के लिए तप्त मानो दावाग्नि के वियोग से वाक्यालंकार नाची धरती विविध विनोद के कारण 7. णं अत्यमित दिवायर मानो अस्त हुआ सूर्य दुक्खें अव्यय (अथमिअ) 1/1 वि (दिवायर) 1/1 (दुक्ख) 3/1 अव्यय (पइसर) व 3/1 अक (रयणि) 1/1 अव्यय (सुक्ख) 3/1 मानो व्याप्त होती है (हो गई) पइसरइ रयणि सई-सई सुक्खें स्वयं सुख के कारण 8. सुहावने हुए, पत्ते रत्त-पत्त तर पवणाकम्पिय वृक्ष [(रत्त) भूक अनि - (पत्त) 1/2] (तरु)6/1 [(पवण)+ (आकम्पिय)] [(पवण)(आकम्पिय) भूकृ 1/1] (क) 3/1 स पवन से हिले डुले केण वि अव्यय वहिउ गिम्भु किसके द्वारा पावपूरक नष्ट किया गया (मारा गया) ग्रीष्म मानो बोला गया जम्पिय 9. तेहए काले भयाउरए (वह→वहिअ) भूक 1/1 (गिम्भ) 1/1 अव्यय (जम्प-→जम्पिय) भूकृ 1/1 (तेहब) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (काल) 7/1 [(भय)+ (आउरए)] [(भय)-(आउरअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक] (वे) 1/2 घि अव्यय उस जैसे समय में भयातुर दोनों वेणि मि [ अपप्रश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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