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________________ जाणइ (जाण) व 3/1 सक (लक्खण) 2/1 समझती है लक्ष्मण लक्खणु कावि णारि परिहा कणु धरइ सु-गाढउ जारण्इ (का) 1/1 सवि कोई (णारी) 1/1 नारी (ज) 2/1 सवि जिस (को) (परिह) व 3/1 सक पहनती है (कङ्कण) 2/1 कंगन को (धर) व 3/1 सक धारण करती है (सु-गाढा) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक खूब गाढ़ा (जाण) व 3/1 सक समझती है (लक्खण) 2/1 लक्ष्मण कावि कोई नारी पारि जं जोया दप्पणु अण्णु (का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज)2/1 सवि (जोय) व 3/1 सक (दप्पण) 2/1 (अण्ण) 2/1 वि अव्यय (पेक्ख) व 3/1 सक (मेल्ल+एवि) संकृ (लक्खण) 2/1 जिस (को) देखती है दर्पण को अन्य को नहीं देखती है छोड़कर लक्ष्मण को पेक्खइ मेल्लेवि लक्खणु 9. अव्यय तो एत्यन्तरे पाणिय-हारिउ पुरे अव्यय (पाणियहारी) 1/2 (पुर) 7/1 (वोल्ल) व 3/2 सक विविध (णारी) 2/2 तब इसी बीच में पनिहारिने नगर में बोलती हैं (कहती हैं) प्रापस में नारियों को बोल्लन्ति परोप्पर णारिउ . वह 10. सो पलंकु पलंग वह (त) 1/1 सवि (पलङ्क) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (उवहाणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (सेज्ज) 1/1 अव्यय तकिया उवहारगउ सेज वि भी अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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