________________
इस प्रकार
हे देव
तो
इय=अव्यय (देव) 8/1 अव्यय [(गन्ध)--(सलिल) 2/1] (पाव) व 3/1 सक अव्यय अव्यय
गन्ध-सलिलु पावइ ण केम
गन्धोदक पाती है
नहीं क्यों
तहि अवसरे कञ्चुइ दुक्कु पासु छण-ससि
(त) 7/1 सवि
उसी (अवसर) 7/1
समय पर (कञ्चुइ) 1/1
कञ्चुकी (ढुक्क) भूक 1/1 अनि
पहुंचा (पास) 2/1
पास [(छण)-(ससि) 1/1]
शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा अव्यय
की तरह [(णिरन्तर)+ (धवलिय)+ (आसु)]निरन्तर सफेद किया गया मुख [[(णिरन्तर) वि-(धवलिय) भूकृ - (आस) 1/1] वि]
णिरन्तर-धवलियासु
8.
गय-दन्तु
बन्त (-समूह) टूट गया
जड़
अयंगम दंड-पाणि अणियच्छिय-पह
[[ (गय) भूकृ अनि – (दन्त) 1/1] वि] (अयंगम) 1/1 वि [[(दंड)-(पाणि) 1/1] वि] [[(अणियन्छिय) भूकृ - (पह) 1/1] वि] [[(पक्खलिय) भूकृ - (वाणी) 1/1] वि]
हाथ में लकड़ी (वाला) न देखा गया (अदृष्ट)-पथ
पक्खलिय-वाणि
लड़खड़ाती हुई वाणी (वाला)
गरहिड दसरहेण
पई कञ्च
काई चिराविउ
(गरह) भूकृ 1/1 (दसरह) 3/1 (तुम्ह) 3/1 स (कञ्चुइ) 8/1 अव्यय (चिराव) भूकृ 1/1 (जल) 1/1 [(जिण)-(वयण) 1/1] अव्यय
निन्दा किया गया दशरथ के द्वारा तुम्हारे द्वारा हे कञ्चुको क्यों देर की गयो गन्धोदक जिन-वचन के सदृश
जिरण-बयणु जिह
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[
7
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org