________________
3. चडिवि
पोइ लंघ सायरजलु श्रावंत चित मणे
(चड+इवि) संकृ (पोअ) 7/1 (लंघ) व 3/1 सक [(सायर)-(जल) 2/1] (आ→आवंत→आवंतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा. (चित) व 3/1 सक (मण) 7/1 (मंगल) 2/1 वि
चढ़कर जहाज पर पार करता है (पार किया) सागर के जल को पहुँचते हुए सोचता है (सोचने लगा) मन में इष्ट
मंगलु
जब बन्दरगाह को पहुंचता हूँ (पहुंचूंगा)
बेलाउलु पावमि तहि पुण विक्कमि
वहाँ
अव्यय (वेलाउल) 2/1 (पाव) व 1/1 सक अव्यय अव्यय (विक्क) व 1/I सक (एअ) 2/1 सवि (माणिक्क) 2/1 (महागुण) 2/1 वि
एउ
फिर बेचता हूँ (बेचूंगा) इस मारिणक, रत्न (को) अत्यधिक कीमतवाले
माणिक्कु महागुणु
5. हरि-करि
किणवि
भंडु
नाणाविहु গ্রহ जाएसमि निवसंपयनिहु
[(हरि)-(करि) 2/1]
थोड़े व हाथी (किरण+अवि) संकृ
खरीदकर (भंड) 2/1
बर्तन (भांडा) (नाणाविह) 2/1 वि
नाना प्रकार के (घर) 2/1
घर (जाअ) भवि 1/1 सक
जाऊँगा (निव)-(संपया→संपय1)-(निह)2/1 वि] राजा की सम्पदा के समान
6
तब
अह हत्थाउ गलिउ दरनिद्दहो
हाथ से निकल गया
अव्यय (हत्थ) 5/1 (प्रा.) (गल→गलिअ) भूक 1/1
(दर)+(निद्दहो)] दर:- अव्यय (निद्दा)3 6/1 (पड→पडिअ) भूकृ 1/1 (रयण) 1/1
प्रल्प निद्रा में
पडिउ रयणु
1. समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है (हे. प्रा. व्या. 1-4)। 2, निह=समान । 3. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ ]
[ 109
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org