________________
18. अमणु अरिंगदिउ णारामउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।
अप्पा इंदिय विसउ गवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥
19. भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ ।
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥
20. देहादेवलि जो वसई देउ प्रणाइ-प्रणंतु ।
केवल-णारण-फुरंत तणु सो परमप्पु रिणभंतु ॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org