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________________ (तुम) निवास स्थान में (घर के आँगन में) क्यों नहीं पहुँचे ? [5] हे कमल के समान मुखवाले पुत्र ! तुम्हारे (मन में) यह कुमति क्यों उत्पन्न हुई कि (तुम्हारे द्वारा) वन में (ही) रहा गया ? [6] मुझको छोड़कर तू परदेश में क्यों चला गया ? (अतः) मैं इस स्थान पर ही प्रारण छोड़ती (हूँ)। [7-8 ] यह कहकर उसके) हाथों और पैरों को मिलाकर (उनको) स्नेह से उठाकर जब (वह) (उनका) आलिंगन करती है, तब सुख की खान स्वर्ग का वासी श्रेष्ठदेव विचारता है (कि) मेरी माँ को क्या हुआ (है)? [9] (मैं) जाकर उसको अाज समझाऊँगा, जिससे परलोक में उसका कार्य सिद्ध हो। [10] दूसरी (बात) भी (विचारी) (कि) (मैं) (वहाँ) जाकर मलरहित व निंदारहित निज गुरु के चरणरूपी कमलों को प्रणाम करके उनके प्रति (कृतज्ञता ज्ञापन करूँगा)। [11] इन (दोनों बातों) को सोचकर माया से पुरानी देह के वेश को बनाकर उत्तम देव वहाँ पाया। [12] निकट पाकर (और) मधुर वचन कहकर (बोला) (कि) हे मेरी माता ! (तुम) क्यों क्रन्दन करती हो ? (तुम) क्यों रोती हो ? [13] मैं जीता हुप्रा (जीवित) हूँ। (तुम) मेरे मुख को देखो । मैं (तुम्हारा) पुत्र (हूँ) (जो) नाम से प्रकृतपुण्य (है)। [14] (उसके) वचन को सुनकर मोह से पीड़ित (माता) ने शीघ्र जानकर और निश्चय करके (कहा) (कि) (अरे ! ) (यह) (तो) मेरा उत्तम पुत्र (है)। घत्ता-बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले हाथों और पैरों को छोड़कर, दौड़कर वह उस ( मायावी पुत्री को प्रालिंगन करती है। तब वह श्रेष्ठ देव भी, (जो) सर्वोत्तम पाठ गुणों का धारक (था), (माता की) अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुआ। 3.21 [1] (मायावी) (पुत्र) बोला (कि) हे माता ! (तू) मनुष्यों के लिए श्रेष्ठ, दयावान (और) उज्ज्वल जिन-वचन को समझ । [2] कौन किसका नाथ (है) ? कौन किसका नौकर (है। ? (तू) मन में संसार को अनित्य जान । [3] (व्यक्ति) मोह से जकड़ा हुमा मेरा-मेरा करता है, आयु के समाप्त होने पर कोई भी किसी को पकड़ नहीं सकता । [4] हे माता ! अत्यधिक इच्छावाला (बन्धनवाला, मोह नहीं किया जाना चाहिए । यहाँ (अव) देरी मत करो। (तुम) जिनधर्म को ग्रहण करो। [5] जिसके द्वारा इच्छित सभी सुख प्राप्त किए जाते हैं, जिसके द्वारा संसार के लाखों दुःख नष्ट किये जाते हैं । [6] प्रत्येक (सम्बन्ध ) क्षण में नाशवान (होता है)। (अत.) (तू) शोक मत कर । फिर मुझको देख । (ऐसा कहने से) (माता में) हर्ष उत्पन्न हुआ। [7] आज (ही) जिनागम का स्मरण करके (उसमें) श्रद्धा कर । (देख इसके प्रभाव से) (मैं) प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य देव हुमा (हूँ)। [8] अवधि-ज्ञान से जानकर मैं यहाँ प्राया (हूँ) । (मैं) तुम्हारी शिक्षा (बोध) का इच्छुक (हूँ) । (इसलिए) (मेरे द्वारा) (तुम्हारे) पुत्र की आयु (जीवनकाल अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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