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कि कुमइ जाय तुव एह पुत्त
विएसि
महु छंडि गयउ तुहु किं इय भरिणवि चलण कर मेलवे वि ता सुरवरु चितइ सग्गवासि जाइवि संबोहमि ताहि श्रज्जु अणु वि णियगुरु चरणारविंद इय चितिवि प्रायउ तहिँ सुरेसु रियडउ प्राविवि जंपिवि सुवाय हउ जीवमाणु महु रिणयहि वत्तु मोहाउर गिरिवि वयरण सिग्घु
घत्ता - मेल्लिवि कर-चरणइँ बहुदुहकर रणइँ धाइवि श्रालिंगेहि तहु । ता सुरवरु सारउ वसु-गुण-धारउ पर सरेवि थिउ सो वि लहु ॥ 15
जंपइ भो बुज्झहि जणणि सारु को कासु राहु को कासु भिच्चु मोहे बद्धउ मे मे करेइ अनारु रग किज्जइ मोहु अंबि जें लब्भहिँ इच्छिय सयलसुक्ख खरण भंगुरु सयलु म करहि सोउ सहहि जिखायमु सरिवि श्रज्जु श्रवहिए जारिवि हउँ एत्थु आउ
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जं वणि श्रावासिउ कमलवत्त
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हउँ पारण चयमि पुणु इह पएसि ॥ 6 प्रालिंगइ जा रहेण लेवि || 7 किम जणरिण मज्भ हुव सोक्खरासि ॥ 8 जिम सिज्झइ तहि परलोइ कज्जु 11 9 परमवि जाइवि गइमल रिंगद मायइँ करेवि चिर - देह - वेसु किं कंदहि रोवहि मज्भु माय हउँ प्रकयपुण्णु रामेण पुत्तु ॥ 13 रिपच्छइ जागिउ महु सुउ अरणग्धुं ॥ 14
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3.21
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जिणवयणु दयावरु जगह तारु # 1 जार हि संसारु जि मरिण प्रणिच्चु || 2 क्ख कु विकासु रग धरेइ ।। 3 जिधम्मु गहहि मा इह बिलंबि छेइज्जहिँ जें भवदुक्खलक्ख महु पुणु पेच्छहि संजय मोउ हुउ पढम-सग्गि सुर देवपुज्जु तुव बोहरात्थि पयडिय - सुवाउ ॥ 8
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[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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