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इय
छंदु
मुणी
बै
18. गय जिणहरु
मुणिवरु
परिणयवि
जिरगदासिए
खिसि
दिट्ठउ
गिरिवरु
तरु
सुरहरु
जलहि
सिहि
इय
सिविरतरु
सिटुड
1. कि
फलु
इय
सिविरयदंसरण
होसइ
परमेसर
कहि
खणे
2. इय
जिसुणिबि णवजनहरसरेरण
सुणि
130 ]
(इया) 1 / 1 सवि
(छंद) 1/1
( मुरिण ) 16/1
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( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
[ ( जिण ) - ( हर ) 2 / 1]
( मुरिणवर ) 2 / 1
( परिणव + एवि ) संकृ
( जिणदासी) 3 / 1
(forer) 7/1
( दिट्ठअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
( गिरिवर) 1 / 1
3.2
(तरु) 1/1
(सुरहर) 1 /1
( जलहि ) 1 / 1
(fafe) 1/1
अव्यय
और
[ ( सिविरण) + ( अन्तरु) ] [ ( सिविण ) - ( अन्तर ) स्वप्न के भीतर
1/1]
(सिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
(क) 1 / 1 सवि
(फल) 1 / 1
(इ) 6/1 स
[ ( सिविजय) 'य' स्वार्थिक - ( दसरा ) 3 / 1]
(हो) भवि 3 / 1 अक
(परमेसर ) 8/1
( कह ) विधि 2 / 1 सक
(खण) 3 / 1 क्रिविअ
( इय) 2 / 1 स
( णिसुण + इवि ) संकृ
[[ (राव) वि- (जलहर ) - (सर) 3 / 1] वि]
( सुरण ) विधि 2 / 1 सक
यह
छंद
मुनि के द्वारा
गये
जिन-मन्दिर
मुनिवर को
प्रणाम करके जिनवासी के द्वारा रात्रि में
देखा गया
श्र ेष्ठ पर्यंत
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कल्पवृक्ष
इन्द्र का निवास
समुद्रः
अग्नि
कहा गया
EECE E
स्वप्न (-समूह ) के दर्शन से
हे परमेश्वर
1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है ( है. प्रा.व्या. 3-134 ) ।
कहें.
तुरन्त
इसको
सुनकर
नये मेघ के समान ( गंभीर)
स्वरबाले
सुनो
[ अपभ्रंश काव्य सौरभ
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