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________________ कर (कर) 2/1 हाय में पोले काले 6. पीयई कसणइं लोहियसुक्कई तक्के विक्कइ सो माणिक्कई इपीय) 2/2 वि (कसण) 2/2 वि [(लोहिय) वि-(सुक्क ) 2/2 वि] (तक्क) 3/1 (विक्क) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (माणिक्क) 2/2 लाल और सफेद छाछ के प्रयोजन से बेचता है वह मारिणक्यों को जो मगुयत्तणु भोएं णासह (ज) 1/1 सवि (मणुयत्तण) 2/1 (भोअ) 3/1 (पास) व 3/1 सक (त) 3/1 स (समारण) 1/1 (हीण) 1/1 वि (क) 1/1 सवि (सीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से नष्ट करता है उसके समान हीन कौन कहा जाता है समाणु होणु सीसह 8. चित्त को समत्व में चित्तु समत्तरिण य रिणयत्तइ (चित्त) 2/1 (समत्तण) 7/1 अव्यय (णियत्त) व 3/1 सक (पुत्त) 2/1 (कलत्त) 2/1 (वित्त) 2/1 (सं-चित) व 3/1 सक नहीं लगाता है पुत्र को (को) स्त्री (पत्नी) को धन की अत्यन्त चिन्ता करता है कलस्तु वित्तु संचित मरइ रसरणफंसणरसबउ मे-मे-मे करन्तु (मर) व 3/1 अक [(रसरण)-(फंसण)-(रस)-(दड्डअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय (कर) वकृ 1/1 अव्यय (मेंढअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक मरता है रसना (जिह्वा) और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ मे-मे (शब्द) करता हुआ जिस प्रकार मेंढ़ा जिह मेंढउ 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-137)। 2. प्रयोजन के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है । 76 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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