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________________ तियहे। स्त्री के द्वारा पत्तिज्जन्ति मरन्त वि (तिया) 6/1 (ण) 1/2 सवि (प्रा) (पत्ति→पत्तिज्ज) व कर्म 3/2 सक (मर-→मरन्त→(स्त्री)मरन्ता) वकृ 1/1 अव्यय विश्वास किये जाते हैं मरती हुई चाहे 9. खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहे पउराणियहे कुलुग्णयहे रयणायरु खारई देन्तउ तो वि ण थक्का णम्मयहे (खड) 2/1 घास-फूस को (लक्कड) 2/1 लकड़ी को (सलिल) 1/1 पानी (वह→वहन्त→(स्त्री) वहन्ति→वहन्तिय) ले जाती हुई वक 6/1 'अ' स्वार्थिक (पउराण→पउराणिय) 6/1 वि 'य' स्वार्थिक प्राचीन (का) (कुल)+(उग्गयहे)][(कुल)-(उग्गया)6/1 वि] पवित्र (का) (रयणायर) 1/1 समुद्र (खार) 2/2 खार को (दा→देन्त-→देन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक देता हुआ अव्यय तो भी अव्यय (थक्क) व 3/1 अक थकता है (णम्मया) 6/1 नर्मदा का नहीं 83.9 साणु कुत्ता केण वि जणेण गणिज्जइ गङ्गा-णइहिं (साण) 1/1 अव्यय (क) 3/1 स अव्यय (जण) 3/1 (गण) व कर्म 3/1 सक [ (गङ्गा)-(णइ) 7/1] (त) 1/1 स अव्यय (पहा) प्रे व कर्म 3/1 सक नहीं किसी के द्वारा भी जन के द्वारा आदर किया जाता है गंगा नदी में वह पहाइज्जइ नहलाया जाय 2. ससि स-कलंकु (ससि) 1/1 (रा-कलंक) 1/1 चन्द्रमा कलंक-सहित 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)। अपभ्रंश काव्य सौरभ ] [ 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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