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________________ रामेण समरङ्गणं रामरणहो मुहाई श्रालिंगे प्पिण धोरिउ स्वहि विहीसरण करहूँ 1. सो e मुख जो मय-मत्तउ नीव दया-परिचतउ वय चारित विणउ दाण-रणङ्गणे दीगड 2. सरणाइय- वन्दिग्गहै गोग्ग सामिहे श्रवसरे मित्त-परिग्गहे 3. णिय परिहके पर- विहरे ग जुज्जइ तेह पुरिसु विसरण रज्जड 50 1 Jain Education International ( राम ) 3 / 1 राम के द्वारा [ ( समर ) + (अङ्कणे ) ] [ (समर) - ( अङ्गण ) 7/1] युद्धस्थल में ( रामण ) 6 / 1 ( मुह) 2/2 ( आलिङ्ग + एप्पिणु) संकृ (धीरधीरिज ) भूक 1 / 1 (रुव) व 2 / 1 अक ( विहीण ) 8 / 1 अव्यय 77.2 (त) 1 / 1 सवि ( मुअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (ज) 1 / 1 सवि [ ( मय ) - ( मत्तअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वा. ] [[ (जीव ) - (दया) - (परिचत्तअ ) भूकृ 1/1 अनि ] वि] [ ( वय ) - (चारित) - ( विहाअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक ] [ ( दाण ) - ( रणङ्गण ) 7 / 1 ] ( दीणअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक [ (गो) - (ग्गह) 7/1 (arfa) 6/1 ( अवसर ) 7/1 [ ( मित्त) - ( परिग्गह) 7/11 [ ( णिय) वि - (परिहव ) 7/1 [ ( पर) वि- (विहुर) 7/1] अव्यय ( जुज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि ( अ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक ( पुरिस ) 1/1 ( विहीण ) 8 / 1 ( रुज्जइ ) व भाव 3 / 1 अक अनि रावण के मुखों को छाती से लगाकर धीरज बंधाया गया रोते हो हे विभीषण क्यों [ ( सारण ) + (आइय ) + ( वन्दिग्गहे ) ] शरण में आए हुए के लिए, [ ( सारण ) - (आइय ) भूक अनि - ( वन्दिग्मह) 7/1] ( दोषियों को ) कैदीरूप में पकड़ने में गाय के संरक्षरण में स्वामी के समय में मित्र की सहायता में For Private & Personal Use Only यह मरा हुआ जो अहंकार के नशे में चूर जीव दया छोड़ दी गई ( जिसके द्वारा ) व्रत और चारित्र से हीन दान और युद्धस्थल में भीरु निज का अपमान होने पर दूसरे के दुःख में नहीं लगा जाता है सा पुरुष हे विभीषण रोया जाता है [ अपभ्रश काव्य सोरभ www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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