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________________ मंतिवि पुणु भयतट्टउ पच्छउ बलिवि णिएवि वरिण रगट्टउ (मंत + इवि) संकृ विचारकर अव्यय फिर । (भय)-(तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक] भय से कांपा अव्यय पीछे की ओर (वल + इवि) संकृ मुड़कर (णिअ+ एवि) संकृ देखकर (वण)7/1 जंगल में (गट्ठअ) भुकृ 1/। अनि 'अ' स्वार्थिक छिप गया बोल्लावहि बुलाते (थे) गिहि आवहि एहि (त) 1/2 सवि (बोल्ल+आव) प्रे. व 3/2 सक अव्यय (गिह) 7/1 (आव) विधि 2/1 सक (ए) विधि 2/1 सक अव्यय [(भय)-(वस) 1/1 वि] (धाव) विधि 2/1 मक घर में प्रानो आओ मत भय के अधीन भागो भयवसु धावहि 6. वच्छउलई रिणयगेहि पराणिय बछड़ों के समूह निज घर में पहुंच गए [(वच्छ)-(उल) 1/2] [(रिणय) वि-(गेह) 7/1] (पराणिय) भूकृ 1/2 अनि (तुम्ह) 1/1 स अव्यय (थक्क) विधि 2/1 अक अव्यय (मइ) 3/1 (जारण) भूकृ 1/1 थक्कु ग ठहरा नहीं बुद्धि से समझा गया मइए जारिणय तुम्हारी तुज्झु जरिए तुअ→तुक दुक्खें (तुम्ह) 6/1स (जणरिण) 1/1 (तुम्ह) 6/1 स (दुक्ख) 3/1 (सल्ल→सल्लिय→सल्लिया) भकृ 1/1 अव्यय (वरण) 7/1 (जा) विधि 2/1 सक माता तुम्हारे दुःख द्वारा दुःखी की गई है। मत वन में सल्लिय वरिण जाहि जा, कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है(हे.प्रा.व्या. 3-135) 148 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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