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________________ पकड़ता है पाव हि सुक्खु (पाव) व 2/1 सक (सुक्ख) 2/1 (महंत) 2/1 वि महंतु विपुल 10. मूढा खयलु वि कारिमउ हे मूर्ख सब बनावटी मत स्पष्ट तुस कंडि सिवपइ रिणम्मलि करहि (मूढ) 8/1 वि (सयल) 1/1 वि अव्यय (कारिमअ) 1/1 वि अव्यय (फुड) 2/1 वि (तुम्ह) 1/1स (तुस) । (कंड) विधि 2/I सक {(सिव)-(पअ) 7/1] (णिम्मल) 7/1 वि (कर) विधि /1 सक (रइ) 2/1 (घर) 2/1 (परियण) 2/1 . . अव्यय (छड) संकृ भूसे को कूट शिवपद में निर्मल कर अनुराग घर (को) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर घर परियणु लहु छंडि 11. विसयसुहा विषय-सुखा दो दिन के और फिर दुःखों का दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि भुल्लउ जीव [(विसय)-(सुह) 1/2] (दुइ) 6/2 वि (दिवह + अड) 6/2 'अड' स्वार्थिक अव्यय (दुक्ख) 6/2 (परिवाडि) 11 (भुल्लअ) भूक 8/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (जीव) 8/1 अव्यय (वह→वाह) प्रे विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/I स [(अ.1→अप्पा) वि-(वंध) 7/1] (कुहाडि)/1 भूले हुए हे जीव मत चला वाहि तुहं अप्पाखधि कुहाडि अपने कंधे पर कुल्हाड़ी 12. उबलि (उव्वल) विधि 2/1 सक उपलेपन कर 1. समास में ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है (हे.प्रा.व्या. 1-4) । अपभ्रंश काव्य सौरम । 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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