SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जणरिगए बिहणिय (जणरणी) 3/1 [(णिहण)+ (इय)] (णिहण) 4/1 (इय) 6/1 स (भवसर) 6/1 माता के विनाश के लिए इस संसार सरोवर के भवसरह 5. हर्ड बच्छउलहं रक्खरगह गउ बछड़ों के समूह की रक्षा के लिए गया (अम्ह) 1/1 स [(वच्छ)-(उल) 6/2] (रक्खण) 4/2 (गअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (सुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वाथिक अव्यय [[(विगय) भूकृ अनि -(मअ) 1/1] वि] तहि वहाँ सुत्तउ जावहि विगय-भाउ सो गया जैसे ही नष्ट हुआ, भय 6. पवणाहय वाय से आघात प्राप्त रिणय आय [(पवरण)+ (आहय)] [(पवण)-(आय) भूक 1/2 अनि] (त) 1/2 स (णिय) 7/1 वि (आय) भूकृ 1/2 अनि (घर) 7/1 (अम्ह) I/1 स [(भय)-(भीयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा.] [(कंदरी→कंदरि)2-(विवर) 7/1] अपने आ गये घर में घरि भयभीयउ कंदरि-विवरि भय से कांपा हुमा गुफा के द्वार पर थक्कउ तहि आयम सुरिणत संसार-सरूवउ (थक्क) व 1/1 अक अव्यय (आयम) 1/1 अव्यय (सुण) भूकृ 1/1 [(संसार)-(सरूवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (चित्त) 7/1 (मुण) भूकृ 1/1 बैठा वहां प्रागम बहुत सुन गया संसार का स्वरूप और चित्त में समझा गया चित्ति मुरिएउ 8. जा अव्यय 1. चतुर्थी एवं षष्ठी पु. नपु. एकवचन में 'हु' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 150)। 2. कभी-कभी समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है (हे.प्रा.व्या. 1-4)। अपभ्रश काव्य सौरभ ] [ 153 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy