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________________ अप्परगा पयडा स्वयं के प्रकट करता है करई परस्सु तसु दूसरे के उस (को) (अप्प) 6/1 वि (पयड) 2/1 वि (कर) व 3/1 सक (पर) 6/1 वि (त) 6/1 सवि (अम्ह) 1/1 स [(कलि)-(जुग) 7/1] (दुल्लह) 6/1 वि (बलि) 2/1 (कि+ज्ज) व 1/1 सक (सुअण) 6/1 मैं कलियुग में दुर्लभ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्ज सुअगस्सु पूजा (को) करता हूँ सज्जन की दइनु घडावह वणि तनहुँ सउरिणहं पक्क फलाई देव (ने) बनाता है (बनाये) वन में वृक्षों के पक्षियों के लिए पके फल सो (दइव) 1/1 (घडाव) ब 3/1 सक (वरण) 7/1 (तरु) 6/2 (सउणि) 4/2 (पक्क) 2/2 वि (फल) 2/2 (त) 1/1 सदि अव्यय (सुक्ख) 1/1 वि (पइट्ठ) भूकृ 1/2 अनि अव्यय अव्यय (कण्ण)7/2 [(खल) वि-(वयण) 1/2] वह श्रेष्ठ बरि सुक्खु पट्ट वि प्रवेश (प्रविष्ट) हुआ नहीं पादपूरक कानों में दुष्टों के वचन काहिं खल-वयणाई 5. धवलु विसूरइ सामि अहो गरआ भरु पिक्खेवि (धवल) 1/1 (विसूर) व 3/1 अक (मामि) 6/1 अव्यय (गरुअ) 2/1 वि (भर) 2/1 (पिक्ख) संक (अम्ह) i/1 स अव्यय उत्तम बैल खेद करता है स्वामी के सम्बोधनार्थक बड़े (को) भार को देखकर कि क्यों 1. कभी-कभी क्रिया और काल के प्रत्यय के बीच में 'जज' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है (हे.प्रा.व्या.) । 166 ] [ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001710
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1992
Total Pages358
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, L000, & L040
File Size13 MB
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