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वोल्लाविय एत्तहे वि तुरन्तें विणि वि विण्णवन्ति पणमन्तिउ । 'देव देव जइ हुवहु डज्झइ जइ पायाले णहङ्गणु लोट्टइ जइ उप्पज्जइ मरणु कियन्तहाँ जइ प्रवरें उग्गमइ दिवायरु एउ असेसु वि सम्भाविज्जइ
लङ्कासुन्दरि तो हणुवन्ते ॥2 सीय-सइत्तरण-गव्वु वहन्तिउ ॥3 जइ मारुउ पड-पोट्टले वज्झइ ।। 4 कालन्तरण कालु जइ तिट्ठइ ॥5 जइ णासइ सासणु अरहन्तहाँ ॥6 मेरु-सिहर जइ रिणवसइ सायरु ॥7 सोयह सोलु ण पुणु मइलिज्जइ ॥8
घत्ता-जइ एव वि गउ पत्तिज्जहि तो परमेसर एउ करें ।
तुल-चाउल-विस-जल-जलपहँ पञ्चहँ एक्कु जि दिव्य धरै'॥9
83.5
तं रिणसुरण वि रहुवइ परिप्रोसिउ
एव होउ' हक्कारउ पेसिउ ॥1
घत्ता-'चडु पुप्फ-विमारणे मडारिएँ मिलु पुत्तहँ पइ-देवरहें।
सहुँ अच्छहिँ मझ परिठिय पिहिमि जेम चउ-सायरहें' ॥9
83.6
तं णिसुवि लवणंकुस-मायएँ णिठ्ठर-हिययहाँ अ-लइय-णामहाँ घल्लिय जेरण रुवन्ति वणन्तर जहिँ माणुसु जीवन्तु वि लुच्चइ तहिँ वणे घल्लाविय अण्णाणे
वुत्तु विहीसणु गग्गिर-वायएँ ॥1 जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहाँ ॥2 डाइरिण-रक्खस-भूय-भयङ्कर ॥3 विहि कलि-कालु वि पाणहुँ मुच्चइ ।। 6 एवहिं किं तहाँ तणेण विमाणे ॥7
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अपभ्रंश काव्य सौरम
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