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णिवसइ
बंभू
परु
देह देहहं
-
म
ཝཱ ;
करि
ਸੋਚ
14. जे
दिट्ठे
तुट्टन्ति
लह
कम्मइँ
पुण्व कियाइँ
सो
परु
जाहि
जोइया
देहि
वसंतु
ए
काई
15. जित्यु
ण
इंबिय सुह दुह
जित्यु
श
मरण-वावारु
सो
श्रप्पा
मुि
जीव
तु तुहुं
180 ]
( णिवस ) व 3 / 1 अक
( बंभ ) 1/1
( पर) 1 / 1 वि
(देह) 26/2
अव्यय
(कर) विधि 2 / 1 सक
(भेअ ) 2 / 1
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(ज) 3 / 1 सवि
(दिट्ठ) भूकृ 3 / 1 अनि
(तुट्ट) व 3/2 अक
अव्यय
(कम्म) 1/2
[ ( पुव्व) - ( कि किय) भूक 1 / 2 ]
(त) 1 / 1 सवि
( पर) 1 / 1 सवि
(जारण) विधि 2 / 1 सक
( जोइय) 8 / 1 'य' स्वार्थिक
(देह) 7/1
(वस ) वकृ 1 / 1
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय
[ ( इंदिय) - ( सुह ) - (दुह ) 1 / 2]
अव्यय
अव्यय
[ ( मण ) - ( वावार ) 1/1]
(त) 1 / 1 सवि
( अप्प ) 1/1
( मुण) विधि 2 / 1 सक (ita) 8/1 (तुम्ह) 1/1
रहता है
आत्मा
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परम
देहों में
मत
कर
भेद
जिसके
अनुभव किए गए होने के
कारण
नष्ट हो जाते हैं
शीघ्र
कर्म
पूर्व में किए गए
वह
परम
समझ
हे योगी
1. यहाँ 'देहहं' का हस्व रूप बताने के लिए 'देहहँ' किया गया है (हे. प्रा.व्या. 4 - 441 ) ।
2. कभी - कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे. प्रा.व्या. 3-134 ) ।
देह में बसते हुए
नहीं
क्यों
जहाँ
नहीं
इन्द्रिय-सुख-दुःख
जहां
नहीं
मन का व्यापार
वह
आत्मा
समझ
हे जीव
त
[ अपभ्रंश काव्य सौरम
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